Pashan Putri : Chhatrani Heera-De (पाषाण पुत्री : छत्राणी हीरा-दे)
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'पाषाण पुत्री, क्षत्राणी हीरा-दे' की यह जीवंत कथा मारवाड़ जालौर राज्य के सोनगरा चौहान महाराजा कान्हड़देव व उनके राजकवर वीरमदेव द्वारा तत्कालीन दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध किये गए निर्णायक युद्ध के समय-चक्र के दरमियान की है और इस उपन्यास की कथा उस वक्त की भारतीय राष्ट्रीय अस्मिता एवं राज्य के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाली राजपूत वीरांगना 'क्षत्राणी हीरा-दे' के सम्पूर्ण जीवन चरित्र को उजागर करती हैं।
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Pashan Putri - Purushottam Pomal
बलिदान
1. स्वर्णगिरि दुर्ग, आक्रांता को राज्य मार्ग देने
से इंकार और क्षत्राणी हीरा-दे
बीकाजी, हमारे स्वर्ण-गिरि दुर्ग के पुनर्निर्माण एवं सैन्य दृष्टि से सुदृढ़ीकरण की योजनाओं की कार्यान्वित में क्या और अधिक तीव्रता की आवश्यकता है?
महाराजा कान्हड़देव ने सहजवाल बीका दहिया उर्फ विक्रम सिंह के समर्पित भाव से सैन्य दृष्टि एवं वास्तुशास्त्र अनुकूल किये गये कार्य का निरीक्षण कर संतुष्ट होने के बाद राज-सभा में पदोन्नति देने के क्रम में पूछा था।
महाराजाधिराज की जय हो। स्वर्ण-गिरि दुर्ग अभेद्य किले में परिवर्तित हो रहा है, आपके निर्देश एवं रक्षा भाव सर्वोपरिय हैं घणी खम्मा।
हूँ! अत्यंत चौखी बात है। हम आपके काम से संतुष्ट हुए हैं, सो आपको खास सहजवाल सरदार घोषित करते हैं। आपको गुजाराभत्ता में साढ़े-पांच हजार टका बढ़ौतरी का रूक्का आज से जारी करता हूँ।
यह सुनकर सभी सभासदों ने महाराजा कान्हड़देव की जय जय कार कर अभिवादन किया। महाराजा कुछ पल बाद फिर बोले, क्या आप सब यह जानते हो कि दुष्ट आततायी अलाउद्दीन खिलजी की षड्यंत्रकारी व्यू रचनाओं ने सारे हिंदुस्तान को युद्ध में झोंक कर सबको गुलाम बनाने की साजिश हो रही है।
हुकुम अन्नदाता।
फिकर कौनी! आप सभी सूर्य-वीर राजपूत योद्धा एकमेव ध्यान लगाएं और बीकाजी, खासकर आप संपूर्ण ध्यान रखें कि हमारे स्वर्ण गिरि दुर्ग का नव-निर्माण सुरक्षात्मक मानदंडों के अनुकूल होना चाहिए।
जी हुक्म, घणी खम्मा। महाराजाधिराज की जय हो। आप का परचम संपूर्ण हिंदुस्तान में फहरेगा।
स्वर में स्वामी भक्ति का तांडव लिए अपने माथे और कमर को नीचे झुका कर बीका दहिया ने मारवाड़ी परंपरा में अभिवादन किया था।
जालौर के महाराजा कान्हड़देव की विख्यात साहसिक युद्ध कौशल, शौर्य व शूरवीरता का सम्मान बनाए रखना यद्यपि आसान नहीं था, लेकिन समय की नियत ने उसे कुछ सरल बना दिया था। दिल्ली के शहन्शाह अलाउद्दीन खिलजी की विध्वंसकारी व्यूहरचना को तोड़ना इसके मूल में था।
और बीका दहिया! एक मँझले कद-काठी का सामंतवादी चेहरा। सहज छरहरे बदन का मालिक, उम्र और जन-मानस के बोझ तले दबा गठिला इंसान, तीखी नाक-नक्श का मालिक, लंबी सामंती आर्यव्रृत नाक। आँख के नीचे उभरे हल्के काले धब्बे उसके शैतानी मस्तिष्क में खुराफाती विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे।
उसका चेहरा साफ सपाट था, लेकिन मूछों की गठन टेड़ापन की पकड़ को समेटे थी। मारवाड़ी सिरपाग चुनरियाँ पगड़ी पहने सम्मोहित करने वाला गौरवर्णीय चेहरे का धनी था, ‘सहजवाल बीका दहिया’।
