Samaj Ki Shakti Stambh Naariyan (समाज की शक्ति स्तम्भ नारियाँ)
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संसार समझता है कि भारत में स्त्रियों को उचित सम्मान नहीं मिलता है। पाश्चात्य सभ्यता में स्त्रियों को समानता का स्थान प्राप्त है । परन्तु यह कहना उचित नहीं है। भारतीय समाज में भी स्त्रियों को समानता का अधिकार प्राप्त था। बल्कि कुछ ज्यादा ही महत्व नारियों को मिलता था। यह तो कुछ समय के लिऐ भारत में मुगल साम्राज्य आने के कारण उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए नारियों को पर्दे में रहना पड़ा। जो कि बाद में कुरीतियों की तरह समाज ने अपना लिया। अब पुनः समाज में नारियों को उनका उचित स्थान दिया जाने लगा है।
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Samaj Ki Shakti Stambh Naariyan (समाज की शक्ति स्तम्भ नारियाँ) - Aruna Trivedi
1. अनुसुइया
भारत में सतियों को एक विशेष स्थान प्राप्त है। पाँच बहुत ही प्रसिद्ध सती हैं। जिनके नाम सुलोचना, मन्दोदरी, सुलक्ष्णा, सावित्री व अनुसुइया हैं। उनमें से अनुसुइया की गणना सबसे पहले होती है। इनके नाम का अर्थ नुकताचीनी या छिद्रान्वेषण न करना होता है। दूसरों के अवगुणों की तरफ ध्यान न देना है।
ब्रह्मा जी के दस मानसपुत्रों में से एक महर्षि अत्रि थे। उन्हें सप्त ऋषियों में गिना जाता है। अनुसुइया उनकी पत्नी थी। प्रजापति कद्रम और देवहूति की नौ कन्यायें थीं। कही लिखा है कि प्रजापति दक्ष की 24 पुत्रियों मे से एक पुत्री अनुसुइया थी।
अनुसुइया ने अपने पति अत्रि मुनि का अपनी सतत सेवा व स्नेह से मन जीत लिया था। इससे प्रसन्न होकर अत्रि मुनि ने उनको पतिव्रता धर्म ऐसे ही युगों-युगों तक निभाने का आर्शीवाद दिया था। वे पतिव्रता धर्म निभाने वाली तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ नारी थीं। उनके आश्रम में आये हुए कोई भी मुनि पशु पक्षी या अन्य कोई प्राणी बिना भोजन के नहीं जाता था। उनकी पतिभक्ति अर्थात सतीत्व के तेज का प्रभाव इतना था कि आकाश में जाते हुए देवों को भी उनके प्रताप का अनुभव होता था। इस कारण ही वे सती कहलाती थीं। उसके बल पर वे कुछ भी कर सकने में समर्थ थीं। बस उनके जीवन में एक ही कमी थी कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। बस यही एक दुःख उनके जीवन में था।
प्रकृति का नियम है कि स्त्री हो या पुरुष, देव हो या दानव या मनुष्य जो भी तप करेगा अर्थात परिश्रम करेगा उसे उसका फल अवश्य मिलेगा। फल अर्थात उसे विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त होगी। साधारण मानव अपनी तपस्या व कर्तव्य परायणता से क्या प्राप्त कर सकता है कितना महान, असाधारण व शक्तिशाली बन सकता है। वह हमें माता अनुसुइया, श्रवण कुमार, हरिश्चन्द्र आदि महान लोगों के कार्यों से पता चलता है। विश्वामित्र का एक अलग स्वर्ग की रचना करना, माता गायत्री को प्रकट करना तथा विष्णु अवतार राम के गुरु बनने की क्षमता साबित करना आदि इसके उदाहरण हैं। श्रवण ने राम के बराबर का पुत्र होने का मान पाया।
तुलसी दास ने भी राम चरित्रमानस में लिखा है-
तप बल रचई प्रपंचु।
तप बल विष्णु सकल जग त्राता॥
तप बल शम्भु करहि संघारा।
तप बल शेषु धरहि महि भारा॥
तप बल से कुछ भी पा सकते हैं। अनुसुइया के पतिव्रत धर्म व तप की भी महिमा अपार है। सतियों की भी समय - समय पर परीक्षा होती रहती है। अतः उनकी भी परीक्षा हुई थी।
एक बार चित्रकूट व उसके आस-पास के प्रदेशों में भयंकर अकाल पड़ा। दस वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। उस समय अत्रि मुनि व अनुसुइया वहाँ रहने के लिए आये थे। उन्होंने देखा कि पेड़ों पर पत्ते ही नहीं हैं। ठुँठे सूखे पेड़ खड़े थे। जल की बूँद नहीं थी। पशु-पक्षी की क्या कहें कीट तक नहीं दिख रहे थे। आद्रता का नामोनिशान न था।
सामान्य प्राणी अन्न-जल से अपना पोषण करता है परन्तु जो अपने धर्म अर्थात कर्तव्य व तप पर स्थिर रहता है उसके पोषण का दायित्व धर्म पर होता है। उसको प्रकृति की अवस्थाओं से कोई बन्धन नहीं रहता है। अनुसुइया माता ने आँखें बन्दकर माँ गंगा का स्मरण किया।
