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नकली चेहरा
नकली चेहरा
नकली चेहरा
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नकली चेहरा

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About this ebook

दिलीप गौतम 1971 के भारत–पाक युद्ध में बमबारी के दौरान बुरी तरह जख्मी हुआ...याददाश्त गायब...बारह साल गुजर गये...एक दुर्घटना में याददाश्त तो वापस आ गयी मगर सर में बम का एक बारीक़ टुकड़ा अभी बी बाकी था...एक हफ्ते बाद दिल्ली में उसका ऑप्रेशन होना था...।


दिलीप अपने पुराने फौजी साथियों का पता लगाकर सलीमपुर  पहुंचा । उसका मकसद था–उस गद्दार साथी का पता लगाना जिसकी गद्दारी की वजह से उसकी रेजीमेंट के तीन सौ जवान मारे गये थे...।


सबसे पहले मिला अपने मरहूम दोस्त रनबीर के पिता जगजीत सिंह से...बदमिजाज बूढ़े को यकीन था  उसका बेटा बहादुरी से लड़ता लड़ता शहीद हुआ था...। रनबीर की जवान बहन नीता ने भी यही यकीन जाहिर किया...जबकि असलियत यह नहीं थी...। दिलीप ने अपना असली मकसद बताया तो नीता भड़क गयी और उसे पागल तक कह दिया...।


राजकुमार आहूजा से मिलते ही दिलीप की आखें फट पड़ी...दर्जनों उभरे–दबे निशानों से लगता था जैसे टुकड़े टुकड़े हो गये कटे–फटे चेहरे को फिर से जोड़ा गया था...दिलीप का असली मकसद जानकर उसने भी गढ़े मुर्दे न उखाड़ने की सलाह दी...।


जोगिंदर से हुयी मुलाकात भी मजेदार नहीं रही...गद्दार का पता लगाने के उसके इरादे को जानकर उसने भी इसे भूल जाने को कहा...।


रमेश पाल से मुलाकात न सिर्फ बदमज़ा रही बल्कि खत्म भी मार कुटाई के साथ हुई...उसे रमेश की तगड़ी ठुकाई करनी पड़ी...।


जीवनलाल दो क्लबों का मालिक था...। पहले क्लब में वह तो नहीं मिला लेकिन कैब्रे डांसर कंचन से दिलीप की दोस्ती जरूर हो गई...।


दुसरे क्लब के शानदार ऑफिस में जीवनलाल से मिलकर दिलीप ने सीधा सवाल किया–क्या बारह साल पहले उसीने गद्दारी की थी ? जीवनलाल बुरी तरह उखड गया...दिलीप को उस पर रिवॉल्वर तानकर धमकी देनी पड़ी...बाहर निकला तो जीवन का मसलमैन जग्गा टकरा गया...दिलीप को उसे बी हाथ जमाने पड़े...।


उसी रात नीता ने हमदर्दी और अपनापन जात्ताते हुये ग़लतफ़हमी दूर कर दी...दोनो ने शानदार रेस्तरां में जाकर डिनर लिया...विदा होते समय नीता ने उसे बाँहों में भरकर चुम्बन प्रदान किया...।


दिलीप होटल के अपने कमरे में लौटा तो रिवाल्वर गायब पायी...उसे लगा यह जीवनलाल की करतूत थी...गुस्से से सुलगता उसके क्लब जा पहुंचा...।


क्लब के पिछले दरवाजे से बाहर निकलते जीवनलाल और नीता को हाथ थामे हँसते मुस्कराते साथ देखकर वह मन ही मन तांव खाकर रह गया...।


वो रात दिलीप ने कंचन के साथ उसी के फ्लैट में गुजारी...।


अगले रोज दिलीप ने नीता को सीधी और साफ़ बातें करते हुये लताड़ा तो नीता ने कबूल किया जीवनलाल के साथ उसका अफेयर था उस दौरान उसके लिखे खतों की बिना वह उसे ब्लैकमेल कर रहा था...।


दिलीप वापस होटल लौटा तो एक पुलिस इंस्पैक्टर ने पिछली रात हुयी रमेश पाल की मौत की खबर देते हुये उसे दो घंटे में शहर से चले जाने की चेतावनी दे दी...।


