Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

अमला: उपन्यास
अमला: उपन्यास
अमला: उपन्यास
Ebook227 pages1 hour

अमला: उपन्यास

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

About the book:
अमला एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो परिस्थितियों के चक्रवात में फँस कर भी सुनहरे स्वप्हन देखना नहीं छोड़ती किन्तु उसके स्वप्न स्वप्न ही रहते हैं । कभी वे सत्य नहीं बन पाते । उसकी जिजीविषा और पुनरुत्थान की आशा उसकी श्वांसों में समा कर जीवन की प्रेरणा देती रहती है । बार बार हार कर भी वह हर नहीं मानती । और जब जीवन उपवन पुष्पित पल्लवित होता है, परिस्थितियां करवट लेती हैं तब भाग्य फिर उसे ऐसा झटका देता है कि..... क्या होता है फिर ? कभी हार न मानने वाली अमला क्या हार जाती है ? क्या उसके जीवन को कभी उल्लास की किरणें प्रकाशित कर पाती हैं ? यह सब जानने के लिये पढिये - अमला । आपके सभी प्रश्नों का उत्तर है - अमला ।

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateNov 15, 2021
ISBN9789354588860
अमला: उपन्यास

Read more from डॉ. रंजना वर्मा

Related to अमला

Related ebooks

Reviews for अमला

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    अमला - डॉ. रंजना वर्मा

    अमला

    उपन्यास

    BY

    ranjana verma


    pencil-logo

    ISBN 9789354588860

    © Dr. Ranjana Verma 2021

    Published in India 2021 by Pencil

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    नाम - डॉ. रंजनावर्मा

    पति - स्मृतिशेष श्री राजेन्द्र प्रकाश वर्मा , लब्धप्रतिष्ठ हास्य व्यंगकार व पत्रकार ।

    जन्म - 15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।

    शिक्षा-  एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)

    लेखन एवम् प्रकाशन - वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।

    प्रकाशित कृतियाँ - 

    एक महाकाव्य, नौ खण्डकाव्य, चौदह ग़ज़ल संग्रह, चार गीतिका संग्रह, छै गीत संग्रह, एक कुण्डलिया संग्रह, तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास । बाल साहित्य तथा अन्य काव्य कृतियाँ  ।

    सम्पादन - 

    चार कविता संग्रह, एक गीत संग्रह, एक स्मृति ग्रन्थ, एक हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह।

    प्रसारण - 

    गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।

    सम्मान - श्रीमती राजकिशोरी मिश्र  सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द-श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान,  ग़ज़ल-सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक-गौरव सम्मान,  दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक-भूषण सम्मान,  दोहा-मणि सम्मान।

    सम्प्रति - सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।

    सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com 

    Contents

    एक

    दो

    तीन

    चार

    पाँच

    छै

    सात

    आठ

    नौ

    एक

    अमला अलसाई आँखों से नीले अनंत नभ को देख रही थी । भरी दोपहरी की धूप जलन भर रही थी आँखों में । वैशाख का महीना ऐसा तप रहा था जैसे भट्ठी में आग तड़क रही हो । पसीने से शरीर लथपथ था  । श्यामला आँखें अनंत आकाश को नापने का असफल सा प्रयत्न कर रही थीं ।

     न जाने क्या हो गया था उसे । जब भी अकेली बैठती अनमने से भाव घेर लेते । क्या हो जाता है कभी-कभी उसे भी ?  कौन जाने ? मन की बेचैनी विगत की वेदना या आगत की तड़प भरी प्रतीक्षा ?  किस किस से स्वयं को छुपाती , चुराती फिरे ? कैसे मन को समझाए ?

     उसका मन भी तो कैसा है जो उसी का शत्रु बना बैठा है । दीवाना सा । अक्सर अमला सोचती है आगत की अनदेखी बीथियों के विषय में । जाने अनजाने अनगिनत भावों से घिरी होती है वह । और तब न जाने क्या सोच कर आंखें भर जाती हैं पगली की ।

     क्यों होता है ऐसा ? दिन भर बैठा मन न जाने कितने सुनहरे सपने देखा करता है । न जाने कितनी भाव बीथियों की तड़प में डूबती उतराती आत्मा नियम या अवलंब का भेद किया करती है । जानती है , ये सपने कभी पूरे न होंगे । सपने देखती है तभी उन्हें तोड़ भी देती है । छोड़ो , क्या सोचना ? लेकिन थोड़ी देर बाद फिर उन्हीं सुनहरे जालों में उलझने लगती है ।

    क्यों ? क्या शांति मिलती है इससे ? आतुर मन कहीं ऐसे संतुष्ट होता है ? विकास की प्रथम योजना से युग के बढ़ते चरण और उनमें गुंथी काल की श्रृंखलाएं । समय की रेखाओं में उलझे हुए मील के पत्थरों जैसे न जाने कितने पलों  का अस्तित्व जैसे उसे घेर लेता है ।          विचारों के घेरे कसते जाते हैं । मकड़ी के जालों जैसी विचार श्रृंखलाओं में उलझी मक्खी जैसा उसका नन्हा सा बेचैन मन जितना ही सुलझना चाहता है और उलझता चला जाता है । नियति की कठोर मकड़ी उसे अपने जाल में लपेटती जाती है । तारों को कसती जाती है ।    हर क्षण लगता है जैसे बस .... अब गयी । अगला ही पल उसे निष्क्रियता के गड्ढे में ढकेल देगा । असहायता का अंधेरा उसे अपने में डुबा लेगा । स्मृतियों के दीप ज्वाला बन कर उसे झुलसा देंगे ।  विगत के अंगारे उसे तड़प तड़प कर मरने के लिए मजबूर कर देंगे और उसकी भोली आत्मा जाले में उलझी हुई मक्खी के समान ही विवश होकर दम तोड़ देगी ।