अनुसुइया ने ध्यान लगाकर कहा - माँ मैं पुकारती हूँ आकर इस निर्जन वन को जल दो।
उनके आँख खोलते ही जहाँ वह खड़ी थी उनके आस-पास से गंगा की धारा फूट निकली। जो मन्दाकिनी कहलाई।
इससे देवलोक, बैकुन्ठ, कैलाश व ब्रह्मलोक सभी स्थान पर उनके यश की गाथा गूँज उठी। सबने उनकी वन्दना की। इससे तीनों देवियों को उनसे ईर्ष्या होने लगी।
भगवान को भी अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है। तब वे नाना प्रकार की लीलायें करते हैं। तीनों देवियों को अपने सतीत्व पर, पतिव्रत धर्म पर बहुत अभिमान था। उसे नष्ट करने के लिए व भक्तनी अनुसुइया का मान बढ़ाने के लिए प्रभु ने नारद मुनि के मन में प्रेरणा की।
एक बार तीनों देवियाँ आपस में बैठकर मित्रता भरी बातें कर रही थी। तभी उस प्रभु की प्रेरणा से आग में घी का काम करने के लिए नारद जी आ गए।
तीनों देवियों ने नारद जी का स्वागत कर कहा- क्या हालचाल हैं आपके। बहुत दिनों में दर्शन दिए।
नारद बोले- मैं अभी घूमते-घूमते चित्रकूट पहुँच गया था। अत्रि मुनि के आश्रम भी गया। माता अनुसुइया के दर्शन भी किए। तीनों लोकों में कोई भी उनके बराबर की पतिव्रता नहीं है।
देवियों ने पूछा- क्या हमसे भी बढ़कर उनका पतिव्रत धर्म है?
नारद - आप क्या तीनों लोकों में कोई भी उनके बराबर की पतिव्रता नहीं है।
नारद ने तीनों देवियों को साथ-साथ व अकेले जब भी मिली यही कहा। नारदमुनि ने त्रिदेवियों को कहा कि आप से बढ़कर सती अनुसुइया हैं। इससे तीनों देवियों को बहुत बुरा लगता है।
वे अपने पतियों अर्थात त्रिदेव से कहती हैं- आप जाकर उनके सतीत्व की परीक्षा लें।
त्रिदेव ने उन्हें बहुत समझाया- आपकी उनसे ईर्ष्या करना उचित नहीं है। आप उनकी परीक्षा लेने का विचार छोड़ दें। कही लेने के देने न पड़ जायें।
त्रिदेवी फिर भी नहीं मानती हैं। तब उनके आग्रह पर त्रिदेव सती अनुसुइया की परीक्षा लेने का विचार बना लेते हैं। यह भी होनी ही थी वरना कही त्रिदेवियों को भी अहंकार व ईर्ष्या हो सकती है? विश्व में सभी को पतिव्रतधर्म की शिक्षा तो त्रिदेवियों से ही मिलती है। जो कि सृजन, पालन व संहार में अपने पति की सम्पूर्ण व्यवस्था देखती हैं। उनमें ईर्ष्या का छुद्रभाव आ ही नहीं सकता। वस्तुतः किसी को भी महान घोषित करने के पहले महान उपलब्धि पाने के पहले परीक्षा देनी पड़ती है। जितनी बड़ी उपलब्धि होगी उतनी ही बड़ी परीक्षा होगी। त्रिदेवियों की परीक्षा की जिद के पीछे परीक्षा का विधान था। त्रिदेव को माता अनुसुइया के तप, सत्य व सतीत्व का ज्ञान था। वह भी इसी कारण परीक्षा लेने आये थे। भगवान प्रत्येक साधारण मानव की परीक्षा नहीं लेते हैं। हर किसी में उनकी परीक्षा में बैठने की योग्यता नहीं होती है। जितना योग्य परीक्षार्थी होगा उतना ही योग्य व समर्थ परीक्षक होगा।
जब त्रिदेव अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचे तब मुनि फल लेने के लिए वन को गए थे। तीनों देव यतियों का वेष धारण कर अनुसुइया के आश्रम पहुँचे। उन्होंने वहाँ जाकर देवी से भिक्षा माँगी।
अतिथि सत्कार की परम्परा के अनुसार चलने वाली अनुसुइया ने त्रिमूर्ति का उचित प्रकार से स्वागत करके उन्हें खाने पर निमंत्रित किया। देवी ने तीनों को आसन व जल दिया। लेकिन अतिथियों ने एक अलग ही माँग रखी।
उन्होंने देवी की परीक्षा लेने के लिए कहा- देवी हमारा एक नियम है। जब तक आप निरावरण होकर मुझे भिक्षा नहीं देगी तब तक वह हमारे किसी उपयोग का नहीं होगा।
तीनों अतिथियों की ऐसी बात सुनते ही देवी समझ गई कि ये कोई साधारण अतिथि नहीं हैं। किसी में मेरे सामने ऐसी भिक्षा माँगने का साहस नहीं है। अवश्य ही कोई विशेष बात है।
अनुसुइया ने अपनी आँखें बन्द कर अपने पति का स्मरण किया। अत्रि मुनि ने उनके मन में विचार पैदा किया कि आप परीक्षा दे दो। ये कोई साधारण साधु नहीं हैं त्रिदेव हैं। हम उनकी सन्तान हैं। माता - - पिता के आगे सन्तान का निरावरण जाना कोई अनुचित कार्य नहीं है।
