Upkar
By Rajvansh
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Upkar - Rajvansh
एक
पीटर परेरा के कानों में किसी प्रकार की कोई आवाज पहुंची थी, जिससे उसकी आंख खुल गई थी। परेरा अपनी भवों को सिकोड़े आवाज को सुनने का प्रयत्न करता रहा। अचानक उसकी ज्ञानेंद्रियां पूर्ण रूप से जाग उठीं और उसकी समझ में आया कि वह हल्की-हल्की आवाज वास्तव में ताले के छेद में किसी प्रकार का औजार घुमाने की थी।
परेरा ने बड़ी फुर्ती से उठकर बैठते हुए तकिए के नीचे से अपना रिवाल्वर निकाला और भारी आवाज में बोला-
‘कौन है? खबरदार!’
आहट एकाएक रुक गई, मगर परेरा की छठी ज्ञानेंद्री कह रही थी कि दरवाजे के पास कोई-ना-कोई जरूर है। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने ऊंची आवाज में पुकारा-
‘आशली...ओ आशली!’
मगर दूसरी ओर से कोई उत्तर न मिला। परेरा के रोंगटे खड़े हो गए थे और गला सूख गया था। उसने फिर जोर-जोर से पुकारा-
‘चौकीदार...ऐ चौकीदार!’
मगर उत्तर फिर न मिला। हां, अचानक स्काई लाइट का शीशा टूटने की झंकार ने उसे इतनी बुरी तरह चौंकाया, जैसे उसके आसपास कोई बम आकर फट गया हो और वह बड़ी मुश्किल से चिल्लाने में सफल हो सका।
‘क...क...कौन? खबरदार गोली मार दूंगा।’
मगर स्काई लाइट की ओर से एक तेज मगर धीमी आवाज सुनाई दी-
‘जरूर गोली चलाओ तुम्हारी एक गोली व्यर्थ जाएगी और तुम्हारे बेटे और उसकी नई-नवेली दुल्हन के प्राण चले जाएंगे।’
‘नहीं-नहीं!’ परेरा पागलों के समान घबराया हुआ बोला।
‘तो फिर स्वयं ही दरवाजा खोलने का कष्ट करो। मेरे साथी को तार से ताला खोलने में कठिनाई हो रही है और तुम्हारे बेटे के बैडरूम की स्काई लाइट में दो रिवाल्वरों की नलियां पहले ही से फिट हैं।’
‘त...त...तुम कौन हो? क्या चाहते हो?’
‘मिस्टर परेरा! हमें अपना परिचय ही दे देना होता तो दिन की रोशनी में कार से परेरा मैंशन के सामने न उतरते? जहां तक चाहने का संबंध है हम क्या चाहते हैं, यह दरवाजा खुलने पर बता सकेंगे। बेहतर होगा अपना रिवाल्वर जेब में रख लो।’
परेरा के कानों में सीटियां-सी बज रही थीं बदन थर-थर कांप रहा था। उसने कांपते हाथ में दबा हुआ रिवाल्वर जेब में डाल दिया। ऊपर से आवाज आई-
‘शाबास! अब एक बुड्ढे की तरह दरवाजा खोल दो।’
परेरा लड़खड़ाता हुआ आगे बढ़ा दरवाजे के पास आकर उसने बोल्ट गिराया फिर हैंडिल घुमाकर दरवाजा खोल दिया, साथ ही एक आदमी, जिसका चेहरा काले रूमाल से ढका हुआ था, रिवाल्वर ताने हुए अंदर घुस आया और परेरा हड़बड़ाकर पीछे हट गया। ऊपर से फिर बर्फ की-सी ठंडी आवाज सुनाई दी-
‘ठीक है बुड्ढे! अब तिजोरी की चाबियां निकालकर मेरे साथी के हवाले कर दो।’
