पायल: उपन्यास
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पायल एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो समय के हाथों का खिलौना बन जाती है । परिस्थितियाँ उसे आसमान से धरती पर पटक देती हैं । एक एक कर के उसके सभी सहारे छिन जाते हैं । यहां तक कि वह घोर निराशा में पड़ कर आत्मघात तक के लिए उद्यत हो जाती है । परंतु अंततः जिजीविषा, आशा तथा संघर्ष की प्रबल भावना उसे पुनः सतत संघर्ष की ओर उन्मुख कर देती है और अंततः वह अपने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होती है । यह भारतीय परिवेश में पलनेवाली युवती की संघर्ष गाथा है जो पाठकों के हृदय में नूतन प्रेरणा का संचार करती है...
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पायल - डॉ. रंजना वर्मा
पायल
उपन्यास
BY
डॉ. रंजना वर्मा
pencil-logo
ISBN 9789354584831
© Dr. Ranjana Verma 2021
Published in India 2021 by Pencil
A brand of
One Point Six Technologies Pvt. Ltd.
123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
E connect@thepencilapp.com
W www.thepencilapp.com
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DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.
Author biography
नाम -
डॉ. रंजना वर्मा
पति - स्मृतिशेष श्री राजेन्द्र प्रकाश वर्मा , लब्धप्रतिष्ठ हास्य व्यंगकार व पत्रकार ।
जन्म -
15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।
शिक्षा-
एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)
लेखन एवम् प्रकाशन -
वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।
प्रकाशित कृतियाँ -
एक महाकाव्य, नौ खण्डकाव्य, चौदह ग़ज़ल संग्रह, चार गीतिका संग्रह, छै गीत संग्रह, एक कुण्डलिया संग्रह, तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास । बाल साहित्य तथा अन्य काव्य कृतियाँ ।
सम्पादन -
चार कविता संग्रह, एक गीत संग्रह, एक स्मृति ग्रन्थ, एक हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह।
प्रसारण -
गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।
सम्मान -
श्रीमती राजकिशोरी मिश्र सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द-श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान, ग़ज़ल-सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक-गौरव सम्मान, दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक-भूषण सम्मान, दोहा-मणि सम्मान।
सम्प्रति -
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।
सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com
Contents
एक
दो
तीन
चार
पाँच
एक
"एक - दो - तीन - चार -
ना धी धी ना ना धी धी ना
तबले पर थाप पड़ी और दो गोरे चरण थिरक उठे । कनकलता सी कोमल देह - यष्टि झूम कर लहराने लगी । पतली कमर में बल पड़ने लगे और जुल्फ़ें काली घटा बन कर चंद्रमुख की शोभा को सीमा में बांधने लगीं ।
कुछ देर की मस्ती भरी नृत्यावली के बाद उस्ताद की आखिरी थाप के साथ जब चरण रुके, नर्तकी पायल ने उस्ताद काले खाँ की ओर दृष्टिपात किया और हौले से मुस्करा पड़ी । उसकी उस मादक मुस्कान ने जैसे बिजली गिरा दी । उस्ताद ने आगंतुक नवाब की ओर संकेत किया और पानदान से गिलोरियाँ निकाल कर चाँदी की तश्तरी में सजा दीं ।
पायल ने चाँदी की तश्तरी उठा ली और सधे कदमों से मेहमानों की ओर बढ़ गई । शम्मा की रोशनी में जलने वाले परवानों ने एक-एक मद भरी चितवन और पान की गिलोरियों के बदले में अपनी जेबें खाली कर दीं । अंतिम बार कोर्निश करके पायल भीतरी द्वार का पर्दा खिसका कर भीतर चली गयी । एक-एक कर मेहमान उठे और धीरे-धीरे करके थके कदमों से अपना सब कुछ लुटा कर हारे हुए जुआरियों की भाँति चले गए । फिर भी उनकी पागल उन्माद भरी जवानी कह रही थी - तुमने कुछ भी नहीं खोया और विवेक उस नादानी पर तरस खा रहा था ।
