सई: उपन्यास
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सई' उपन्यास नहीं नारी - जीवन की विवशता अंतर्द्वंद और उसके अस्मिता की रक्षा के लिए किए गए संघर्ष का लेखा-जोखा है। यह केवल सई की ही कथा नहीं है वरन संपूर्ण नारी जाति की व्यथा - कथा है । उसके अश्रु और हास का संपूर्ण इतिहास है । उसकी विजय और पराजय की लहरों से युक्त समाज रूपी समुद्र की जीवन - यात्रा है जिसमें सिंधु के विकट गर्जन के साथ उसी के हृदयाकाश में विलीन हो जाने वाली गंगा की विभिन्न विवश उर्मियों का विलाप भी समाहित है । प्रत्येक स्त्री गंगा की पावनता नहीं प्राप्त कर सकती । प्राप्त भी कर ले तो भी उस महिमा-मंडित पद तक पहुंच जाए यह संभव नहीं हो पाता । सई गंगा सी होकर भी गंगा नहीं मात्र 'सई' है । उसे जानने के लिए प्रस्तुत उपन्यास पढ़ें - 'सई'।
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Book preview
सई - डॉ. रंजना वर्मा
सई
उपन्यास
BY
डॉ. रंजना वर्मा
pencil-logo
ISBN 9789355590657
© Dr. Ranjana Verma 2021
Published in India 2021 by Pencil
A brand of
One Point Six Technologies Pvt. Ltd.
123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
E connect@thepencilapp.com
W www.thepencilapp.com
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DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.
Author biography
नाम-
डॉ. रंजना वर्मा
जन्म - 15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।
शिक्षा-
एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)
लेखन एवम् प्रकाशन -
वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।
प्रकाशित कृतियाँ -
साईं गाथा (महाकाव्य)। अश्रु - अवलि, सर्जना, समर्पिता, सावन, प्रवासी, कैकेयी का मनस्ताप, वैदेही व्यथा, संविधान निर्माता, द्रुपद - सुता, सुदामा (सभी खण्ड काव्य), चन्द्रमा की गोद में (बाल उपन्यास), समृद्धि का रहस्य, जादुई पहाड़, मङ्गला, पोंगा पण्डित,(सभी बाल कथा संग्रह), मुस्कान (बाल गीत संग्रह), फुलवारी (शिशु गीत संग्रह)। जज़्बात, ख्वाहिशें, एहसास, प्यास, रंगे उल्फ़त, गुंचा, रौशनी के दिए, खुशबू रातरानी की, ख़्वाब अनछुए , शाम सुहानी, यादों के दीप, मंदाकिनी, आस किरन, बूँद बूँद आँसू (सभी ग़ज़ल संग्रह)। गीतिका गुंजन, सरगम साँसों की, रजनीगन्धा, भावांजलि (गीतिका संग्रह), सत्यनारायण कथा (पद्यानुवाद)। मुक्तक मुक्ता, मुक्तकाञ्जलि, मन के मनके (सभी मुक्तक संग्रह)। दोहा सप्तशती । एक हवेली नौ अफ़साने, रास्ते प्यार के, अमला, पायल, अतीत के पृष्ठ (उपन्यास)। सूर्यास्त, सिंधु-सुता, परी है वो ( कहानी संग्रह )। साँझ सुरमयी, गीत गुंजन, गीत धारा , मीत के गीत, आ जा मेरे मीत,(सभी गीत संग्रह)। बसन्त के फूल (कुण्डलिया संग्रह)। चुटकी भर रंग, जुगनू (दोनों हाइकु संग्रह)। चंदन वन (तांका संग्रह), इंद्रधनुष (चोका संग्रह), मेहंदी के बूटे (सेदोका संग्रह), नयी डगर (वर्ण पिरामिडसंग्रह)।
'लौट आओ रुद्र' (उपन्यास का पूर्वार्द्ध) प्रेस में ।
सम्पादन -
मन के मोती, मकरंद , सौरभ, मौन मुखरित हो गया (चारो कविता संग्रह ), अँजुरी भर गीत (गीत संग्रह), शेष अशेष (स्मृति ग्रन्थ), हास्य प्रवाह (हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, थूकने का रहस्य, करामाती सुपारी (दोनों हास्य व्यंग्य संग्रह)।
प्रसारण -
गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।
सम्मान -
