कब सुधरोगे तुम...?: एक नया राज: झिलमिलाती गलियाँ, #3
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सदियों पुरानी कहावत है की 'जो जैसा करता है उसे उसका उसी तरह का परिणाम भी मिलता है'। लेकिन कभी-कभी अच्छे लोगों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। वैसे भी ये दुनिया तो सुख और दुःख का संगम है। यहाँ पर हर इंसान को सुख और दुःख दोनों तरह के समुन्दर को पार करना पड़ता है और यही सार्वभौमिक सत्य है।
S. H. Wkrishind
एस एच व्कृषिंद ने दिल्ली विश्वविद्यालय से गणित विषय में बीएससी पूरा किया। तीन चीजें उन्हें सबसे ज्यादा पसंद हैं - पहली लेखन, दूसरी प्रकृति और तीसरी संगीत। स्नातक होने के साथ ही लेखक बनने के अपने सपने को साकार करने के लिए साहित्य की दुनिया में उनका पहला कदम एक काल्पनिक साहित्यिक रचना के माध्यम से रहा।
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कब सुधरोगे तुम...? - S. H. Wkrishind
पहले संस्करण के लिए
इस किताब में चित्रित सभी घटनाएँ पहले प्रकाशित हुई सभी संस्करणों का शुद्ध रूप हैं। पहले प्रकाशित सभी संस्करण, जो अलग-अलग शीर्षकों से और लेखक के मूल नाम से प्रकाशित हुई थीं, इस संस्करण के प्रारूप थे। पहले प्रकाशित हुई किसी भी संस्करण या इस संस्करण का लेखक के या फिर किसी अन्य के व्यक्तिगत जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं हैं। और अगर किसी के व्यक्तिगत जीवन की कहानी इस रचना में चित्रित किसी भी घटना से मिलती-जुलती है तो वह सिर्फ़ एक संयोग है।
पिछले सभी प्रारूपों में कुछ ऐसी घटनाएँ भी थीं जो लेखक ने किसी और के सुझाव से लिखा था, जो पढ़ने पर पाठक के मन में कुछ अलग ही असर डालती थीं। पिछले सभी प्रारूप सिर्फ़ परीक्षण के उद्देश्य से प्रकाशित किए गए थे।
- एस. एच. व्कृषिंद
समर्पित
मैं अपने माता-पिता को धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने मुझे मेरे इस काम के लिए प्रोत्साहित किया।
मैं उन सभी लोगों का भी धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने जाने-अनजाने में आलोचनाओं के ज़रिए आगे बढ़ने में मेरी मदद की।
- एस. एच. व्कृषिंद
पड़ोस में खाने पर निमंत्रण
मैं (लेखक), तर्पण के साथ पार्क में बैठा उसके जीवन में घटित घटना को सुन रहा था, जिसके लिए उसने मुझे बुलाया था और कुछ मुख्य-मुख्य बिंदुओं को अपनी डायरी में लिखता जा रहा था...
मैं (तर्पण), अत्सर और अंकुर तीनों लोग प्रिया के घर पर दावत खाने जा रहे थे। हम लोगों ने जल्दी से अपना-अपना काम खत्म किया और प्रिया के घर पहुँच गए। हम लोगों ने जाते ही हल्ला मचाना शुरू कर दिया। अरे खाना ले कर आओ। अरे हम लोग अकेले ही हल्ला नहीं मचा रहे थे। हमारे साथ प्रिया भी थी। वो हर काम में आगे थी। बस पढ़ने के लिए ना कहो उसे।
थोड़ी देर बैठने के बाद, हमारे सामने अच्छे-अच्छे पकवान आने लगे। प्रिया की मम्मी ने आज खीर बनाया था। रिया (प्रिया के बुआ की बेटी) को खीर बहुत पसंद थी। इसलिए उन्होंने आज खीर बना रखा था। खीर के साथ रिया कुछ अच्छी सी मसालेदार सब्जियां और कुछ पूरियाँ लेकर आई। इतना खाना देखकर सबके मुँह में पानी आ गया। खीर केवल रिया को ही नहीं, बल्कि प्रिया को छोड़कर हम सब को भी पसंद थी। प्रिया को खीर पसंद नहीं थी। इसलिए उसकी पसंद का एक पकवान और बना था। जिसे हम लोग सेवईं कहते हैं। ये पकवान हमारे इंडिया में बहुत प्रसिद्ध है। लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं। अब रिया को सबसे ज्यादा खीर पसंद थी, तो प्रिया को सेवई। लेकिन अर्पिता (प्रिया की बड़ी बहन) को सब अच्छा लगता था। वो खाने-पीने में ज्यादा नखरे नहीं करती थी। उसके ज्यादा नखरे ना होने की वजह से ही अंकुर उसे पसंद करता था। नखरे ज्यादा रिया भी नहीं करती थी, जितना प्रिया के नखरे थे। वो अपने मम्मी के बनाए हुए हर खाने में नुस्क निकालती थी। बस सेवईं को छोड़कर। हाँ, एक बात तो थी की वो रिया के खाने में कभी नुस्क नहीं निकालती थी। रिया के खाने में तो कोई भी कभी नुस्क नहीं निकालता था। वो इतना अच्छा खाना बनाती ही थी की कोई भी उंगलियाँ चाटता रह जाए। उसके हाथों में जादू था। इसीलिए तो जो भी प्रिया के घर आता, वो रिया के हाथ का खाना-खाने के बाद रिया को अपने घर का बहू बनाने का सपना देखने लगता। लेकिन रिया के मामा सबको मना कर देते थे। उनका कहना था की जो इंसान किसी लड़की को खाना बनाने की वजह से खुश होकर, उसे अपने घर की बहू बनाने की सोचता हो उसके घर में वो लड़की कभी खुश नहीं रह सकती। क्योंकि ऐसे घर में लड़की जाकर केवल खाना बनाने के लिए ही रह जाएगी। उसका पूरा दिन, पूरे घर वालों के लिए खाना पकाने में ही चला जाता है।
खाना आते ही हम सबने खाने पर ध्यान लगाया। वैसे भी बहुत दिन के बाद ऐसा खाना-खाने के लिए मिला था, नहीं तो इससे पहले हम लोग चावल उबाल-उबाल कर ही खा रहे थे। रोटी का दर्शन किये हुए तो हमें महीनों बीत जाते थे। ऐसा इसलिए नहीं था की हमारे पास रोटी बनाने के लिए संसाधन नहीं थे, ये सब हमारे अंदर उपस्थित आलस्य की वजह से था। इतिहास गवाह है की छात्र हमेशा से खाना पकाने में सबसे आलसी रहा है। हम सब बचपन से रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण में देखते आ रहे हैं की उस समय भी छात्र चावल पकाकर ही खाते थे और अपना पेट भरते थे। जब भी रामायण में छात्र को खाना-खाते दिखाया गया है, हमेशा चावल ही खाते दिखाया गया है। ये सब तो छोड़ो, हम लोग तो खाना-खाने के लिए पीतल या फिर स्टील के बने बर्तन का इस्तेमाल कर लेते हैं। वो लोग तो पत्ते में ही खाना-खाते थे। ऐसा इसलिए नहीं की पत्ते में खाना-खाने से शुद्ध होता है बल्कि इसलिए की बार-बार थाली नहीं धोना पड़ेगा। नहीं तो आप ही सोचो, क्या उस समय पानी की