राज परिवार की सेवा में स्थापित वह एक वीर योद्धा ही नहीं था बल्कि किले के रखरखाव एवं राज-परिवार के महल की देख रेख का जिम्मा उसके अधीन था।
जालौर स्वर्ण गिरी दुर्ग के चार प्रवेश द्वार थे। उनकी बनावट अनुकरणीय थी। वक्राकार घुमावदार मार्ग होने से वे गोपनीय लगते थे और शत्रु सेना को विचलित करने के लिए उसकी वास्तुकला बेजोड़ थी। 5 से 6 फुट चौड़ी परकोटे की दीवारों की मजबूती दुर्ग को अभेद्य किले के रूप में बांधतीं और भीतर रह-वास के महल को सशक्त चक्रव्यूह का रूप प्रदान करती थीं।
सहजवाल बीका दहिया राज परिवार के महल माल्यौं का सुंदर रखरखाव करते हुए परकोटे की मजबूत दीवारों का सैन्य आवश्यकताओं के अनुरूप नव निर्माण करने में जुट गए थे। वे कुशल नीति-कार, योग्य वास्तुशिल्पी व भवन निर्माण में बेजोड़ थे। उनकी कला के कारण ही जालौर का स्वर्ण गिरि दुर्ग अभैद्य रहा और उसके गुप्त मार्ग का रहस्य किसी को भी ज्ञात नहीं हो सका था।
बीका दहिया का निवास स्वर्ण-गिरि दुर्ग के परकोटे के भीतर था। उसने अपने घर के भीतर पहुंच कर राजपूती पगड़ी साफा उतार कर रख दिया और आंगन में पड़ी खटीया पर बैठ गया कि उसकी बाजुओं की मछलियाँ और मजबूत शक्ति संपन्न सीने के उभरे आकार वीर योद्धा की शारीरिक परिभाषा में खरे उतर रहे थे। उन्होंने अपनी रूपगर्विता धर्म-पत्नी को आवाज लगाई, हीरा ओ री हीरा...
घणी खम्मा, आप पधारियां, मैं आई।
सहधर्मिणी क्षत्राणी हीरा-दे लगभग भागते हुए आई थी। उसके घूँघट की ओट में छिपे चेहरे का नूर गर्दन की कालजई लंबाई से परिभाषित था और घाघरे के घेरे का सलीना नूर उसके तन बदन का लचीलापन लिए झं-कृत था। राजपूती पहनावे पर गहराता उसका आंचल मारवाड़ी ओढ़नी का सौंदर्य चांदनी बिखरे था।
उसकी हाथ की कलाईयों से हथेली तक खुले शरीर का श्वेत रंग गोरी त्वचा से अलौकिक था, ऐसा लगा मानो संपूर्ण सौंदर्य युक्त चेहरे के चंद्रमा को आकाश ने छिपा कर रखा हो। श्वेत सुहानी स्वच्छ ज्योत्सना बिखेरता चंद्र मानो घूँघट रूपी अमावस्या के पखवाड़े में नजर-बंद हो।
एकाएक घूँघट की एट से दृश्य-मान चेहरे की लावण्य युक्त झलक दूज के चन्द्र दर्शन सी सुहावनी थी। सितारों से सजी ओढ़नी क्षत्राणी हीरा-दे के भरे पूरे आँचल पर लहरा रही थी। राजपूती औरतों की आन-बान-शान भारतीय संस्कृति एवं हिंदू मारवाड़ी सभ्यता के अनुकूल विश्व विख्यात थी।
राजपूताना की नजाकत को संभालते हुए क्षत्राणी हीरा-दे ने अपने हाथ में पकड़ा पानी से भरा तांबे का लोटा आगे बढ़ाया और अपने पति के हाथों में दे दिया। बीका दहिया को प्यासतर लगी थी, उसने गर्दन ऊपर उठाकर पानी के लोटे से घटक कर अपनी हलकी कंठ को नम किया कि प्यास की तड़प शांत हुई थी।
खाली लोटा अपनी पत्नी को देते हुए सहजवाल बीका दहिया बोला, अ-हाँ! कंठ सूख रहा था हीरा, लेकिन तुम्हारे मेंहदी रचे हाथों से पानी पीकर मन को बहुत सुकून मिला है। तुम्हारे अद्भुत प्यार की तरंगें हमें असीम सुख देती हैं। सच हीरा, तुम हमारे जीवन की गीतिका का संगीतमय आधार हो।
पति परमेश्वर के मुखकमल से निकले सुखद स्वर लहर में वह मुस्कुराते हुए शर्म से लाल हो गई थी और वह अपनी आंखों की पुतलियों की चमक में पलकें झपझपाने लगी, फिर उसने तुरंत आँखें मूंद लीं, आप भी...