     अमला मर जाएगी । वह अमला जो विगत और आगत के धागे जोड़ा करती है । जो वर्तमान के धागे सुलझाने में अपना सारा का सारा जीवन जैसे दांव पर लगा बैठी है । हर बार सफलता उसके निकट आती है । उसे चूमने को आतुर होती है और हर बार निकट आकर चिकनी मछली के समान फिसल का दूर गिर पड़ती है । वाह रे किस्मत ।

     अमला सोचती है अपने बारे में दुनिया के बारे में ।

     घर में बिखरे हुए से परिजन ।  धरती पर फैले छोटे बड़े शहर , कस्बे और बस्तियां । छोटी बड़ी झोपड़ियों में बसे ढेर सारे लोग । यह अट्टालिकाएँ, बड़ी-बड़ी इमारतें । ये भी तो एक प्रकार की झोपड़ियां ही हैं । घर यानी झोपड़ी। फिर उसे महल कहें या कुटिया, क्या अंतर पड़ता है ? 

    कहां से आ जाते हैं ये इतने लोग ? सड़क पर निकलते ही धक्का-मुक्की का अनुभव जैसे अनिवार्य होता है । गलियों में भी चैन नहीं । न जाने कहां रहते होंगे ये लोग और फिर बेकार से सड़कों पर टहलते रहते हैं ।  शायद सभी को अपनी आवश्यकताएं पूरी करनी होती हैं । किसी के घर रोटी नहीं होगी तो किसी के घर कपड़ा । किसी के बच्चे मोटर के लिए रोते होंगे तो किसी का दुलारा दूध की एक बूंद के लिए भी तरस जाता होगा । सभी अपने स्वार्थ के लिए दीवाने हो रहे हैं । सब .... ।

    अमला क्यों सोचती है तू यह सब ?

    अमला स्वयं से पूछती है लेकिन उसे कभी अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता । उसके पूछे हुए प्रश्न अनंत की गहराइयों में डूब जाते हैं । शून्य में मिलकर स्वयं भी शून्यता प्राप्त कर लेते हैं और वह फिर सोचने लगती है ।

     अमला के घर पिछवाड़े एक छोटा सा बगीचा है - उपवन । नन्हें नन्हें पौधों में खिले हुए रंग-बिरंगे फूल उसे बहुत अच्छे लगते हैं । उत्तर की ओर गुलाब की झाड़ियां है । रोज़ सुबह वह उन झाड़ियों के चेहरे पर मुस्कुराते हुए लाल सेहरों को देखती है ।

    कितने सुंदर होते हैं ये फूल भी लेकिन कितने क्षणभंगुर । खिले हुए ताजे फूल, भरी भरी सी पंखुड़ियां और बिखरती हुई सुगंध, सब कुछ उसे अच्छा लगता है । बहुत अच्छा । लेकिन वह देखती है, हर शाम जैसे जैसे प्रकृति स्याही के आंचल खोलती जाती है एक-एक कर पंखुड़ियां झड़ती जाती हैं । धरती पर गिरी पंखुड़ियां सूख जाती हैं । किसी के पैरों से मसली जाती हैं या फिर सूख कर धूल में मिल जाती हैं ।          दुख होता है उसे यह सब देख कर । ये सुंदर फूल झड़ क्यों जाते हैं ? शाश्वत क्यों नहीं होते ? 

     पूर्व की ओर बेला की लताएं हैं । उजले सितारों जैसे एक दूसरे में गुंथे हुए फूल जैसे सृष्टि के लिए स्वयं मालाएं गूंथा करते हैं । देखा करती है वह इन फूलों को । कितने उजले , कितने श्वेत । ऐसे जैसे दूध से धोए गए हों ।

    प्रातः उठते ही उसकी दृष्टि भोर के तारे पर अटक जाती है । कितना सुंदर है ना उगते सूर्य का रक्त बिम्ब । गुलाल भरी दिशाएं , आकाश सब कुछ प्यारा लगता है । उसे पूर्णिमा भी अच्छी लगती है और अमावस्या भी । प्रातः की किरणें , उषा पर गुलाल मलती स्वर्ण कलाएं भी अच्छी लगती हैं और रात के समय आंचल में मुख छुपाती संध्या भी । सोचती है वह क्यों इतना सौंदर्य है यहां ?  प्रकृति इतनी सुंदरी कैसे हो गई ? कौन उत्तर देगा उसका ?

     अमला !

    अमला जैसे स्वयं को जगाती है । सब लोग कहते हैं कि वह बीमार है । क्या बीमारी है उसे ? क्यों बीमार है वह ?"

    डॉक्टर ने उसे देख कर चुप्पी साध ली थी ।

    डॉक्टर आप चुप क्यों हैं अमला अच्छी तो हो जाएगी न ?

    हो सकती है लेकिन मेरी दवा से नहीं । 

    डॉक्टर का स्वर गंभीर था ।

    फिर कैसे ?

    पूछते समय जैसे अमित का स्वर काँप उठा था ।इच्छा से ।

    अर्थात ?

    इनमें जीवन की चाह नहीं रही है । यह बच सकती हैं बशर्ते कि इनमें फिर से जीने की इच्छा उत्पन्न हो जाए । यह सब आप लोग कर सकते हैं । मैं दो एक टॉनिक लिख देता हूं । नियमित जीवन और जीने की चाहत ही इन्हें बचा सकती है ।

    कह कर डॉक्टर चला गया और अमित को जैसे किसी ने खींच कर थप्पड़ मार दिया हो । आंखों में आंसू भरे निकट आकर पूछ बैठा था -

    "अमला ! तुम इतनी निराश क्यों

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1