फिर अनुसुइया के तप के आगे त्रिदेवों की भी कुछ न चल सकी। उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। वे त्रिदेव को अपने आश्रम में पाकर प्रसन्न हो गई।
उन्होंने त्रिदेवों से कहा- जैसी आपकी इच्छा।
अनुसुइया ने हाथ में जल लेकर उनके ऊपर जल छिड़ककर कहा- अगर मैंने पतिव्रत धर्म का सही पालन किया है और अपने पूरे तन- मन-वचन से अर्थात मनसा, वाचा तथा कर्मणा, से उचित प्रकार से अपना कर्म कर रही हूँ तो ये आये हुए तीनों ऋषि छः छः माह के शिशु बन जायें।
त्रिदेव तुरन्त ही छः छः माह के शिशु में परिवर्तित हो गए। वे माता को देखकर किलकारियाँ मारकर हँसने लगे। अनुसुइया माता भी अत्यन्त प्रसन्न हो गईं। उन्हें त्रिदेव की माता बनने का सौभाग्य मिला था। माता ने तीनों को निरावरण होकर अपनी गोद में बिठाकर दुग्धपान कराया। फिर झूले में लिटाकर प्यार से सुला दिया।
वे प्रेमवश बोली- तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गए। मेरे भाग्य को इससे ज्यादा क्या मिल सकता है। वे लोरी गाकर बालकों को सुलाने लगी।
उसी समय मुनि अत्रि फल-फूल लेकर आ गये। माता अनुसुईया ने उन्हें पूरी बात विस्तार से बताई तथा कहा- हमारी बरसों की आकाँक्षा पूर्ण हुई। हम दोनों माता-पिता बन गए। अब ये तीनों हमारे पुत्र हैं।
तीनों बालकों की क्रीड़ा से ऋषि का आश्रम पवित्र बनकर मुखरित होने लगा।
कैलाश, वैकुन्ठ व ब्रह्मलोक में तीनों देवियाँ चिन्तित हो उठीं कि उनके पति अभी तक परीक्षा लेकर क्यों नहीं आये। क्योंकि तीनों की विपत्ति कथा एक ही थी तो तीनों ने आपस में मिलकर सलाह ली कि अब क्या करें?
उसी समय कहीं से एक सफेद बैल अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचा। एक विशाल गरुड पंख फड़फड़ाते हुए आया। एक राजहंस चोंच में कमल दबाकर आया। इस दृश्य को देखकर तीनों देवियाँ समझ गई कि मेरे पति यहाँ ही हैं।
तीनों देवियाँ तथा नारद एक साथ अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचे।
वे तीनों अनुसुइया के द्वार पर आ गईं। आश्रम में पहुँचकर तीनों देवियों ने देखा कि माता अनुसुइया तीनों बालकों को भोजन करा रही हैं। तीनों ने दैवीय शक्ति से अपने पतियों को पहचान लिया व सारी समस्या समझ गईं।
तीनों देवियाँ अनुसुईया के पास जाकर उनसे क्षमा माँगते हुए बोलीं- माता हम अपने पतियों को ढूँढ़ रही थीं। अपने पतियों के वाहनों को आपके द्वार पर देखकर हम समझ गए कि वे आपके ही यहाँ हैं। हम आपकी पुत्रवधुयें हैं। हमारे पतियों को आपकी शक्ति का पहले से ज्ञान था। हमें नहीं था। हमने उन्हें आपकी परीक्षा लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने हमें समझाया भी परन्तु भावी वश हम नहीं समझे। तब वे आपकी परीक्षा लेने के लिए आ गए। अब जब तक आप नहीं चाहेंगी तब तक वे अपना वास्तविक रूप ग्रहण नहीं करेंगे। आप हमारे अपराध क्षमा करें।
तीनों देवियों ने यह कहकर माता अनुसुइया के चरण पर अपना मस्तक रखकर उनके चरण स्पर्श किए।
देवियों ने पुनः कहा- माता अब हम पर कृपा करें। अब हमें हमारे पति प्राप्त हों।
अनुसुइया ने तीनों देवियों को प्रणाम कर कहा - यदि आपके पति झूले में सो रहे बालक ही हैं तो आप उन्हें ले जा सकती हैं।
लेकिन जब तीनों देवियों ने तीनों शिशुओं को देखा तो तीन एक समान लगने वाले शिशु पालने में सो रहे थे। तीनों देवियाँ भ्रमित हो गईं।
नारद उन्हें असमन्जस में देखकर बोले- क्या आप अपने पति को पहचान नहीं पा रही हैं। जल्दी से अपने अपने पति को गोद में उठा लीजिए।
तीनों देवियों ने जल्दी ही एक-एक बालक को उठा लिया। वे बालक एक साथ त्रिमूर्ति में बदल गए। जब देवियों ने देखा कि उन्होंने गलत बालक को उठाया था। सरस्वती जी ने शिवजी को, लक्ष्मी जी ने ब्रह्माजी को व पार्वती जी ने विष्णु को उठाया था। तब तीनों शर्मिन्दा होकर देवों से दूर जाकर खड़ी हो गईं। तीनों ने फिर अनुसुइया से क्षमायाचना की और यह सच बताया कि उन्होंने ही अनुसुइया की परीक्षा लेने के लिए तीनों देवों को बाध्य कर भेजा था। तीनों देवियों ने अनुसुइया से प्रार्थना की कि हमारी गलती को क्षमा करें। हमारे पतियों को पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में ले आयें। तीनों देवियों की प्रार्थना पर अनुसुइया ने देवों को उनके वास्तविक रूप दे दिए।
