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वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता
Ebook552 pages12 hours

वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता

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About this ebook

*वाल्मीकि रामायण वर्णित सामाजिक व्यवस्था की प्रासंगिकता*


महर्षि वाल्मीकि अयोध्यापति श्रीराम के समकालीन थे अतः उनका ग्रन्थ 'रामायण' तत्कालीन समाज का सच्चा दर्पण माना जाता है । प्रस्तुत शोध - प्रबंध में 'रामायण' में वर्णन की गयी सामाजिक व्यवस्था का सप्रमाण वर्णन करते हुए आज के युग में उसकी प्रासंगिकता की विवेचना की गयी है । यह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा अनुमोदित संस्कृत साहित्य के क्षेत्र का प्रथम शोध प्रबंध है जिसमें राम कथा के विभिन्न अनछुए प्रसंगों को पाठकों के सम्मुख लाने का स्तुत्य प्रयास किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ जन मानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों तथा शंकाओं का यथासम्भव यथोचित समाधान भी प्रस्तुत किया गया है ।

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateJul 19, 2021
ISBN9789354583018
वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता

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    वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता - डॉ. रंजना वर्मा

    वाल्मीकि रामायण प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता

    BY

    डॉ. रंजना वर्मा


    pencil-logo

    ISBN 9789354583018

    © डॉ. रंजना वर्मा 2021

    Published in India 2021 by Pencil

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: The opinions expressed in this book are those of the authors and do not purport to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    नाम - 

    डॉ. रंजना वर्मा

    पति - स्मृतिशेष श्री राजेन्द्र प्रकाश वर्मा , लब्धप्रतिष्ठ हास्य व्यंगकार व पत्रकार ।

    जन्म - 

    15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।

    शिक्षा-  

    एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)

    लेखन एवम् प्रकाशन - 

    वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।

    प्रकाशित कृतियाँ - 

    एक महाकाव्य, नौ खण्डकाव्य, चौदह ग़ज़ल संग्रह, चार गीतिका संग्रह, छै गीत संग्रह, एक कुण्डलिया संग्रह, तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास । बाल साहित्य तथा अन्य काव्य कृतियाँ  ।

    सम्पादन - 

    चार कविता संग्रह, एक गीत संग्रह, एक स्मृति ग्रन्थ, एक हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह।

    प्रसारण - 

    गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।

    सम्मान - 

    श्रीमती राजकिशोरी मिश्र  सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द-श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान,  ग़ज़ल-सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक-गौरव सम्मान,  दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक-भूषण सम्मान,  दोहा-मणि सम्मान।

    सम्प्रति - 

    सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।

    सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com

    Contents

    अनुक्रमणिका

    प्राक्कथन

    प्रथम अध्याय (महर्षि वाल्मीकि, रामायण एवं रामकथा)

    द्वितीय अध्याय रामायण प्रतिपादित विभिन्न जातियाँ

    तृतीय अध्याय वर्णाश्रम व्यवस्था (क) वर्ण व्यवस्था

    (ख) आश्रम व्यवस्था

    चतुर्थ अध्याय (परिवार व्यवस्था)

    पंचम अध्याय संस्कृति

    षष्ठ अध्याय नारी जीवन एवं पुरुष प्रतिष्ठा

    सप्तम अध्याय उपसंहार

    सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची

    Introduction

    वाल्मीकि रामायण वर्णित सामाजिक व्यवस्था की प्रासंगिकता

     महर्षि वाल्मीकि अयोध्यापति श्रीराम के समकालीन थे अतः उनका ग्रन्थ 'रामायण' तत्कालीन समाज का सच्चा दर्पण मन जाता है ।

     प्रस्तुत शोध - प्रबंध में 'रामायण' में वर्णन की गयी सामाजिक व्यवस्था का सप्रमाण वर्णन करते हुए आज के युग में उसकी प्रासंगिकता की विवेचना की गयी है ।

     यह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा अनुमोदित प्रथम शोध प्रबंध है जिसमें राम कथा के विभिन्न अनछुए प्रसंगों को पाठकों के सम्मुख लाने का स्तुत्य प्रयास किया गया है ।

