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Manavta Ka Surya - Gautam Buddha
Manavta Ka Surya - Gautam Buddha
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Ebook418 pages3 hours

Manavta Ka Surya - Gautam Buddha

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About this ebook

यह पुस्तक भगवान् बुद्ध की महान् जीवन यात्रा के महत्त्वपूर्ण कथा-प्रसंगों का संग्रह है। इसमें यशोधरा और बुद्ध के त्याग, तपस्या, समर्पण की नींव पर आधारित अक्षुण्ण प्रेम को दर्शाया गया है। इस लेखनी में बुद्ध के चरित्र एवं उपदेशों के अलावा मध्ययुगीन भारत की शिल्पकला, राजनीति, वर्ण-व्यवस्था, समाज, धर्म, संस्कृति और अर्थव्यवस्था को भी चित्रित किया गया है। अनेक प्रसंगों में पालि भाषा के वाक्य हिन्दी अर्थ सहित प्रयुक्त किए गए हैं, ये इस साहित्य की मौलिकता को प्रकट करते हैं। पुस्तक की भाषा-शैली सरल, सहज व रुचिकर है। इस कृति की प्रत्येक पंक्ति लेखिका की अनुभूति में डूबी है। बुद्ध की सरल, सर्वोपयोगी और प्राकृतिक नियमों पर आधारित 'विपश्यना' को लेखिका ने दीर्घकाल तक अनुभव पर उतारकर वास्तविक भावनाओं की स्याही से इस कृति की रचना की है।

 

---

 

पुस्तक की लेखिका सरला देवी हुड्डा ने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने चौंतीस वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। स्वाध्याय, लेखनी, ध्यान-साधना उनके जीवन के केंद्र बिंदु हैं। बौद्ध साहित्य के गहन अध्ययन और बुद्ध द्वारा अन्वेषित 'विपश्यना' के लाभों को दीर्घकाल तक अनुभव करने के पश्चात् ही उन्होंने इस पुस्तक की रचना की है। इस कृति में प्रेरणादायक, अनुकरणीय और रोचक कथानकों के माध्यम से जन- जन को बुद्ध का संदेश देने का प्रयास किया गया है।

Languageहिन्दी
Release dateSep 23, 2023
ISBN9798223264255
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    Manavta Ka Surya - Gautam Buddha - Sarla Devi Hooda

    पृष्ठभूमि

    ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत अशांति और अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा था। यज्ञ जैसे महान् कार्य में पशुओं की हिंसा से वीभत्स वातावरण पैदा हो गया था। ‘स्त्री शुद्रो न धीयताम’ की उक्ति के आधार पर स्त्रियों और समाज के बहुत बड़े वर्ग को धार्मिक, सामाजिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, जिसके फलस्वरूप समस्त देश का पतन होने लगा था। ऐसी विषम परिस्थितियों में भगवान् बुद्ध का आविर्भाव हुआ। 

    ‘मध्यम-मार्ग’ और ‘विपश्यना’ भगवान् बुद्ध की महान् खोज थी। अति के दो छोरों को छोड़कर उन्होंने ‘मध्यम-मार्ग’ अर्थात् जीवन में संतुलन बनाए रखने का संदेश दिया। ‘विपश्यना’ सुनिश्चित सिद्धांतों और तथ्यों के आधार पर जीवन तथा जगत् को जानने की प्राकृतिक विधि है। इसमें कल्पना, विश्वास, मान्यताओं और कर्मकांडों के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रज्ञा, शील, समाधि का आर्य आष्टांगिक मार्ग बौद्ध धर्म की नींव है। इसी के द्वारा भगवान् बुद्ध ने बिगड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था को संभाला था। स्त्रियों और सभी जातियों के लोगों को भिक्षु-संघ में शामिल करके उन्होंने सामाजिक असमानता और भेदभावों को दूर किया।