महफिल खाली हो गई । कुछ देर पहले जहाँ जमघट था वह कमरा अब सूना हो गया था । फर्श और गलीचे पर कुछ सिक्के और कागज के नोट इधर उधर पड़े थे जैसे व्यस्त गृहणी का उपेक्षित शयनकक्ष । उस्ताद ने सूने कमरे की ओर देख कर एक गहरी साँस ली । फिर उसने सभी सिक्के बटोर लिए । नोटों को उठा कर गिना और भीतरी द्वार की ओर दृष्टि डाली । चाँदी की तश्तरी में मिली सौगात पायल के हिस्से की थी और फर्श और गलीचे पर बिखरी धनराशि उस्ताद काले खाँ की । उस्ताद इस आमदनी से संतुष्ट था । पायल की सम्पूर्ण नगर में चर्चा थी । उसके कमरे में बिखरे हुए सिक्के उसके लिए बहुत अधिक थे और उन्होंने ही उसे नगर का एक धनी व्यक्ति बना दिया था ।
पायल उसे अपने पिता के समान मानती थी । वह उससे नौकरों जैसा नहीं बल्कि मित्रों जैसा व्यवहार करती थी । काले खाँ उसका उस्ताद, पथ प्रदर्शक और स्नेही मित्र सभी कुछ था । वह उसका आदर भी करती थी और उससे सम्मान भी लेती थी ।
पायल नर्तकी थी । एक ऐसी नर्तकी जिसकी पायल की जरा सी
छनक पर कितने ही परवाने अपना सब कुछ लुटा बैठते थे । वह एक आग थी । ऐसी आग जिसमें धनी वर्ग ईंधन की तरह जल रहा था । वह एक शूल थी । ऐसा शूल जो एक बार चुभ जाए तो जीवन भर उसकी कसक ताजी बनी रहती । जिसने एक बार उसे देखा उसने उसे अपने हृदय की अधीश्वरी बना लिया । जो एक बार उसे रंगशाला में निहार आया वह उसकी बाँकी लचक पर तन मन धन हार बैठा ।
फिर भी वह निस्पृह थी । चिकने घड़े जैसी जिस पर पानी की बूंद कभी नहीं ठहरती । उसके लाखों प्रेमी थे परंतु वह किसी की प्रेमिका नहीं थी । उससे कितनों ने ही प्यार किया था लेकिन उसने किसी की स्मृति सँजोना नहीं सीखा । उसने जलाना सीखा था जलना नहीं । वह तड़पाना जानती थी तड़पना नहीं क्योंकि उसे पुरुष वर्ग से नफ़रत थी । वह पुरुषों से घृणा करती थी । उन्हें तड़पाने में उसे सुख मिलता था । वह वेश्या थी लेकिन एक ऐसी वेश्या जो प्यार में जलाना जानती है बुझाना नहीं ।
उसे छूने के प्रयत्न में उसके कितने ही प्रेमी जल मरे लेकिन कोई भी उसे पा नहीं सका । ऐसी ही थी वह । एक खिलती कली जो फूल बनना ही नहीं चाहती थी । जिसका रूप और श्रृंगार प्यास जगा कर घूंघट में छिप जाता था ।
अट्ठारह वर्ष की आयु थी उसकी । चार वर्ष पहले वह यहाँ की नृत्यशाला में आई थी और तब से अब तक कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सका था । वह अद्वितीय थी । बेमिसाल थी ।
चार वर्ष पहले वह इस गली में आई थी । उसे अब भी वह दिन याद है । अब भी उसे अपनी विवशता की वह कहानी भूली नहीं है जिस ने उसे शराफत की जिंदगी से खींच कर समाज की गंदी नाली में ला पटका था और इसीलिए वह पुरुषों से घृणा करती थी । उसे इस दोहरे मापदंड वाले समाज से नफ़रत थी । वह समाज को अपने क्रोध की आग में जला कर भस्म कर देना चाहती थी ।
उसे याद था वह दिन जब अन्न के एक-एक दाने के लिए वह तरसी थी । जब उसे रोटी देने के बदले उसकी अस्मत का सौदा किया गया था । और अब ..... अब पायल वेश्या थी । कलकत्ता की सुप्रसिद्ध नर्तकी । वह नर्तकी जिसकी एक मुस्कान की कीमत हजारों रुपयों में आँकी जाती थी । जिसकी पायल की झनकार पूंजीपतियों की तिजोरियाँ खोल डालती थी और जिसकी कमर का एक हल्का लोच उसके सामने धन का ढेर लगा देता था ।
उस्ताद काले खाँ ने पर्दा हटा कर देखा । पलंग पर लेटी पायल अपनी थकान उतार रही थी । उसने कहा -
जाता हूँ बाई जी !
अच्छा ।
पायल ने लेटे ही लेटे उत्तर दिया ।
ख़ुदा हाफ़िज़ !
ख़ुदा हाफ़िज़ !
