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Bharat Ke Amar Senani - Nana Sahab Peshwa
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Bharat Ke Amar Senani - Nana Sahab Peshwa

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About this ebook

सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के विषय में चर्चा करते ही सर्वप्रथम पेशवा नानासाहब का चेहरा आंखों के मध्य घूमने लगता है । पेशवा नानासाहब ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सूत्रधार हैं । मातृभूमि की स्वाधीनता के लिये वह जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहे । असफलता के बावजूद उन्होंने भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में जिस अध्याय की शुरूआत की वह अपने आप में अविस्मरणीय है । उस समय उनके द्वारा प्रज्जवलित ज्योति के भले ही बुझा दिया गया पर इसका अर्थ यह नही था कि वह सर्वदा के लिये बुझ गयी । बल्कि इस ज्योति के आंच ने ही भारत को स्वतंत्रता प्रदान की । इस पुस्तक में लेखक ने नानासाहब के जीवन चरित की अधिकतम सामग्री को संक्षिप्त रूप में देने का सराहनीय प्रयास किया है ।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateAug 25, 2021
ISBN9789352786435
Bharat Ke Amar Senani - Nana Sahab Peshwa

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    Bharat Ke Amar Senani - Nana Sahab Peshwa - Bhawan Singh Rana

    एक

    प्रारम्भिक जीवन

    सन् 1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है, जहां इसे अंग्रेजों ने एक सामान्य सैनिक विद्रोही घटना कहकर महत्वहीन घटना सिद्ध करने का प्रयत्न किया है; वहीं वीर विनायक दामोदर सावरकर जैसे इतिहासज्ञों ने अपने प्रबल प्रमाणों के आधार पर इसे अंग्रेजी शासन के विरूद्ध भारत का प्रथम स्वाधीनता-संग्राम है।

    यह सत्य है कि यह क्रान्ति मेरठ, दिल्ली, कानपुर, अवध, रूहेलखण्ड, ग्वालियर, झांसी, बिहार, आदि स्थानों तक, अर्थात प्रायः उत्तरी भारत तक ही सीमित रही और इसे शीघ्र ही दबा दिया गया। इसके साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि इतिहास में प्रायः विजेता का ही गुणगान किया जाता है। यथातथ्य का निरूपण करने वाला इतिहास प्रायः उस समय सामने नहीं आ पाता। इसीलिए इस क्रान्ति की विफलता के बाद इसका वास्तविक स्वरूप तत्कालीन इतिहास की पुस्तकों में नही दिखायी देता।

    सत्य सदा ही सत्य रहता है, फिर चाहे उसे उस समय असत्य सिद्ध करने के कितने ही प्रयास क्यों न किये जाएं। उसे असत्य सिद्ध करने वालों का भय समाप्त हो जाने पर घटनाएँ पुनः सत्य का अन्वेषण करा देती है।

    आज अधिकांश विद्वान यह स्वीकार करने लगे हैं कि सन् 1857 की यह घटना वस्तुतः पराधीनता हेतु लड़ा गया प्रथम संग्राम था। इस संग्राम में पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नानासाहब, वीरवर तात्या टोपे, मुगल सम्राट बहादुरशाह, महारानी लक्ष्मीबाई, कुंवरसिंह आदि सत्ताच्युत देशी नरेशों जननायकों ने भाग लिया था। इस संग्राम के कर्णधारों ने बहादुरशाह को अपना नेता बनाया था, किन्तु क्रान्ति की रूपरेखा बनाने का मुख्य श्रेय वस्तुतः नानासाहब को ही जाता है। सत्य तो यह है कि यह उन्हीं के मस्तिष्क की उपज थी; वही इसके सूत्रधार थे।

    जन्म

    नानासाहब 1857 ई० की क्रान्ति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सेनापति थे। वह पदच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। फिर उनके वास्तविक माता-पिता कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? जनसामान्य इन समस्त प्रश्नों से प्रायः अपरिचित है।

    महाराष्ट्र के चित्तपावन वंश में अनेकशः इतिहास प्रसिद्ध और देशभक्त महापुरुषों का जन्म हुआ है। मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा बालाजी विश्वानाथ, महान राजनीतिज्ञ नाना फडनवीस, प्रसिद्ध क्रान्ति कारी वासुदेव बलवन्त फडके और चाफेकर बन्धु, भरतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अनेक नेता गोविन्द महादेव रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर आदि विभूतियों का जन्म इसी चित्तपावन वंश में हुआ। प्रस्तुत पुस्तक के चरितनायक स्वनामधन्य नानासाहब भी इसी वंश की सन्तान थे।