होटल से अपना सामान लेकर दिलीप कंचन के फ्लैट में जा ठहरा...अगली शाम दिलीप जीवनलाल के ऑफिस में नीता के खतों की वजह से सेंध लगाने पहुंचा...लेकिन पकड़ा गया...जीवनलाल ने उसे जग्गा के हवाले करके खत्म करने का हुक्म दे दिया और काठ के बंगले में रिपोर्ट देने को कहा...लेकिन मारामारी करके दिलीप उसके चंगुल से निकल भगा...।


दिलीप काठ के बंगले पर पहुंचा...जीवनलाल पर काबू पाकर उससे सब कुछ कबूलवाया...उसका चाबियों का गुच्छा और पिस्तौलें हतियाकर उसी की कार में उसके क्लब पहुँच गया...ऑफिस में सेफ से लिफाफा निकाला जिस जगजीत सिंह का पता लिखा था लेकिन उसे खोलकर देखने का मौका नहीं पा सका...ऑफिस से निकलकर मेनरोड पर पहुंचते ही स्ट्रीट लाइट के नीचे खड़ा होकर लिफाफे का सिरा फाड़कर पहले कागज़ पर नजर डाली । मोटे हरफों में लिखा था–रनबीर की मृत्यु के वास्तविक तथ्य...तभी उसके सर किसी भारी चीज से प्रहार हुआ...हाथों से लिफाफा खिंचा जाता महसूस करते हुए होश गवांकर फुटपाथ पर जा गिरा...।


होश में आने पर खस्ता हाल दिलीप टैक्सी द्वारा कंचन के घर पहुंचा...हाथ लगाते ही फ्लैट का दरवाज़ा खुल गया...अधखुले दरवाजे से एक मजबूत हाथ ने उसे खींचकर कमरे में धकेल दिया...अँधेरे में टटोलता बैडरूम में पहुंचा...बैड पर खून से लथपथ कंचन फैली पड़ी थी...दिलीप खड़ा नहीं रह सका उसके ऊपर जा...??


क्या दिलीप इस जंजाल से निकलकर अपने मकसद में कामयाब हो...???

Languageहिन्दी
PublisherAslan eReads
Release dateJun 15, 2021
ISBN9788195155309
नकली चेहरा

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    नकली चेहरा - प्रकाश भारती

    नकली चेहरा

    प्रकाश भारती

    * * * * * *

    Aslan-Reads.png

    असलान रीड्स

    के द्वारा प्रकाशन

    असलान बिजनेस सॉल्यूशंस की एक इकाई

    बोरिवली, मुंबई, महाराष्ट्र, इंडिया

    ईमैल: hello@aslanbiz.com; वेबसाइट: www.aslanreads.com

    कॉपीराइट © 1983 प्रकाश भारती द्वारा

    ISBN

    इस पुस्तक की कहानियाँ काल्पनिक है। इनका किसी के जीवन या किसी पात्र से कोई

    संबंध नहीं है। यह केवल मनोरंजन मात्र के लिए लिखी गई है।

    अत: लेखक एवं प्रकाशक इनके लिए जिम्मेदार नहीं है।

    यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि प्रकाशक की

    लिखित पूर्वानुमती के बिना इसे या इसके किसी भी हिस्से को न तो पुन: प्रकाशित

    किया जा सकता है और न ही किसी भी अन्य तरीके से, किसी भी रूप में

    इसका व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।

    यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

    * * * * * *

    अंतर्वस्तु

    प्रकाश भारती - नकली चेहरा

    नकली चेहरा

    * * * * * *

    प्रकाश भारती - नकली चेहरा

    दिलीप ने अपना पर्स निकाला और पचास रुपये का एक नोट उसे दे दिया ।

    बेला नोट मुट्ठी में दबाकर खड़ी हो गई ।

    उठो ! वह बोली–दूसरे कमरे में चलते हैं ।

    क्यों ?

    पचास रुपये का यह नोट वसूल नहीं करोगे ?