परेरा लड़खड़ाते हुए पीछे हट गया और कांपते हाथों से तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकालकर उसने नकाबपोश की ओर बढ़ा दिया। नकाबपोश ने गुच्छा लिया और कोने में रखी हुई सेफ की ओर बढ़ गया-फिर दूसरे ही क्षण सेफ खुला हुआ था और नकाबपोश उसमें से जेवरात और नकदी समेट-समेटकर एक चमड़े के बैग में भर रहा था-उसके हाथों में दस्ताने थे। इस काम से निबटने के बाद नकाबपोश ने ऊपर हाथ उठाकर अंगूठा दिखाया, जिसका मतलब था कि काम हो गया। ऊपर से फिर वही ठंडी और रहस्यमयी आवाज आई-
‘धन्यवाद मिस्टर परेरा! अब तुम जहां खड़े हो, वहीं खड़े रहोगे। मेरा साथी दरवाजा बाहर से बंद करके जाएगा और दरवाजा बंद होने के ठीक पंद्रह मिनट बाद तुम दरवाजा खोलोगे। अगर एक मिनट भी इससे पहले तुमने कोई हरकत की तो उसके परिणाम के तुम स्वयं उत्तरदायी होगे।’
परेरा कुछ न बोला केवल होंठों पर जुबान फेरकर रह गया था। नकाबपोश दरवाजे से बाहर निकल गया और दरवाजा बंद हो गया। परेरा अपनी जगह इस तरह खड़ा रहा जैसे वह पत्थर की मूर्ति हो...उसे दिल की धड़कनें कनपटियों पर बजती अनुभव हो रही थीं...सांसें जैसे रुक-रुककर आ रही थीं और एक-एक पल एक-एक वर्ष के बराबर मालूम हो रहा था। कमरे में लगे क्लॉक की टिक-टिक परेरा को अपने दिमाग पर हथौड़ों की तरह लगती हुई अनुभव हो रही थी और दृष्टि क्लॉक पर लगी थी। न जाने कितनी शताब्दियां बीतने के बाद पंद्रह मिनट गुजरे और परेरा कांपता हुआ आगे बढ़ा और उसने कंपकंपाते हाथों से दरवाजा खोला और दूसरे ही क्षण उसके गले से हल्की-सी चीख निकल गई। कोई आदमी ही था, जो शायद दरवाजे से लगा हुआ था और दरवाजा खुलते ही परेरा पर चला आया और फिर जब परेरा की नजरें उस आदमी पर पड़ीं तो परेरा के गले से एक पीड़ा भरी चीख निकली-
‘आशली...मेरे बच्चे!’
और फिर दूसरे ही क्षण वह फर्श पर बैठकर पागलों के समान आशली को टटोलने लगा, मगर आशली का बदन तो बर्फ के समान ठंडा था और आंखें फटी हुई थीं, सीने पर से शर्ट गहरे खून से लाल हो रही थी। परेरा रोता हुआ तेजी से बाहर की ओर दौड़ा-
‘लिल्ली-लिल्ली!’
मगर कॉरीडोर के सिरे पर उसके पैरों से कोई चीज टकराई और वह औंधे मुंह गिरा। गिरते ही जल्दी से संभलकर उसने उस चीज को टटोला, जिससे टकराकर वह गिरा था और उसके गले से अनायास एक खरखराती चीख निकली-
‘लिल्ली!’
और फिर एकाएक उसकी आंखों में अंधेरा छा गया और मस्तिष्क अंधकार की दलदल में डूबता चला गया। आखिरी क्षणों में उसने किसी की आवाज सुनी थी, कोई जोर-जोर से पुकार रहा था-
‘मिस्टर परेरा! क्या हुआ मिस्टर परेरा?’
मगर परेरा तो बेहोश हो चुका था, बराबर के बंगले से टॉर्च के प्रकाश का वृत्त कम्पाउंड में लहरा रहा था और कोई आदमी जोर-जोर से पुकारे जा रहा था-
‘मिस्टर परेरा! आशली! क्या बात है? चौकीदार-चौकीदार!’
फिर दौड़ते हुए कदमों की आहटें कम्पाउंड तक आईं और टॉर्च के प्रकाश में एक खाकी वर्दी वाला हांफता हुआ नजर आया-वह जोर से बोला-
‘क्या हुआ साहब? क्या बात है?
‘कौन? चौकीदार?’
‘जी साहब...मैं हूं।’
‘अभी-अभी मिस्टर परेरा क्यों चीख रहे थे?’