    महाराष्ट्र की माथेरान पर्वतमाला की नैसर्गिक शोभा अपने आप में अद्वितीय मानी जाती है। इसी पर्वतमाला में वेणूग्राम नामक एक छोटा सा गांव है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में वहां चित्तपावन ब्राह्मण वंश के एक व्यक्ति रहते थे‒माधवरावजी नारायण भट्ट । उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती गंगाबाई था, जिन्होने 19 मई सन् 1825 ई० में एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम गोविन्द रखा गया। यही बालक आगे चलकर स्वतन्त्रता-संग्राम के सेनानायक नानासाहब के नाम से विख्यात हुआ।

    पेशवा बाजीराव द्वितीय

    6 जून, 1674 को छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर प्रशासकीय पदों के नाम संस्कृत में रखे गये। छत्रपति के साम्राज्य के प्रधान मन्त्री को मुख्य प्रधान नाम दिया गया, किन्तु यह नाम अधिक प्रसिद्धि न पा सका। मुख्य प्रधान के स्थान पर पेशवा शब्द ही प्रचलन में रहा।

    मोरेश्वर त्र्यम्बक पिंगले छत्रपती शिवाजी के प्रथम मुख्य प्रधान बने। 3 अप्रैल, 1680 को शिवाजी की मृत्यु हुई। उस समय ज्येष्ठ पुत्र सम्भा जी से उनके सम्बन्ध कटुता की चरम सीमा तक पहुंच गऐ थे। इसी कारण सम्भाजी को पन्हाला में बन्दी बनाकर रखना पड़ा था।

    शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य को भीषण घरेलू उथल-पुथल का सामना करना पड़ा । सम्भाजी को बन्दी बनाकर औरंगजेब ने उनका वध करा दिया तथा उनके पुत्र शाहूजी को बन्दी बना लिया। इस अवधि में भी मराठे शिवाजी द्वितीय पुत्र राजा राम के अधीन मुगल साम्राज्य से संघर्ष करते रहे।

    औरंगजेब की मृत्यु के बाद शाहू मुगलों के कारावास से मुक्त हुए। उनकी इस मुक्ति के बाद मराठा राज्य में कुछ ऐतिहासिक महत्व के परिवर्तन हुए। इनमें पेशवाई की स्थापना इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।

    महाराष्ट्र पहुंचने पर शाहूजी मराठा साम्राज्य के छत्रपति (राजा) बने। राजाराम के पुत्र को कोल्हापुर का राजा बनाया गया। अब तक मराठा साम्राज्य की राजधानी रायगढ़ थी, किन्तु अब छत्रपति शाहू ने सतारा को अपनी नई राजधानी बना लिया। इसके साथ ही बालाजी विश्वनाथ को मराठा साम्राज्य का प्रधान प्रशासक अर्थात पेशवा बनाया गया।

    इसके साथ ही मराठा साम्राज्य में पेशवाई की नींव भी पड़ गयी। पेशवा मराठों का प्रत्यक्ष शासक बन गया और उसकी राजधानी पूना बनायी गयी।

    धीरे-धीरे छत्रपति नाममात्र के लिए मराठा साम्राज्य के शासक बनकर कह गए और समस्त सत्ता पेशवा के हाथों में आ गयी। पेशवा का पद भी पैतृक बन गया। सिन्धिया, गायकवाड, होलकर, भोसले आदि मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ सभी नरेश भी पेशवा के अधीन हो गए। छत्रपति का पद नेपथ्य में चला गया, और पेशवा मराठा राज्य का वास्तविक कर्ता-धर्ता बन गया।

    सन् 1757 में प्लासी की विजय के बाद अंग्रेजों के पैर भारत भूमि में जमने प्रारम्भ हो गये थे। इसके बाद वह एक एक कर समस्त भारत को अपने अधिकार में लेने का विचार करने लगे, किन्तु नाना फडनवीस के जीवन में उन्हें मराठा साम्राज्य पर अधिकार करने का अवसर नहीं मिला पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठा की शक्ति को भारी आघात पहुंचा, फिर भी उत्तर में मराठा ने अपना दबाव बनाए रखा। उस समय मुगल शासक सर्वथा शक्तिहीन हो चुका था और उसकी समस्त शक्ति पर मराठा साम्राज्य के प्रतिनिधि महादजी सिन्धिया का अधिकार हो गया था।

    अंग्रेज भारत में राज्य विस्तार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे और वे इस तथ्य से परिचित हो गये थे कि मराठों को शक्तिहीन किये बिना उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता नही मिलेगी। नाना फडनवीस को पेशवाई इतिहास का चाणक्य कहा जाता है। वह पेशवा बालाजी विश्वनाथ से माधव नारायण के शासनकाल तक पेशवाओं से सम्बद्ध रहे। माधवराव ने उन्हें अपना मन्त्री बनाया अल्प वयस्क पेशवा नारायण राव की हत्या करने के बाद जब उसके चाचा रघुनाथराव (राघेबा) ने पेशवा का पद प्राप्त करना चाहा, तो महान कूटनीतिज्ञ नाना फडनवीस के कारण उसे सफलता नहीं मिल सकी और माधवराव नारायण को पेशवा बनाया गया। दुर्भाग्य से माधवराव नारायण ने आत्महत्या कर ली।