उसने केवल इतना कहा, लेकिन स्वर धीमा था।
सच हीरा, आज मैं अत्यंत खुश, प्रफुल्लित व उत्साहित हूँ। जानती हो क्यों?
नहीं प्राणेश्वर, ऐसा क्या हुआ? आप बताइए ना।
अब तू सुन, हमारे महाराजाधिराज सा ने हमें स्वर्ण गिरि दुर्ग का खासम-खास सहजवाल सरदार घोषित किया है। अब हम दोनों राज महल में कहीं भी आ जा सकते हैं, साथ ही दरबार ने राज कोषागार से साढ़े पांच हजार टका रोकड़ देने का आदेश जारी किया है। अब मैं थाणे वास्ते सोने का गेहणा-गाठा घटा कर दूँगा, समझी।
बीका दहिया ने अपनी मूँछ पर तर्जनी अंगुली फेरते हुए अपनी पदोन्नति को साझा किया तब स्वाभिमान की धनी क्षत्राणी हीरा-दे पति की सहभागिता में बोली, सोने के गहनों का कोई मूल्यांकन नहीं है मेरे जीवन में। केवल आपकी उन्नति और महाराजाधिराज का अटूट विश्वास हमारी खुशी की धरोहर है। आप सदैव राज दरबार की वफादारी में खरे उतरें और क्षत्रिय सोनगरा राजपूताना के वीरत्वपूर्ण कर्तव्य पूर्ति में अडिग रहें। बस, मेरी यही कामना है अन्नदाता।
हीरा, तू भी.....।
बीका दहिया अपनी सोनपरी पत्नी के उत्तर को पचा गया, यद्यपि औरतों के मन में बसे सोने के आभूषणोँ की ललक को नजरअंदाज नहीं कर सका था। तत्काल उसने अपने बाएँ हाथ से हीरा-दे की कलाई पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया था।
पति-पत्नी का यह खिँचाव प्रेम की तासीर से सराबोर था। वह खटिया के पास जमीन पर बैठ गई और अपने पति परमेश्वर का मुख देखने लगी। बीका दहिया की आंखों में शरारती रुझान था, जबकि हीरा-दे के माथे पर सुशोभित स्वर्णिम टीका मुस्कराए जा रहा था और मांग में भरा सिंदूर अपने पूरे यौवनावस्था के साथ चमक रहा था।
व्यक्तिगत जीवन में हीरा-दे एक मर्यादित सुसंस्कृत व जुझारू औरत थी। उसके रोम-रोम में अपने राज्य और जाति का अभिमान था, मानो एक दृश्य तलवार अपनी कौम व राष्ट्र पर बलिदान होने के लिए सदैव उसने अपने हाथ में पकड़ी हो। औरत के रूप में वह मद्धिम बहने वाली पवित्र गंगा की सहायक मंदाकिनी नदी की तरह थी और अपने पति पर पूर्ण न्यौछावर थी। वह अपनी राजपूताना आनबान और शान को अक्षुण रखने की भावना से लबालब भरी थी।
वे दोनों एक दूसरे की नजरों में नजरें मिलाते हुए शांत रहे। कुछ पल बाद हीरा-दे ने अपने पति से पूछा, राज-दरबार ने आपको स-सम्मान उच्च औहदा दिया, शोहरत बख्शी व धन लाभ दिया। है ना.....!
तो क्या हुआ हीरा...
