प्रलय से परिणय तक
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प्रस्तुत कहानी है तो आधुनिक युग की मगर इस युग में भी वे पौराणिक प्रसंग घटित होते रहते हैं, जो प्राचीनकालिक राक्षसों/दानवों द्वारा वायुमंडल को दूषित करते रहते थे। सृष्टि निर्माण के समय विधाता ने निश्चित ही कुछ इंसानों में हैवानी हवस इतनी कूट कूट कर भर दी होगी, जो युगों से मानवता को कलंकित करते आ रहे हैं। ये ऐसे रक्तबीज हैं जिनके जीवाश्म सदियों तक फिर-फिर आकार लेकर अपने दुष्कर्मों से इतिहास को दोहराते रहते हैं। फिर चाहे कितने भी अवतार जन्म लेते रहें मगर इन रक्तबीजों का जड़ मूल से समापन असंभव हो जाता है, क्योंकि इनका पोषण उजले चेहरों वाले छिपे हुए रक्तबीजों द्वारा ही होता आया है अतः ये रूप बदल-बदल कर हर युग के अवतारों पर भी हावी होते रहते हैं।
ऐसे ही किसी रक्तबीज की हवस का परिणाम थी, दिल्ली के एक अभावग्रस्त अनाथालय में पलने वाली एक अबोध बालिका नयना...जिसे जन्म देकर एक शिशु-अनाथाश्रम के बाहर टंगे हुए पालने में छोड़कर उसकी माँ ने यमुना में कूदकर जान दे दी थी। उसने अपनी नवजात बच्ची के साथ रखे हुए अपने सुसाइड नोट में आत्महत्या का कारण स्पष्ट लिखा था मगर उस औरत की हैसियत या पहचान गौण रही होगी अतः उस रक्तबीज को उजले मुखौटों वाले रक्तबीजों द्वारा निर्दोष करार देकर फ़ाइल बंद कर दी गई थी।
कल्पना रामानी
६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्म। कंप्यूटर से जुड़ने के बाद रचनात्मक सक्रियता। कहानियाँ, लघुकथाओं के अलावा गीत, गजल आदि छंद विधाओं में रुचि.लेखन की शुरुवात -सितम्बर २०११ सेरचनाएँ अनेक स्तरीय मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही अंतर्जाल पर लगातार प्रकाशित होती रहती हैं।*प्रकाशित कृतियाँ-१)नवगीत संग्रह- “हौसलों के पंख”(२०१३-अंजुमन प्रकाशन)३)गीत-नवगीत- संग्रह-“खेतों ने ख़त लिखा”(२०१६-अयन प्रकाशन)४)ग़ज़ल संग्रह- संग्रह मैं ‘ग़ज़ल कहती रहूँगी’(२०१६ अयन प्रकाशन)*पुरस्कार व सम्मान-पूर्णिमा वर्मन(संपादक वेब पत्रिका-“अभिव्यक्ति-अनुभूति”)द्वारा मेरे प्रथम नवगीत संग्रह पर नवांकुर पुरस्कार से सम्मानित-कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब में प्रकाशित कहानी 'कसाईखाना' कमलेश्वर स्मृति पुरस्कार से सम्मानित- कहानी 'अपने-अपने हिस्से की धूप" प्रतिलिपि कहानी प्रतियोगिता में प्रथम व लघुकथा "दासता के दाग" के लिए लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित*सम्प्रतिवर्तमान में वेब पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका- अभिव्यक्ति-अनुभूति(संपादक/पूर्णिमा वर्मन) के सह-संपादक पद पर कार्यरत।
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प्रलय से परिणय तक - कल्पना रामानी