और काले खां सीढ़ियां उतर कर नगर की गलियों में खो गया ।
०००
कलकत्ता की शाम । सड़कें रोशनी से जगमगा उठीं । बिजली के कृत्रिम प्रकाश ने सूर्य की किरणों से होड़ कर दी । बिजली के रंग-बिरंगे लट्टुओं ने सतरंगी आभा बिखेर दी । ऐसे सुंदर समय में नगरवासियों का रेला सड़कों पर बिखर गया था । लोग कलकत्ता की रंगीनियों का आनंद ले रहे थे । चहल पहल का बाजार गर्म था ।
ऐसे सुहाने समय में एक नवयुवक अपना मानसिक अवसाद खोने के लिए स्थान ढूंढ रहा था । उसके हृदय में अरमानों की चिता जल रही थी । दिल में विचारों का भयंकर तूफान उठा हुआ था । आकुलता से भरा मन लिए वह कलकत्ते की रौनक भरी सड़कों पर भटक रहा था । उसका मन कहीं भी लग नहीं रहा था ।
वह प्रदीप था । बी. ए. का उदीयमान छात्र । विद्यालय की आशा और अभिभावकों का सुनहरा सपना प्रदीप जो हँसमुख, शांत और धैर्यवान था, जिसने हँसना सीखा था । सिर्फ खुश रहना । लेकिन आज उसके हृदय में जो आग जल रही थी उसमें उसकी सारी शांति, सहनशीलता और धैर्य जल कर भस्म हो गए थे । वह एक तूफान के झोंके की तरह भटक रहा था - इधर से उधर । उधर से इधर….
अंत में उसके भटकते कदम शहर की बदनाम गली की ओर मुड़ गये जहाँ इस समय घुँघरुओं के स्वर गीतलहरी के साथ ताल दे रहे थे । यह वह बदनाम गली थी जिससे सभी इज्जतदार आदमी दिन के उजाले में नफ़रत करते हैं और उसकी बेइज्जती को रात के अंधेरे में दामन में छुपा लेते हैं । यही वह बदनाम गली है जिसके द्वार पर साँझ ढले समाज की इज्जत सर पटक कर देती है और जिसकी बेइज्जती इज्जतदार लोगों में बंट जाती है । अनजाने ही प्रदीप के पैर उस गली में प्रवेश कर गए ।
एक अंधेरे जीने के सामने एक छोटी सी पान की दुकान थी । उस पर मध्यम प्रकाश का बल्ब जल रहा था । दुकान पर इस समय कोई ग्राहक न था । प्रदीप को देख कर दुकान वाला मुस्कुराया ।
आओ बाबू ! एक पान लिये जाओ।
प्रदीप पान नहीं खाता था फिर भी वह दुकान पर रुक गया । पान वाले ने पूछा -
लगाऊं बाबू ?
नहीं , मैं पान नहीं खाता ।
तो सिगरेट ही ले लो एक । सिगरेट भी नहीं पीते क्या ?
हां, नहीं पीता ।
तो आज ही सही । पी कर देखो । मजा आ जाएगा ।
लेकिन ....
डरते हो ? नये हो इसीलिए । दुनिया में आने वाला हर आदमी बुराई से अनजान होता है बाबू ! लेकिन दुनिया उसे सब कुछ सिखा देती है । अच्छाई भी और बुराई भी ।
लाओ, एक सिगरेट दे दो ।
प्रदीप ने उसकी बात की थाह सी लेते हुए कहा ।
नहीं पीते तो रहने दो बाबू !
पीता नहीं पानवाले ! लेकिन आज पिऊंगा ।
क्यों बाबू ?
इस ओर भी कभी नहीं आता था । आज यहाँ तक आ गया तो अनहोनी ही होने दो । लाओ ।
इसके पहले कि पान वाला कुछ उत्तर दे प्रदीप ने सिगरेट का डिब्बा उठा लिया । एक सिगरेट निकाल कर उसने होठों से लगाई तो पान वाले ने लाइटर से उसे जला दिया । पान वाले को पैसे देते हुए उसने एक कश लिया । तभी जैसे कोयल कूक उठी -
"नसीब वाला है वह जिसको कोई प्यार करे
है खुशनसीब वो जिसका तू इंतजार करे ।।"
प्रदीप ने सामने के अंधेरे जीने पर दृष्टि डाली । भटकती निगाहें जीने के ऊपरी हिस्से तक चली गयीं जहाँ से हल्का प्रकाश पर्दे से छन छन कर बिखर रहा था ।
प्रदीप ने एक क्षण में ही निश्चय कर लिया और जीने पर चढ़ता चला गया वह । ऊपर पहुँच कर उसने पर्दा हटा कर भीतर देखा । महफ़िल जमी हुई थी । एक ओर साजिंदे बैठे थे और उनसे थोड़ा हट कर अर्धचंद्राकार पंक्ति में मसनदें लगी थीं । गलीचों पर नगर के संभ्रांत लोग बैठे लाल परी के घूँट ले रहे थे । एक रूपसी साक़ी शराब की सुराही लिए उन्हें शराब बांट रही थी और उनकी कामोत्तेजक चुहलों का जवाब भी अपनी तिरछी चितवन और मधुर मुस्कान से दे रही थी । बीच में रूप की रानी, अनिंद्य सौंदर्य की अधिष्ठात्री बैठी थी जो अपने विशेष अंदाज में ग़ज़ल गा रही थी । उसकी एक एक मुस्कान और अदाओं पर वे कलेजा थाम ले रहे थे ।