    अनुक्रमणिका

    प्राक्कथन

    1 - प्रथम अध्याय -

     'महर्षि वाल्मीकि : रामायण तथा रामकथा'

    ० महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय

    * जन्मस्थल तथा आश्रम

    * स्थितिकाल

    ० रामायण , रचना काल , संस्करण तथा टीकाएँ :

    * पाश्चात्य मत

    * भारतीय मत

    * संस्करण तथा टीकाएँ

    ० भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में वर्णित रामकथा का संक्षिप्त परिचय :

    * संस्कृत धार्मिक साहित्य में रामकथा 

    * संस्कृत ललित साहित्य में रामकथा 

    * प्राकृत भाषा में रामकथा साहित्य

    * आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा

    * विदेशी भाषाओं में रामकथा

    * आदिवासियों में प्रचलित रामकथा का रूप

    ० रामायण का प्रतिपाद्य विषय तथा उसका सामाजिक महत्व

    ० द्वितीय अध्याय :

     रामायण प्रतिपादित विभिन्न जातियाँ

     * रामायण में प्रतिपादित विभिन्न जातियाँ एवं उनका अद्यतन स्वरूप

     * तत्कालीन जातियों की सामाजिक व्यवस्था एवं उसका प्रभाव -

     राक्षसों की सामाजिक व्यवस्था

     वानरों की सामाजिक व्यवस्था

     अन्य जातियों की सामाजिक व्यवस्था

     * रामायणयुगीन विभिन्न जातियों का परस्पर सम्बन्ध

    ० तृतीय अध्याय

     वर्णाश्रम व्यवस्था एवं उसका अद्यतन स्वरूप :

     * वर्णाश्रम व्यवस्था

    ब्राह्मण

    क्षत्रिय

    वैश्य

    शूद्र

    * आश्रम व्यवस्था

    ब्रह्मचर्य आश्रम

    गृहस्थ आश्रम

    वानप्रस्थ आश्रम

    सन्यास आश्रम

     ० षोडश संस्कार तथा उनकी उपादेयता

     ० चतुर्थ अध्याय

    परिवार व्यवस्था :

    * परिवार व्यवस्था तथा आज उसकी आवश्यकता

    * संयुक्त परिवार

    * माता पिता का स्थान

    * सन्तति का स्थान

    * पति तथा पत्नी का स्थान

    * परिवार के अन्य सदस्यों का स्थान

    * दास प्रथा तथा आज के संदर्भ में उसका औचित्य

    ० सम्बोधन नियमों की सार्थकता :

     * पिता तथा गुरुजनों के लिये सम्बोधन

     * माता तथा मातृ - तुल्य स्त्रियों के प्रति सम्बोधन

     * पति पत्नी के परस्पर सम्बोधन

     * अन्य व्यक्तियों के प्रति सम्बोधन

    ० सामाजिक प्रथाओं एवं आचार विचार का महत्व :

    ० पंचम अध्याय :

     रामायण कालीन संस्कृति 

     * भोजन , वेशभूषा , आभूषण तथा श्रृंगार प्रसाधन

     * वाहन व्यवस्था एवं उसके बदलते रूप

     * शकुन महत्व की समीक्षा

     शुभ शकुन

     अशुभ शकुन

     पशु पक्षियों से सम्बंधित

     मानव से सम्बंधित

     प्रकृति से सम्बंधित

     अन्य

     * सामाजिक जीवन पर ज्योतिष का प्रभाव

    ० षष्ठ अध्याय :

     नारी - जीवन एवं पुरुष -  प्रतिष्ठा

    * रामायण - कालीन नारी - जीवन एवं उसके प्रभाव का मूल्यांकन

    कन्या (कुमारी)

    पत्नी (विवाहिता)