‘साहब! मुझे नहीं मालूम, मुझे तो किसी ने पीछे से सिर पर डंडा मारकर बेहोश कर दिया था।’
‘क्या कह रहे हो तुम?’ आवाज कांप रही थी।
‘सच कह रहा हूं, साहब! जरूर कोई गड़बड़ लगती है।’
‘जल्दी से देखो।’
चौकीदार दौड़ता हुआ बरामदे में चढ़ा और उससे भी वही कुछ हुआ जो परेरा के साथ हुआ था। वह भी परेरा और लिल्ली से टकराकर गिरा था, फिर उसने जल्दी से उठकर बत्ती जलाई और उसके गले से इस तरह निरंतर चीखें निकलने लगीं जैसे वह कोई चीखने की मशीन हो। अब कई ओर से जोर-जोर से चीखने की आवाजें आ रही थीं और साथ ही आसपास के बंगलों में रोशनियां भी होने लगी थीं और कदमों की आहटें भी गूंजने लगी थीं।
फिर लगभग एक घंटे के अंदर-ही-अंदर परेरा मैंशन के कम्पाउंड में तेज रोशनी के साथ पुलिस वालों की वर्दियां-ही-वर्दियां नजर आ रही थीं...वे लोग अंदर की देखभाल कर रहे थे और पड़ोस के बंगलों के मालिकों का जत्था एक ओर खड़ा आपस में इस भयानक दुर्घटना के संबंध में टिप्पणियां कर रहा था-
‘मिस्टर परेरा का बेटा आशली तो बेचारा बहुत ही सीधा लड़का था।’
‘निःसंदेह इतना सुंदर और स्वस्थ लड़का और फिर उसकी शादी को अभी चंद ही दिन हुए थे।’
‘लिल्ली की मौत बेचारी को यहां लेकर आई थी।’
‘सुना है दोनों ने आपसी प्रेम से शादी की थी।’
‘हो सकता है यह लिल्ली के किसी आशिक की हरकत हो।’
‘जी नहीं’ एकाएक एक पुलिस अफसर उन लोगों के पास आकर बोला- ‘यह शत-प्रतिशत डाकाजनी का केस है-मिस्टर परेरा की सेफ खुली पड़ी है, जेवर और नकदी सब गायब है।’
एकाएक ऐसे लगा जैसे उन सबको सांप सूंघ गया हो। उनकी ऊपर की सांसें ऊपर रह गई थीं और नीचे की नीचे...चेहरे पीले पड़ गए थे...आंखों से गहरा भय झांकने लगा था। फिर पुलिस अफसर ने उन लोगों को संबोधित करके पूछा-
‘आप लोगों में वह साहब कौन हैं, जिन्होंने मिस्टर परेरा की चीखें सुनी थीं?’
‘जी!’ एक अधेड़ आदमी थूक निगलकर बड़ी मुश्किल से बोला-‘मैं...मैंने सुनी थीं।’
‘आप बराबर के बंगले में रहते हैं?’
‘जी हां, हीरा भवन में हीरालाल ज्वैलर्स का मालिक हूं।’
‘आप अकेले रहते हैं?’
‘जी नहीं, मेरे दो बेटे, बहुएं, पोते-पोतियां, पत्नी सभी रहते हैं।’
‘मेरे साथ आइए।’
हीरालाल अंदर चला गया। बाकी लोग सन्नाटे में खड़े रहे गए। फिर एक ने निस्तब्धता भंग की और बड़ी मुश्किल से थूक निगलकर भर्राई आवाज में बोला-
‘इसका मतलब है अब यह इलाका भी खतरनाक हो गया है।’
‘खुली हुई बात है।’ दूसरा बोला- ‘मैं भी इसी एरिया में पैदा होकर बूढ़ा हो गया, मगर मेरी ‘नॉलिज’ में यह बिलकुल पहला केस है।’
‘दरअसल इस सुनसान इलाके में यह पांच बंगले ही तो रह गए हैं और महंगाई ने आदमी को जानवर बना दिया है। वरना क्या इसी इलाके में हम बारह बजे रात को चहलकदमी करने न निकला करते थे?’