    इससे पहले कि दिलीप कोई जवाब देता बाहर का दरवाज़ा इतनी जोर से भड़भड़ाया मानों दरवाजे पर किसी सांड ने टक्कर मारी थी ।

    बेला का चेहरा फक पड़ गया ।

    रमेश आ गया ! वह फंसी–सी आवाज़ में बोली । हाथ में दबा नोट दीवान के नीचे फेंका और कमरे से निकल गई । उसकी टांगें कांप रही थीं और हालत उस गाय जैसी थी जिसे कसाई के सामने जाना पड़ रहा था ।

    –इसी उपन्यास से

    (एक रोचक एवं तेज रफ्तार उपन्यास)

    * * * * * *

    नकली चेहरा

    एक

    चीखती–चिंघाड़ती हुई एक्सप्रेस ट्रेन सलीम पुर के विशाल रेलवे स्टेशन पर आ रुकी ।

    उस वक्त दोपहर के ठीक बारह बजे थे । मूसलाधार बारिश हो रही थी ।

    सैकेंड क्लास के एक कम्पार्टमेंट में खड़े दिलीप गौतम ने अपनी बरसाती के बटन बन्द किए । सर पर रेन कैप जमा ली । अपना एयर बैग कंधे पर लटकाया । सूटकेस उठाकर कम्पार्टमेंट के दरवाजे की ओर बढ़ गया ।

    ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर पांव रखते ही बारिश की मोटी बूंदें उसके चेहरे से टकराई और हवा का तेज झोंका पीछे धकेलता–सा महसूस हुआ । उसे लगा मानो यह कोई अप्रत्यक्ष चेतावनी थी कि वह फौरन वापस ट्रेन में जा बैठे और वहां से दूर चला जाए ।

    दिलीप ने बेमन से कंधे झटकाए । वह प्लेटफार्म से बाहर जाने वाले रास्ते पर बढ़ गया ।

    स्टेशन की इमारत से निकलकर वह टैक्सी स्टैंड पर पहुंचा ।

    टैक्सी में सवार होने के बाद उसने ड्राइवर से औसत दर्जे के किसी अच्छे होटल चलने के लिए कहा ।

    ड्राइवर ने इंजिन स्टार्ट करके टैक्सी स्टेशन की सीमा से बाहर निकाली और शहर के मध्यभाग की ओर ड्राइव करने लगा ।

    करीब बीस मिनट बाद टैक्सी जिस होटल के सम्मुख पहुंचकर रुकी वो मेन रोड के बजाय सुनसान सी एक पिछली सड़क पर स्थित था । होटल का नाम था–नीलकमल ।

    दिलीप ने मीटर देखकर भाड़ा चुकाया ।

    बारिश अभी भी उतनी ही तेजी के साथ हो रही थी । दिलीप अपने एयर बैग और सूटकेस सहित टैक्सी से उतरा और एक प्रकार से दौड़ता हुआ सा चलकर होटल में दाखिल हो गया ।

    छोटी–सी लॉबी में रिसेप्शन काउंटर पर सिर्फ एक युवती ही मौजूद थी । उसकी उम्र करीब अट्ठारह साल थी वह सर झुकाए कोई मैगज़ीन पढ़ने में इस बुरी तरह खोई हुई थी कि उसके सामने पहुंचने के बाद भी उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए दिलीप को बाक़ायदा काउंटर ठकठकाना पड़ा ।

    युवती ने हडबडाकर सर ऊपर उठाया । पल भर के लिए उस चेहरे पर शर्मिन्दगी के भाव उत्पन्न हुए फिर उसकी आँखों में एक चमक–सी उभरी और फिर वह खुलकर मुस्कराई ।

    यस सर ?

    आई वांट ए रूम फार वन वीक । दिलीप बोला ।

    विद और विदाउट टेलीफोन ? युवती ने पूछा ।

    विद टेलीफोन । पल भर सोचने के बाद दिलीप ने जबाब दिया ।

    युवती ने टेलीफोन उपकरण की बगल में रखा मोटा–सा रजिस्टर उठाकर खोला और उसके सामने रख दिया ।

    दिलीप ने अपनी जेब से बालपैन निकाला नाम–पता वगैरा भरने की औपचारिकता पूरी कर दी ।

    इस पूरे दौर में युवती की निगाहें दिलीप का इस ढंग से निरीक्षण करती रही थीं मानों वह दिलीप के मिज़ाज और उसकी हैसियत का अन्दाजा लगाने की कोशिश कर रही थी ।

    युवती ने रजिस्टर अपनी ओर घुमाकर दिलीप द्वारा भरे गए विवरण पर सरसरी–सी नजर डाली फिर खड़ी हो गई । की बोर्ड से एक चाबी उतारी और काउंटर के पीछे से निकली ।

    माफ कीजिए । वह सूटकेस की ओर देखती हुई बोली–हमारा पेज ब्वाय आज छुट्टी पर है । वैसे अगर आप चाहें तो मैं...।