     माता

     * रामायण - कालीन पुरुष - प्रतिष्ठा का विश्लेषण

    ० सप्तम अध्याय

    उपसंहार

    ० सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची

     🎂🎂🎂

    प्राक्कथन

    'रामायण' तथा महर्षि वाल्मीकि का जीवन वर्षों से विद्वत जनों के अध्ययन तथा शोध का विषय रहे हैं । 'रामायण' भारत का आदि काव्य है । इसकी कथा चिर प्राचीन होते हुए भी नित नवीन प्रतीत होती है । इसके विभिन्न संस्करण समय-समय पर अनेक प्रक्षिप्त अंशों से संयुक्त होते रहे तथा विवाद का विषय बनते रहे हैं । यह ग्रंथ नैतिक मूल्यों तथा आदर्शों का विस्तृत भंडार है । प्रस्तुत महाकाव्य शताब्दियों पूर्व की सामाजिक संरचना को हमारे सम्मुख यथातथ्य रूप में प्रस्तुत करता है । यह एक ऐसा विशाल चित्रपट है जिस पर हम आर्यों के प्राचीन सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक , राजनीतिक तथा कलात्मक क्रियाकलापों का वृहद चित्र देख सकते हैं ।

    प्रस्तुत शोध प्रबंध में शोधार्थिनी ने आधुनिक समाज के परिप्रेक्ष्य में रामायण कालीन सामाजिक व्यवस्था के अंकुर तलाशने का प्रयास किया है । इसके प्रथम अध्याय में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के जीवन , जन्म - स्थल , आश्रम तथा स्थिति काल को रेखांकित करते हुए उनके ग्रंथ 'रामायण' के संस्करणों , टीकाओं और विभिन्न भाषाओं में प्राप्त होने वाली रामकथा के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला गया है । साथ ही विभिन्न विद्वानों के मतों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत महाकाव्य का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया गया है । इसी अध्याय में रामायण का प्रतिपाद्य विषय तथा उसके सामाजिक महत्व को भी स्पष्ट किया गया है ।

    द्वितीय अध्याय रामायण में प्रतिपादित विभिन्न जातियों के परिचय तथा विवरण से संबंधित है । इसमें रामायण कालीन जातियों की सामाजिक व्यवस्था , उसका प्रभाव तथा उनके परस्पर संबंधों की विवेचना की गई है ।

    तृतीय अध्याय में वर्णाश्रम व्यवस्था तथा उसके अद्यतन स्वरूप के अंतर्गत चार वर्ण , चार आश्रम तथा षोडश संस्कारों व उनकी उपयोगिता का वर्णन किया गया है ।

     चतुर्थ अध्याय का विषय रामायण कालीन परिवार - व्यवस्था है । इसमें परिवार - व्यवस्था तथा उसकी आज के संदर्भ में आवश्यकता का वर्णन करते हुए परिवार के स्वरूप तथा उसमें विभिन्न सदस्यों के स्थान का निर्धारण किया गया है । दास प्रथा तथा उसके औचित्य का वर्णन करते हुए संबोधन - नियमों की सार्थकता तथा सामाजिक प्रथाओं एवं आचार विचार के महत्व का उल्लेख हुआ है ।

    शोध प्रबंध का पंचम अध्याय रामायण कालीन संस्कृति पर प्रकाश डालता है । इसमें तत्कालीन समाज में प्रयुक्त होने वाले भोजन , वेशभूषा आभूषणों तथा श्रृंगार के साधनों का वर्णन किया गया है । तत्कालीन वाहन व्यवस्था तथा उसके बदलते रूपों पर भी इस अध्याय में प्रकाश डाला गया है । शकुनों के महत्व की समीक्षा करते हुए रामायण काल में प्रचलित मान्यताओं और शुभ तथा अशुभ शकुनों का उल्लेख करते हुए तत्कालीन सामाजिक जीवन पर ज्योतिष के प्रभाव का भी वर्णन किया गया है । 

     षष्ठ अध्याय तदयुगीन नारी -  जीवन एवं पुरुष - प्रतिष्ठा से संबंधित है । इस अध्याय में नारी - जीवन तथा उसके प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए रामायण कालीन पुरुष - प्रतिष्ठा का विश्लेषण किया गया है ।