श्रीमती राजकिशोरी मिश्र सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान, ग़ज़ल सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक गौरव सम्मान, दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक भूषण सम्मान, दोहा मणि सम्मान।
सम्प्रति -
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।
सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com
Contents
एक
दो
तीन
चार
पाँच
छै
सात
आठ
नौ
दस
एक
अष्टमी की रात । चंद्रमा अपनी जादू भरी चांदनी से अनंत विश्व को नहलाता एक अनोखे जादू नगर की सृष्टि कर रहा था । फूलों की पंखुड़ियों से उड़ती मादक सुगंध को पीने वाला भ्रमर न जाने कहां जा चुका था परंतु उसे इसका जैसे भान ही न था । वह तो अनावृत अपनी मधु - प्याली से मधु की अजस्र धारा निरंतर बहा रहा था.... बहाये जा रहा था ।
गुलमोहर के वृक्ष पर हरीतिमा का तो नाम मात्र ही अवशिष्ट था । उसके शिखर लाल लाल फूलों की पगड़ी लगाए उस नीरव निशीथ में अपना आकर्षण यथावत बनाए हुए थे । विश्व सो रहा था । दिवस का श्रम... थकान और विश्रांति की चाह मानव के नेत्र में निद्रा बन कर उतर आई थी । न जाने कितने अछूते स्वप्न, अधूरी कामनाएं उन निद्रित नेत्रों के समक्ष पल-पल में परिवर्तित होते जाने वाले मोह जाल का ताना-बाना बुनने में लगी थी ।
ऐसे स्वप्निल वातावरण में सरिता की कल कल करती लहरों पर दृष्टि टिकाये आंखों ही आंखों में उस मनोहर किन्तु निस्तब्ध प्रकृति सौंदर्य का पान करती सी गीली रेत पर बैठी थी वह सुंदरी....
क्या सचमुच प्रकृति की मनोहरता ने उसे मुग्ध कर रखा था ? नहीं, यदि ऐसा होता तो उस चन्द्र मुख पर सुशोभित हिरनी के नेत्रों से विशाल आयत काले नेत्रों में झिलमिलाती हुई वे आंसुओं की बूंदें क्यों होतीं ? मुग्धावस्था में तो कोई रोता नहीं है । फिर उसकी यह दशा क्यों ? कैसा हाहाकार उठ रहा है उसके अंतर में ? इस हाहाकार को, अपने इस मूक रुदन को सरिता को साक्षी बना कर वह किसे सुना रही है ? अनंत आकाश क्या उसकी वेदना को सुन कर अपना विस्तार कम कर देगा ? मस्त पवन के झोंके उसके हृदय के भीषण झंझावात को देख कर क्या ठिठक जाएंगे ? चंद्रमा अपनी जादू भरी चांदनी को क्या समेट लेगा ? नहीं । ऐसा तो कभी नहीं हुआ ।
विश्व की ये अनंत रचनाएं कब किसी की सगी बन पाई है ? उन्हें तो केवल अपना सौंदर्य बिखेरना आता है । कोई उनके उस हाहाकारी रूप को देख कर मुग्ध होता है, आनंद से झूम उठता है या उस रूपसी के समान मूक रुदन से स्वयं ही निस्तब्ध हो उठता है यह सब देख पाने का अवकाश उनके पास कहां है ?
उस युवती की ही बात करें । उसका नाम है सई । चंदनपुर गांव के एक निर्धन हरिजन की कन्या है । जाति की पासी और मातृ पितृ हीना ।
जन्म देने के कुछ ही घंटों बाद कराल काल के निर्दय हाथों ने उसकी माता को अपना ग्रास बना लिया था । पुत्री का अपरूप सौंदर्य ही उसका काल बन गया था । मंगल का रंग काला था और पत्नी भी सुंदरी न थी । ऐसे में ऐसी रूपवती कन्या का जन्म उसके मन में न जाने कौन सी संदेह की गांठ बांध गया था । उस पर पत्नी की अकाल मृत्यु ने जैसे स्नेह की रही सही बूंद भी चूस कर सुखा दी।
पत्नी के शव का अंतिम संस्कार करने से पूर्व ही इस कन्या को दुष्ट ग्रह मान कर अपनी बस्ती के पीछे स्थित बंसवारी में सूखे पत्तों का पर वह सुला आया और फिर कभी उधर पलट कर नहीं देखा । पत्नी का बिछोह उसके हृदय पर जैसे भीषण बज्रपात बन कर गिरा । एक दिन ही जैसे तैसे बिता सका वह । पहले वह जूते गांठने का काम करता था । महीने भर जूते बनाता और फिर गांव से सात मील दूर शहर ले जाकर बेच आता । उसी दिन वह कच्चा माल और घर गृहस्ती की आवश्यक वस्तुएं भी ले आता था ।