कोई कुछ न बोला। गहरी चिंता की झलकियां सबके चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं।
* * *
सेठ दौलतराम ने व्हिस्की का एक लंबा घूंट लिया और कलाई की घड़ी देखी, रात के ठीक साढ़े ग्यारह बजे थे। किसी ने दरवाजे पर धीरे-धीरे दस्तक दी और दौलतराम ने बड़े प्रशांत ढंग से मुस्कराकर दरवाजे की ओर देखा... गिलास खाली किया और फिर धीरे-धीरे चलते हुए दरवाजे की ओर आए। दरवाजा खुला और झपाक एक हट्टा-कट्टा आदमी अंदर दाखिल हुआ...फिर उसने उतनी ही फुर्ती से दरवाजा बंद भी कर दिया। दौलतराम के होंठों की मुस्कराहट गहरी हो गई। उन्होंने दरवाजे से पीठ लगाए हांफते हुए जैकसन को देखा और फिर बार काउंटर की ओर बढ़ते हुए बड़े शांत स्वर में बोले-
‘यार जैकसन! तुम्हें तो किसी प्राइमरी स्कूल में टीचर होना चाहिए था। तुमसे किसने कहा था कि तुम दादागिरी का धंधा करो।’
‘सेठजी!’ जैकसन ने अपने भावों को संयत करने का प्रयत्न करते हुए कहा- ‘दादागिरी और बात है और किसी की हत्या कर देना और बात है। जब मैंने पहला चाकू चलाया था तो वार जांघ के स्थान पर पिंडली पर किया था ताकि जान जाने का खतरा न रहे।’
दौलतराम ने दो गिलासों में व्हिस्की उड़ेली और जैकसन की ओर मुड़कर एक गिलास उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले-
‘हमने तुमसे पहले ही कहा था कि यह काम तुम किसी और को सौंप दो।’
‘सेठजी! जैकसन गिलास लेकर मुस्कराया- ‘अगर किसी और को सौंप देता तो मुझे क्या मिलता?’
‘अभी उस बुड्ढे की सेफ में तुम्हें क्या मिला?’
‘आपका अनुमान शत-प्रतिशत ठीक निकला। जेवरात सब नकली हैं...लिल्ली ज्वैलरी के...बीस रुपये तोला वाले... और नकदी हजार-बारह सौ से अधिक नहीं।’
दौलतराम ने एक जोरदार ठहाका लगाया। इस बीच जैकसन ने एक लंबा घूंट लिया था। दौलतराम ने काफी देर बाद अपना ठहाका रोका और बोला-
‘खैर छोड़ो! तुम्हारे पचास हजार खरे। अभी लोगे या कल अड्डे पर पहुंचा दिए जाएं?’
‘सेठजी! न आप कहीं भाग रहे हैं, न मैं रातभर में मर जाऊंगा बिना रकम के!’ जैकसन ने मुस्कराकर कहा- ‘फिर अभी तो हमारे संबंध जाने कब तक चलेंगे?’
‘शायद आज के बाद फिर कभी नहीं।’
‘क्या मतलब?’ जैकसन ने चौंककर पूछा।
‘तुमने जो आदमी अपने साथ लिए थे, उनमें से तो कोई हमें नहीं जान सका?’
‘बिलकुल नहीं।’ जैकसन दूसरा घूंट लेकर मुस्कराया- ‘आप मुझे इतना मूर्ख समझते हैं? किसी के फरिश्तों को भी मेरा और आपका सौदा नहीं मालूम।’
‘बहुत समझदार हो तुम।’
‘मगर सेठजी! एक बात मेरी समझ में नहीं आई।’
‘वह क्या?’
‘आपको बंगला हीरालाल का खरीदना है और खून कराया पीटर परेरा के बंगले में।’
‘जैकी! अगर तुम इतने ही समझदार होते तो आज सेठ दौलतराम होते और हम तुम्हारी तरह एक साधारण जुआखाने के मालिक।’
‘क्या मतलब?’
‘हीरालाल से हमने बंगला खरीदने की बात की थी, मगर वह अपने पुरखों के बंगले को दस लाख में भी बेचने पर सहमत नहीं हुआ। अगर हम सीधा उसी का खून करा देते तो क्या उसका बंगला खरीदने का साहस कर सकते थे? इसके विपरीत अब उस इलाके में रहने वाला हर बंगले का मालिक हमारी ओर दौड़ा आएगा।’
‘माई गुडनैस!’ जैकसन की आंखें आश्चर्य से फैल गईं- ‘सचमुच हीरालाल को भयभीत करने का इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं था।’
‘समझ गए ना!’ दौलतराम धीरे से हंसे।
एकाएक जैकसन ने जल्दी से गिलास मेज पर रख दिया और अपना दिल मसलता हुआ बोला-
‘सेठजी! मेरा दिल क्यों घबरा रहा है?’
‘बैठ जाओ, बैठ जाओ!’ दौलतराम ने बड़े संतोष से कहा।
‘क्या बात है सेठजी! मुझे अपने दिल की धड़कनें बैठती हुई सी अनुभव हो रही हैं।’
‘मरते समय आदमी को आराम से मरना चाहिए।’
‘सेठजी!’ जैकसन ने हड़बड़ाकर खड़ा होने का प्रयत्न किया।
मगर फिर वह कसकर कलेजा थामकर बैठ गया-उसके चेहरे पर एक भूचाल-सा था। उसका पूरा चेहरा पसीने में भीगा हुआ था। उसने बड़ी मुश्किल से भिंची-भिंची आवाज में कहा-
‘यह...यह क...क...क्या हो रहा है मुझे?’