     सप्तम अध्याय उपसंहार है जिसमें समग्र विषय का विश्लेषण करते हुए आधुनिक काल में रामायण वर्णित सामाजिक व्यवस्था की प्रासंगिकता निरूपित करने की चेष्टा की गई है । शोधार्थिनी की दृष्टि संभवतः आरंभ से ही समीक्षात्मक तथा अन्वेषणात्मक रही है । अपनी अध्ययन - प्रियता के कारण बारंबार रामायण महाकाव्य के अध्ययन में प्रवृत्त रही । लगभग एक दशक पूर्व 'रामायण' के महत्वपूर्ण पात्रा कैकेयी के चरित्र तथा महर्षि वाल्मीकि और समाज के उसके प्रति उपेक्षा पूर्ण दृष्टिकोण ने हृदय को अत्यधिक आंदोलित किया । यही कारण मेरे खंडकाव्य 'कैकेयी का मनस्ताप' के सृजन का आधार बना । इसी क्रम में प्रकाशमान 'वैदेही व्यथा' खंडकाव्य के सृजन की भी प्रेरणा मिली । फिर भी मन की समालोचनात्मक प्रवृत्ति संतुष्टि न पा सकी । यही अतृप्त जिज्ञासा वृत्ति पुनः प्रस्तुत शोध प्रबंध के रूप में प्रतिफलित हुई । 

     इस संदर्भ में मैं परम श्रद्धेय गुरुवर तथा इस 'शोध - प्रबंध' के निर्देशक डॉ. बैजनाथ पांडे जी की अत्यधिक आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत शोध - कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्रदान की तथा सतत निर्देशन द्वारा मेरी लेखनी को निरंतर अनुप्राणित रखा । 

    शोधार्थिनी परम आदरणीय , श्रद्धास्पद , गुरुकल्प , साहित्य मनीषी डॉ राजदेव मिश्र ( पूर्व कुलपति , संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी ) के उपकारों तथा स्नेहमय  मार्गदर्शन के प्रति सादर विनत होते हुए उनके ममत्वपूर्ण आशीर्वचनों के प्रति कृतज्ञता - ज्ञापन करती है जो परिस्थितियों के कराल चक्र में फँस कर शिथिल हुई मेरी शोध - प्रगति को अपने प्रेरक आशीर्वचनों से उसे पुनः अग्रसर होने के लिए उत्प्रेरित करते रहे ।

     अंत में मैं परम सुपूज्य , सुहृद एवं जीवन - सहचर श्री राजेंद्र प्रकाश वर्मा ( कवि, लेखक एवं पत्रकार ) की हृदय से आभारी तथा कृतज्ञ हूँ जिनके अथक प्रयास तथा अद्भुत सहयोग के कारण प्रस्तुत शोध प्रबंध अपने परिपूर्ण रूप को धारण कर सका । इस अवसर पर मैं अपनी वात्सल्यमयी पूज्या माता श्रीमती सावित्री देवी श्रीवास्तव को कैसे भूल सकती हूँ जिनका आशीर्वाद मेरी सारस्वत - यात्रा का संबल बना । मैं उनके परम पूज्य युगल चरणों में नमन करती हूँ । मैं उन सभी के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होंने इस शोध कार्य में यतकिंचित भी सहयोग प्रदान किया है ।

    विनीत 

    श्रीमती रंजना श्रीवास्तव (वर्मा)

    प्रथम अध्याय (महर्षि वाल्मीकि, रामायण एवं रामकथा)

    महर्षि वाल्मीकि  :  जीवन परिचय --

     लोक विश्रुत महर्षि वाल्मीकि को आदि काव्य 'रामायण' के रचयिता के रूप में कौन नहीं जानता ? राम की कथा को विषय बना कर सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि ने ही वेदों से भिन्न लोक - काव्य के रूप में 'रामायण' नामक ऐतिहासिक महाकाव्य का वर्णन किया जो आदि - काव्य के रूप में लोक स्वीकृत हुआ । बाद में उसी काव्य से प्रेरणा प्राप्त करके तथा उसकी सरस , भावनात्मक कथा से केअभिभूत होकर अनेक परवर्ती कवियों ने राम विषयक काव्यों की रचना की । यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि संस्कृत के प्रायः सभी प्राचीन आचार्यों एवं महाकवियों ने अपने जीवन वृतांत , रचनाओं आदि के विषय में स्वयं कुछ नहीं लिखा । महर्षि वाल्मीकि का जीवन - वृत्त भी उसी दुरूहता का शिकार है । आज ऐसे महर्षियों तथा कवियों के विषय में जानकारी के लिए बहुत कुछ अनुमान आदि का भी आश्रय लेना पड़ता है ।