    नहीं...नहीं । दिलीप उसका आशय समझकर बोला–सूटकेस मैं खुद उठा लूँगा ।"

    आइए । कहकर युवती ऊपर जाने वाली सीढ़ियों की ओर बढ़ी ।

    दिलीप नीचे रखा अपना सूटकेस उठाकर उसके पीछे चल दिया ।

    युवती फेडेड जीन्स और वूलन स्कीवी पहने थी उसके पुष्ट–सुडौल नितम्बों का उतार–चढ़ाव उत्तेजक था । दिलीप को यही उसके जिस्म का एकमात्र आकर्षण प्रतीत हुआ । वरना उसकी छाती लगभग चपटी थी और चेहरे पर मुहांसों के निशान गहरे मेकअप के बावजूद साफ दिखाई पड़ते थे । कुल मिलाकर वह निहायत मामूली शक्ल सूरत और निहायत मामूली लिबास वाली निहायत मामूली युवती थी ।

    वे दोनों सीढ़ियां तय करके दूसरे खंड पर पहुंचे ।

    गलियारे में एक घिसा और जगह–जगह से फटा हुआ पुराना कारपेट बिछा था ।

    अचानक, आगे जा रही युवती के सैंडल की पैंसिल हील कारपेट में उलझी और वह इस बुरी तरह लड़खड़ाई कि उसे गिरने से बचाने लिए दिलीप को अपनी बाँह का सहारा देना पड़ा ।

    युवती उसके सीने से आ लगी ।

    थैंक्यू वैरी मच । वह आकर्षक ढंग से मुस्कराने की कोशिश करती हुई बोली ।

    दिलीप कुछ नहीं बोला ।

    युवती ने स्वयं को उससे अलग किया । बांयी ओर निकट ही एक दरवाजे के की होल में चाबी फंसाकर घुमाती हुई बोली–दिस इज यूअर रूम, मि० गौतम । और दरवाज़ा खोलकर एक तरफ हट गई ।

    दिलीप भीतर दाखिल हुआ ।

    कमरा होटल के रंग ढंग के अनुरूप ही था–न उससे बढ़िया और न ही घटिया । पुरानी ड्रेसिंग टेबल, वैसी ही लकड़ी की आल्मारी, एक कुर्सी, पलंग और निकट ही एक साइड टेबल पर रखा टेलीफोन उपकरण । एक अन्य बन्द दरवाज़ा जो बाथरूम में खुलता था ।

    दिलीप को घुटन–सी महसूस हो रही थी । उसने अपना एयर बैग और सूटकेस नीचे रखे और आगे बढ़कर खिड़की खोल दी ।

    वह पलटा तो दरवाजे के तनिक भीतर खड़ी युवती को गौर से अपनी ओर ही देखती पाया । उसके चेहरे पर रहस्यपूर्ण–सी प्रतीत होने वाली मुस्कराहट थी ।

    कमरा पसंद आया ? वह बोली–और किसी चीज की जरूरत तो नहीं ?

    दिलीप जवाब देने की बजाय आगे बढ़ा । युवती के हाथ से चाबी लेकर उसने हौले से उसे बाहर धकेल दिया ।

    अगर किसी चीज की जरूरत पड़े तो तुम्हें जरूर बताऊंगा, मैडम ।

    दिलीप को दरवाज़ा बन्द करता देखकर युवती विवशतापूर्वक मुस्कराई ।

    अगर आपको किसी चीज की...मेरा मतलब है किसी भी चीज की जरूरत पड़े तो–नि:संकोच मुझे फोन कर देना । वह किसी भी चीज पर जोर देती हुई बोली–मेरा नाम मोना है ।

    दिलीप ने भड़ाक से दरवाज़ा बन्द कर लिया ।

    वह बाथरूम में पहुंचा । अपनी बरसाती और रेन कैप उतार कर खूंटी पर टांग दी । फिर ज्योंहि वह वाशबेसिन की ओर बढ़ा, अचानक उसके सर में दर्द की तेज लहर फिर उठ खड़ी हुई–मानो खोपड़ी के अन्दर नश्तर चलाया जा रहा था ।

