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नेपथ्य का दीया
नेपथ्य का दीया
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Ebook149 pages1 hour

नेपथ्य का दीया

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इस कहानी-संग्रह में मानव के सुख-दुखात्मक संवेदनों की ऐसी कथायें हैं, जो उक्त संवेदनों को सम्पूर्ण परिवेश के साथ दूसरों की अनुभूति का विषय बना देती है| डॉ. तारा द्वारा रचित कहानियाँ, अन्य कहानीकारों से हटके, परम रहस्यमय और चमत्कारिक होती हैं| ये कहानी सृजन करते वक्त, अपनी मानसिक क्रियाएँ, उनके अनुभव, कल्पना, शब्द-योजना द्वारा जीवन का ऐसा संयोजन तैयार करती हैं, जो पाठक के अंतर-जगत में प्रतिफलित होते ही विशाल और सजीव हो उठती है| जैसे ‘मधुवा की माँ’, ‘छोटी बहू’, ‘आश्रिता’ आदि कहानियोँ का शब्द-शब्द सिर्फ बोलता ही नहीं है, बल्कि विशेष मानसिक क्रिया द्वारा, सत्य से साक्षात्कार भी कराता है, और उसे विशेष शब्द-संयोजन में, रूपात्मकता देता है|
मेरी समझ में ऐसी उच्चस्तरीय रचनाएँ हर किसी रचनाकार के लिए लिखना संभव नहीं है| यह तो केवल डॉ. तारा जैसी, एकाग्रस्थिति वाले रचनाकार ही इस तरह की रचनायें अपने मानसिक भूमि पर प्रस्तुत कर सकती हैं| मैंने पढ़ा, देखा, डॉ. तारा, हर एक कहानी को अपनी कोरी भावुकता से बचाकर, सहानुभूति पूर्वक मान्यताओं के प्रकाश में संवारी है| इनका मानना है कि मानव युगों के अन्धकार एवं नैतिक संकीर्णता की कलंक कालिमा से सनी चेतना की चादर को, नवीण प्रकाश के जल में डूबोकर, उसे संस्कृति के व्यापक मूल्यों की स्वच्छ शोभा प्रदान कर, सब के ओढ़ने योग्य बनाना होगा| नहीं तो अंतरिक्ष के दीप्त ग्रहों में, मन के इस अंधकार को ले जाकर क्या फायदा?
अंत में आप सभी विद्वान् पाठकों से मेरा आग्रह है कि आप ‘नेपथ्य का दीया’ कहानी-संग्रह को पढ़िये, और कोई कमी या गलतियाँ नजर आयें, तो बेझिझक बताइये भी| आपके मंतव्य का मैं स्वागत करूँगा|

Languageहिन्दी
Release dateApr 3, 2021
ISBN9788195054329
नेपथ्य का दीया
Author

डॉ. तारा सिंह

Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.

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    नेपथ्य का दीया - डॉ. तारा सिंह

    नेपथ्य का दीया

    कहानी संग्रह

    नेपथ्य का दीया

    कहानी संग्रह

    Author: Dr. Tara Singh

    First Edition

    ISBN Number: 978-81-950543-2-9

    Published: April 2021

    Copyright © 2021 Dr. Tara Singh

    All rights reserved, including the right of reproduction whole or in part in any form.

    Publisher: Swargvibha Publishing House

    Publisher Address: A-1601, Sea queen Heritage, Plot-6, Sec-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra – 400705