त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर माता अनुसुइया से कहा कि आप कोई वरदान माँग लें।
माता अनुसुइया ने कहा- अगर आप तीनों मुझसे प्रसन्न हैं तो आप तीनों मेरे पुत्र के रूप में मेरी कोख से जन्म लें तब से ही वे सती के रूप में प्रख्यात हुईं।
तब ब्रह्माजी, विष्णु व महेश तीनों के अंश से महर्षि अत्रि व अनुसुइया के तीन पुत्र हुए। विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा व महेश के अंश से दुर्वासा ऋषि।
कहीं-कहीं इनकी कथा इससे कुछ भिन्न कही जाती है। कहते हैं कि तीनों देव जब बाल रूप से अपने असली रूप में आये तो तीनों मिलकर दत्तात्रेय बन गए।
तो कहीं कहते हैं कि वे बाल रूप में बहुत समय तब अनुसुइया के आश्रम में रहे। तीनों देवियों को बहुत श्रम करना पड़ा उन्हें पुनः पाने के लिए।
अनुसुइया ने अपने तप के बल से निर्जन वन में गंगा की धारा - मन्दाकिनी को चित्रकूट में प्रकट किया था। उसी मन्दाकिनी के किनारे राम वनवास के समय में रहे थे। जब राम लक्ष्मण व सीता वन को गए थे तब वे अत्रि मुनि के आश्रम में भी गए थे। राम ने उपरोक्त कहानी के कारण उनको सदैव अपनी माता माना व इस कारण वे वहाँ उनसे मिलने गए। वहाँ पर अनुसुइया ने सीता जी को सतीत्व के विशेष गुण सिखाये थे। उन्होंने सीता जी को कभी भी मैली न होने वाली साड़ी दी थी। कुछ जेवर दिए थे। अखंड सौन्दर्य की एक औषधि भी दी थी। सीता ने वनवास में उन्हीं को धारण किया।
उन्हें याद करने के लिए व उनके पतिव्रत धर्म को पालने की सीख देने के लिए प्रतिवर्ष अनुसुइया जयन्ती मनाई जाती है।
2. सुकन्या
सूर्यवंश में सूर्यदेव के इक्ष्वाकु सबसे बड़े पुत्र थे। उसके बाद नाभाग, शर्याति आदि नौ पुत्र थे। शर्याति से आनर्त व सुकन्या का जन्म हुआ।
उनके नगर से थोड़ी दूर एक सरोवर था जो कि मानसरोवर की तरह सुन्दर था। उसमें नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ भी थीं। उसमें पाँच तरह के कमल खिलते थे। सभी पक्षी हंस आदि वहाँ आते थे।
वहाँ अनेक वृक्ष लगे थे। वहीं एक कुटिया में च्यवन ऋषि रहते थे। वे बहुत शान्त चित्त के थे। उन्होंने वहाँ तप करना प्रारम्भ कर दिया। वे तप में इतने खो गए कि उन्हें अपना ध्यान ही न रहा। भोजन व जल त्याग कर वे तपस्या करने लगे। उनके ऊपर लतायें चढ़ने लगी। दीमक लग गई परन्तु वे तप करते रहे। उन पर चीटियाँ चढ़ने लगी। वे केवल मिट्टी का एक ढेर नजर आते थे।
एक बार शर्याति राजा उस सरोवर के पास घूमने आये। उनके साथ उनकी पुत्री सुकन्या भी थी। वह वन में घूमने लगी। घूमते-घूमते वह वहाँ आ गई जहाँ च्यवन ऋषि तप कर रहे थे।
मुनि का शरीर दीमक का ढेर लग रहा था। सुकन्या खेलते हुए वहाँ आती है। उसे दीमक के बीच से चमकती हुई दो ज्योति दिखती है। सुकन्या उत्सुकतावश विचार करती है कि यह क्या हो सकता है? वह दीमक को हटाकर देखना चाहती है। वह एक नुकीली वस्तु उठाकर दीमक को हटा - हटा कर देखने लगती है।
अब दीमक ऊपर से हटाने के बाद शरीर के पास की दीमक हटाकर उद्यम करने पर मुनि के नेत्र उस पर पड़ गए। मुनि बहुत कमजोर हो गए थे।
मुनि ने कन्या से कहा- मैं एक तपस्वी हूँ। तुम यहाँ से दूर चली जाओ। इस दीमक की मिट्टी को काँटे से हटाना ठीक नहीं है।
सुकन्या को अपने खेल की धुन में मुनि की बातें सुनाई नहीं देती हैं। यह कौन-सी अद्भुत वस्तु झलक रही है। यह विचार कर वह अपनी उत्सुकता में काँटे से खोदती रहती है। इस तरह काँटा मुनि की आँखें में लग जाता है। काँटे में जल लगा दिख रहा था। दैवीय प्रेरणा से यह घटना हो जाती है। मुनि को बहुत कष्ट होता है। फिर उसी क्षण से राजा, सिपाही, घोड़े आदि सभी के मल-मूत्र बन्द हो जाते हैं। सबको असीम कष्ट होता है।
इस घटना से राजा शर्याति चिन्तित हुए। उन्होंने इसके कारण पर विचार किया। घर आकर सभी मंत्री आदि से भी पूछा कि इस घटना का कारण क्या हो सकता है?