     वेदों तथा ततसंबंधी साहित्य में राम , सीता , कौशल्या आदि 'रामायण' में वर्णित पात्रों का उल्लेख मिलता है किंतु रामायणकार वाल्मीकि का नाम कहीं भी उपलब्ध नहीं होता ।  संभवतः तब तक रामायण की रचना नहीं हुई थी अतः रामायणकार के रूप में वाल्मीकि नाम भी अज्ञात था ।  अध्यात्म रामायण , महाभारत , श्रीमद्भागवत , तैत्तरीय प्रतिशाख्य , पुराणों , शिव - रामायण , कृत्तिवास  रामायण तथा बुद्ध- चरित में वाल्मीकि के विभिन्न रूपों का उल्लेख प्राप्त होता है । आगे इन्हीं विभिन्न रूपों का सम्यक निरीक्षण कर यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि वस्तुतः रामायण के रचयिता वाल्मीकि कौन थे ।

    (क)  व्यास वाल्मीकि --

    'विष्णु पुराण' के उल्लेख के अनुसार 26 में द्वापर युग के अस्थाई सदस्यों में से एक व्यास भृगुवंशी हुए जो वाल्मीकि कहे गये ( रिक्षोभूद् भार्गवस्तस्माद वाल्मीकिर्योभिधीयते - विष्णु पुराण , 3.3.18 )। वायु पुराण में माहेश्वर - अवतार योग के वर्णन प्रसंग में ऋक्ष को चौबीसवें द्वापर का व्यास कहा गया है ।( परिवर्ते चतुर्विंशे ऋक्षो व्यासो भविष्यति । ('वायुपुराण' , 33.164 )। इसी प्रकार कूर्म पुराण में तेइसवें व्यास तृणबिन्दु के पश्चात वाल्मीकि का वर्णन किया गया है । ( त्रिंबिंदुस्त्रयोविनशे वाल्मीकिस्ततः परम् ।" कूर्म पुराण , पूर्व 51.1.11)। 'लिङ्ग पुराण', 'स्कंद पुराण' तथा 'देवी भागवत' में भी वाल्मीकि को एक व्यास माना गया है । ( 'लिङ्ग पुराण' , 1.24 , 'स्कंद पुराण' , 1.2.40 , 'देवी भागवत' , 1.3 )।

    (ख)  भक्त वाल्मीकि --

     'महाभारत' के अनुशासन पर्व में वाल्मीकि द्वारा शिव - स्तुति करने का वर्णन किया गया है जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें उत्तम यश प्राप्ति का वरदान दिया था ।( 'महाभारत' , अनुशासन पर्व , 18.8.10 ) । 'महाभारत' के ही उद्योग पर्व में गरुण वंशीय विष्णु - भक्त सुपर्ण पक्षियों में वाल्मीकि का नामोल्लेख भी किया गया तथा उन्हें 'कर्मणा क्षत्रियः' अर्थात कर्म से क्षत्रिय कहा गया है । इस ग्रंथ में उन्हें विष्णु - भक्त भी कहा गया है । संभवतः सुपर्ण वाल्मीकि तथा शिवभक्त आदि कवि वाल्मीकि भिन्न भिन्न व्यक्ति थे । कामिल बुल्के ने इन दोनों को भिन्न  व्यक्ति माना है ।

    महाभारत के आदि सभा पर्व , वन पर्व , उद्योग पर्व तथा अनुशासन पर्व में वाल्मीकि का उल्लेख प्राप्त होता है । इन स्थलों पर वाल्मीकि को कवि अथवा शिव - भक्त या विष्णु - भक्त के रूप में बताया गया है किंतु उनके जीवन वृत्त पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया है ।