प्रस्तुत कहानी है तो आधुनिक युग की मगर इस युग में भी वे पौराणिक प्रसंग घटित होते रहते हैं, जो प्राचीनकालिक राक्षसों/दानवों द्वारा वायुमंडल को दूषित करते रहते थे। सृष्टि निर्माण के समय विधाता ने निश्चित ही कुछ इंसानों में हैवानी हवस इतनी कूट कूट कर भर दी होगी, जो युगों से मानवता को कलंकित करते आ रहे हैं। ये ऐसे रक्तबीज हैं जिनके जीवाश्म सदियों तक फिर-फिर आकार लेकर अपने दुष्कर्मों से इतिहास को दोहराते रहते हैं। फिर चाहे कितने भी अवतार जन्म लेते रहें मगर इन रक्तबीजों का जड़ मूल से समापन असंभव हो जाता है, क्योंकि इनका पोषण उजले चेहरों वाले छिपे हुए रक्तबीजों द्वारा ही होता आया है अतः ये रूप बदल-बदल कर हर युग के अवतारों पर भी हावी होते रहते हैं।
ऐसे ही किसी रक्तबीज की हवस का परिणाम थी, दिल्ली के एक अभावग्रस्त अनाथालय में पलने वाली एक अबोध बालिका नयना...जिसे जन्म देकर एक शिशु-अनाथाश्रम के बाहर टंगे हुए पालने में छोड़कर उसकी माँ ने यमुना में कूदकर जान दे दी थी। उसने अपनी नवजात बच्ची के साथ रखे हुए अपने सुसाइड नोट में आत्महत्या का कारण स्पष्ट लिखा था मगर उस औरत की हैसियत या पहचान गौण रही होगी अतः उस रक्तबीज को उजले मुखौटों वाले रक्तबीजों द्वारा निर्दोष करार देकर फ़ाइल बंद कर दी गई थी।
नयना...! यह नाम भी उसे शिशु अनाथालय द्वारा उसकी बड़ी-बड़ी बोलती आँखों के आधार पर दिया गया था। वैसे तो उस आश्रम के नियमानुसार नवजात शिशुओं को किसी न किसी ज़रूरतमंद निःसंतान दम्पतियों को गोद दे दिया जाता था लेकिन जो बच्चे दो वर्ष की उम्र तक किसी की गोद नहीं जाते, उन्हें बड़े बच्चों के अनाथाश्रम में भेज दिया जाता था। नयना भी उन्हीं बच्चों में से ही थी जिन्हें इस समय सीमा तक गोद जाने का कोई अवसर नहीं मिला था। अतः उसे निर्मला देवी अनाथालाय
को सौंप दिया गया था, जहाँ २ से २० वर्ष तक के बच्चों को रखा जाता था।
नयना ने जब से होश सँभाला, स्वयं को उस अनाथालय की चौखट के अन्दर ही पाया। दुबली और कुछ लम्बी काया, चेहरा प्रातः किरण जैसा उर्जावान, नैन नक्श धारदार, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी भूरी आँखें और सुनहरी सघन केश-राशि की मालकिन थी वो... लेकिन अपनी इन खूबियों के बारे में अनजान वो भोली बालिका हमेशा एक उदासी ओढ़े हुए ही दिखती थी। आश्रम की संचालिका शैलजा को वो अन्य सभी बच्चों के समान आंटी बुलाती थी। जो मिल जाता चुपचाप खा लेना और बाकी समय हमउम्र बच्चों के साथ खेलना ही उसकी दिनचर्या थी।
छः वर्ष की होने पर वो आश्रम के निकट बने हुए अनाथालय के ही स्कूल में पढ़ने के लिए जाने लगी और माँ-पिता की परिभाषा से परिचित हुई। नयना अब उस परिवार का हिस्सा बन चुकी थी और उस जीर्ण-शीर्ण भवन को ही अपना घर मानने लगी थी।