मंत्रियों ने कहा कि उस सरोवर के पास पश्चिमी तट पर च्यवन मुनि रहते हैं कही उन्हीं का तो किसी के द्वारा अपमान नहीं हो गया। जिसका हम कष्ट भोग रहे हैं। भृगुनन्दन च्यवन मुनि वृद्ध व तेजस्वी व आदरणीय पुरुष हैं। किसी से जाने-अनजाने में उनका कोई अपकार हो गया होगा उसी के कारण सभी इस व्याधि से ग्रसित हैं। अब इसका फल तो भोगना ही पड़ेगा।
सभी सैनिकों ने कहा- मैं मनसा, वाचा, कर्मणा से कहता हूँ। हमसे मुनि का कोई भी अनिष्ट नहीं हुआ है।
राजा ने मन्त्रिमन्डल से भी पूछा। उसे सुनकर सुकन्या विचार करती है कि मैं ही उस तरफ गई थी कहीं मेरे से ही तो काँटे चुभा देने से मुनि को कोई कष्ट नहीं हुआ।
वह जाकर राजा से कहती है- पिताजी मैं वन में उस तरफ गई थी व खेलते-खेलते मैंने उत्सुकतावश काँटे को एक मिट्टी के ढेर पर चुभा दिया था। उसमें लतायें फैली थीं। दो छिद्रों से प्रकाश चमक रहा था। उस समय वह काँटे जल से भीग गई थी व मैंने उस वाल्मीकि से हा, हा की करुण व धीमी ध्वनि भी सुनी थी। मैं आश्चर्य से भर गई थी कि यह क्या हो गया? पता नहीं मेरे द्वारा उस वाल्मीकि में किस वस्तु में छिद्र हो गया था। मेरा हृदय भर आया।
राजा समझ गए कि सुकन्या के ही कारण कुछ अहित हुआ है। उनकी अवहेलना हुई है। वे मुनि के पास गए।
मुनि के शरीर पर दीमक की मिट्टी चढ़ी हुई थी। वे बहुत कष्ट में थे। उन्होंने दीमक की मिट्टी को धीरे से हटाया। फिर उनके चरण स्पर्श किए।
राजा ने साष्टांग प्रणाम कर कहा - मुनिवर मेरी कन्या यहाँ खेल रही थी। उसी से अज्ञानतावश यह अपराध हो गया है व आपको इतना कष्ट हो रहा है। वह अबोध है। उसे क्षमा करें। मैंने सुना है कि मुनियों का स्वभाव ही क्षमा करना है। अतः आप उसका अपराध क्षमा करें।
मुनि ने कहा- राजन मैंने जरा भी क्रोध नहीं किया है। तुम्हारी पुत्री ने मुझे कष्ट दिया परन्तु मैंने उसे कोई श्राप भी नहीं दिया है। मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। मुझे निरपराधी को अत्यन्त पीड़ा हो रही है। इस नीच कर्म के प्रभाव से ही आप सबको कष्ट हुआ है। मैं देवी माँ की आराधना कर रहा था। माता के भक्त को कष्ट देकर कौन सुखी रह सकता है। यदि शंकर भी उसकी रक्षा करें तो भी सम्भव नहीं है। अब मैं अन्धा हो गया हूँ। कौन मेरी सेवा करेगा। मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। मुझ निरपराधी को अत्यन्त पीड़ा हो रही है। बुढ़ापा मुझे घेरे हुए है। राजा बोले- आप की सेवा में मैं कई सैनिक लगा दूँगा। आप अपराध क्षमा करें। साधुजन तो अल्पक्रोधी होते हैं।
मुनि बोले- राजा मैं नेत्रहीन होकर अकेले तपस्या करने में कैसे सफल होऊँगा। तुम्हारे सेवक मेरे मन की बात कैसे समझ पायेंगे? यदि तुम क्षमा ही चाहते हो तो मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ। तुम अपनी सुन्दर कन्या को मेरी सेवा के लिए दे दो। मैं उससे प्रसन्न हूँ। मैं तपस्या करता रहूँगा व वह मेरी सेवा करेगी। इस तरह मैं और तुम दोनों ही सुखी रह सकेंगे। तुम्हारे सेवक भी सुखी रहेंगे। तुम्हें भी कोई दोष नहीं लगेगा। मैं संयमशील तपस्वी हूँ।
राजा यह सुनकर चिन्न्तातुर हो गए। उनके मुँह से दूँगा या नहीं दूँगा कुछ भी नहीं निकला। उन्होंने सोचा कि मेरी देवकन्या तुल्य पुत्री है। ये अन्धे कुरूप वृद्ध हैं। इन्हें कैसे अपनी कन्या दे दूँ। अपने सुख के लिए कौन अपनी पुत्री का बलिदान दे सकता है। मैं इन्हें अपनी कन्या नहीं दूँगा। ऐसा मूर्ख व पापी कौन होगा जो शुभ-अशुभ का ज्ञान रखते हुए भी अपने सुख के लिए अपनी पुत्री के संसार जनित सुख पर आघात करेगा। गलत कार्य करेगा। एक राजकुमारी होते हुए भी एक अन् वृद्ध के साथ अपने जीवन के आनन्द को कैसे उठायेगी। अब मुझे चाहे कितना भी कष्ट क्यों न हो, मैं अपनी पुत्री इन्हें नहीं दूँगा।
