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Jaishankar Prasad Granthawali Ajatashatru (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली अजातशत्रु (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Ajatashatru (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली अजातशत्रु (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Ajatashatru (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली अजातशत्रु (दूसरा खंड - नाटक)
Ebook262 pages1 hour

Jaishankar Prasad Granthawali Ajatashatru (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली अजातशत्रु (दूसरा खंड - नाटक)

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About this ebook

जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे। काशी के 'सुंघनी साहु' के प्रसिद्ध घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का संवत् 1946 में जन्म हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी - आपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस तरह प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। प्रसाद जी का बचपन अत्यन्त सुख के साथ व्यतीत हुआ। आपने अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राएं की। पिता और माता के दिवंगत होने पर प्रसाद जी को अपनी कॉलेज की पढ़ाई रोक देनी पड़ी और घर पर ही बड़े भाई श्री शम्भुरत्न द्वारा पढ़ाई की व्यवस्था की गई। आपकी सत्रह वर्ष की आयु में ही बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। फिर प्रसाद जी ने पारिवारिक ऋण मुक्ति के लिए सम्पत्ति का कुछ भाग बेचा। इस प्रकार आर्थिक सम्पन्नता और कठिनता के किनारों में झूलता प्रसाद का लेखकीय व्यक्तित्व समृद्धि पाता। गया। संवत् 1984 में आपने पार्थिव शरीर त्यागकर परलोक गमन किया।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088966
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    Jaishankar Prasad Granthawali Ajatashatru (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली अजातशत्रु (दूसरा खंड - नाटक) - Jaishankar Prasad

    ***

    अजातशत्रु

    कथा-प्रसंग

    इतिहास में घटनाओं की प्रायः पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसमें कोई नयी घटना होती ही नहीं। किन्तु असाधारण नयी घटना भविष्यत् में फिर होने की आशा रखती है। मानव समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय हैं, क्योंकि वह इच्छा-शक्ति का विकास है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओं का मूल-सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति में केन्द्रीभूत होकर अपना सफल या विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है। विश्व में जब तक कल्पना इयत्ता को नहीं प्राप्त होती, तब तक वह रूप-परिवर्तन करती हुई, पुनरावृत्ति करती ही जाती है। समाज की अभिलाषा अनन्त स्रोतवाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नयी कल्पना उसका विरोध करने लगती है, और पूर्व कल्पना तक ठहर कर, फिर होने के लिए अपना क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलते लगता है। मानव समाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता

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