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अँगना कँगना: उपन्यास
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अँगना कँगना: उपन्यास

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About this ebook

About the book:
यह एक स्त्री के प्रेम की कहानी है जिसे परिस्थितियां बार बार उसके प्रिय से दूर कर देती हैं । कभी सामाजिक परम्पराएं तो कभी अमीरी गरीबी की दीवार उनके प्रेम को सफल नहीं होने देती । यह एक नारी के प्रिय की इच्छा पर अपनी कामनाओं को बलिदान कर देने की कहानी है । नारी के संघर्ष और विवशता को उपन्यास में भलीभाँति अभिव्यक्त किया गया है । समाज कभी उससे परिवार की खुशियों के लिये बलिदान मांगता है तो कभी परिस्थितियाँ ही उससे छल कर जाती हैं । क्या होता है फिर ? क्या वह अपने प्रिय को पाने में सफल हो पाती है ? जानने के लिये पढ़िये उपन्यास - 'अँगना कँगना'

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateDec 22, 2021
ISBN9789355591982
अँगना कँगना: उपन्यास

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    अँगना कँगना - डॉ. रंजना वर्मा

    अँगना कँगना

    उपन्यास

    BY

    डॉ. रंजना वर्मा


    pencil-logo

    ISBN 9789355591982

    © Dr. Ranjana Verma 2021

    Published in India 2021 by Pencil

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    नाम - डॉ. रंजना वर्मा

    जन्म - 15 जनवरी 1952, शहर जौनपुर में ।

    शिक्षा - एम.ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास) पी.एच.डी.(संस्कृत)।

    लेखन एवम् प्रकाशन -

     वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।

    प्रकाशित कृतियाँ - 

     साईं गाथा (महाकाव्य)। अश्रु अवलि, सर्जना, समर्पिता, सावन, कैकेयी का मनस्ताप, वैदेही व्यथा, संविधान निर्माता, द्रुपद - सुता, सुदामा,(सभी खण्ड काव्य)। चन्द्रमा की गोद में (बाल उपन्यास), समृद्धि का रहस्य, जादुई पहाड़, मङ्गला, पोंगा पण्डित,(सभी बाल कथा संग्रह), मुस्कान (बाल गीत संग्रह), फुलवारी (शिशु गीत संग्रह)। जज़्बात, ख्वाहिशें, एहसास, प्यास, रंगे उल्फ़त, गुंचा, रौशनी के दिए, खुशबू रातरानी की, ख़्वाब अनछुए , शाम सुहानी, यादों के दीप, मंदाकिनी, आस किरन, बूँद बूँद आँसू (सभी ग़ज़ल संग्रह)। गीतिका गुंजन, सरगम साँसों की, रजनीगन्धा, भावांजलि (गीतिका संग्रह), सत्यनारायण कथा (पद्यानुवाद)। मुक्तक मुक्ता, मुक्तकाञ्जलि, मन के मनके (सभी मुक्तक संग्रह)। दोहा सप्तशती, दोहा मंजरी (दोहा संकलन)। एक हवेली नौ अफ़साने, रास्ते प्यार के, अमला, पायल, अतीत के पृष्ठ, अँजोरिया, मर्डर मिस्ट्री (उपन्यास)। सूर्यास्त, सिंधु-सुता, परी है वो ( कहानी संग्रह )। साँझ सुरमयी, गीत गुंजन, गीत धारा , मीत के गीत, आ जा मेरे मीत,(सभी गीत संग्रह)। बसन्त के फूल (कुण्डलिया संग्रह)। चुटकी भर रंग, जुगनू (दोनों हाइकु संग्रह)। चंदन वन (तांका संग्रह), इंद्रधनुष (चोका संग्रह), मेहंदी के बूटे (सेदोका संग्रह), नयी डगर (वर्ण पिरामिड संग्रह)।

     'लौट आओ रुद्र' (उपन्यास का पूर्वार्द्ध) प्रेस में ।

    सम्पादन - 

     मन के मोती, मकरंद , सौरभ, मौन मुखरित हो गया (चारो कविता संग्रह ), अँजुरी भर गीत (गीत संग्रह), शेष अशेष (स्मृति ग्रन्थ), हास्य प्रवाह (हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, थूकने का रहस्य, करामाती सुपारी (दोनों हास्य व्यंग्य संग्रह)।

    प्रसारण - 

     गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।

    सम्मान - 

     श्रीमती राजकिशोरी मिश्र  सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान,  ग़ज़ल सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक गौरव सम्मान,  दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक भूषण सम्मान,  दोहा मणि सम्मान।