इस प्रकार विचार कर राजा शर्याति अपने महल में वापस आ गए। उनके मन बहुत संताप था। यहाँ आकर उन्होंने अपने मंत्रियों से भी पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए। स्वयं कष्ट भोगूँ या कन्या दे दूँ।
मंत्रियों ने कहा- हम क्या कहें। कठिन समस्या है। अपने सुख के लिए किसी भाग्यहीन को कन्या देना सर्वथा अनुचित है।
पिता व मंत्रियों को चिन्ता में देखकर सुकन्या को सब समझ में आ गया।
वह हँसकर पिता से बोली- पिताजी आप इतने चिन्तातुर क्यों हैं? मैं समझ गई। आप मेरे लिए इतने दुःखी व उदास हैं। मैं जाकर भय से घबराये मुनि को सान्त्वना दूँगी। मैं आत्मदान करके उन्हें सुख दूंगी व प्रसन्न करूँगी।
यह सुनकर राजा के मुख पर प्रसन्नता की रेखा आ गई। साथ ही बेटी का विचार कर उनका हृदय द्रवित हो गया।
फिर मंत्रियों को सुनाते हुए वे बोले- पुत्री मैं अपने सुख के लिए तुम्हें किसी वृद्ध को कैसे दे दूँ? तुम सुकुमारी अबला वन में एक अन्धे की कैसे सेवा करोगी? तुम इतनी सुन्दर हो। मैं अपने सुख के लिए किसी वृद्ध को तुम्हें नहीं दे सकता। पिता का धर्म है कि उम्र, जाति, धर्म का ध्यान कर धनधान्य से भरपूर सुयोग्य वर के साथ कन्या का विवाह करे। मैं वनवासी के साथ अपने व सैनिकों को मृत्यु से बचाने के लिए तुम्हें कैसे ब्याह दूँ? अब मैं व मेरा राज्य रहे या न रहे मैं तुम्हें नेत्रहीन को नहीं दे सकता।
सुकन्या बोली- आप मेरी चिन्ता न करें। मुझे मुनि को सौंप दीजिए। जिससे प्राणी मात्र का भला हो वही मेरे लिए भी शुभ है। मैं सती धर्म को जानती हूँ। मैं उनकी वन में सेवा करते हुए सुखपूर्वक रहूँगी। मैं संतुष्ट रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करूँगी। भोग में मेरी कोई रुचि नहीं है अतः आप मेरे लिए निश्चिन्त रहिए।
सुकन्या की बात सुनकर मंत्रीगण को भी आश्चर्य हुआ। राजा उसकी बात मानकर उसे लेकर वन को गए।
राजा ने मुनि से कहा- मैं अपनी कन्या आपको देने को तैयार हूँ। फिर सुकन्या व च्यवन ऋषि का विवाह कर दिया।
राजा ने मुनि को दहेज देना चाहा परन्तु मुनि ने कहा मुझे केवल सेवा के लिए कन्या चाहिए थी। मैं वन में प्रसन्न हूँ। मुझे दहेज की आवश्यकता नहीं है। उसके बाद राजा वापस अपने महल में आ गया। सभी के रोग दूर हो गए। राजा प्रसन्न हो गए।
जब राजा महल को चले तब सुकन्या ने कहा पिताश्री मुझे मेरे वस्त्र व आभूषण नहीं चाहिए। आप इन्हें लेकर मुझे वल्कल वस्त्र मृगछाल दे दीजिए। मैं मुनि की सेवा करूँगी व अपनी तपस्या भी करूँगी। आप दुःखी मत होना कि कहीं मेरी कन्या वृद्ध अन्धे पति के साथ अपना आचरण भूलकर पथभ्रष्ट न हो जाये। ऐसा विचार कर दुःखी न होना। मैं ऋषि पत्नियों की तरह रहकर अपना परलोक सुधारूँगी। जिस तरह स्वर्ग में अत्रि मुनि पत्नी अनुसुइया व वशिष्ठ भार्या अरुन्धती जी प्रसिद्ध हैं, मैं पृथ्वी पर अपना नाम सतियों में लिखा कर अपने साथ आपका नाम भी रौशन करूँगी।
राजा ने उसे मृगछाल व वल्कल वस्त्र दे दिए। उसे उन वस्त्रों में देखकर राजा व प्रजा सभी की आँखों में अश्रु आ गए।
पिता के जाने बाद सुकन्या ऋषि की सेवा में लग जाती है। वह प्रातः काल से ही उनके लिए नित्यकर्म करने की आवश्यक सामग्री रखकर कहती आप निवृत हो जाइए। गर्म जल से उन्हें स्नान करवाकर मृगछाल पहनाती। पवित्र आसन पर बिठाती। तिल, जौ, कुशा आदि रखकर कहती नित्य पूजा कर्म कर लीजिए। फिर उनकी पूजा की तैयारी कर कहती आप व्रत पूजा तप कर लें। उनके चूल्हे की आग कभी ठंडी नहीं हो पाती थी। अर्थात सदैव गर्म भोजन अतिथि के लिए तैयार रहता था। ताजे कन्द, मूल, फल लाकर मुनि को खिलाती। पूजा के उपरान्त तीनी के चावल आदि बनाकर खिलाती। फिर आचमन करवाकर पान सुपारी देती। बिस्तर पर लिटाकर पाँव दबाती। हर तरह से पति की सेवा करती।