वैसे तो उस आश्रम में चार कमरे, एक कार्यालय, एक रसोई, एक भोजन कक्ष बना हुआ था मगर वहाँ पलने वाले ४० बच्चों के लिए वो अपर्याप्त था। उस अनाथालय में बच्चों के लिए न तो धुले वस्त्र उपलब्ध होते न ही सोने के लिए पर्याप्त स्थान...रात में ज़मीन पर ही मैली कुचैली चादर या दरी डाल दी जाती थी। दो कमरों में लगभग २० बालिकाएँ और दूसरी तरफ के दो कमरों में उतने ही बालक सिकुड़कर सो जाते थे। दिन में सबको एक साथ रखा जाता था और रात में लड़कों को अपने विभाग में भेज दिया जाता था। ओढ़ने के लिए भी एक चादर में दो बच्चों को काम चलाना होता और सर्दियों में तो तीन-तीन बच्चे एक ही फटे-पुराने कम्बल से सर्दी की ठिठुरन का सामना करने को मजबूर होते थे।
खाने के नाम पर उन्हें कभी सादे पानी में नमक मिर्च का छौंक लगाकर सूखी रोटियों के साथ दिया जाता तो कभी उबले हुए आलू पानी में घोलकर दे दिये जाते। पेट भर मिले तो यही उनके लिए छप्पन भोग और पकवान थे, अन्यथा इसके लिए भी कभी कभी तरसना पड़ता और भूखे पेट ही सोना पड़ता। ये बच्चे और किसी स्वाद से तभी परिचित होते जब किसी विशेष अवसर पर कोई दान-दाता उन्हें भोजन करवाने आ जाता। धुले हुए वस्त्र भी जब कोई निरीक्षण करने आता तभी पहनने को मिलते थे। सौंदर्य-प्रेमी नयना का बालमन अच्छा पहनने-ओढ़ने-खाने के लिए न जाने कितने ताने-बाने बुनता रहता मगर मजबूरी में वो शक्ति ही कहाँ होती है जो विरोध का स्वर निकाल सके?
छोटी सी उम्र में ही परिस्थितियों ने उसे इतना समझदार बना दिया था कि अनाथालय की सारी अनियमितताओं को वो बखूबी समझने लगी थी। वो देखा करती थी उन दान-दाताओं को, जो किसी न किसी अवसर पर नए वस्त्र, चादरें, कम्बल आदि शैलजा आंटी को सौंपकर जाते थे मगर बच्चों को उनका स्पर्श भी नसीब नहीं होता था। वो अनाथालय में काम करने वाले कर्मचारियों की बातों से यह भी जानने लगी थी कि शैलजा आंटी का उस आश्रम में रहने के बावजूद एक भरा-पूरा परिवार था और उसके परिजन मिलने के लिए आते रहते थे। मगर वे उनके साथ क्यों नहीं रहतीं यह बात कोई नहीं जानता था।
जब भी कोई भलामानस बच्चों के जन्म दिन पर स्वादिष्ट खाद्य सामग्री उन अनाथ बच्चों के लिए देकर जाता तो नयना घूम-घूम कर सभी बच्चों को खुश होकर बताती कि आज उन्हें बढ़िया भोजन खाने को मिलेगा मगर शाम होते ही शैलजा के परिजन आते और खूब जी भरकर खा-पीकर लौट जाते। उस दिन उन्हें देर तक भोजन का इंतजार करना पड़ता और जो कुछ बचा रहता वो चखने मात्र के लिए उन्हें दिया जाता था। इसी कारण जब भी कोई नया बालक/ बालिका वहाँ लाया जाता, नयना और भी उदास हो जाती थी।