स्वामी, अब आप महाराजाधिराज के ज्यादा कर्जदार बन गए हैं। आपका कर्तव्य है कि आप महाराजा कान्हड़देव की सेवा में पूर्ण तन-मन व अधिक लगन एवं समर्पण भाव से राजपूती ओहदे का मान रखें, लेकिन अपनी पत्नी हीरा को भूल तो नहीं जाओगे।
तू तो गैली की गैली है मारी सोन परी।
बीका दहिया ने अपनी पत्नी की कलाई पकड़ कर कहा, तू मान ना मान, मैं थाणे वास्ते सोने की कंठ-हार, बाजूबंद व हीरा जड़ी अँगूठी अवश्य बनवाऊंगा। तू पहने गी तो महारानी लगेगी।
महारानी तो महाराजाओं की होती है, मैं तो आपकी हीरा ही भली।
क्षत्राणी हीरा-दे ने शर्माते हुए अपने पति परमेश्वर का मन ही मन अभिवादन किया था।
सच हीरा, तुम केवल मेरी हीर सोनपरी ही नहीं बल्कि संपूर्ण मारवाड़ी राज की कोहिनूर हीरा हो।
यह सुनकर क्षत्राणी हीरा-दे ने खिलखिलाकर पति बीका दहिया से अपना हाथ छुड़वाया और घर के भीतर चली गई थी। दोनों के समर्पण एवं प्यार का रहस्य क्षत्रिय राजपूती परम्पराओं के भीतर जन्म-जन्मान्तर के अटूट बंधन की स्वीकार्यता में बंधा था।
क्षत्राणी हीरा-दे, होम-हवन और धार्मिक उत्सवों में सदैव पति के बाएँ ओर बैठा करती। वह स्त्री थी, वामा थी। अपनी कमतरी के एहसास के साथ वह सुरक्षा का घेरा बनाए रखती थी। एक बार बीका दहिया ने अपनी भार्या से पूछा, देवी, तुम हमेशा मेरे बायें ओर क्यों बैठती हो?
इसलिए कि आप मेरे पति परमेश्वर हैं और मैं आपकी दा-सी।
तुम जैसी झुंझारू क्षत्राणी कभी दास हो ही नहीं सकती, तुम एक साम्राज्ञी हो।
बीका दहिया एक पल रुक कर फिर बोला, और देखो हीरा,जब तुम प्रेम करती हो तो तुम्हारा समर्पण भाव हमें शक्ति, सामर्थ्य और निरंतर आगे और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
उसने रात की तन्हाइयों को अपनी धर्म पत्नी के अटूट प्रेम संबंध का दीवाना बना दिया। मानो पति-पत्नी की दास्तान के दरमियान पहाड़ों से निकलने वाले श्वेत निर्मल व तीव्र बहने वाले स्वच्छंद झरने हों।
वह नयन के अश्रुओं सी निश्छल पाक थी।
जिंदगी के बगीचे की खुली पुष्पिका थी।
बसंत की झड़ी का सदाबहार नूर थी।
वह एक दूसरे के लिए अटल संबल थे।
वे दर्द में हम-दर्द संघीय जीवन साथी थे।
उनकी रात की खामोशियां समर्पण और अर्पण के भाव को अंगीकार कर अधरों की मुस्कान का स्वाद लेकर आशिकी की सिरफिरी बूंदों को पीती रही थीं। क्षत्राणी हीरा-दे संस्कारित और हयाशर्म की प्रति-मूर्ति थी। वह अपने पति को ईश्वर का अंश मानकर पूजा करती थी।
उसके हृदय मंदिर में बीका दहिया की अद्भुत छवि एक राष्ट्र भक्त वीर योद्धा और अपने लिए उन्मुक्त पागल प्रेमी पति के रूप में नजरबन्द थी। अंतर-मन के भाव शब्दों के मोहताज नहीं थे। मन वीणा में कसे तारों पर वे अर्धरात्रि तक प्रेम प्रीति के गीत गाते रहते और प्रातःकाल होने पर हीरा-दे पति के बाहुपाश से निकल कर खुले आकाश तले शीत हवा में सनसनाते झोंकों का आनंद लेने आंगन में आकर बैठ जाती थी।
सोनगिरि पहाड़ पर स्थित जालोर राज्य के स्वर्ण-गिरि दुर्ग का प्रांगण प्रातःकाल की प्रथम किरण के साथ चिड़ियों के चहचहाहट और मोरपक्षी के पीहू-पीहू की मनभावन ध्वनि पर उन्मुक्त था। पहाड़ों में स्थित मंदिर की घंटियां महादेव के लिंग पर मुग्ध-जल के अभिषेक व समर्पण की मनोदशा को झंकृत कर रही थी। ओम-कारा के जयकारे का गुंजन गले में कंठ से नाभि तक हृदयगम हो उच्चारित हो रहा था। राज पंडित सोमचंद व्यास के मंत्र प्रतिध्वनित हो उठे थे।
राजकुँवर वीरमदेव ने अबोट दूध का कलश दोनों हाथों से पकड़ शिव-लिंग पर बढ़ाकर दुग्थाभिषेक किया। मंत्र उच्चारण चलता रहा और अबोटपवित्र जल व दूध से नहलाया हुआ शिव-लिंग मानो ब्रह्मांड की सर्वकालीन संपूर्ण शक्ति को नियंत्रित कर रहा हो।