    सम्प्रति - 

    सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।

    सम्पर्क सूत्र - 

    ranjana.vermadr@gmail.com 

    Contents

    एक

    दो

    तीन

    उपसंहार

    एक

     बचपन का भोलापन भी कितना सलोना होता है । न प्रेम का उल्लास न घृणा की वितृष्णा । न कल की चिंता ना बीते का दुख । ऐसे प्यारे समय को सभी कैद कर लेना चाहते हैं लेकिन समय का सुंदर पंछी सबकी नजरें बचा कर चुपके से पर खोल कर अनंत की गोद में छिप जाता है और दूर बहुत दूर उड़ता चला जाता है । फिर किशोरावस्था जिंदगी में मीठे सपनों का गुलाबी रंग भर देती है । धीरे धीरे दिवास्वप्नों की यह नशीली अवस्था भी अतीत की ओर खिसक जाती है और जवानी अंगड़ाई लेने लगती है ।

           ऐसा ही प्यारा समय था वह जब विभा की किशोरावस्था उससे विदा ले  रही थी । अट्ठारह वर्षों का समय कैसे पलक मारते बीत गया उसे पता ही न चला था । अट्ठारहवीं वर्षगांठ पर उसे अचानक ही लगा था जैसे वह युवा हो गई है । 

           उसी दिन तो उसकी सहेली रमा का भाई अनिल आया था । वही अनिल जिसके साथ वह बचपन से ही खेलती आई थी । गुड्डे की शादी में वह समधी बनता और गुड़िया की शादी में बाजे बजाता । विभा के बनाए घरौंदों  को वह फूलों और रंगों से संवारा करता था । फिर दोनों ने साथ ही शाला में प्रवेश किया । तब ..... विभा अनिल से तीन वर्ष छोटी थी इसलिए उसका रोब भी उसे सहना पड़ता था । वैसे भी दोनों जैसे एक दूसरे की इच्छाओं का उत्तरार्ध और शेषांश थे ।

           बचपन का बाना छूटा लेकिन उनका स्नेह भरा साथ वैसा ही बना रहा । और फिर एक एक कर वर्ष अतीत के गर्भ में समाते चले गए । विभा अट्ठारह वर्ष की हो गई । अनिल भी इक्कीसवाँ पार कर चुका था ।

            उस दिन पहली बार विभा को बाहर जाते देख कर अनिल ने टोक दिया था -

    बाहर मत जाओ विभा !

    "क्यों ?!

            आश्चर्य से पूछा विभा ने । 

    अंधेरा घिर रहा है । अकेले कहीं जाना ठीक नहीं है ।

    लेकिन क्यों ? क्यों ठीक नहीं है ?

    क्योंकि तुम अब बड़ी हो गई हो ।  किसी युवती का इस तरह घूमना क्या ठीक है ?

           और अचानक ही जैसे किसी ने विभा को जवान बना दिया था । उसका चेहरा लज्जा से लाल हो उठा । भाग कर वह अपने कमरे में जा छिपी ।

             अपनी बात कह कर अनिल स्वयं में संकुचित हो गया । विभा को जाती देख कर वह समझा कि वह रूठ गई है । कितनी भोली है विभा । उसके होंठ मुस्कुराए ।

            अंधेरा कुछ और झुक आया उस छोटे से घर पर । इसी घर से थोड़ी दूरी पर अनिल का घर था । सभी सुख सुविधाओं से संपन्न लेकिन अनिल को यह घर अपने घर से अधिक प्रिय था ।  घंटों व विभा के साथ बैठा बातें किया करता । कभी उसे पढ़ाता था तो कभी घर के कामों पर विचार-विमर्श होता और कभी बात बेबात पर दोनों लड़ पड़ते ।

            दिए जगमगा उठे थे । विभा के कमरे के अलावा और सभी कमरों में लाइट जला दी गई थी । अनिल सीधा विभा के कमरे की ओर बढ़ा । उसके हाथ में जूही की कलियों की बनी हुई माला थी जिसे वह विभा को भेंट करना चाहता था । 

            विभा का परिवार उसके भाई विजय बहन उमा और पिता राय बहादुर तक ही सीमित था । माता बचपन में ही राम के घर चली गई थी ।  अनिल की मां को ही वह माँ कहा करती थी । विजय और उमा दोनों ही उससे छोटे थे इसलिए दोनों का उत्तरदायित्व भी विभा पर ही था ।

            आरंभ से ही वह विजय और उमा को निभाती आई थी । सौतेले पन या सगेपन का भेद उसके इस निश्छल प्रेम में नहीं था ।

            कमरे में प्रवेश करते ही अनिल ने बिजली का स्विच दबा दिया । दूधिया रॉड का प्रकाश कमरे में भर गया । 

    विभा !

             अनिल ने पुकारा । 

    हां !

              विभा ने वैसे ही खड़े-खड़े उत्तर दिया । खिड़की पर खड़ी वह बाहर अंधेरे में जैसे कुछ ढूंढ रही थी ।

    नाराज हो ?

    नहीं तो ! नाराज क्यों होऊँ ? तुमने घूमने नहीं जाने दिया इसलिए ?