    भगवान् बुद्ध की धर्म-वाणी भारत तक सीमित न रहकर दूर-सुदूर देशों तक फैली। अनेक राष्ट्रों ने इस महान् खोज को राष्ट्र धर्म के रूप में अपना लिया। उनके विश्वव्यापी प्रचार के कारण भारत विश्व में महिमामंडित हुआ। लेकिन बड़े दुःख की बात है कि जिस देश में बुद्ध का जन्म हुआ, जहाँ पर उन्होंने तपस्या की, चालीस वर्षों तक उपदेश दिए और भिक्षु-संघ के रूप में विशाल धर्म-सेना की स्थापना की, वहीं पर इस धर्म का नाम ही शेष रह गया। बौद्ध साहित्य भारत से लुप्त हो गया।

    हम भगवान् बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार तो मानते रहे, उनके प्रति श्रद्धा से सिर भी झुकाते रहे, परंतु उनकी वाणी और साहित्य के प्रति उदासीन हो गए। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन, डॉ. भीमराव अम्बेडकर और विपश्यनाचार्य सत्यनारायण गोयन्का के प्रयासों से बौद्ध धर्म की हिन्दी पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। विश्व में फैले हुए बौद्ध साहित्य की तुलना में आज भी हिन्दी पुस्तकों की संख्या पर्याप्त नहीं है।

    इस छोटी सी पुस्तक में भगवान् बुद्ध के जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों के साथ-साथ तत्कालीन समाज की शिल्पकला, राजनीति, व्यापार, वर्ण-व्यवस्था और संस्कृति का भी वर्णन है। कहीं-कहीं पालि भाषा के वाक्य हिन्दी अर्थ सहित प्रयुक्त किए गए हैं, ये इस साहित्य की मौलिकता को प्रकट करने में अधिक समर्थ सिद्ध हुए हैं। यह पुस्तक बिना किसी सांप्रदायिक दृष्टिकोण के विशुद्ध रूप से जनकल्याण के लिए लिखी गई है। यदि इससे लोगों में धर्माचरण के प्रति थोड़ी भी प्रेरणा जगी तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगी। 

    - सरला देवी हुड्डा

    मानवता का सूर्य गौतम बुद्ध /

    अनुक्रमणिका

    पृष्ठभूमि

    ऋषि-भविष्यवाणी

    सिद्धार्थ का पालन-पोषण

    हंस की रक्षा

    नगर-भ्रमण

    विजयी योद्धा

    सुंदरी प्रतियोगिता

    सिद्धार्थ यशोधरा का विवाह

    राहुल का जन्म

    चार-दृश्य

    महाभिनिष्क्रमण

    अनोमा नदी

    शिकारी से भेंट

    आचार्य आलार कालाम

    पांडव पर्वत पर निवास

    आचार्य उद्रक रामपुत्त

    शरीर पीड़न तपस्या

    यशोधरा का तप

    पाँच स्वप्न

    सुजाता की खीर

    मार विजय

    संबोद्धि की प्राप्ति

    तपस्सु और भल्लिक

    धर्मचक्र-प्रवर्तन

    यश की प्रव्रज्या

    स्वयं को खोजो

    काश्यप-बंधु

    धर्म-सेनापति सारिपुत्त

    महाकस्सप (पिप्पली माणव)