भोला-नाथ शंकर महादेव शांत-चित्त प्रसन्न हैं तो दुनिया में सुख शांति का राज्य हैं अन्यथा महादेव का तांडव-नृत्य अपने त्रिनेत्र खोलकर संपूर्ण पृथ्वी का विनाश कर त्राहिमाम-त्राहिमाम मचा सकते हैं।
शिव अभिषेक की पूर्णाहुति के बाद राज पंडित सोमचंद्र व्यास राजकुँवर वीरमदेव के साथ मंदिर से बाहर आए। मंदिर प्रांगण में लगे विशाल पीपल के पेड़ में बसे देवताओं की पूजा आराधना कर तुलसी के पौधों को पानी दिया था। वे वृक्षों को देवतुल्य मानते थे, परंतु अलाउद्दीन खिलजी के दिल्ली का राज्य हिंदुओं की देव मान्यताओं के विपरीत शमशीरों और खंजर की ताकत के बल पर खड़ा था।
ताकत से टकरा कर लोहा लेना जालौर राज्य के स्वर्ण गिरि दुर्ग के महाराजा कान्हड़देव की फितरत थी जिसे राज पंडित सोमचंद व्यास अपने ओजस्वी वेदमंत्रों से धार देते रहे थे।
कुरुक्षेत्र की नीति के तहत महाराज कान्हड़देव के वंशजों के राजपूती हथियार एवं तलवारें कभी कुंद-जंग नहीं हुईं, लेकिन खिलजी की बढ़ती हुई ताकत से टकरा कर विजय-श्री का वरण-सरण करना राज-पंडित सोमचंद व्यास के मस्तिष्क में हलचल मचाए हुए थीं। वे राजकुँवर वीरमदेव से बोले, क्या आप पिता महाराज के इस निर्णय पर सहमत हैं कि खिलजी को हमारे राज्य से गुजरात जाने का आसान मार्ग नहीं दिया जाए?
जी गुरूजी, महाराजाधिराज बाबोसा का हर निर्णय सिरोधार है।
राजकुँवर वीरमदेव के त्वरित उत्तर से उन्हें संतोष मिला, लेकिन समर्थक गुरुदक्षिणा के शब्द अभी बाकी थे। वे आश्वस्त होना चाहते थे, अतः बोले, तुर्की शासक अलाउद्दीन खिलजी क्रूर एवं हिंसक है।
हिंसक जानवरों को काबू में करने की कला हमें आती है। हम सोनगरा चौहान क्षत्रिय शूरवीर राजपूत हैं। विदेशी तुर्की म्लेच्छों की सेना ने यदि हमारे जालौर राज्य की सीमा लांघने की लेशमात्र भी कोशिश की तो युद्ध में उन्हें खदेड़ा जाकर हम पराजित कर देंगे।
वाह, राजकुँवर वीरमदेव वाह! आपकी जय हो। महादेव की कृपा व आशीर्वाद आप पर सदैव बना रहे। आप जैसे वीर योद्धा के कारण स्वर्ण गिरि दुर्ग सर्वाधिक सुरक्षित है।
राज पंडित सोमचंद व्यास की वाणी में विश्वास झलक रहा था। वे मंदिर के अहाते से बाहर निकले कि खास सहजवाल बीका दहिया की धर्म-पत्नी क्षत्राणी हीरा-दे हाथ में कलश लिए आ रही थी।
राज पंडित को देखकर वह घूँघट लटका कर एक ओर खड़ी हो गई और निकट आने पर उसने सोमचंद व्यास के पाँव छुए थे।
राजपंडित ब्राह्मण सोमचंद व्यास ने दाहिनी हाथ से उन्हें आशीर्वाद दिया। तद्क्षण राजकुँवर वीरमदेव क्षत्राणी हीरा-दे से बोले, काकी माँ सा, पाँव लागू। आप बीका जी को संदेश देना कि हमने उन्हें राज महल में आज शाम को याद किया है।
जी राजकुँवर सा। आपका प्रताप चँहू ओर बना रहे। महाराजाधिराज की जय हो।
क्षत्राणी हीरा-दे के सहमति के स्वर सुन कर वे दोनों चल दिये थे। उनके जाने के बाद क्षत्राणी हीरा-दे मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगी थी।
काफी देर बाद एकांत चित्त महादेव मंदिर में पूजा कर क्षत्राणी हीरा-दे घर लौट आई थी। वह धार्मिक नारी थी और सादा जीवन व्यतीत करती थी। वह महादेव के शिव-लिंग की पूजा करती और घर आकर कृष्ण भक्ति में रमरच जाती। वह योगेश्वर कृष्णा व राधा की दीवानी थी।
बीका दहिया अपने कर्तव्य पथ पर जाने के लिए तैयार बैठे थे। वे अपनी पत्नी से बोले, हीरा, मैं राज भवन जा रहा हूँ। वहां तुरंत पहुंचने का संदेश आया है।
हुक्म सा, प्रसाद लेते जाओ।
सहमति के स्वर में वह अपने पति के निकट चली आई। प्रभु प्रसाद की नारियल गिरी उनकी दाहिनी हथेली में रखते हुए बोली, महादेव मंदिर के रास्ते राजकुँवर वीरमदेव के दर्शन हुए, उन्होंने संदेश दिया है कि आप उनसे संध्या पूर्व शाम को उनके महल में मुलाकात के लिए हाजिर हों।
क्या!