              विभा ने पीछे घूम कर अनिल पर नज़रें जमा दीं ।

    हां, इसीलिए । तुमने गलत तो कहा नहीं अनिल ! और फिर .....  नाराज तो तब होती जब तुम मुझे गलत राहों पर बढ़ते देख कर भी न रोकते । सच, कितना ख्याल रखते हो तुम मेरा ।

    विभा ! यह लो ।

             अनिल ने प्रसंग बदलने के लिए जूही की माला आगे बढ़ाते हुए कहा ।  निकट आ गई विभा -

    यह क्या है ? जूही । ओह, कितनी प्यारी कलियां हैं ।

            विभा माला हाथ में लेकर विभोर हो उठी । अनिल ने मुस्कुरा कर माला उसके गले में डाल दी और बोला -

    अब देखो । उसके साथ ही साथ तुम भी खिल गई । कुंवारी कलियाँ कुमारियों के ही लिए हैं न !

    न, ऐसे नहीं ।  

             विभा ने हँसते हुए कहा और माला अपने गले से उतार कर जल्दी से अनिल के गले में डाल कर बोली -

    कुंवारी कलियां कुंवारों की चहेती होती हैं ।

             दोनों खिलखिला पड़े । 

    अनिल बेटे !

             तभी बाहर से रायबहादुर पुकार उठे ।

    जी पिताजी ! 

             हँसी रोकते हुए बोला वह ।

    बेटे ! इसे कहीं घुमा ला । घर में ही सड़ रही है दिन भर से ।

             उन्होंने विभा की ओर संकेत किया और मुस्करा पड़े ।

    हम भी चलेंगे दीदी !

             तभी उमा भी अपने कमरे से निकल आयी -

    चलिए न अनिल बाबू!

    कहां चलें ?

           अनिल ने पूछा ।

    कहीं भी । ऐडवर्ड पार्क या फिर उधर साँवरी पहाड़ियों की ओर जहां शुभी के साथ पिकनिक पर गए थे ।

           उमा बोली । थोड़ी ही देर बाद तीनों कार में बैठ कर उड़े जा रहे थे । यह ड्राइव कर रही थी । उसके पास अनिल था और पीछे की सीट पर उमा थी । कार भाग रही थी और समय करवट ले रहा था ।

    ०००

    विभा !  

           घर में घुसते ही अनिल ने आवाज लगाई । 

           कॉलेज जाने से पहले विभा के घर होकर जाना उसका नियम बन गया था । विभा और उमा दोनों ही उसका इंतजार किया करती थीं । इस समय विजय बहुत छोटा था । कुल छै वर्ष का लेकिन वह भी अपने अनिल दा पर जान छिड़का करता था ।

            अनिल की पुकार सुन कर वह बाहर निकल आया ।

    अनिल दा ! चलो, दीदी भीतर इंतजार कर रही है ।

    चलो ।

            अनिल विजय के साथ ही घर में घुसा । विभा अपने कमरे में खड़ी किताबें ठीक कर रही थी और उमा पेन में इंक भर रही थी ।

    लो दीदी !

            पेन का कैप बंद करते हुए उमा ने पेन विभा की ओर बढ़ाया । विभा ने पेन ले लिया । वह अनिल को देख कर मुस्कुराई -

    आ गए ?

    लगता तो ऐसा ही है ।

           अनिल भी हँस कर बोला ।

    चलो, चलते हैं हम भी ।

    पहले एक गिलास शरबत पिलाओ ।

    वह क्यों ?

            विभा ने ने पूछा ।

    इसलिए कि थक गया हूँ । शरबत पीकर तरोताजा हो लूं तब चलूँ ।

    कहां गए थे जनाब जो थक गए ?

    बंदर ढूंढने ।

             अनिल मुस्कान छुपाता बोला ।

    वह क्यों ?

    तुम्हारे लिए ।

    बन्दर या बन्दरिया ?

    उमा बोली और तीनों खिलखिला कर हँस पड़े । 

             थोड़ी देर बाद ही तीनों कालेज की बाउंड्री में दाखिल हो रहे थे ।अनिल का कॉलेज विभा के कालेज से सटा हुआ था इसलिये तीनों साथ ही आते जाते थे । कालेज में भी इनके परस्पर स्नेह की अच्छी चर्चा थी ।

            विभा और उमा अपनी क्लास की सबसे तेज लड़कियों में गिनी जाती थीं और अनिल अपने क्लास का टॉपर स्टूडेंट था । इससे भी अपने-अपने विद्यालयों में इन्होंने अच्छे प्रतिष्ठा पा ली थी । अपने ही नहीं एक दूसरे के विद्यालय में भी उनकी अच्छी ख्याति थी ।

             स्कूल की बाउंड्री में घुसते ही छात्र-छात्राएं उन्हें हाथों हाथ लेते थे । उन्होंने जैसे ही कालेज में प्रवेश किया छात्राओं ने लिया -

    हेलो विभा ! गुड मॉर्निंग ।

             कंचन ने हँसते हुए उनका स्वागत किया । अभिवादन की रस्म अदाई करते तीनों तीन भागों में बंट गए

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