    कपिलवस्तु आगमन

    राजकुमार नंद की प्रव्रज्या

    राजकुमार राहुल की प्रव्रज्या

    राजकुमारों की धम्म-दीक्षा

    महादानी अनाथपिण्डिक

    सम्राट प्रसेनजित

    सुनीत की धम्म-दीक्षा

    सम्राट बिम्बिसार

    महाप्रजापति गौतमी का शंखनाद

    महाअभिज्ञावती यशोधरा

    राजमहिषी खेमा

    सोपाक को जीवनदान

    संघ में विवाद

    अग्रदायिका विशाखा

    अंगुलिमाल

    निष्काम सेवा

    आम्रपाली की नयी जीवन यात्रा

    पट्टाचारा की करुण कथा

    किसागोतमी

    आलवक यक्ष

    आनंद की चरित्रनिष्ठा

    अग्रश्राविका उप्पलवण्णा

    असुरता से यज्ञों की रक्षा

    राजकुमारी सुंदरी नंदा

    बावरी को श्राप से मुक्ति

    निरोगी वक्कुल

    वक्कलि की भूल

    अद्भुत सहनशीलता

    कठोर व्रतधारी

    वैदेहिका की परीक्षा

    चमत्कार प्रदर्शन का निषेध

    श्रेष्ठतम दान

    वर्ण व्यवस्था का खंडन

    सुरा-घट

    असत्य भाषण धर्म विरुद्ध

    बुद्ध पर मिथ्या दोषारोपण

    बुद्ध को मारने का षड्यंत्र

    बुद्ध की अंतिम यात्राएँ

    बुद्ध का अंतिम भोजन

    कुशीनारा का शालवन

    बुद्ध का अंतिम उपदेश

    बुद्ध के जीवन की अंतिम घड़ियाँ

    प्रमुख सहायक पुस्तकें

    ––––––––

    मानवता का सूर्य गौतम बुद्ध /

    सुत्तन्तेसु   असन्तेसु,    पमुट्ठे    विनयम्हि   च।

    तमो भविस्सति लोके, सूरिये अत्थंगते यथा।।

    (तिपिटक में सम्यक संबुद्ध)

    अर्थ: धर्मसूत्र  विद्यमान  न  रहने  पर और धर्मपालन विस्मृत हो जाने पर संसार में सूर्यास्त सदृश अंधकार छा जाता है।

    ऋषि-भविष्यवाणी

    एक बूढ़ा व्यक्ति लाठी टेकते हुए महल की ओर चला आ रहा था। आयु की अधिकता से उसकी कमर झुक गई थी। उसके गैरिक चीवर और दमकते मुखमंडल को देखकर द्वारपालों ने एक कांतिमय देवपुरुष के आने की सूचना महाराज शुद्धोदन को दी। ये देवपुरुष और कोई नहीं विख्यात और प्रतिष्ठित ऋषि असित कालदेवल थे।

    महाराज शुद्धोदन उनका स्वागत करने के लिए द्वार पर पहुँचे। यथोचित मान-सम्मान के बाद राजा ने उनको ऊँचा आसन बैठने के लिए दिया। अपने नवजात पुत्र को वे गोद में लेकर ऋषि के पास ले आए। शरीर लक्षण विद्या में पारंगत ऋषि ने अपने प्रज्ञा चक्षुओं से बच्चे के भविष्य को जान लिया। उसे गौर से देखते हुए उनके कपोलों पर अश्रुधारा बहने लगी। 

    यह देखकर राजा शुद्धोदन चिंतित हो उठे। उन्होंने एक लंबी साँस लेते हुए कहा, क्या कुछ अनिष्ट या अमंगल की संभावना है? ऋषि ने अपने आँसू पोंछकर रूँधे स्वर में कहा, राजन्! आपका पुत्र बहुत भाग्यशाली है। राजा ने पुनः प्रश्न करते हुए कहा, महात्मन्! फिर आपकी आँखों में ये आँसू कैसे हैं? ऋषिदेव अपने आसन से खड़े हो गए, शिशु के सिर पर हाथ रखते हुए उन्होंने कहा, पूर्व जन्मों की असीम पुण्य-राशि के कारण बत्तीस महापुरुष लक्षणों से युक्त करुणावतार आया है। जब ये विश्व में धर्म का उद्घोष करेगा, उससे पहले मैं संसार से विदा ले चुका होऊँगा। यही मेरे दुःख का कारण है। ऐसा कहकर ऋषि कालदेवल महल से बाहर चले गए।

    ऋषि की भविष्यवाणी सुनकर राजा का हृदय काँप उठा। वे अपने पुत्र को कपिलवस्तु के सिंहासन पर बैठे हुए ही देखना चाहते थे। उन्होंने तुरंत आठ प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्यों को बालक का भविष्य जानने के लिए बुलाया। उस अति सुंदर बच्चे को बहुत ध्यान से देखने के बाद उनमें से सात ने भविष्यवाणी की—

    द्वेयेव तस्स गतियो, ततिया हि न विज्जति।

    (तिपिटक में सम्यक संबुद्ध भाग १)