पति पत्नी का छोटा सा परिवार था । रहने के लिए एक कच्चा सरपत का बना झोपड़ा । पिछवाड़े में थोड़ी सी जमीन खाली पड़ी थी जिस को उसके किसी पूर्वज ने बंसवारी में बदल दिया था । गांव में जब भी कोई नया झोपड़ा बनता या पुराने झोपड़े की मरम्मत की जाती थी तब मंगल की उसी बंसवारी के बांस काम आते थे । ऐसे में उसे झोपड़ा छाने के अलावा बांस के मूल्य के रूप में भी कुछ अतिरिक्त आय हो जाती थी ।
एक उपयोग और भी था उस बंसवारी के बांसों का । गांव में जब किसी समान की का दरवाजा मित्रों के द्वारा खटखटाया जाता तब भी उनकी अंतिम यात्रा के लिए इन्हीं बांसों के वंशज काम में आते थे परंतु उसी बंसवारी के बांस मंगल की पत्नी के मरने पर उसके लिए अंतकाल की डोली नहीं तैयार कर पाए । उसके पिता को भी इन बांसों का विमान नहीं नसीब हुआ था ।
पत्नी को तो मंगल यूं ही अपनी झिलगा बनी खाट को उल्टी कर उसी पर लिटा कर पड़ोसी हरिजनों की सहायता से ले जाकर इसी कल-कल करती सई नदी की गोद में डाल गया था । तब उसने अपनी उस अबोध रूपसी कन्या को भी उसी सई में डाल देना चाहा था । उस अभागी को क्या वह कभी पाल सकता था जिसने जन्म लेते ही उसकी चिरसंगिनी को चिर - निद्रा में सुला कर उससे सदा सदा के लिए छीन लिया ? परंतु वह ऐसा कर ही नहीं सका । लोक लज्जा का जो भय उसके परित्याग से उसे नहीं रोक सका उसी लोक लज्जा के भय ने उसे एक निरपराध की हत्या करने से रोक दिया ।
मन की असीम घृणा और संदेह के उसी नन्हे से बीज ने सद्यजाता पुत्री को पिता के ही हाथों बंसवारी में सूखे पत्तों पर किसी वन्य जंतु का ग्रास बनने के लिए छोड़ने पर विवश कर दिया । उसे वहां डाल कर मंगल तो भूल गया किंतु समय नहीं भुला पाया उसे ।
०००
चंदनपुर ।
सई के किनारे बसा एक छोटा सा गांव जहां बारह घर ब्राह्मण के, दो घर कायस्थ के, एक घर वैश्य का और सत्रह घर हरिजनों के थे । हरिजन यानी पासी । इनकी बस्ती से हट कर दूसरी बस्ती थी सवर्णों की बस्ती । उससे भी और उत्तर में था एक पुराना शिवालय मंदिर । न जाने किस युग में किस राजा या धनी ने अपनी किसी मनौती के पूरा होने पर इसे बनवा दिया था । तब से यह मंदिर है जब यहां चंदनपुर गांव का नामोनिशान भी नहीं था ।
वर्षों के अंतराल तथा समय के क्रूर हाथों ने उसे नष्ट भ्रष्ट कर डाला था । उस शिवाले को जो कभी बहुत सुंदर रहा होगा । अब भी उसके जीर्ण शीर्ण दीवारों के अवशेषों से उसका प्राचीन वैभव अपनी झलक यदा-कदा दिखा जाता था ।
और फिर न जाने कब लखनऊ नगर के बाशिंदे विष्णु दत्त शर्मा को अपने ही मोहल्ले की अब्राम्हण युवती से प्रेम प्रसंग के कारण बदनाम होकर रातों-रात नगर छोड़ कर भागना पड़ा और समय के हाथों नचाया जाता जाने कब वह सई नदी के किनारे बने उस भग्न शिवाले में शरण लेने जा पहुंचा था । लोक लाज ने उसे जन समुदाय से दूर कर दिया था । आपने ही दुष्कर्म का प्रायश्चित करने की ठान कर वह वही शिव पूजा में जीवन समर्पित करने का निश्चय करके बस गया ।
पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करने पर काले संगमरमर का बना सुंदर सई के पवित्र जल और विष्णु शर्मा की प्रायश्चिती हाथों से धुल धुल कर निखर आया । मंदिर की जाला लगी दीवार की धूल साफ करने पर उसका संगमरमर झक झक करने लगा । जीर्ण शीर्ण दीवारों के खिसक गए पत्थरों को ब्राह्मण पुत्र ने बड़े परिश्रम से सही जगह स्थिर कर दिया और वन के फल फूलों से पूजन अर्चन करता हुआ वहीं रहने लगा ।
कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है । उसी आवश्यकता जननी ने अपना चमत्कार दिखाया और धीरे-धीरे मंदिर से मील भर दूर एक झोपड़ा भी डल गया जो बाद में पक्के ईंट चूने के बने घर में बदल गया । कुछ दिनों बाद उस एकांत वास का भी विसर्जन हो गया । न जाने कब कहां से तो एक यात्रियों का दल भटक कर भूखा प्यासा उसी मंदिर पर जा पहुंचा और फिर वहीं का होकर रह गया । वर्षों में ही सही पर धीरे-धीरे वह गांव भी बस गया जिसमें सवर्णों के घर चूने ईंटों के थे और हरिजनों के झोपड़ों की दीवारें मिट्टी की ।
मन की मौज में आकर अपने एकांतवास के दिनों में पंडित विष्णु दत्त शर्मा ने एक चंदन का बिरवा जंगल से लाकर मंदिर के पास ही रोप दिया था जो अब घना विशाल वृक्ष बन चुका है । उसकी सुगंध ने ही इस गांव का नाम चंदनपुर विख्यात कर दिया है । अब भी उस वृक्ष की सुदृढ़ डालियों पर यत्र तत्र नाग लिपटे दिखाई दे जाते हैं परंतु उन्हें कोई मारता नहीं ।
शिव मंदिर के पास स्थित उस चंदन वृक्ष पर शिवजी के गण स्वरूप नागों का निवास है और उन नागों पर प्रहार करके शिवजी के कोप को जगाना किसी को भी इष्ट नहीं है । यदि उन्होंने क्रुद्ध होकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया तब ? और इस तब के बाद सोचने या कल्पना करने का साहस किसी भी ग्रामवासी में नहीं है । और फिर यह भी तो शिवजी की महिमा ही हुई न कि इतने वर्षों में किसी निर्दोष ग्रामीण को किसी नाग ने डसना नहीं चाहा ।
कहीं ढाई तीन सौ वर्ष पहले बना था यह मंदिर और लगभग सौ वर्ष पहले आए थे वहां पंडित विष्णु दत्त शर्मा । अब तो उनके वंशजों ने अच्छा खासा विशाल प्रांगण वाला घर बना लिया है जिसे चंदनपुर की हवेली के नाम से जाना जाता है । उनके वंशजों के रक्त में लखनऊ की नज़ाकत अब भी रची बसी है । उस राजसी नफ़ासत और बोलने के तकल्लुफ़ी अंदाज को अपने पूर्वजों से विरासत में पा गए हैं वे सब । एक प्रकार से चंदनपुर का शासन उन्हीं के द्वारा अब चलाया जाता है । तभी तो हरे बांस की बनी अर्थी पर अंतिम यात्रा करने का हक सवर्णों तक ही सीमित रह गया है ।
इन्हीं पंडित विष्णु दत्त शर्मा के पास आये यात्री दल में एक विधवा ब्राह्मणी भी थी जिसकी दो पुत्रियां थी । एक की आयु तेरह वर्ष थी और दूसरी की नौ वर्ष । गांव में पड़े अकाल ने उन सब को विस्थापित कर दिया था । जब अपना ही पेट भरने के लाले पड़ गए थे तो कौन गृहस्थ उनके पेट की ज्वाला शांत करने के लिए दो मुट्ठी अन्न देता ?
और फिर यह अकाल कोई साधारण अकाल भी कहाँ था ? चार वर्षों से पानी की एक बूंद तक नहीं गिरी थी । जानवर पटापट मरने लगे थे। पेड़ों के पत्ते और घास फूस तक लोगों की पेट की ज्वाला में भस्म हो चुके थे । अधम जातियों ने तो चूहा और कबूतर जैसे निरीह प्राणियों को भी नहीं छोड़ा था । ऐसे में बिना पुरुष का वह ब्राम्हण परिवार कहां से अपनी जीविका जुटाता ? दो बच्चे और अकाल की भेंट चढ़ गए । बूढ़े पिता ने भी उसी दिन कराह कर पानी पानी करते दम तोड़ दिया ।
अंततः परिवार की प्रौढ़ा वधू अपनी दो अनाथा पुत्रियों को लेकर गांव से प्रयाण करते वैश्य परिवार के साथ हो ली । दो कायस्थ परिवार भी उनके साथ हो लिए थे । यही यात्री दल भूख प्यास से बेहाल, जीविका की तलाश करता करता न जाने कैसे भूल भटक कर पहुंच गया चंदन के उस छोटे से बिरवे के पास । वहीं मंदिर में उन्हें आश्रय मिला और उन्हीं लोगों ने चंदनपुर गांव की नींव रख दी ।