शाम की पूजा आदि के बाद भोजन करवाकर उनके बचे फलाहार को उनकी आज्ञा लेकर ही खाती। उनके पैर दबाकर उन्हें सुलाती। उनके सो जाने के बाद उनके पैरों के पास ही स्वयं सो जाती। गर्मी में उन पर पंखा झलती व ठंड में लकड़ी जलाकर उन्हें गर्मी देती।
सुकन्या का अन्तःकरण बहुत पवित्र था। मुनि को पति रूप में वरण कर उनकी तप व नियम की मर्यादा का पालन करते हुए प्यार के साथ पति की सेवा करती। वह बड़े हर्ष के साथ उनकी सेवा करती। यही उसके जीवन का कार्य था।
एक समय की बात है कि सूर्य के दोनों पुत्र अश्विनी कुमार च्यवन मुनि के आश्रम के समीप पधारे। सुकन्या जलाशय से स्नान कर मुनि के आश्रम जा रही थी।
उन्होंने उसे रोक कर पूछा- आप कौन हैं? आपके पिता व पति का नाम क्या है? आपको देखकर लगता है मानों स्वयं लक्ष्मी जी का पर्दापण हुआ हो। आप अकेली इस जलाशय पर स्नान करने कैसे आईं? आपको देखकर लगता है आप की उचित सवारी विमान है। फिर यहाँ कठोर भूमि पर नंगे पैर क्यों चल रही हैं? आपके माता-पिता व पति धन्य हैं जिन्होंने आपको पाया।
सुकन्या उनकी बातें सुनकर लज्जित होती है तथा कहती है- मैं राजा शर्याति की पुत्री हूँ। च्यवन मुनि की पत्नी हूँ। पिता ने स्वेच्छा से हमें उन्हें सौंप दिया। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ। मेरे पति की आखों ने उन्हें जवाब दे दिया है। वे वृद्ध हैं। मैं प्रसन्न मन से दिन-रात पति की सेवा करती हूँ। आप कौन हैं? यहाँ कैसे आना हुआ? चलिए पास ही मेरे पति की कुटी है वहाँ चलकर उसे पवित्र करिए।
अश्विनी कुमार बोले- देवी आप इतनी सुन्दर हैं। आप को तो किसी राजा की पत्नी बनना चाहिए। आप यहाँ एक वृद्ध व अन्धे पति की पत्नी बन क्यों कष्ट पा रही हैं। आपको कष्ट होते देखकर हमें भी पीड़ा हो रही है। तुम बादलों में चमकने वाली बिजली की तरह इस वन में शोभा पा रही हो। तुम्हारे जैसी स्त्री तो देवताओं के घर में होनी चाहिए। तुम्हें वल्कल नहीं रेशमी वस्त्र पहनने चाहिए। लगता है कि ब्रह्मा की बुद्धि भी कुन्ठित हो गई थी जो उन्होंने तुम्हें इनकी भार्या बनने का विधान बनाया। तुम राजा की सुकुमारी कन्या हो। तुम्हारे शरीर में सभी शुभ लक्षण हैं। दुर्भाग्यवश तुम्हें इस वन में आना पड़ा।
उनकी बातें सुनकर सुकन्या को कंपकंपी आ गई, उसे लगा जैसे उनकी बातें सुनकर उसने कोई पाप कर दिया हो।
वह धैर्य रखकर बोली- आप सूर्यदेव के पुत्र हैं। आप सर्वज्ञ व देवशिरोमणि हैं। मैं धर्म की मर्यादा का पालन करने वाली एक सती स्त्री हूँ। आपको मेरे से ऐसे वचन नहीं बोलने चाहिए। जब मेरे पिता ने मुझे इन देवतुल्य मुनि को सौंप दिया। फिर मैं दुराचारिणी स्त्री की तरह आचरण क्यों करूँ? ये कश्यपनन्दन भुवनभास्कर सूर्यदेव सभी के कार्यों को देखते रहते हैं। आपके मुख से ऐसी बात कभी नहीं निकलनी चाहिए। एक उत्तम वंश की कन्या अपने पति से विमुख कैसे हो सकती है? अब आप मिथ्याभूत जगत के धार्मिक निर्णय को जानने वाले महानुभाव आपकी जहाँ इच्छा हो आप पधारें अन्यथा मैं आपको श्राप दे दूँगी। मैं पतिव्रतधर्म का पालन करने वाली शर्याति कुमारी सुकन्या हूँ।
सुकन्या की बातें सुनकर अश्विनी कुमार आश्चर्यचकित हो गए व च्यवन मुनि के भय ने उनके हृदय को शसंकित कर दिया।
डरकर उन्होंने सुकन्या से कहा- हे देवी तुम्हारे धर्म पालन से हमारा हृदय द्रवित हो गया है। अब हमसे तुम अपने कल्याणार्थ कोई वर माँग लो। हम देवों के वैद्य अश्विनी कुमार हैं। हममें तुम्हारे पति को जवान, सुन्दर बना देने की योग्यता है। तुम कहो तो हम तुम्हारे पति को अपने समान रूपवाला बना देंगे। फिर तुम हम तीनों में से किसी एक को चुन लेना।