    अर्थ: दो ही गतियाँ होती हैं, तीसरी नहीं।   

    यदि यह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और यदि घर त्याग दिया तो सम्यक संबुद्ध बनेगा। परंतु कौंडिन्य ने वैदिक ज्योतिष के आधार पर दावे के साथ कहा कि यह बालक सम्यक संबुद्ध ही बनेगा। मिली-जुली भविष्यवाणी सुनकर राजा ने मन में सोचा कि सात ज्योतिषियों का कथन ही सत्य होगा और मेरा पुत्र एक दिन चक्रवर्ती सम्राट ही बनेगा।

    सिद्धार्थ का पालन-पोषण

    सिद्धार्थ  के  जन्म के  सात दिन पश्चात् उनकी माता रानी महामाया गौतमी  किसी  जानलेवा  बीमारी  से  ग्रस्त हो  गईं।  अपना अंतिम समय नजदीक जानकर उन्होंने अपनी बहन महाप्रजापति गौतमी से कहा, बहन! ये  बच्चा  मैं  आपके  हाथों में सौंप रही हूँ। इसे अपने पुत्र समान  ही समझना। यह  सुनकर  रानी प्रजापति गौतमी फूट-फूटकर  रोने  लगीं। कुछ  देर बाद रानी  महामाया ने सदा  के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

    अपनी प्रिय रानी की मृत्यु से राजा शुद्धोदन और रानी प्रजापति के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। जिसने भी यह समाचार सुना उसकी आँखें नम हो उठीं। महारानी महामाया अत्यंत सुशील स्वभाव की थीं। वे नित्य पूजापाठ और दान करती थीं। रानी गौतमी ने अपनी बहन के वचनों का हृदय से पालन किया। सिद्धार्थ को उन्होंने स्वयं स्तनपान कराया, इसलिए वे भगवान् बुद्ध की क्षीरदायी माता कहलाईं। 

    महारानी प्रजापति ने सिद्धार्थ का पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से किया। कृषि-उत्सव के अवसर पर रानी गौतमी ने सिद्धार्थ को स्वयं वस्त्राभूषण और जरीदार जूतियाँ पहनाईं। इस उत्सव पर महाराज शुद्धोदन के खेतों में एक साथ हजार हल चले। सिद्धार्थ ने देखा कि हलों के चलने से हजारों कीड़े-मकोड़े मर गए हैं। एक बाज चिड़िया को अपने पंजों में दबाकर ले गया। सिर पर सूरज होने के कारण हल जोतनेवालों के शरीर से पसीने की धार बह रही थी, उनके कपड़े मैले-कुचैले और मिट्टी में सने हुए थे। यह दृश्य देखकर सिद्धार्थ गहरी सोच में पड़ गया।

    सिद्धार्थ ने रानी गौतमी से पूछा, माँ! तात् हल क्यों नहीं चला रहे हैं? 

    गौतमी ने कहा, वत्स! तुम्हारे पिता राजा हैं, ये किसानों का काम है।

    कुछ समय पश्चात् सिद्धार्थ ने फिर पूछा, माँ! खेत जोतने से इतने जीव-जंतु क्यों मर गए?

    गौतमी ने कहा, मेरे बच्चे, ये विधाता की लीला है।

    सिद्धार्थ खेलता-खेलता ग्रामीण बच्चों के पास चला गया। उनके रूखे-सूखे चेहरे और जरा-जीर्ण कपड़ों को देखकर वह पुनः गौतमी के पास दौड़ा-दौड़ा आया। उन बच्चों की ओर इशारा करते हुए बोला—

    माँ! माँ!! वे बच्चे गरीब क्यों हैं?

    गौतमी ने हँसते हुए कहा, वत्स! सब एक समान नहीं हो सकते।

    देवदत्त और कालुदयी खाने-पीने और नाचने-गाने में मस्त थे। दास, दासियाँ भी उत्सव के रंग में डूबे हुए थे। चिलचिलाती धूप के कारण सिद्धार्थ जम्बू वृक्ष के नीचे चला गया। उसने कमर सीधी की और ध्यान-मुद्रा में बैठ गया। रानी गौतमी उसे ढूँढ़ती हुई वहाँ पहुँचीं। ग्रामीण बच्चे उसे चारों ओर से घेरे हुए थे। उनके बीच में वह ध्रुव तारे जैसा लग रहा था। उसे इस प्रकार ध्यान में बैठा देखकर रानी गौतमी की आँखें छलछला उठीं। रानी ने स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरा, सिद्धार्थ ने आँखें खोलीं और मुस्कराते हुए उनका हाथ पकड़ लिया।