    अपनी बात

    ‘नेपथ्य का दीया’, आप पाठकों के सम्मुख रखने से पहले, मैं आप सबों से यह बताना आवश्यक समझती हूँ; पिछले अन्य सात कहानी-संग्रहों के प्रति मेरे आलोचक प्राय: कृपालु और उदार रहे| संभवत: इसीलिये, मैं ‘नेपथ्य का दीया’ आपके समक्ष रखने का साहस की हू| इस मनोहर कहानी-संग्रह के नीड़ में कुल तेरह कहानियाँ हैं, जो युग की प्रवृत्तियों से किस प्रकार संबंधित हैं, संक्षेप में, मैं आपका ध्यान इस ओर प्राकृष्ट करना पर्याप्त समझती हूँ| मेरा मन युग के आंदोलनों, विचारों, भावों तथा भावों के नवीन प्रकाश से इतना आंदोलित रहा है, कि अपनी मनोव्यथा को, ’शरणार्थी’उसने पीया है जहर’, ‘आश्रिता, आदि शीर्षक कहानियों को मैंने अपनी कोरी भावुकता से बचाकर, मान्यताओं के प्रकाश में संवारकर आपके समक्ष उपस्थित करने की कोशिश की है| इन कहानियों में इस लोक जीवन के पंक को धोने के लिए, नये मानव की अंत:पुकार है ‘नेपथ्य का दीया’; राजनीतिक दांव-पेंचों का यथार्थ न होकर, पूरी तरह मानवीय तथा साहित्यिक यथार्थ है| जिसमें मनुष्य परिस्थितियों की निर्ममता को अपनी रीढ़ तोड़ने देता है, और आगे न बढ़ सकने के लूँज-पुंज क्षोभ भरी वास्तविकता में आत्मतृप्ति का अनुभव करता है|

    ‘नेपथ्य का दीया’ की प्रत्येक कहानी को मैंने अपनी सीमाओं के भीतर रहकर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मंडित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है| ‘दादी का स्वर्ग’ शीर्षक कहानी में, आध्यात्मिकता के पैर को पृथ्वी पर स्थिर कर रखने की अप्राण चेष्टा किया है| ‘मानवता के स्वर्ग’ को, मैंने भौतिकता के ही हृदय-कमल में स्थापित किया है| मेरा मानना है, स्वर्ग प्राप्ति के लिए भू-जीवन का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसके लिये नवीन रूप से लोक-जीवन निर्माण करने की आवश्यकता है|

    युग संघर्ष के विभिन्न रूपों को मैंने अपनी कहानियों द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है| ‘मुझे दुआ चाहिए’ कहानी-संग्रह में जीवनोपयोगी धन के बिना, भावी पीढ़ियों को पिछले युगों के देह-बोध का भार वहन करते हुए, धूप और छाँह की तरह दो अनमोल इकाइयों में मैं विच्छिन्नता नहीं देखना चाहती| मैं मानती हूँ, ‘नेपथ्य का दीया’, इस युग के महान संघर्ष की एक झलक मात्र है| इसे आप पढ़कर देखिये, दावा तो नहींमेरा विश्वास है, आपका समय व्यर्थ नहीं जायेगा|

    अंत में इस भूमिका के रूप में, मैं प्रस्तुत अपने विचारोंविश्वासों, तथा जीवन मान्यताओं की त्रुटियों एवं कमियों के सम्बन्ध में आप पाठकों से क्षमा प्रार्थना करती हुई|

    ---- तारा सिंह

    अनुक्रम

    आश्रिता……………………………………………………….…….

    घर से श्मशान तक…………………………..……….………

    छोटी बहू…………………………………………..……….………

    दोष तो हमारे भाग्य का है…………….….………………

    स्वर्ग-सुख…………………………………….…….………………

    मर्णोत्सव…………………………………….……….…………….

    मुझे दुआ चाहिये……………………….………….………..…

    उधार का दूध…………………………….………….…………..

    भाग्य विडंबना………………………….…………….…………

    कुर्बानी का पुरस्कार………………….…………….…………

    पुत्रमोह…………………………………….……………….…….…

    बेरहम वक्त…………………………….……………….……….

    काला आँचल………………………….………………….………

    मधुवा की माँ………………………………………………….

    आज सप्तमी है………………………………………………

    संतान सुख……………………………………………………..

    आश्रिता

    पति की लम्बी बीमारी में अपना सब कुछ गँवा चुकी, रज्जो के पास अब गँवाने के लिए कुछ नहीं था और जो था, वह उसे गँवाने के लिए तैयार नहीं थी| उसका कहना था, स्त्री की आबरूउसका गहना होता है, जिसे बेचा नहीं जाता, बल्कि संभालकर रखा जाता है; लेकिन यह सोचकर वह चिंतित हो उठी, ’’कि इस पहाड़ सी जिंदगी बसर करने के लिए पैसे तो चाहिये था, वे कहाँ से आयेंगे; उस पर चार साल की बेटी सालवा, उसकी पढ़ाई-लिखाई कैसे होगी, धन तो है नहीं कि कोई रोजगार कर लूँ, व्यवहारिक बुद्धि भी नहीं जो बिना धन के भी अपने जीने की राह निकाल लूँ| किसी से ऋण भी लेने की हिम्मत नहीं पड़ती, चुकाऊँगी कैसे? किसी के घर जूठे बर्तन माँजने का भी काम नहीं कर सकती, कुल-मर्यादा का जो सवाल है|"