    (ग)  प्राचेतस वाल्मीकि --

     'वाल्मीकि रामायण' के उत्तरकांड में श्रीराम द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ में सीता द्वारा शपथ ग्रहण के प्रसंग में महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं को प्राचेतस कह कर प्रचेता का दसवां पुत्र होना स्वीकार किया है । ( वाल्मीकि रामायण , उत्तरकाण्ड , 96.19 ) । प्रचेता तथा वरुण को एक माना गया है । 'शतपथ ब्राह्मण' में भृगु को वरुण का पुत्र कहा गया है तथा भागवत पुराण में वरुण के दो पुत्र भृगु तथा वाल्मीकि का उल्लेख किया गया है । इस प्रकार भी वाल्मीकि का प्रचेता - पुत्र होना सिद्ध होता है ।  मार्कंडेय पुराण , शिव रामायण , रामायण तिलक आदि में भी वाल्मीकि को प्रचेता पुत्र स्वीकार किया गया है ।

    (घ)  भार्गव वाल्मीकि --

     'वाल्मीकि रामायण' में चौबीस सहस्त्र श्लोकों तथा सौ उपाख्यान वाले रामायण काव्य की रचना भार्गव वाल्मीकि द्वारा बताई गई है । (वाल्मीकि रामायण , 7.94.25 ) । 'वाल्मीकि रामायण' के बालकांड तथा उत्तर कांड में 'भार्गव च्यवन' का वर्णन मिलता है । ( वाल्मीकि रामायण , बालकाण्ड 70.38 तथा उत्तरकाण्ड , 60.64 )। इसी महाकाव्य में वाल्मीकि को 'प्राचेतस' तथा 'भार्गव' कहा गया है । विष्णु पुराण तथा मत्स्य पुराण में भी वाल्मीकि को 'भार्गव' माना गया है । च्यवन के समान वाल्मीकि को भार्गव मानने का कारण संभवतः दोनों जन प्रचलित जीवनवृत्तों में एकरूपता होना है ।

    व्याकरण सम्मत व्याख्या के अनुसार वाल्मीकि 'वल्मीकोद्भव' थे । वाल्मीकि के समान ही च्यवन महर्षि के विषय में यह कथा मिलती है कि भृगु पुत्र च्यवन को दीर्घकाल तक तपोरत हने पर उनके शरीर पर वल्मीक का प्रादुर्भाव हो गया था । ( महाभारत , आरण्यक पर्व , अध्याय -122 )। ऐसी ही कथा वाल्मीकि के विषय में भी प्रचलित है । संभवत इसी कारण वाल्मीकि को भी च्यवन के समान भार्गव माना गया है ।

     'कृत्तिवास रामायण' में वाल्मीकि को च्यवन -  पुत्र कहा गया है । 'बुद्धचरित' में अश्वघोष ने वाल्मीकि को च्यवन - पुत्र स्वीकार करते हुए उनके पद्य ग्रंथकार होने की महनीयता स्वीकार की है । ( वाल्मीकिरादौ चससर्ज पद्यं जगरनाथ यन्न च्यवनो महर्षि -- बुद्धचरित , 1.43 )। 'रामायण तिलक' में नागेश भट्ट ने भृगु के भ्राता होने के कारण वाल्मीकि को भार्गव कहा है ।  श्रीमद्भागवत के अनुसार भृगु तथा वाल्मीकि की उत्पत्ति वरुण तथा वर्षणी से बताई गई है । ( श्रीमद्भागवत , 6.18. 4 -5 )। ऋग्वेद में भृगु को वारुणि कहा गया है । ( ऋग्वेद , 6.65 , 10.16 )। 'शतपथ ब्राह्मण' में भृगु को वरुण का पुत्र माना गया है अतः वरुण - पुत्र होने के कारण वाल्मीकि प्राचेतस तथा भृगु - पुत्र होने के कारण भार्गव कहे गए हैं । अध्यात्म रामायण आदि प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार शाप के कारण उन्हीं का जन्म भृगुवंशी ब्राह्मण परिवार में होने के कारण वे भार्गव कहे गए । 