    हंस की रक्षा

    सिद्धार्थ बगीचे में घूम रहा था। आकाश में उड़ते हुए हंसों को देखकर वह प्रसन्न हो उठा। सहसा एक हंस तड़पता हुआ उसके सामने आ गिरा। खून से लथपथ उस हंस को सिद्धार्थ ने दौड़कर उठा लिया। उसके पंखों में बहुत गहरा तीर लगा था। सिद्धार्थ ने धीरे से उसका तीर निकाला, जलकुंड के पास ले जाकर उसका घाव धोया और रक्त-स्राव रोकने के लिए हाथ से थोड़ी देर दबाकर रखा।

    सिद्धार्थ ने अपनी जैकेट उतारी और उसमें हंस को लपेटकर महल में ले आया। सिद्धार्थ ने हंस को औषधि लगाई, थोड़े चावल खाने को दिए और धूप में बैठा दिया। इतने में हाथों में धनुष-बाण लिए हुए सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त धड़धड़ाता हुआ आ पहुँचा।  

    देवदत्त उत्तेजक होकर बोला, यह पक्षी मेरा शिकार है। मैंने इसको बींधा है। सिद्धार्थ ने दृढ़ स्वर में कहा, किंतु मैंने इसको मरने से बचाया है। यह पक्षी मैं तुम्हें नहीं दूँगा।

    दोनों वाद-विवाद करते हुए राज-परिषद् तक जा पहुँचे, वहाँ राजा शुद्धोदन का दरबार लगा हुआ था। देवदत्त मंत्री का पुत्र था और सिद्धार्थ उनका स्वयं का लाड़ला पुत्र था। अत: यह उनकी न्याय निष्ठा की परीक्षा की घड़ी थी। उन्होंने दोनों बच्चों का पक्ष सुना। देवदत्त ने कहा, महाराज! इस हंस को मैंने बाण मारा, इसलिए इस पर मेरा हक है। सिद्धार्थ बोला, महाराज! मैंने इसके जीवन की रक्षा की है, इस पर मेरा अधिकार ही होना चाहिए। 

    दोनों बच्चों के तर्क सुनकर सभी मौन हो गए। सिद्धार्थ ने राज-परिषद् को पुनः संबोधित करते हुए कहा, जीवन की रक्षा करना मूल्यवान होता है या जीवन का हरण करना। एक स्वर में सबके मुँह से निकला—‘जीवन की रक्षा।’

    मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए राजा ने हंस दोनों बच्चों के बीच में छुड़वा दिया। हंस मंद-मंद चलता हुआ सिद्धार्थ के पास चला गया। सिद्धार्थ ने उसको गोद में उठा लिया। मंत्रियों ने हर्षध्वनि करते हुए राजा के निर्णय की प्रशंसा की। सिद्धार्थ ने कई दिनों तक हंस की सेवा-सुश्रूषा की, स्वस्थ होने पर उसे आकाश में छोड़ दिया।

    नगर-भ्रमण

    सिद्धार्थ का यौवन शुक्ल-पक्ष के चंद्रमा की तरह बढ़ रहा था। उसने आचार्यों से वेदों, उपनिषदों और अन्य सभी धर्म-ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था। उसकी साधु-संन्यासियों के प्रति रूचि बढ़ने लगी थी। यह देखकर राजा को भय लगा कि कहीं असित ऋषि की  भविष्यवाणी सच तो नहीं होने जा रही है।

    सिद्धार्थ के मनोरंजन के लिए राजा ने ऋतुओं के अनुकूल तीन महल बनवा दिए थे। जिनमें सुंदर वीथियाँ, कमल सरोवर, फूलों से लदे हरे-भरे बगीचे और आम्र-कुंज थे। निद्रा के समय उसे वीणा का मधुर स्वर सुनाया जाता था। वीणा की झंकार सुनकर वह उषाकाल में आँखें खोलता था। अप्सरा-सी सुंदर नर्तकियाँ नाच-गाकर उसका मनोरंजन करती थीं। उसकी कोमल त्वचा को शीत-उष्ण से बचाने के लिए अनुचर दाएँ-बाएँ छाता लिए खड़े रहते थे।