    ऐसी परिस्थितियों में नाना फडनवीस हत्यारे राघोबा के किसी भी पुत्र को पेशवा बनाने के पक्ष में नही थे, किन्तु घटनाचक्र ने ऐसा मोड़ लिया कि उन्हें सफलता नही मिल सकी। राघोबा का बड़ा पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बनाया गया।

    पेशवाई का अन्त

    सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करने के लिए अंग्रेज पेशवाई को समाप्त करना अनिवार्य समझते थे, किन्तु नाना फडनवीस तथा महादजी सिन्धिया के शक्तिसम्पन्न रहते उन्हें अपने मनोरथ में सफलता नही मिली।

    पेशवा बाजीराव एक अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। उधर अंग्रेज मराठा राज्य पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए थे। नाना फडनवीस महादजी सिन्धिया के स्वर्गवास के बाद उन्हें उपयुक्त अवसर प्राप्त हो ही गया मराठों को शक्तिहीन करने के लिए अंग्रेजों का ध्यान सर्वप्रथम पेशवा की ओर गया। उन्होंने पहले मराठा सामन्तों के बीच फूट के बीज बोये, जिससे मराठा सामन्त पेशवा के विरुद्ध हो गये। उनके आक्रमणों के भय से बाध्य होकर पेशवा ने अंग्रेजों से सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार पेशवा के खर्च पर पूना में अंग्रेजों की सेना रखी गयी तथा वहां अंग्रेज रेजीडेण्ट भी रहने लगा।

    मराठा मण्डल पर अंग्रेजों का यह प्रथम आघात था। इससे पेशवा शक्तिहीन हो गया इसके बाद 1805 ई० तक भोसले, होल्कर, सिन्धिया आदि सभी मराठा सामन्तों ने अंग्रेजों से सन्धि करके उनकी सत्ता के आगे अपने सिर झुका दिए। उन सभी की राजधानी में अंग्रेजी सेनाएं रहने लगीं।

    इन सन्धियों के बाद मराठों को अपनी भूल का अनुभव हुआ। वे समझ गये की घर की फूट का परिणाम घातक ही होता है। फलतः सभी मराठा सामन्त इस दासता से क्षुब्ध हो उठे। सभी के मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश की एक तीव्र भावना व्याप्त हो गयी। अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के प्रयत्न होने लगे। पेशवा मराठा सामन्तों में पुनः एकता स्थापित करने के लिए सचेष्ट हो गया, किन्तु तब तक बहुत देर हो गयी थी। अंग्रेज पेशवा का मनोभाव समझ गये। उन्होंने पुनः भेद नीति का आश्रय लिया उन्होंने निश्चय कर लिया कि पेशवाई को समाप्त किये बिना महाराष्ट्र में उन्हें मनचाही सफलता नही मिलेगी। इसके लिए उन्होंने छत्रपति तथा पेशवा में फूट डालना उचित समझा। इस विषय में श्रीयुत् श्रीनिवास बालाजी हर्डीकर ने अपनी पुस्तक ‘अठारह सौ सत्तावन’ में लिखा है‒

    अंग्रेज घबड़ा उठे। उन्होंने अत्यन्त विश्वासघाती और देशद्रोही बाला जी पन्त की सहायता से मराठा सरदारों में फूट के बीज बोना आरम्भ किया। वे जानते थे कि जब तक पेशवाओं को कुचला नही जाता, तब तक दक्षिण में अंग्रेजी राज्य स्थिर नही रह सकता। अकस्मात अंग्रेजों को स्मरण हो आया मराठा राज्य के सच्चे अधिकारी पेशवा नही सतारा के छत्रपति हैं। अतएव उन्होंने बालाजी पंत नानू की सहायता से छत्रपति प्रताप सिंह को पेशवाओं के विरुद्ध भड़काना आरम्भ किया। उससे कहा गया‒ पेशवा तो आपके प्रधानमात्र थे, पर उन्होंने सभी सत्ता अपने हाथों में ले ली है और आपको प्रतिबन्ध लगाकर सतारा में रखा है। हमारा हृदय आपकी सहानुभुति में फटा जा रहा है। अगर आप पेशवा का पक्ष छोड़कर हमारा साथ दें, तो हम विद्रोही पेशवा को हटाकर आपका राज्य आपको सौंप दें। तभी आप सच्चे अर्थ में छत्रपति कहला सकेंगे।"