    'स्कंद पुराण' आवन्त्य खंड के अंतर्गत अवंती क्षेत्र महात्म्य में वाल्मीकेश्वर महात्म्य का वर्णन किया गया है । तदनुसार भृगुवंशी सुमति नामक ब्राह्मण की पत्नी कौशिकी से अग्निशर्मा की उत्पत्ति हुई थी जो दस्यु हो गया था । बाद में सप्तर्षियों ने दस्यु वृत्ति से हटा कर उसे महामंत्र जाप का आदेश दिया । जप करते हुए उसका शरीर वल्मीक में विलुप्त हो गया । तब सप्तर्षियों ने उसे बाहर निकाला । कुशस्थली में जाकर महेश्वर आराधना द्वारा सिद्धि प्राप्त करके उसने महाकाव्य रामायण की रचना की इसलिए उसे भार्गव वाल्मीकि कहा गया है । ( स्कन्दपुराण - आवन्त्य खंड, अध्याय - 24 )।

    (च )  दस्यु वाल्मीकि --

     वाल्मीकि के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं जिनमें सर्वाधिक प्रचलित किंवदंती उनका दस्यु होना है  लोक धारणा के अनुसार वे अपने जीवन के आरंभिक काल में दुर्वृन्त - दस्यु थे । बाद में वे ऋषि -  संगम होने पर तपस्या द्वारा सिद्ध महर्षि हुए तथा नारद के उपदेश से रामायण नामक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना में प्रवृत्त हुए ।  उनके दस्यु होने का विवरण अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है ।

    'अध्यात्म रामायण' में स्वयं वाल्मीकि राम नाम की महिमा का वर्णन करते हुए जीवन के प्रारंभिक काल में किरातों के मध्य अपना रहना तथा शूद्र आचरण से संपृक्त होना स्वीकार करते हैं । उन्होंने अपने द्वारा शूद्रा के संयोग से अनेक पुत्रों को उत्पन्न करने तथा जीविकोपार्जन के लिए चोरी करने का भी उल्लेख किया है ।('अध्यात्म रामायण', 2.6.65-66)। 'आनंद रामायण' में वाल्मीकि के तीन जन्मों का उल्लेख किया गया है । प्रथम जन्म में वे श्रीवत्स गोत्रीय स्तंभ नामक ब्राह्मण थे जो महा पापी , शूद्रों का आचरण करने वाला और वेश्या गामी था । दूसरे जन्म में वह व्याध बना तथा तीसरे जन्म में कृणु का पुत्र हुआ और घोर तपस्या करने के पश्चात वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुआ ।('आनन्द रामायण' अध्याय - 14)।

     'तत्वसार - संग्रह रामायण' में वाल्मीकि के व्याध होने का वर्णन किया गया है । तदनुसार एक निराश व्याध के सप्तर्षियों के पास जाने पर उसे आकाशवाणी द्वारा 'मरा' मंत्र सिखाने का आदेश दिया जाता है । कठोर तपस्या के बाद वह ऋषियों के आशीर्वाद से वाल्मीकि नाम ग्रहण करता है तथा देवताओं और विष्णु के आदेश से तमसा के तट पर राम कथा का प्रणयन करता है ।(तत्वसार संग्रह रामायण , अयोध्या कांड , 20- 30)।

    'कृत्तिवासीय रामायण' में व्याध को च्यवन का पुत्र रत्नाकर कहा गया है । ब्रह्मा तथा नारद से मिलने पर उसके ह्रदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह नदी के किनारे जाता है किंतु उसकी दृष्टि पड़ते ही नदी का जल सूख जाता है । बाद में ब्रह्मा उसे राम नाम जपने का आदेश देते हैं किंतु अपनी दुर्वृत्ति के कारण वह राम जपने में असमर्थ रहता है और उल्टा नाम 'मरा' जप कर सिद्धि प्राप्त करता है ।