    वह किसी तरह दो-चार महीने काटी| जब देखी, पैसे बगैर जिंदगी नहीं जीयी जा सकती, तब वह विधाता के इस परिहास से छुटकारा पाने के लिए अपनी बेटी सलवा का हाथ पकड़ी और घर से निकल गई| मगर इतनी बड़ी दुनिया में कोई ऐसा रिश्तेदार भी तो नहीं था, जो माँ-बेटी, दोनों का भार उठाने के लिए तैयार हो| इसी चिंता में रज्जो दबी जा रही थी, लेकिन इस भार को हल्का करने का कोई साधन नहीं दीख रहा था| वह सोचने लगी, कहीं अपना घर त्याग कर मैंने सागर बीच नौके का त्याग तो नहीं कर दिया| अब जिंदगी अथाह जल में डूबी जा रही और जहाँ मैं खड़ी हूँ, वहाँ निविड़ सघन अंधकार बढ़ता जा रहा है| ऐसे में कहाँ जाऊँ?

    इधर सालवा के जीवन में, पिता की मृत्यु के बाद अद्भुत परिवर्तन दीखने लगा था, जिसे देखकर रज्जो की चिंता और बढ़ने लगी थी| रज्जो दरिद्र थी, मगर उसके मुँह पर इतना तेज था, जैसे प्राचीन देव-कथाओं की वह कोई पात्री हो| संध्या, रात में ढ़लने लगी| उसने देखा कि उसके चारो ओर के वृक्ष की छाया से एक काला-कलूटा आदमी अजगर की तरह, उसकी तरफ़ बढ़ता चला आ रहा है| वह चिल्ला उठी, बोली, ‘तुम जो भी हो, वहीं खड़े रहो| खबरदार! जो और एक कदम भी आगे बढ़ा| उसकी चिल्लाहट सुनकर, उधर से गुजर रहा, बगल के गाँव का मुखिया, भीमा उसके पास आया, पूछा, ‘तुम कौन हो नारी, कहाँ जाना है? क्या तुमलोगों को कोई कष्ट है?

    नहीं कहती हुई, रज्जो ने जब अपने सिर से आँचल हटाईयुवक (मुखिया) आश्चर्यचकित हो गया, उसकी साँस भारी हो गई| उसका पूरा शरीर झनझना गया|

    युवक ने अपने कंठ में कोमलता लाते हुए कहा, ‘रात होने वाली है, वह भी अमावस्या की; ऐसे में तुम्हारा अकेले कहीं जाना क नहीं, तुम चाहो तो आज की रात मेरे घर गुजार सकती हो, ऐसे तुम्हारी मर्जी| रज्जो सोचने लगी, ’आगे खाई है तो पीछे कुआँ, ऐसे में पीछे न लौटकर, आगे चलते रहना ही ठीक होगा| वह उस युवक के साथ उसके घर चली आई और वहीं एक कमरे में, एक चटाई बिछाकर दोनों माँ-बेटी रात बिताने लेट गई| कल की चिंता में, उसकी आँखों में नींद कहाँ थी, जो सो जाती| वह तो घुली जा रही थी कि सुबह यहाँ से कहाँ जाऊँगी?’

    उधर दूसरे कमरे में लेटा मुखिया की आँखों की भी नींद, वृक्ष पर की चिड़ियों की तरह फ़ुर्र हो चुकी थी| वह सोचकर अधीर हो रहा था, कि यद्यपि युवती का रंग कंचन समान नहीं है, लेकिन उसका साँचे में ढ़ला गठीला बदन, किसी परी से भी कम नहीं है| तो क्या यह सौन्दर्य उपासना की वस्तु है, उपभोग की नहीं? उसकी सोच धीरे-धीरे विलास-मंदिर में परिणत होने लगी और मन यौवनोन्माद के रस को पीने के लिए तड़प उठा| वह अपने पाप के वेग से उठा

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