    महलों का सुख-वैभव सिद्धार्थ के मन को नहीं बाँध सका। उसने प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक अनेक नगरों और गाँवों की यात्राएँ कीं। धान के लहलहाते हरे-भरे खेतों से राज्य की समृद्धि का पता चल रहा था। शाक्य जनपद में अनेक नदियाँ बहती थीं, जिनसे किसानों को सिंचाई के लिए भरपूर पानी मिल जाता था।

    बाण गंगा के किनारे आकर सिद्धार्थ ने सारथी छंदक को रथ रोकने के लिए कहा। नदी का कल-कल, हर-हर निनाद सिद्धार्थ के मन को मोह रहा था। नदी के दूसरे किनारे पर बहुत सारे लोग कड़ाके की ठंड में पानी में डुबकी लगा रहे थे। 

    सिद्धार्थ बोला, छंदक! ये लोग इतने ठंडे जल में क्यों नहा रहे हैं?

    छंदक ने कहा, राजकुमार! ये पवित्र नदी है। इसमें स्नान से सब पाप धुल जाते हैं।

    सिद्धार्थ ने मुस्कराते हुए पूछा, क्या छंदक तुम भी इसमें विश्वास करते हो? 

    छंदक बोला, अवश्य राजकुमार! अन्यथा इतने लोग यहाँ क्यों आते?

    सिद्धार्थ को हँसी आ गई। उसने कहा, छंदक तब तो इस नदी में निवास करनेवाले मगरमच्छ, मेंढक, केकड़े, मछलियाँ, झींगे, बत्तख आदि जीव-जंतु पूर्ण रूप से सदाचारी और पवित्र होने चाहिएँ। 

    छंदक बोला, राजकुमार! पाप चाहें न धुलें शरीर तो धुल ही जाता है। सिद्धार्थ ने मुस्कराकर छंदक के इस वक्तव्य का समर्थन किया। सिद्धार्थ आस-पास के गाँवों के लोगों से भी मिले। एक दिन ग्राम-पथ से गुजरते हुए उन्हें रुदन और दारुण विलाप सुनाई दिया। सिद्धार्थ ने रथ रुकवाया और उस टूटी-फूटी झोंपड़ी में घुस गए। वहाँ का दृश्य बहुत ही करुण था। एक बुढ़िया की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। सिद्धार्थ ने उसको सांत्वना देते हुए रोने का कारण पूछा। उसने पल्लू से आँसू पोंछते हुए बताया कि भूमि-पूजन के बदले ब्राह्मणों के घर बेगार करते हुए उसका पति बीमार पड़ गया। बीमारी में भी भारी-भरकम बोझ उठाने के कारण वह चल बसा। उस परिवार की गरीबी और शोषण को देखकर सिद्धार्थ का दिल दहल गया।

    घर आकर वह बहुत व्याकुल हो गया। उसने आज जो कुछ देखा उसके चित्र बार-बार उसकी आँखों के सामने तैर रहे थे। उसने रानी गौतमी के पास जाकर अपना दुःख व्यक्त किया।

    सिद्धार्थ ने कहा, माँ! राज्य में लोग बहुत दु:खी हैं।

    रानी ने सिद्धार्थ के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए पूछा, क्यों वत्स?