    'स्कंद पुराण' में वाल्मीकि के दस्यु होने से संबंधित विभिन्न वर्णन प्राप्त होते हैं । 'स्कंद पुराण' के वैष्णव खण्ड के 'वैशाखमास महात्म्य' के अंतर्गत व्यास द्वारा शंख नामक ब्राम्हण को लूटने तथा पुनः दया करने पर उस द्विज से राम नाम का उपदेश तथा वाल्मीकि नाम से पृथ्वी पर यश प्राप्त करने का आशीर्वाद मिलने का वर्णन किया गया है ।('स्कंद पुराण', वैष्णव खण्ड , वैशाख माहात्म्य , अध्याय - 21)।

    'स्कंद पुराण' के आवन्त्य खंड में अवंती क्षेत्र माहात्म्य वर्णन में अग्निशर्मा नामक दस्यु का वर्णन है जो जाति से ब्राह्मण होने पर भी दस्युवृत्ति में लगा हुआ था । एक दिन वह सप्तर्षियों को लूटना चाहता है । सप्तर्षियों द्वारा पूछने पर कि क्या तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारे पाप के भागी होंगे वह परिवार जनों से पूछने जाता है तथा उनके नकारात्मक उत्तर से दुखी होकर सप्तर्षियों के पास लौट आता है । वह उनके आदेश पर राम नाम का जप करता है तथा उसका शरीर वल्मीक से आच्छादित हो जाता है । पुनः सप्तर्षि उसे वल्मीक से निकाल कर वाल्मीकि नाम देते हैं तथा रामायण लिखने का आदेश भी देते हैं ।('स्कंद पुराण' , अध्याय - 24)।

     इसी पुराण के नागर खंड में चमत्कार पुर के मांडव्य वंश में उत्पन्न लोह - जंघ नामक द्विज की कथा है जो मातृ पितृ भक्त था । परिस्थितिवश वह चौर कर्म में प्रवृत्त हो गया । मुखर नामक तीर्थ स्थल पर उसकी मुनियों से भेंट हुई । पुलह नामक ऋषि ने उसे जटाघोट नामक मंत्र दिया जिसको जपने से वह वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध होकर रामायण का रचनाकार बन गया ।('स्कंद पुराण', नागखण्ड , अध्याय - 124)।

     'स्कंद पुराण' के ही प्रभात खंड में देविका माहात्म्य के अंतर्गत मूलस्थान महात्म्य में वर्णित कथा के अनुसार शमीमुख नामक ब्राह्मण का वैशाख नाम का पुत्र था जो दस्यु वृत्ति द्वारा माता पिता का पालन-पोषण करता था । बाद में ऋषियों के संसर्ग तथा आशीष से वह वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुआ ।( वही, प्रभास खण्ड , अध्याय - 298)।

    'इंडियन एपिक्स' में वर्णित उल्लेख के अनुसार व्याध का मिलन शिव तथा नारद से हुआ जो बाद में उसके वाल्मीकि और रामायण कार्ड बनने का कारण बना ।( 'इंडियन एपिक्स',  भाग - 31 ,  पृष्ठ - 35)।

    (च)  रामायणकार वाल्मीकि :

    ' रामायण' महाकाव्य के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के संबंध में जनमानस में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं । 'रामायण' भारत की विराट संस्कृति का सिंहावलोकन कराने वाला ग्रंथ है । उसके रचनाकार के रूप में वाल्मीकि राम के समकालीन महान ऋषि के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं ।

     इसके पूर्व वाल्मीकि संज्ञक व्यक्ति के विभिन्न रूपों तथा प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर उन्हें कहीं दस्यु , दुरवृत्त और लुण्ठक बताया गया है तो कहीं मरा नाम का जाप करके सिद्धि प्राप्त करने वाला तपस्वी । यहीं यह प्रश्न भी उठता है कि सप्तर्षियों द्वारा दस्युरूप वाल्मीकि को राम शब्द जपने का उपदेश न देकर मरा जपने का उपदेश क्यों दिया गया । सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि कतिपय विद्वानों की ऐसी धारणा है कि दस्यु वृत्ति तथा लुण्ठकत्व से संबंध होने के कारण उन्हें

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