प्रदीप के पाँव जम गए थे । वह उस सौंदर्य को ठगा सा देखता रह गया । तभी वह सौंदर्य की प्रतिमा मुस्कुरायी । वह उठी और अपनी बलखाती चाल से प्रदीप के पास आ गयी । कोमल हाथों ने उसकी कलाई पकड़ ली । प्रदीप सिहर उठा । नर्तकी ने उसे एक सुंदर गलीचे पर बिठा दिया और सुराही से शराब चाँदी के प्याले में डाल कर उसे पकड़ा दी । मंत्रमुग्ध सा प्रदीप देखता रहा यह सब ।
पियो ।
कोमल स्वर से वह बोली । प्रदीप का प्याला होठों से जा लगा । उसने एक घूंट भरा । जहर गले से नीचे उतर गया । कलेजा फुँक उठा । उसने प्याला हटा दिया होठों से । उसकी इस दशा पर वह सौंदर्यप्रतिमा फिर मुस्कुरा दी और गा उठी -
नजरों से पी ले परवाने हम जाम सजाए बैठे हैं
प्रदीप संकुचित हो उठा । नृत्य आरंभ हो गया । जवान दिल मचल उठे । संगीत के साथ शराब का दौर अपना रंग दिखाने लगा और महफ़िल जवान हो गयी ।
प्रदीप गंभीरता से उन समाज के सरमायेदारों की ओर देख रहा था जो दिन के उजाले में इन वेश्याओं के दोषों का वर्णन करते नहीं अघाते । उन्हें पाप और कलंक की प्रतिमा कहते हैं । वे ही इस समय उसकी एक एक चितवन पर भी निसार हो जाना चाहते हैं । नफ़रत उभर आई प्रदीप की आँखों में । समाज के ये कलंक ....... । उसके मन की दबी आग धधक उठी । उसका हृदय इन समाज के सरपरस्तों का खून पीने के लिए मचल उठा ।
इस समाज ने कितनों के अरमानों की होली जला दी, कितनों को ही तड़पने के लिए मजबूर कर दिया । कितने ही उजले दामनों में दाग़ लगा दिये और फिर भी अपनी पाकीज़गी का ढिंढोरा पीटते यह कभी नहीं अघाता । निष्ठुर संसार .... पापी समाज .....
क्रोध और घृणा की उत्तेजना से प्रदीप का शरीर काँप उठा। उसने अपने हाथ में पकड़े हुए प्याले में भरे जहर को दृष्टि भर देखा और एक ही घूंट में प्याला खाली कर दिया ।
कुछ ही देर में शराब ने अपना रंग दिखाया । प्रदीप की आंखों में गुलाबी डोरे उभर आये । उसका क्रोध इससे और बढ़ गया । मन को भुलावा देने के लिए उसने अपनी दृष्टि उस नृत्यरत कन्या पर जमा दी ।
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी । नर्तकी ने आखिरी सलाम किया और परदे की ओट में चली गयी । थोड़ी ही देर में कमरा खाली हो गया ।
प्रदीप बैठा रहा । उस्ताद ने रुपए इकट्ठा किए और प्रदीप के पास आकर बोला -
अब जाओ बाबू ! कल फिर आना ।
प्रदीप चुप रहा ।
बाई जी किसी से नहीं मिलतीं । नाच देखो और घर जाओ ।
प्रदीप फिर भी कुछ नहीं बोला तो उस्ताद को क्रोध आ गया ।
"जाते हो या धक्का देकर निकालना पड़ेगा ?
तभी पर्दा सरका और वह चंद्रमुख फिर मुस्कुरा पड़ा -
तुम जाओ उस्ताद ! मैं इसे देख लूंगी ।
उस्ताद में आदाब बजाया और जीने से उतर गया ।
रूपसी मंद चाल से आकर प्रदीप के पास बैठ गई ।
घर नहीं जाओगे ?
उसने पूछा । प्रदीप चुप रहा ।
क्या नाम है तुम्हारा ?
प्रदीप ।
तुम्हारा ?
पायल ।
बहुत प्यारा नाम है ।
पायल मुस्कुरा दी ।
हाँ । अच्छा , तुम घर क्यों नहीं जाना चाहते ?
उसने फिर पूछा ।
तुम क्यों पूछ रही हो यह सब ?
इसलिए कि तुम अभी तक यहाँ बैठे हो और फ़िलहाल तुम्हारे जाने का कोई आसार नहीं नजर आता ।
तुम चाहती हो मैं चला जाऊं ? तो जाता हूँ ।
कह कर प्रदीप उठ खड़ा हुआ ।
जा रहे हो ?
हां ।
कब आओगे ?
जब कहो ।
कल आओगे ?
आऊंगा ।
प्रदीप