सुकन्या को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। वह अपने पति के पास जाकर उन्हें यह बात बताती है।
वह कहती हैं- स्वामी अपनी कुटी में सूर्यपुत्र अश्विनी कुमार आये हुए हैं। वे बहुत सुन्दर हैं। मुझ जैसी सुन्दरी को देखकर वे कामातुर हो गए हैं। उनका कहना है कि वे आपको एक नवयुवक, दिव्य शरीरधारी व नेत्रयुक्त बना देंगे। परन्तु एक शर्त है कि उसके बाद तुम्हें हम तीनों में से किसी एक को चुनना होगा।
उनकी यह बात सुनकर मैं इस कार्य के विषय में पूछने के लिए आप के पास आई हूँ। आपके पास आकर पूछ रही हूँ। ऐसे आपत्तियुक्त कार्य के उपस्थित होने पर मुझे क्या करना चाहिए। यह आप बताने की कृपा करें। देवताओं की माया शीघ्र समझ जायें यह असम्भव है। मैं उनका अभिप्राय समझने में असमर्थ हूँ। मुझे आज्ञा दीजिए मुझे क्या करना चाहिए।
च्यवन मुनि बोले- देवी तुम शीघ्र देव चिकित्सक अश्विनी कुमारों के पास जाओ। उन्हें मेरे पास ले आने का प्रयास करो। इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है? उनकी बात मान लो।
मुनि की बातें सुनकर सुकन्या शीघ्र अश्विनी कुमारों के पास गई।
सुकन्या ने उनसे कहा- मुझे आपकी बातें स्वीकार हैं। आप शीघ्र ही कार्य सम्पादन प्रारम्भ करें।
अश्विनी कुमार मुनि की कुटी में शीघ्र ही आ गए। फिर मुनि को लेकर उस सरोवर के पास गए। उन्होंने सुकन्या से कहा कि तुम्हारे पति उस जल में उतर जायें।
च्यवन मुनि की रूपवान बनने की इच्छा थी ही वे तुरन्त जल में उतर गए। उसके बाद अश्विनी कुमार भी उस जल में उतर गए। कुछ काल उपरान्त सभी जल से बाहर आ गए। अब तीनों की आकृति में कोई अन्तर नहीं था। तीनों ही एक समान सुन्दर नवयुवक बन गए थे। उन्होंने दिव्य वस्त्र व आभूषण पहने हुए थे।
तीनों ने एक साथ कहा- हे सुन्दरी तुम हम तीनों में से किसी को चुन लो। जिसके प्रति तुम्हारा प्रेम अधिक हो उसे ही तुम चुन लो।
उन्हें देखकर सुकन्या अचम्भे में आ गई उसे लगा कि यह तो देवों द्वारा फैलाया इन्द्रजाल है। तीनों ही एक से हैं। मैं किसे चुन लूँ? अपने पति को छोड़कर किसी अन्य को मैं चुन नहीं सकती। यह बड़े असमन्जस की बात हो गई।
यह विचार कर वह देवी जगदम्बा के ध्यान में खो गई व उनका स्तवन करने लगी।
वह बोली- जगन्माता मैं आपकी शरण में हूँ। मेरे सती धर्म की लाज आप के हाथ में है। मैं अत्यन्त विस्मय में पड़ गई हूँ। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। देवताओं ने अपना जाल फैलाया हुआ है। मैं कुन्ठित हो गई हूँ। मुझे मेरे पति को दिखाने की कृपा करें। आप जानती हैं कि मैं सभी धर्मों का पालन करती हूँ।
देवी ने उसकी विनती सुन ली व उसे अपने पति को पहचानने में सहायता की। सुकन्या ने अपने पति को पहचान लिया।
जब सुकन्या ने अपने पति को पहचान लिया तो अश्विनी कुमार प्रसन्न हो गए। सुकन्या के सती धर्म को देखकर उन्हें अति प्रसन्नता हुई। भगवती जगदम्बा की कृपा से अश्विनी कुमार अति प्रसन्न थे। वे उसे वर देने लगे। मुनि च्यवन से आज्ञा लेकर वे जाने लगे।
सुन्दर सती भार्या पाने से मुनि भी प्रसन्न थे।
वे अश्विनी कुमार से बोले- मैं आपके आने से अति प्रसन्न हूँ। मैं रूपवती पत्नी पाकर भी नेत्रहीन होने के कारण उसका सुख नहीं पा रहा था। मैं वृद्ध था, नेत्रहीन था भाग्यहीन बनकर वन में पड़ा था। आपने मुझे नेत्र, यौवन देकर उपकार किया है। आपने मुझ पर इतना उपकार किया है तो मैं भी आप पर कुछ उपकार करना चाहता हूँ। क्योंकि समर्थवान होकर भी जो उपकार का