विधवा ब्राह्मणी पर कृपा करके चालीस वर्षीय 'कुलीन' ब्राह्मण पंडित विष्णु दत्त शर्मा ने उसकी दोनों पुत्रियों से विवाह करके उनका उद्धार कर दिया और दो अबोध कन्याओं को एक ही रात में कन्या से गृहणी स्त्री के 'परम पद' पर पहुंचा कर उनके लिये स्वर्ग का द्वार खोल दिया ।
सास लालमणि ने रसोई और घर गृहस्थी का सारा बोझ स्वेच्छा से उठा लिया । उन्हीं फूलमती और कृष्णा का परिवार बाद में बिखर कर बारह ब्राम्हण परिवार में बंट कर रहने लगा ।
उसी फूलमती की सातवीं कन्या थी लाली । नौ वर्ष की होते न होते मां-बाप ने नगर के एक पुजारी परिवार के विद्याध्ययन में लगे पुत्र के साथ उसका विवाह कर दिया और पाँच वर्ष बाद गौना करने का संकल्प भीकर लिया । परंतु विधाता की बात तो वही जानता है ।
न जाने कैसे एक दिन विद्यालय से लौटते हुए उसका ग्यारह वर्षीय पति सर्पदंश से प्राण खो बैठा । तब लाली के हाथ की मेहंदी भी नहीं छूटी थी । दो महीने पहले ही जिसे सुहाग का जोड़ा पहनाया गया था उसे सफेद कफ़न जैसे बाने में लपेट दिया गया । न उसने विवाह का अर्थ ही समझा और न वैधव्य के अभिशाप की गहनता ही उसे दहला पाई । हँसती खेलती मासूम सी गुड़िया को समय की चोट खाई नानी ने अपने साथ रसोई में लगा लिया ।
लाली नानी मां के साथ गृहस्थी के जुए में जुत गई । सुबह से ही उसका कार्य आरंभ हो जाता और तब कहीं दोपहर में जाकर घड़ी भर कमर सीधी करने को मिलती । तब उस घंटे भर की अवधि के लिए लाली फिर से अबोध बच्ची बन जाती । नानी की नजर बचा कर वह आम के बाग में चली जाती । कभी मौसम में कच्चे आप बिनती और कभी झड़बेरी की झाड़ियों से खट्टे मीठे बेर चुना करती । कभी-कभी अपने मौसम में खिले हुए कदम्ब के वृक्षों पर लगे बूंदी के लड्डू जैसे पीले पीले कदम्ब के फलों को पत्थर मार मार कर गिराया करती ।
वही सद्य विधवा लाली चौबीस वर्ष की युवती होने के बाद कैसी तो गुरु गंभीर हो गई थी । रसोई में ही उसका सारा विश्व आकर सिमट गया था । नानी लालमणी की मृत्यु चार वर्ष पूर्व ही हो गई थी ।
एक दिन वह सुबह नहा धो कर नातिन के साथ पूजा का थाल दिए मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगी तो लड़खड़ा गई । पूजा की थाली छन्न से कर के गिर पड़ी । सारी सामग्री बिखर गई और उसी के साथ बिखर गई नानी की निष्प्राण देह । उस दिन सुबह लाली के करुण चीत्कार से शुरू हुई थी ।... और उस दिन के बाद से जैसे वह गूंगी हो कर रह गई ।
एक नानी ही तो थी उसके दुख सुख की साथी । नानी भी उस जैसी ही विधवा थी इसलिए उन दोनों में आयु का अंतर नहीं रह गया था । जैसे दोनों अभिन्न सखियां बन गई थीं ।
बुढ़ापे में नानी की जीभ चटपटा खट्टा मीठा स्वाद पाने के लिए मचलती रहती और लाली का कैशोर्य । भोजन आदि बनाने के बाद जब सबकी आंख बचा कर वह जंगल की सघनता के बीच खटमिट्ठी झड़बेरियों से आंचल भर कर लौटती तब नानी को उत्कोच स्वरूप मुट्ठी भर बेर दे कर ही प्रसन्न कर लेती ।
कितने सारे भजन और देवी गीत सिखा दिए थे उसे नानी ने । प्रातः पूजा से निपट कर दोनों भजन या देवी गीत गाती जल्दी-जल्दी कलेवा और भोजन की व्यवस्था निबटाया करतीं । रात होने पर लाली लाली से के पास ही जमीन पर अपना बिछौना डाल लेती और उनसे आग्रह करके पुराने जमाने की, अंग्रेजों के राज की और उनके गांव की कितनी ही कहानियां, घटनाएं सुना करती ।
उत्तर प्रदेश का जिला है 'सहारनपुर' । उस जिले में पता नहीं कहां तो है वैदगांव जहां नानी का बचपन बीता था । वैदगांव का नाम भी क्या ऐसे ही पड़ गया था ? पहले उस गांव का नाम था माधोपुर । फिर उसमें एक वैद्य हुए बैजनाथ । उनके हाथ में जस था । जिसे झूठ मूठ में मिट्टी की पुड़िया भी बना कर दे देते तो कैसा भी असाध्य रोग क्यों न हो वह अच्छा हो जाता ।