    वह वाशबेसिन के पास दीवार से पीठ सटाकर खड़ा हो गया । पैंट की जेब से शीशी निकाली । कांपती उंगलियों से उसे खोला । लाल रंग की दो गोलियां अपनी बांयी हथेली पर निकाल ली फिर पलभर हिचकिचाया और दो और गोलियां निकाल ली । चारों गोलियां मुंह में डाली, बेसिन की टैप खोलकर चुल्लू में पानी लिया और उसकी मदद से एक–एक करके सारी गोलियां कंठ से नीचे उतार गया ।

    कुछ देर आँखें बन्द किए दीवार से पीठ सटाए खड़ा रहा । फिर लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला और बिस्तर पर फैल गया ।

    दर्द का इतना भयंकर हमला उस पर पहले कभी नहीं हुआ था । वह तकिए में चेहरा गड़ाए औंधा पड़ा था । जिस्म पसीने से तर हो गया । सांस धौंकनी की तरह चल रही थी घबराहट के कारण धड़कनें किसी भी क्षण रुक जाने जैसी प्रतीत हो रही थीं ।

    फिर हमेशा की तरह दर्द उसी तरह अचानक गायब हो गया जैसे वो शुरू हुआ था ।

    धीरे–धीरे उसकी सासें व्यवस्थित और हालत सामान्य हो गई ।

    वह धीरे से उठा दोनों हाथों में सर थामकर पलंग के–सिरे पर बैठ गया ।

    करीब पांच मिनट बाद वह उठा । अपना एयर बैग खोलकर ब्रांडी की लगभग तीन चौथाई भरी बोतल निकाली, और पुनः पलंग पर आ बैठा ।

    ढक्कन खोलकर बोतल से ही ब्रांडी का तगड़ा घूँट भरा । नीट ब्रांडी उसे हलक से लेकर पेट तक जलाती–सी प्रतीत हुई । फिर चन्द क्षणोपरांत उसे अपने जिस्म में नवीन ऊर्जा का संचार सा होता महसूस हुआ ।

    उसने अपने जूते और जुराबें उतार कर पलंग के नीचे धकेले । चार्म्स की एक सिगरेट जलाई और ड्रेसिंग टेबिल के सामने कुर्सी पर बैठ गया ।

    सिगरेट के छोटे–छोटे कश लेते हुए वह दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब निहारने लगा । इकहरे मजबूत जिस्म से होती हुई उसकी निगाहें अपने चेहरे पर ठहर गईं । मर्दाना खूबसूरत सुर्ख़ चेहरा जो किसी जमाने में बेहद आकर्षक और प्रभावशाली था अब उसकी रंगत पीली पड़ गयी थी । कनपटियों पर कहीं–कहीं सफेदी झलक रही थी । घनी भौंहों के नीचे बड़ी–बड़ी काली आँखों में अब पहले वाली खास चमक का चिन्ह तक भी बाकी नहीं था । वे पूर्णतया भावहीन हो गई थीं । उनके नीचे गहरी स्याह गोलाइयां उभर आई थीं । दांयी भौंह के पास से शुरू होकर ज़ख्म का टेढ़ी मेढ़ी धारी के रूप में उभरा लम्बा निशान माथे के बीचों–बीच से गुजरता हुआ घने काले बालों में जाकर गायब हो गया था ।

    दिलीप ने एक उंगली हौले से उस पूरे निशान पर फिराई । कहीं भी दर्द या दुखन का एहसास न पाकर उसने भारी राहत महसूस की ।

    वह कुर्सी से उठा । अपने एयर बैग से गिलास निकालकर बाथरूम में गया और आधा गिलास पानी ले आया । शेष खाली गिलास को ब्रांडी से भरकर पलंग पर बैठ गया और धीरे–धीरे चुसकने लगा ।

    उसकी निगाहें अपने सूटकेस पर जमी थीं । चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो वह किसी निश्चय पर पहुंचने की कोशिश कर रहा था ।

    अन्त में उसने गरदन को झटका दिया । गिलास में बची ब्रांडी एक ही सांस में कंठ से नीचे उतार गया ।

    उसने सूटकेस खोला । कपड़ों के नीचे रखा अड़तीस बोर का वैबलेस्काट रिवाल्वर निकाला । उसे खोलकर चैक किया । संतुष्टिपूर्ण ढंग से सर हिलाकर रिवाल्वर पलंग पर रख दिया ।

    बाथरूम में जाकर हाथ मुंह धोए । वापस कमरे में आकर कपड़े बदले । रिवाल्वर कोट की जेब में डाला, बाथरूम से लाकर बरसाती और रेन कैप पहने, कमरे से निकलकर दरवाज़ा लॉक किया और सीढ़ियों द्वारा नीचे आ गया ।

