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Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली एक घूँट (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली एक घूँट (दूसरा खंड - नाटक)
Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली एक घूँट (दूसरा खंड - नाटक)
Ebook85 pages37 minutes

Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली एक घूँट (दूसरा खंड - नाटक)

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About this ebook

जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे। काशी के 'सुंघनी साहु' के प्रसिद्ध घराने में श्री जयशंकर प्रसाद का संवत् 1946 में जन्म हुआ। व्यापार में कुशल और साहित्य सेवी - आपके पिता श्री देवी प्रसाद पर लक्ष्मी की कृपा थी। इस तरह प्रसाद का पालन पोषण लक्ष्मी और सरस्वती के कृपापात्र घराने में हुआ। प्रसाद जी का बचपन अत्यन्त सुख के साथ व्यतीत हुआ। आपने अपनी माता के साथ अनेक तीर्थों की यात्राएं की। पिता और माता के दिवंगत होने पर प्रसाद जी को अपनी कॉलेज की पढ़ाई रोक देनी पड़ी और घर पर ही बड़े भाई श्री शम्भुरत्न द्वारा पढ़ाई की व्यवस्था की गई। आपकी सत्रह वर्ष की आयु में ही बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। फिर प्रसाद जी ने पारिवारिक ऋण मुक्ति के लिए सम्पत्ति का कुछ भाग बेचा। इस प्रकार आर्थिक सम्पन्नता और कठिनता के किनारों में झूलता प्रसाद का लेखकीय व्यक्तित्व समृद्धि पाता। गया। संवत् 1984 में आपने पार्थिव शरीर त्यागकर परलोक गमन किया।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390287000
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    Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली एक घूँट (दूसरा खंड - नाटक) - Jaishankar Prasad

    जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली

    एक घूँट

    (दूसरा खंड - नाटक)

    eISBN: 978-93-9028-700-0

    © प्रकाशकाधीन

    प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली- 110020

    फोन : 011-40712200

    ई-मेल : ebooks@dpb.in

    वेबसाइट : www.diamondbook.in

    संस्करण : 2020

    Jaishankar Prasad Granthawali Ek Ghoot (Dusra Khand Natak)

    By - Jaishankar Prasad

    नाटक खंड

    आधुनिक हिन्दी के नाट्य-साहित्य में प्रसाद का स्थान संस्कृत साहित्य के कालिदास के समान है । प्रसाद जी ने हिन्दी नाटक की प्रारंभिक अवस्था में उसे रचना के स्तर पर साहित्यिक गौरव दिया । रंगमंच और नाट्यालेख के महत्त्व और हस्तक्षेप को लेकर प्रारम्भ से ही एक विवाद बना रहा जिसमें प्रसाद जी का दृढ़ मत है कि नाटक रंगमंच के लिए नहीं रंगमंच नाटक के लिए होता है । नाटक की संश्लिष्टता से उभरती हुई प्रदर्शन की अनेक समस्याओं से रंगकर्मी को घबराना नहीं चाहिए अपितु उनका सामना करते हुए अधिक सम्पूर्ण रंगमंच के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए । प्रसाद के प्रारम्भिक नाटक विशाख, राज्यश्री जैसे नाटकों से उनकी विकास यात्रा ध्रुवस्वामिनी तक एक सफल रंगमंचीय नाटक के रूप में सम्पन्न होती है । और उसकी राष्ट्रीय तथा नैतिक प्रश्नों को लेकर स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुज, अजातशत्रु जैसे नाटक प्रकाशित हुए । समकालीन रंगमंच के लिए प्रसाद के नाटक आज भी चुनौती हैं । किन्तु प्रतीकात्मक रंगमंच के विकास के साथ उनके नाटक अधिक-से-अधिक प्रदर्शन योग्य माने जाने लगे हैं यह हिन्दी नाटय-साहित्य में शुभ लक्षण है ।

    दो शब्द

    महाकवि जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वांगीण विकास में सबसे अधिक योग देने वाले साहित्यकार है । काव्य, नाटक, कथा-साहित्य, आलोचना, दर्शन, इतिहास सभी क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा की अद्वितीयता सर्वस्वीकृत है । कामायनी जैसा महाकाव्य, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु जैसे नाटक, कंकाल, तितली, सरीखे उपन्यास तथा अनेक विशिष्ट कहानियाँ केवल उनकी रचनात्मक सामर्थ्य की ही द्योतक नहीं हैं, उनमें एक दार्शनिक और इतिहासज्ञ की अन्वेषक दृष्टि की गंभीरता भी स्थापित है । आधुनिकता और परम्परा प्रेम जितना सांगोपांग रूप में प्रसाद के साहित्य में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है ।

    आधुनिक हिन्दी साहित्य का छायावादी युग प्रसाद जी की रचनात्मक प्रतिभा से आलोकित है और प्रवृति युग पर उतने ही प्रकाश से उनका प्रभाव देखा जा सकता है । कवि के रूप में प्रसाद जी की काव्यात्रा का जन्म-सोपान कामायनी में मिलता है । और उसकी भूमिका स्वरूप तू, लहर की रचनात्मक क्षमता को उनके काव्य चिंतन की विकास धारा के रूप में देखा जा सकता है । विनोद शंकर व्यास जी ने उनकी काव्य रचना के प्रति तथा काव्य रचना करते हुए जिस संघर्ष के बीच उन्हें अनेक बार गुजरना पड़ा- लिखा है कि जब भी वह अपने जीवन की कहानी सुनाते तो अतीत की स्मृतियों से उनका चेहरा तमतमा जाता और उनके माथे पर संसार की कठोरता की स्पष्ट रेखाएँ खिच जाती । इस प्रकार प्रसाद जी ने जीवन के संघर्षों के बीच साहित्य साधना का दीपक जलाए रखा और उनके सम्पूर्ण जीवन तथा काव्य का ध्येय उस आनन्द भूमि में पहुँचना रहा है जिसके आगे राह नहीं है :-

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