    दु:खित स्वर में सिद्धार्थ बोला, माँ! उनके पास मकान नहीं हैं, वे शोषित हैं, माँ! हम लोगों के पास सब कुछ है।

    रानी गौतमी ने सिद्धार्थ के गाल थपथपाते हुए कहा, वत्स! ये भाग्य का खेल है।

    सिद्धार्थ अनेक प्रश्न मन में लिए हुए उठकर चला गया। उसने अपनी इन यात्राओं में ब्राह्मणों के एकछत्र अधिकार को देखा। लोग जन्म, मरण, नामकरण, शादी और उत्सवों पर चाहे-अनचाहे उनकी झोली भरते थे। जातिवाद संक्रामक रोग की तरह फैला हुआ था, जिससे सामाजिक ढाँचा चरमरा गया था। सिद्धार्थ के मन में एक विचार आंदोलन उठ खड़ा हुआ। वह समझ गया कि इन कष्टों से छुटकारे के लिए देश को एक महान् नेतृत्व की आवश्यकता है।

    विजयी योद्धा

    सिद्धार्थ की गतिविधियों  से राजन् शुद्धोदन  चिंतित रहते  थे। रानी

    प्रजापति गौतमी  से अपनी  व्यथा  व्यक्त करते हुए वे बोले, देवी! सिद्धार्थ बड़े कोमल स्वभाव का है।

    रानी ने कहा, देव! कोमल स्वभाव तो सद्गुण है।

    राजा बोले, देवी! राजकाज में उसकी रूचि नहीं है, वह शाक्य राजवंश का उत्तराधिकारी है।

    रानी ने गंभीर होकर कहा, हाँ, देव! वह संसार के दु:खों की ही बातें करता रहता है। उसे खेलकूद और युद्ध-कला में लगा दीजिए, सब भूल जाएगा।

    राजा बोले, बिल्कुल ठीक कहा देवी! मैं उसके लिए युद्ध-कला में दक्ष आचार्य नियुक्त कर देता हूँ। 

    राजन् ने सिद्धार्थ को प्रोत्साहित करते हुए कहा, वत्स! मुझे तुम्हारे जैसे योद्धाओं की जरूरत है। क्या तुम युद्ध-कौशल सीखना चाहोगे?

    सिद्धार्थ ने उत्तर दिया, हाँ, तात्! मैं सीखने के लिए तैयार हूँ।

    सिद्धार्थ और उसके चचेरे भाई देवदत्त ने घुड़सवारी, तीरंदाजी, खड्ग चलाना, और कुश्ती सीखना आरंभ कर दिया। देवदत्त को बलिष्ठ होने का बहुत अहंकार था। सिद्धार्थ ने बल के साथ-साथ चुस्ती-फुर्ती और विवेक से अल्प समय में इन कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली।  

    रानी गौतमी ने जब यह सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने राज्य के सभी युवकों के लिए युद्ध-कला प्रतियोगिता का आयोजन किया। एक झील के किनारे विशाल मैदान में इसकी व्यवस्था की गई। कोलिय और शाक्य गणराज्य के आपस में मधुर संबंध थे। इस अवसर पर कोलिय राजा सुप्पबुद्ध को सपरिवार आमंत्रित किया गया। राजा सुप्पबुद्ध के साथ महारानी पामिता और उनकी प्रिय पुत्री यशोधरा भी इस उत्सव में पधारी थीं। रानी गौतमी ने यशोधरा को पुरस्कार वितरण का दायित्व सौंपा।

    वेद मंत्रोच्चार और दीप प्रज्वलन के साथ इस प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ। सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने भी इस प्रतियोगिता में भाग लिया। सिद्धार्थ ने सभी प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उसकी शब्द-भेदी और बाल-भेदी कला को देखकर राजन् सुप्पबुद्ध और रानी पामिता भाव-विभोर हो उठे। दर्शकों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ तुमुल जय-घोष किया और उसे विजयी योद्धा घोषित किया गया। यह देखकर देवदत्त का अहम् चूर-चूर हो गया। वह सिद्धार्थ के प्रति ईर्ष्या से भर उठा।

    पुरस्कार के लिए सिद्धार्थ को मंच पर आमंत्रित किया गया। यशोधरा गणमान्य अतिथियों के साथ मंच पर उपस्थित थीं। उसका मुखमंडल प्रभात में खिले कमल के समान सुंदर लग रहा था। उसने हाथ जोड़कर सिद्धार्थ का अभिवादन किया और कहा, यह सफेद हाथी भेंट के रूप में स्वीकार कीजिए। सिद्धार्थ ने हाथ जोड़कर धन्यवाद कहते हुए यशोधरा की आँखों में

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