‘जहर का प्रभाव।’ दौलतराम ने घूंट लेकर बड़ी शांत मुस्कराहट के साथ कहा।
‘जहर!’ जैकसन ने बड़ी मुश्किल से कहा- ‘त...त...तूने...म...म...मुझे...जहर...दे दिया...कमीने!’
‘बुरी बात...जैकसन! मरते समय तो अपने बॉस का आदर करो।’
‘कुत्ते...कृतघ्न...मैं...मैं...तुझे...जिंदा...नहीं छोडूंगा।’
‘जरूर...जरूर...अगर तुम हमें जिंदा न छोड़ने के लिए जिंदा रह सको।’
जैकसन ने अपना पूरा बल लगाया और कुर्सी से खड़ा हो गया। उसका बदन थर-थर कांप रहा था...चेहरे पर सिमटते हुए जीवन के चिह्न थे। वह दोनों हाथ बढ़ाकर इस तरह दौलतराम की ओर बढ़ रहा था जैसे सचमुच वह उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा...मगर दौलतराम के चेहरे पर जरा भी डर नहीं था। वह जहां खड़े थे, वहीं खड़े-खड़े गिलास से एक घूंट लेकर मुस्कराकर बोले-
‘डीयरेस्ट जैकी! क्यों अपने पैरों को अंतिम समय में कष्ट दे रहे हो...अब तुम्हारे आराम का समय हो गया है।’
‘मैं...तुझे...म...म...मारे...बिना...।’
जैकसन दौलतराम के बिलकुल पास जा पहुंचा था। उसके दोनों हाथ दौलतराम के गले की ओर बढ़े, मगर दौलतराम अपने स्थान से टस-से-मस नहीं हुए। उन्होंने हल्के से ठहाके के साथ व्हिस्की का एक हल्का घूंट लिया और फिर जैकसन लड़खड़ाकर धड़ाम से फर्श पर आ गिरा। दौलतराम के चेहरे पर गहरा संतोष था, साथ ही मुस्कराहट भी खेल रही थी। उन्होंने गिलास खाली करके मेज पर रखा और जैकसन वाला गिलास उठाकर उसकी बची हुई व्हिस्की वाशबेसिन में उड़ेली, गिलास धोया और वापस लाकर काउंटर पर रख दिया। यह सारा काम उन्होंने इतने आराम से किया, जैसे कमरे के ड्राइंगरूम में बैठे हुए कोई रोचक खेल खेल रहे हों। फिर उन्होंने हाथों पर दस्ताने चढ़ाए और कॉटेज की बत्ती बुझाकर दरवाजा खोला।
रात अंधेरे और सन्नाटे में डूबी हुई थी। दौलतराम बड़े आराम से बाहर निकले। अपनी कार की डिग्गी खोली, फिर वापस कॉटेज में आकर उन्होंने जैकसन की लाश उठाई और बाहर आकर उसे कार की डिग्गी में रखकर डिग्गी का ताला लगा दिया। थोड़ी देर बाद उनकी कार सड़क पर दौड़ रही थी। उनके दांतों में एक कीमती सिगार दबा हुआ था। चेहरा पूर्ण रूप से शांत था।
दो
दौलतराम ने बड़े शांत ढंग से टेलीफोन की ओर देखा, जिसकी घंटी बज रही थी। उनकी पर्सनल सैक्रेटरी रोजा ने आगे बढ़कर रिसीवर उठाया और बोली- ‘यस...!’
‘मिस रोजा!’ किसी पुरुष की आवाज आई- ‘मैं मैनेजर बोल रहा हूं। सेठ साहब को बोलिए, हीरालाल जौहरी, प्रोफेसर हुसैन, मैकेनिकल इंजीनियर सीताराम शर्मा, सेठ मंगतराम मिठाईवाला और मिस्टर परेरा अपने-अपने बंगले बेचना चाहते हैं।’
रोजा ने माउथपीस पर हाथ रखकर दौलतराम को बुलाया और दौलतराम की मुस्कराहट और गहरी हो गई... वह बोले-
‘बहुत खूब...कहां तो हीरालाल जौहरी ही अपना बंगला बेचने पर सहमत नहीं था, जबकि हमने हर बिल्डर से अधिक कीमत लगाई थी...पूरे दस लाख और