दवा का दाम भर लेते वे । केवल एक पैसा । एक पैसे में बुखार की दवा भी मिल जाती और क्षय, हैजा जैसे महारोग की भी । गरीब गुरबा की गुहार सुनते तो पैसा न लेते लेकिन दवा मुफ्त भी नहीं देते थे । बदले में वह जो भी दे सकता अपनी सामर्थ्य के अनुसार देता ।
कभी मुट्ठी भर चना मिल जाता और कभी-कभी तो एक आम या एक खट्टी इमली के बदले भी दवा की पुड़िया बांध देते । कभी कोई पूछता -भला इस इमली से आपका क्या बनेगा ? इससे तो अच्छा था यूं ही दवा दे देते ।
वैद्य जी उसी सहजता से हंस कर कहते -
बहुत कुछ बनेगा भाई ! मुफ्त की दवा दूं तो उसका पूरा प्रभाव न होगा । कीमत देकर लेने पर ही आदमी वस्तु का महत्व समझ पाता है ।
ऐसे थे वैद्यजी । घुटनों के ऊपर बंधी धोती और मोटी खद्दर की बंडी । सर पर पगड़ी बांधते थे खूब बड़ी सी । नंगे पैर वे कुछ भी करते होते मरीज की एक ही पुकार पर उठ कर चल देते ।
धीरे-धीरे उनका नाम प्रसिद्ध होता गया । दूसरे गांव के लोग भी हजार दुख उठा कर उनकी दवा लेने आया करते । आस-पास के गांव में नाम फैला तो वैद्य जी की सरपत की बनी झोपड़ी पहले मिट्टी के घर में और फिर जैसे जादू के जोर से ईंटा चूना के बने पक्के मकान में बदल गई ।
वैद्य जी के साथ गांव का नाम भी फैला और माधवपुर वैद्य जी का गांव कहलाने लगा । और फिर यही वैद्य जी का गांव कब और कैसे वैदगांव में बदल गया यह कोई नहीं जान पाया ।
उसी वैद्य गांव में नानी लालमणि के पिता का कच्चा लेकिन विशाल घर हुआ करता था । बीच में बड़ा सा आंगन और उसके चारों ओर चौमुखा दालान । दालान के पीछे बने हुए छोटे-छोटे बीस कमरे । सामने की ओर एक बड़ा कमरा था और उसके बाहर लंबा सा चारों ओर से खुला छप्पर जिसके नीचे चार चारपाइयां हर समय बिछी रहतीं । आने जाने वाले आते तो वही बैठते । वहीं एक चारपाई पर बैठे लालमणि के बाबा गांव वालों की बातें सुनते उनकी समस्याएं सुलझाते और फरशी पीते हुए गपाष्टक किया करते ।
तब घर में चार चार हुक्के प्रतिदिन पानी बदल कर ताजा करके तैयार उसी बड़े कमरे में दीवार से टिका कर रखे रहते । गोरसी में हर समय आग जलती रहती और उसके पास बैठ ननकू बाबा को चिलम भर भर कर पेश करता रहता था ।
उन चार हुक्कों में एक ब्राम्हण का था दूसरा छत्रिय का । तीसरा वैश्य का और चौथा कायस्थ का । शूद्रों के लिए हुक्का नहीं था और उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि बाबा के सामने हुक्का उठा भी सकें । तो उनके आने पर ननकू अलग रखी काली चिलम में तंबाकू लगा कर आग भरता और उनकी ओर रख देता । ननकू के दूर हट जाने पर वे अपनी चिलम उठा कर बाबा की आड़ में एक दो कश ले लेते । अपनी फरशी वह किसी की ओर न बढ़ाते यहां तक कि घर का कोई सदस्य भी उसे नहीं छू सकता था ।
घर के परले सिरे पर थी गौशाला । बड़े से छाजन के नीचे तीस छोटे बड़े जानवर बंधे रहते । कितनी गाय भैंस और बैल बछड़े थे । उसी में एक और थोड़ा हट कर बंधा रहता था बाबा का घोड़ा । खूब सुंदर ऊंचा और तंदुरुस्त ।
सफेद कान और सफेद पूछ वाला वैसा शानदार काला घोड़ा आसपास के दस गांवों में भी किसी के पास न था । उसकी देख रेख करने वाला साईस अलग था ।
लालमणि सात भाइयों के जन्म के बाद पैदा होने वाली दुलारी पुत्री थी । उसके जन्म के बाद पंडित जी पत्रा देखने आए । कन्या की कुंडली बनाई और बोले -
साक्षात अन्नपूर्णा है आपकी कन्या । जहाँ जाएगी धन-धान्य लेकर जाएगी । परंतु ....