    रिसेप्शन काउंटर पर मौजूद मोना पहले की भांति मैगज़ीन में खोई हुई थी ।

    दिलीप ने कमरे की चाबी उसे सौंपी और कुछ कहने का मौका दिए बगैर तेजी से बाहर निकल गया ।

    बारिश अभी भी उतने ही वेग से हो रही थी ।

    दिलीप तेजी से चलता हुआ मेनरोड पर पहुंचा और उधर मुड़ गया जिधर से थोड़ी देर पहले उसे टैक्सी रेलवे स्टेशन से लेकर आई थी ।

    मुश्किल से पांच मिनट बाद वह जनरल पोस्ट आफिस की बड़ी–सी इमारत में दाखिल हो रहा था ।

    वह सीधा टेलीफोन बूथ में जा घुसा ।

    उसने अपनी जेब से एक छोटी सी डायरी निकाली । जिसमें कुछ आदमियों के नाम पते लिखे थे ।

    पहला नाम था जगजीत सिंह ।

    उसने टेलीफोन की बगल में रखी डायरेक्टरी के पेज जल्दी–जल्दी पलटे । उसमें दर्ज जगजीत सिंह का एड्रेस अपनी डायरी में लिखे एड्रेस से मिलाया । दोनों जगह एक ही पता देखकर वह निश्चिंत हो गया ।

    उसने डायरेक्टरी में दिया जगजीत सिंह का नम्बर डायल किया ।

    दूसरी ओर घंटी बजने लगी ।

    करीब आधा मिनट इन्तजार करने के बाद भी जब दूसरी ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो उसने फोन डिसकनेक्ट करके पुनः नम्बर डायल किया ।

    जवाब में इस दफा भी लाइन पर घंटी की आवाज़ ही सुनाई देती रही ।

    दिलीप ने तीसरी दफा नम्बर ट्राई किया । लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ । दूसरी ओर से रिसीवर नहीं उठाया गया । दूसरी ओर वाले टेलीफोन की या तो लाइन खराब थी या फिर उसे अटैंड करने वाला कोई नहीं था ।

    दिलीप सम्बन्ध विच्छेद करके निराश मन से बूथ से बाहर निकला ।

    उसने एक सिगरेट जला ली ।

    क्या यहां आना बेकार ही जाएगा ? उसने सोचा । क्या यहां आकर उसने बेवकूफी की थी ?

    वह पोस्ट आफिस की इमारत से निकला और निरुत्साहित भाव से चल दिया ।

    कोई तीन मिनट बाद एक खाली टैक्सी आती दिखायी दी ।

    दिलीप ने हाथ का संकेत देकर टैक्सी रुकवाई और जगजीत सिंह का पता बताता हुआ पिछली सीट पर जम गया ।

    टैक्सी सड़क पर फिसलने लगी ।

    करीब पंद्रह मिनट तक विभिन्न सड़कों से गुजरने के बाद टैक्सी एक चढ़ाईदार सड़क पर पहुंची ।

    वो शहर का बाहरी भाग था और चढ़ाई निरन्तर बढ़ती जा रही थी ।

    दिलीप की तेज निगाहें सड़क पर लगे साइन बोर्डों का निरीक्षण कर रही थीं ।

    उसे एक जगह भोलाशंकर रोड लिखा दिखाई दिया ।

    बस यहीं रोक दो । वह बोला ।

    ड्राइवर ने टैक्सी रोक दी ।

    दिलीप भाड़ा चुकाकर नीचे उतरा । वह तब तक वहीं खड़ा रहा जब तक कि टैक्सी वापस घूमकर आँखों से ओझल नही हो गई ।

    बारिश फिर जोर से होने लगी थी । लेकिन दिलीप उसकी परवाह न करके भोलाशंकर रोड पर चल दिया ।

    सड़क के दोनों ओर बने मकानों से जाहिर था वह शहर का उच्च मध्यमवर्गीय इलाक़ा था ।

    दिलीप की निगाहें अठहत्तर नम्बर मकान को ढूंढ़ रही थीं ।

    अठहत्तर नम्बर सड़क के तकरीबन आखिरी सिरे पर मिला । छह–सात कमरों वाली उस एक मंज़िला कोठी की हालत से साफ जाहिर था उसके रख रखाव की ओर कतई ध्यान नहीं दिया जा रहा था । मेन गेट टूटा हुआ था, लान में ऊंची–ऊंची घास और खरपतवार उग आए थे, कोठी की दीवारें सफेदी के अभाव में काई जमी नजर आ रही थीं और दरवाजे बदरंग थे ।