आश्चर्य मिश्रित उत्साहवर्द्धक भाव से बोले, अति उत्तम है हीरा, मैं राजकुँवर वीरमदेव से अवश्य निर्धारित समय में मुलाकात करूँगा।
बीका दहिया प्रभु प्रसाद ग्रहण करते हुए उतावले कदमों से अपने घर से बाहर निकल पड़े और उनकी पतिव्रता पत्नी अपने पुरुष को तब तक निहारती रही जब तक वे घर की दहलीज से बाहर निकल कर उनकी आंखों से औझल नहीं हो गए थे।
राज-दरबार में महाराजा कान्हड़देव ने अपने सभासदों से जिसमें सेनापति जैता देवडा, राज-पंडित सोमचंद व्यास, मुख्य सहजवाल बीका दहिया एवं सुपुत्र राजकुँवर वीरमदेव व अनेक योद्धाओं के साथ मिलकर अलाउद्दीन खिलजी की सेना को अपने राज्य से रास्ता नहीं देकर उन्हें रोकने की व्यू-रचना पर चर्चा की थी।
खास सहजवाल बीका दहिया ने सोनगिरी पहाड़ के सुदूर युद्ध कौशल और अभैद्य स्वर्ण-गिरि दुर्ग में किला-बंदी के लिए बनाया गया भूलभुलैया मार्ग वाले नक्शे और सुदृढ़ व्यू रचना को महाराजाधिराज के सम्मुख रखा जिस पर सेनापति जैता देवड़ा ने सहमति जाहिर की और राज पंडित सोमचंद व्यास ने युद्ध होने की परिस्थिति में होने वाले धर्म संकट पर सभी नागरिकों को सचेत करने का देव मंत्र बता कर विश्वास जाहिर किया था।
इस चर्चा के मूल में महाराज कान्हड़देव का तुर्की शहंशाह अलाउद्दीन खिलजी की सेना के सेनापति उलूगखाँ को नकारात्मक जवाब देना था।
महाराजा कान्हड़देव के नकारात्मक जवाब के बाद बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के हुक्म पर सोमनाथ अभियान पर जा रही तुर्की सेना का नेतृत्व कर रहे सेनानायक उलूगखां और मियाँ नुसरतखां ने जालौर के बाँकेबहादुर चौहान राजपूतों की शूरवीर सेना से उलझना ठीक नहीं समझा और वे मेवाड़ के उबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते से गुजरात की ओर अपनी सेना को मोड़ कर ले चले थे। खिलजी आक्रांता सेना के इस निर्णय में मेवाड़ के राजा की सहमति थी या नहीं, यह जानना महाराजा कान्हड़देव के लिए बेहद कठिन था।
आक्रांता खिलजी सेना में तुर्की मुस्लिम व मंगोल योद्धाओं के अतिरिक्त हब्शी, बंगाली मुस्लिम ब्राह्मणा, भाई और बल-बाल भी थे। वे भटियारों द्वारा पकाये गए भोजन और धीमी आग पर उबला हुआ माँस जिसे ‘तबाख’ कहते हैं, खाते थे और भारी हथौड़े से पत्थरों को तोड़ती मेवाड़ के रास्ते खिलजी सेना आगे बढ़ रही थी।
अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने इस कठिन मार्ग को मुश्किलात से पार कर गुजरात और काठियावाड़ के प्रत्येक राज्य, ठिकानों और सत्ता को नष्ट करती हुई बांगड़, मोडासा और असावली के रास्ते वाघेला शासकों को शिकस्त देते हुए जूनागढ़ और गिरनार जीत लिए थे एवं कच्छ की भूमि के समूचे भाग पर कब्जा कर हड़प लिया था। अन्हलपुर व पाटन दुर्ग को लूट कर कब्जा करने के बाद म्लेच्छ निर्दयी सेना मोडासा के प्रमुख ‘बतड़’ को परास्त कर निरंतर आगे बढ़ रही थी।