परंतु क्या पंडित जी ?
बाबा ने व्याकुल होकर पूछा ।
इसकी कुंडली में वैधव्य योग है । विधि का विधान ....विधि का लिखा हुआ कोई नहीं मिटा सकता ।
गहरी सांस लेकर पंडित जी बोले थे । एक पल के लिए सब लोग सहम गए थे । माँ ने फूल पान सी बच्ची को सीने से लगा लिया था और पिता का मुख गंभीर हो उठा था ।
कोई उपाय तो होगा ?
मरे स्वर में उन्होंने पूछा ।
नहीं । कुछ नहीं ।
पंडित जी ने नकारात्मक सिर हिला कर कहा तो अट्ठारह वर्ष के जवान बड़े भाई ने कहा -
यदि ऐसा है तो हम अपनी बहन का ब्याह ही नहीं करेंगे । ऐसी गुड़िया सी रानी को वैधव्य झेलना होगा इससे तो यही अच्छा होगा कि हम इसे अपनी पलकों की ओट में ही छिपा कर रखें ।
लेकिन वह सब पूरा हो ही कहां पाया ? विधाता का लेख क्या सहज ही मिटाया जा सकता है ? नन्हीं लालमणि घर भर की दुलारी प्यारी गुड़िया धीरे-धीरे बड़ी होती गई । पुत्रों के आग्रह और पंडित जी की उसी भविष्यवाणी को याद करके बाबा ने उसके लिए वर ढूंढने का कोई प्रयास नहीं किया ।
धीरे धीरे लालमणि ग्यारह वर्ष की होगयी । शैशव साथ छोड़ गया और किशोरावस्था ने उसे गले से लगा लिया । घर भर के प्यार में मग्न लालमणि जान भी नहीं सकी कि अचानक कैसे विधाता उसके क्रूर भविष्य की भूमिका तैयार कर रहा है ।
एक दिन सांझ ढले दरवाजे पर एक बैलगाड़ी आकर रुकी और उससे उतरा बाबा के पुराने मित्र का परिवार । पति पत्नी और साथ में सत्रह साल का पुत्र ।
बाबा ने जी खोल कर उनका स्वागत किया । मां ने मित्र पत्नी को सखि बना लिया । तभी देखा था उन्होंने लालमणि को । बगिया के नन्हे मासूम फूल की तरह सुंदर और तितली जैसी चंचल किशोरी ने उस प्रवासी परिवार से जाने कैसा नाता जोड़ लिया जो जाते जाते हुए बाबा से अपने पुत्र के लिए लालमनी का हाथ मांग बैठे । इस अप्रत्याशित प्रस्ताव ने बाबा को किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था । उन्हें चुप देख कर मित्र बार-बार आग्रह करने लगे ।
अंततः उन्हें उस का भविष्यफल बताना पड़ा किंतु होनी को क्या टाला जा सकता है ? सुन कर वे लोग खूब हँसे थे और फिर उनके अतिशय आग्रह पर विवश से बाबा ने हामी भर दी ।
भले ही बाबा के मुख पर कुछ कहने का साहस गांव वाले न करते किंतु लालमणि ग्यारह वर्ष की आयु तक कुंवारी थी यह बात सबकी आंखों में खटकने लगी थी । बाबा स्वयं भी इस बात को अनुभव करने लगे थे इसीलिए विधाता के निर्णय को स्वीकार कर भविष्य को उन्होंने अनदेखा कर दिया ।
नियत तिथि पर विवाह हुआ । इक्कीस गांव के लोग न्यौते गए थे । वैदगांव शहर से नौ कोस दूर पड़ता था और जाने का एक मात्र साधन था बैलगाड़ी । सारे दिन बैलगाड़ियों की समय में चर्र मर्र चर्र मर्र से गांव की अमराइयाँ गूंजती रही थीं ग्यारह दिनों तक । और फिर ग्यारह वर्ष की लालमनी का ब्याह हो ही गया ।
जब उसे हल्दी लगी और बाहर निकलने से रोका गया तब भी वह अवसर पाते ही अमराइयों में फुर्र हो जाती । जैसे तैसे विवाह के बाद की रस्में उसे समझाई जा सकीं और वह एक दिन विदा होकर अपनी ससुराल अनंतपुर पहुंच गई ।
और फिर अनन्तपुर की बातें ।
नानी की जबानी लाली जब भी उनके बचपन या युवावस्था की घटनाएं सुनती उसकी आंखों के सामने जैसे वे सभी अनदेखे दृश्य साकार हो उठते ।