ऐसे में बरसाती मौसम में एक दिन जब एक नया बालक उस अनाथालय में लाया गया तो उसे मीनू के साथ देखकर आश्रम के सभी बच्चे आँखों में उत्सुकता लिए दूर से देखते रहे। मगर मीनू के निकट ही खड़ी नयना कुछ क्षणों के लिए उदास हो गई फिर अगले ही पल उस सुन्दर सलोने बालक को अपनी उम्र का देखकर उसकी आँखों में ख़ुशी की चमक व्याप्त हो गई। वह बड़ा खूबसूरत, गोरा-चिट्टा, गोल-मटोल, भूरी आँखों वाला, शरीर से हृष्ट-पुष्ट बालक था। नयना का मन उससे बातें करने को मचलने लगा। यों वो सभी बच्चों के साथ हिली-मिली थी लेकिन उस बालक का आकर्षण ही अलग था। वो उससे दोस्ती करने के लिए उतावली हो उठी।
मीनू उस बालक को स्टोर से धुले हुए कपड़े और साबुन तौलिया देकर अपने निकट ही खड़ी नयना से बोली-
नयना, यह अमन है, आज से यह भी यहीं सबके साथ रहेगा इसे नहाने का स्थान दिखा दो और शीघ्र ही तैयार होकर सब भोजन कक्ष में आ जाओ।
१४ वर्षीय मीनू, नवीं कक्षा की छात्रा थी, अपनी हमउम्र दो और सहेलियों के साथ स्कूल से वापस आकर रसोई के कामकाज में भी महिला कर्मचारियों का सहयोग करती थी। वो नयना को बहुत प्यार करती थी और नयना को भी मीनू बहुत अच्छी लगती थी। नयना उसे और उसकी दोनों सहेलियों को दीदी कहती थी। यह भी उसे मीनू ने ही सिखाया था। नयना अक्सर उसके आसपास ही मंडराती रहती थी।
जब मीनू दीदी ने उसे ही उस बालक की जवाबदारी सौंपी तो नयना का मन प्रसन्न हो गया। उसकी उदासी पल भर में दूर हो गई। उसने दौड़कर अमन का हाथ पकड़ लिया और लगभग खींचते हुए बाथरूम तक ले आई। अमन हक्का-बक्का सा उसके पीछे खिंचता चला गया और उसका पीछा करती हुई उसकी बीती दास्तान बाथरूम के उखड़े हुए फर्श को देखकर उसके दिमाग के टुकड़े में अपना स्थान आरक्षित करने का प्रयास करने लगी। नयना उसे जल्दी से तैयार होने के लिए कहकर सहेलियों के साथ खेलने में व्यस्त हो गई
अध्याय २ आगरा में बाढ़
बरसात का मौसम था और आगरा शहर में प्रतिदिन कम अधिक वर्षा होती ही रहती थी। अधिक वर्षा होती तो स्कूल की भी छुट्टी हो जाती थी। पिछले सप्ताह भी लगातार भारी वर्षा के कारण स्कूल बंद थे मगर इस सप्ताह के प्रारंभ में ही बिखरे-बिखरे बादल आसमान में सूर्य के साथ आँख मिचौली खेलने लगे थे।
शहर के एक मिशनरी स्कूल की पहली कक्षा के छात्र अमन की माँ प्रमिला ने उसे कुनकुने पानी से नहलाकर स्कूल की यूनीफोर्म में तैयार किया और गले में परिचय-पत्र लटकाकर बाहरी बरामदे में खेलने को कह दिया। फिर घड़ी पर नज़र डाली तो देखा अभी अमन की स्कूल बस आने में काफी देर है। उसके लिए दूध-नाश्ते के साथ ही रसोई के कुछ और कार्य भी हो जाएँगे। यह सोचकर वो रसोई में पहुँच गई। इधर अमन मुख्य द्वार के बाहर बाजू में बने गैराज में रखी हुई कार के आसपास ऊपर लटकते हुए चिड़ियों के घोंसले देखने में व्यस्त हो गया। ये लटकते हुए घोंसले उसके पापा ने मुख्य छत से कुछ नीचे बनी गैराज की छत के कंगूरों से जोड़कर विशेषकर चिड़ियों के लिए ही बनवाए थे। अमन को इन घोंसलों में चिड़ियों को आते जाते देखना बहुत अच्छा लगता था।
प्रमिला ने