    वस्तुतः पेशवाओं ने छत्रपति के पद को अपने हाथों की कठपुतली मात्र बना दिया था और वे (पेशवा) ही मराठा साम्राज्य के सच्चे शासक बन गये थे। कदाचित इससे छत्रपति उनसे क्षुब्ध था। साथ ही उस समय छत्रपति प्रतापसिंह एक युवक ही था। वह अंग्रेजों की इस धूर्तता को नही समझ सका कि भला अंग्रेजों को उससे यह सहानुभूति कैसे और क्यों हो गयी।

    उधर पेशवा बाजीराव द्वितीय मराठा सामन्तों को अपने पक्ष में कर अंग्रेजों को युद्ध की चुनौती दे चुका था। इधर युवक छत्रपति प्रतापसिंह ने अंग्रेजों को अपना सच्चा शुभचिंतक समझ लिया था। पेशवा और अंग्रेजों का युद्ध आरम्भ हुआ तो छत्रपति प्रतापसिंह अंग्रेजों के सैनिक शिविर में जा पहुंचा। उसने घोषणा करवा दी‒ पेशवा के कार्य से पेशवाई को भारी हानी उठानी पड़ी है। उसके व्यवहार से भविष्य में इससे भारी हानि उठानी पड़ सकती है। वह अयोग्य है। अतः हमने उसके हाथ से सभी अधिकार ले लिए है। अब सभी कार्य हम स्वयं देखेंगे। भविष्य में उसके आदेशों का पालन विद्रोह माना जाएगा।

    अंग्रेजों के शिविर में यूनियन जैक के साथ ही मराठों की भगवा पताका भी लहराने लगी।

    पेशवा की इस घोषणा से उसके पक्ष के मराठे बड़ी असमंजस की स्थिति में हो गये। वे समझ नही सके कि उन्हें क्या करना चाहिए; छत्रपति के आदेशों का पालन करना चाहिए या पेशवा की आज्ञा माननी चाहिए।

    मराठों की वह दुविधा वाली स्थिति अंग्रेजों के लिए बड़ी शुभ रही। युद्ध में पेशवा की पराजय हो गयी। इस विजय से अंग्रेजों के पैर महाराष्ट्र में पूरी तरह जम गये। पेशवाई समाप्त कर दी गयी। पेशवा को एक अपमानजनक सन्धि करने के लिए बाध्य किया गया। उसके सभी अधिकार अंग्रेजों ने ले लिए तथा उसे आठ लाख रुपये वार्षिक की पेंशन देकर महाराष्ट्र छोड़ने पर बाध्य किया गया।

    बाजीराव द्वितीय बिठूर में

    अंग्रेजों के साथ अपमानजनक सन्धि स्वीकार करने के बाद पेशवा बाजीराव द्वितीय वाराणसी जाकर अपना शेष जीवन व्यतीत करना चाहता था, किन्तु अंग्रेजों ने उसे अनुमति नही दी क्योंकि उस समय वाराणसी में कई सत्ताच्युत नरेशों ने शरण ले रखी थी। अंग्रेजों को भय था कि कहीं पेशवा बाजीराव द्वितीय वहां पहुंचकर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित करने का प्रयत्न न करे। अतः उसने बिठूर में रहने का निर्णय लिया।

    अपना वैभवशाली साम्राज्य अंग्रेजों के चरणों में समर्पित कर उसने आठ लाख वार्षिक की जीवनवृत्ति प्राप्त करके बाजीराव ने 1819 में बिठूर को अपना निवास बनाया। वह अपनी विशाल सम्पत्ति, अनेकों आश्रितों, पारिवारिक जनों आदि के साथ बिठूर के लिए चल पड़ा । मराठा सेना के अनेक स्वामिभक्त सेवक तथा सैनिक भी उसके साथ थे। उसके साथ अंग्रेज अधिकारी लैफ्टीनेंट लो भी संरक्षक के रूप में चल रहा था। पेशवा का दल पहले अजमेर पहुँचा। कुछ माह वह वहीं रहा। अभी उसने कहा रहूंगा, यह निश्चय नहीं किया था। धर्मपरायण व्यक्ति होने के कारण पहले वह काशी में रहना चाहता था, किन्तु अंग्रेजों ने उसके सामने कई स्थानों का प्रस्ताव रखा, किन्तु उनसे वह स्वयं सहमत नहीं हुआ। अन्त में कानपुर के पास बिठूर नामक स्थान के लिए दोनों पक्षों में सहमति हो गयी।

    पेशवा बाजीराव प्रथम के समय में जब फर्रूखाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस के विरुद्ध छत्रसाल की सहायता के लिए मराठा सेना भेजी गयी थी। तो उनमें से कुछ ब्राह्मण परिवार बिठूर में बस

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