भयंकर कोलाहल और शोरगुल करते हुए म्लेच्छ विदेशी आक्रांता के गुजरात राज्य में भारी तबाही कर गुजरने से वहाँ की सारी धरती पर आतंक फैल गया था। धूल के गुबार से आकाश में अंधेरा छा गया और सूर्य ओझल हो गया था। आखिरकार सोमनाथ महादेव को लूटने में वे विधर्मी मुल्ला कामयाब हुए थे। भीषण आक्रमण हुआ, हजारों लोग मारे गए थे। सोमनाथ महादेव मंदिर लाशों के ढेर में तब्दील हो चुका था।
सल्तनत-ए-हिन्द खिलजी की उन्मुक्त सेना ने तबाही का ऐसा डरावना मंजर ढाया कि मंदिर प्रांगण में जो मरे वे तो मरे ही, अधमरे इंसानों के घायल शरीर तड़पते रहे एवं उनकी चीत्कारों की ध्वनि मंदिर के टूटे खम्भों में दबी थी। कोई उन्हें पानी देने वाला भी नहीं बचा था।
इस दरमियान सोमनाथ के भव्य मंदिर में विराजमान महादेव का शिव-लिंग आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी की सेना के गिरफ्त में था और हाथी के पाँव की जंजीर में बंदी हो चुका था। इस सोमनाथ की लूट व विजय के मूल में गुजरात के एक शासक ‘माधव मुहता’ का सहयोग रहा था। वह खिलजियों के अधीन होकर नतमस्तक हो गया था, लेकिन शक्ति पीठ सोमनाथ मंदिर के प्रमुख रक्षक ‘मधवई चौरासी’ द्वारा मार डाला गया था। कहावत चरितार्थ हुई, जैसी करनी वैसा फल प्राप्त होना शाश्वत था।
सुबह की लालिमा ने सूर्य की आँखें खोलीं और क्षत्राणी हीरा-दे नींद से जाग उठ बैठी थी। उसने हाथों की हथेलियों को चेहरे पर फेर कर नैयनों को अंगुलियों की छोर से साफ कर स्वच्छ किया। उसने अपनी हथेलियों की रेखाओं के भीतर विराजमान ईश्वर को निहारा। वह कृतज्ञ भाव से भर आई और मन ही मन प्रभु वंदन कर संसार की माया को आत्मसात किया। वह कृष्ण की अनन्या भक्त थी।
2. सोमनाथ लूट, श्रीमाल के दहिया सरदार की
अकर्मण्यता पर फांसी और राजकुँवर वीरमदेव
का विजय अभियान
स्वर्ण-गिरि के महल से यह खबर निकल कर हीरा-दे तक पहुंच गई थी कि आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी की सेना मेवाड़ के रास्ते गुजरात पार कर सोमनाथ मंदिर को लूटने के बाद विजय के उन्माद में पाटन के राज्य में पहुंच चुकी थी और वहां निर्मित रानी की बाव को नुकसान पहुंचा कर आगे बढ़ रही है।
तुर्की हमलावरों की कामयाबी व विजय का यह खंजर क्षत्राणी हीरा-दे की ममतामयी छाती में मानो धँस कर लहुलूहान कर गया हो। वह विस्मय में शोकाकुल हो कर अत्यंत आक्रोशित थी कि जालौर राज्य के आसान रास्ते को तुर्की आक्रांता सेना के लिए बंद कर दिया गया तो फिर वह मेवाड़ के रास्ते काठियावाड़ से गुजरात पार कर सोमनाथ महादेव मंदिर कैसे पहुंच गई? मेवाड़ के शासक व रास्ते में पड़ने वाले गुजरात के अन्य शासकों ने आक्रांता मुस्लिम लुटेरों को रोकने का सामर्थ्य क्यों खो दिया?