    दिलीप ने प्रवेश द्वार पर पहुँचकर डोर बैल पुश दबा दिया ।

    अंदर कहीं घंटी तो बजी लेकिन इन्तजार करने के बाद भी दरवाज़ा खोलने कोई नहीं आया ।

    दिलीप ने पुनः घंटी बजाई ।

    जवाब में इस दफा भी खामोशी छायी रही ।

    दिलीप ने बेचैनी–सी महसूस की ।

    उसने डोर नॉब घुमाते हुए अंदर की ओर दबाव डाला ।

    दरवाज़ा खुल गया ।

    दिलीप ने अनिश्चयात्मक भाव से अंदर झांका ।

    उसे अंधेरे के सिवा कुछ नजर नहीं आया । अलबत्ता कमरा काफी बड़ा प्रतीत हुआ ।

    कोई है ? उसने हांक लगाई ।

    पल भर खामोशी छायी रही फिर ऊंचा, झगड़ालु–सा स्वर सुनाई दिया ।

    कौन है ?

    दिलीप कमरे में दाखिल हुआ ।

    उसने चारों ओर निगाहें दौड़ाई । लेकिन अंधेरे में कोई दिखाई नहीं दिया ।

    मैं इधर हूँ । पुनः वही स्वर उभरा फिर उसी दिशा में एक पैडेस्टल लैम्प का सीमित प्रकाश फैल गया ।

    दिलीप ने देखा ड्राइंगरूम के अनुरूप सजे कमरे के एक कोने में लगभग सत्तर वर्षीय एक दुबला पतला–सा आदमी सोफा चेअर में बैठा था । बगल में छोटे से स्टूल पर व्हिस्की की आधी भरी बोतल और एक गिलास मौजूद थे । बूढ़े ने बन्द गले का कोट पहना हुआ था उसकी टांगों पर एक गर्म कम्बल पड़ा था । दांयी ओर सोफा चेअर के सहारे एक मोटी–सी बेंत टिकी हुई थी ।

    किससे मिलना है ? उसने पूछा ।

    दिलीप उसकी बगल में पड़ी दूसरी सोफा चेअर पर बैठ गया ।

    जगजीत सिंह जी से । वह बोला ।

    बूढ़ा तनिक उसी की ओर झुक गया ।

    आमतौर से मुझसे मिलने कोई नहीं आता इसलिए घंटी की आवाज़ सुनकर टाल गया था । वह बोला–खैर, मेरा ही नाम जगजीत सिंह है । मुझसे किस लिए मिलना चाहते हो ? और अपनी बेंत उठाकर उसकी मूठ दोनों हाथों में दबा ली ।

    बूढ़े के लहजे और उसकी भाव भंगिमा से दिलीप को व्याकुलता सी महसूस हो रही थी । उसकी भावहीन आँखें चितापूर्ण ढंग से सिकुड़ी हुई थीं दांए गाल पर कोई नस रह–रहकर फड़क रही थी ।

    मेरा नाम दिलीप है...दिलीप गौतम । वह अपने सूखे होठों पर ज़ुबान फिराता हुआ बोला–१९७१ के भारत पाक युद्ध में आपका बेटा और मैं एक ही मोर्चे पर लड़े थे ।

    बूढ़े के हाथ बेंत की मूठ पर कस गए और ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसके समूचे जिस्म से कोई सर्द–सी लहर गुजर गई थी । वह उत्तेजित भाव से आगे झुका उसकी आँखों में अजीब–सी चमक उभर आई ।

    तुम रनबीर के साथ ही मोर्चे पर लड़े थे ? उसे जानते थे ? वह बोला–खूब...बहुत खूब ! उसने कई बार दांए–बांए सर हिलाया–रनबीर बहुत अच्छा लड़का था...बहुत ही बढ़िया । थोड़ा खुराफाती तो था लेकिन उसने कभी किसी को परेशान नहीं किया । उसने जोर से आह भरी–"वह उसी लड़ाई में मारा गया था । तुम जानते हो न ? वह बड़ी बहादुरी के

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