वह अपने भीतर की आशंकाओं से आने वाले कल के प्रति संदेह से भरी थी। वह भविष्यदृष्टा तो नहीं थी, लेकिन वीरकुशला नारी मेवाड़ की शक्ति शून्यता से व्याकुल थी। वह सोच नहीं पा रही थी कि क्या चित्तौड़ के शासक रावल समरसी ने विध्वंसकारी तुर्की सेना को अपने मेवाड़ से मार्ग दिया था! कारण यह कि वह मेवाड़ में जन्मी तो नहीं थी, लेकिन अरावली के पर्वतों के पूर्वी हिस्से के एक पहाड़ी गांव की दौहित्री थी। स्वाभिमान और निडरता की घुट्टी उसने अपने ननिहाल में बचपन में ही गटकी थी। पहाड़ी चट्टानों के बीच वह नुकिले भाले से चूल्हे पर बाटी व रोटियाँ सेक कर पकड़ती। उसके चौहान पिता राजसत्ता के सैनिक थे, लेकिन एक रक्तरंजित आपसी पारिवारिक संघर्ष में मारे गये थे।
स्वाभिमान की रक्षक क्षत्राणी हीरा-दे अपने भीतर एक कुरुक्षेत्र से गुजर रही थी। वह भीतर के कृष्ण को गीता के रूप में आत्मसात करने की जद्दोजहद में उलझी थी। आसमान में परिंदे उड़ रहे थे और वृक्ष पर बैठी चिड़ियाएं चहल रही थीं। दूर ऊंची चट्टानों के उस पार से आ रही मोरनियों की पीहू-पीहू की आवाजें हीरा-दे के मन को सुकून नहीं दे पा रही थीं।
क्षत्राणी हीरा-दे दिन भर स्वर्ण-गिरि दुर्ग की सुरक्षा एवं आक्रांता सेना से लोहा लेने की साहसिक विचार प्रक्रिया से गुजर रही थी। वह अपने पति बीका दहिया के लिए बेचैन होकर उसकी राह देख इंतजार कर रही थी।
संध्यावेला के बाद पति परमेश्वर घर लौट आए तब हीरा-दे बोली, यह स्वर्ण-गिरि के पहाड़ हमें आसरा देते हैं।
उसने फिर उमड़ रहे बादलों की ओर तर्जनी अंगुली उठाकर पूछा, देखो प्रिय, आकाश की चुनरी में से छिटककर चंद्रमा की ज्योत्स्ना क्या संदेश दे रही हैं।
बादलों की आवाजाही जारी है हीरा, चाँद बादलों के साथ लुका-छिपी खेल रहे हैं।
क्या आपको लगता है कि सोमनाथ महादेव की लूटपाट के बाद विजय के उन्माद में डूबी तुर्की सेना के आक्रांता नायक हमारे राज्य की सीमाओं के अंदरूनी भाग से नहीं गुजरेंगे?
क्षत्राणी हीरा-दे के आकस्मिक प्रश्न का सीधा उत्तर राज सत्ता की विमर्श से जुड़ा होने के कारण बीका दहिया ने अप्रत्यक्ष रूप में कहा, नहीं हीरा, फिर भी कुछ कह नहीं सकते हैं।
कहना क्या है, विजय में गाफिल उन्मादी लुटेरों की सेना ऐसा ही दुःसाहस करेगी।
बीका दहिया अपनी क्षत्राणी के चेहरे के परिवर्तित भाव को पढ़ते हुए मौन रहा, लेकिन हीरा-दे पति परमेश्वर के मन में बसी शून्यता को भेदते हुए बोली, हमारे महाराजा कान्हड़देव जी ऐसी दुष्टता को कभी क्षमा नहीं करेंगे। आने वाला समय खतरों का है इसलिए मेरे भाग्य विधाता, आप स्वर्ण-गिरि दुर्ग और किले को इतना सशक्त अभेद्ध और मजबूत करें कि कोई विदेशी आक्रांता हमारे जालोर राज को अधीन करने का स्वप्न भी नहीं देख सके।
ऐसा ही होगा प्रियतमा।
बीका दहिया ने अपनी ठकुराइन पत्नी को आश्वस्त करना चाहा था।
पति-पत्नी के सहचर में संवाद का सिलसिला धीरे-धीरे ठहर गया और तब रात्रि की तन्हाइयों में पति पत्नी के सौंदर्य रक्तिम होठों की संवेदनाएं एक दूसरे के मानसपटल पर अंकित होकर विश्रांति की अवस्था को प्राप्त थीं।
क्षत्राणी हीरा-दे की मुस्कान और आँसू निराले थे। जब वह उन्हें मिलाकर पति पर निछावर करती तब वे पल प्रेम में भावुक ही नहीं बल्कि खूबसूरत हो जाते थे। पति-पत्नी की सहज नोकझोक के क्षणिक पल के बाद वह कहती, आपके घात प्रति घात कब के आँसू बनकर बह चुके, अब हाथों की मेंहदी खुशी की मुस्कान बन कर चेहरे पर उतर आई है।
"तुम्हारे मोतियों मढ़ा दंतिका का सौंदर्य अद्भुत है हीरा। तुम हंसी की बहार हो। अब तो तुम्हें नाराज