अपनी बाल सखी सरो की बातें करती नानी न जाने कहां खो जाया करतीं । बैजनाथ वैद्य बाबा के पिता के परम मित्र थे । उन्ही की दोहती थी सरोज जिसे प्यार से सब सरो कह कर ही पुकारते थे ।
जिस दिन बाबा के आंगन में लालमनी का रुदन गूँजा था उसी दिन पहर रात गए वैद्य जी की इकलौती पुत्री यामिनी ने सरो को जन्म दिया था । एक ही रात में जन्मी दोनों कन्याएँ अलग-अलग घर आंगन में पल बढ़ कर भी जैसे एक दूसरे से मन प्राणों से जुड़ गई थीं । नासमझी की आयु से ही वे एक दूसरे का हृदय पहचान गई थीं जैसे । सरो की मां जब अपनी कन्या को दूध पिलाने या कलेवा के लिए ढूंढती तो वह बाबा पंचम दास के घर में मिलती और जब लालमनी को ढूंढा जाता तो वह सरो के आंगन ओसारे में खेलती मिलती ।
किशोरावस्था में प्रवेश करने तक दोनों अनन्य सखियाँ बन चुकी थीं और तब उन्होंने गांव की प्रौढ़ा स्त्रियों से कितने ही पारंपरिक गीत, भजन आदि सीख लिए थे । रसोई में विविध व्यंजनों को बनाने में उनकी विशेष रूचि थी किंतु वह कार्य करने के लिए अवसर ही न मिल पाता था । दास दासियाँ और ब्राम्हण विधवा रसोईदारिनें मालिक की चहेती बिटिया को रसोई के कामों में लगने देकर मालिक की प्रताड़ना कैसे सह पातीन ।
एक दिन चतुर सरो ने अवसर ढूंढ ही लिया । प्रातः कलेवा करने के बाद ही वह लालमणी के साथ पिछवाड़े की ओर से निकल पड़ी थी ।
लालमणी के घर के पीछे गांव की बड़ी कच्ची पोखर थी जो उसके बाबा के प्रपितामह ने खुदवाई थी । कच्ची होने पर भी उस पोखर के विस्तार का जैसे ओर छोर ही न था । खूब लंबा चौड़ा पाट । किनारे पानी छिछला था परंतु बीचो-बीच एक पर एक कर के तीन हाथी खड़े कर दिए जाते तो भी पूरे के पूरे उसमें समा जाते ।
गत सात वर्षो से वह पोखर जीवधारी हो गया था । सात वर्ष पूर्व पोखर में उछलती बड़ी-बड़ी चमकीली रोहू मछली के मोह में पड़ कर गांव के पुरोहित का नौ वर्षीय पुत्र रामदत्त जाने कैसे उसकी लहरों में कूदा तो फिर उभर कर ऊपर नहीं आ सका । तब से प्रतिवर्ष एक दो जीव अनिवार्य रूप से उस पोखर के मोह में बंध कर प्राण खोने लगे थे और तभी से उसमें मछलियां और केकड़ों की भरमार भी हो गई थी । बाबा ने मछलियों को पकड़ने पर रोक लगा दी थी ।
पोखर में घुसने की आज्ञा किसी को न थी । हां किनारे बैठ कर बंसी से दो-चार दस मछलियां पकड़ी जा सकती थी । देख रेख ठीक से न हो पाने और उपेक्षित पड़ जाने के कारण अब उसके किनारे घनी झाड़ियां उग आई थीं ।
न तो अब कोई उस पोखर से पानी भरता और न उसमें सिंघाड़ा ही बोया जाता जिससे देख देख होती रहे । उसी पोखर के बगल घनी झाड़ियों के पीछे से होकर सरो और लालमणी लुकती छिपती खेतों की ओर निकल गयीं ।
खेतों में आलू तैयार थे । वैद्य जी के दो खेतों में मटर बोई गई थी जिसके नीले सफेद फूल अब फलियों में बदल चुके थे । दोनों ने चुपके से खेत में घुस कर टटोल टटोल कर मोटे मोटे दानों वाली फलियां तोड़ लीं । जब सरो का आंचल भर गया तो लालमणी उसे किनारे रखवाली के लिए छोड़ कर आलू के खेत में घुस पड़ी ।
एक पौधा उखाड़ने पर छोटे-छोटे आलू दिखाई दिए । फिर क्या था ? पूरी क्यारी बर्बाद करके ही सही लालमनी आलुओं से अपना आंचल भरने में सफल हो गई ।
दोनों सखियों ने उसी पोखर के निषिद्ध जल से उन्हें धोकर मिट्टी साफ कर दी और आम के बाग में स्थित शिव मंदिर के पीछे झाड़ी में एक स्थान साफ करके गड्ढा खोद कर आम के पत्ते बिछा दिए । उस पर नीचे मटन की फलियां और उसके ऊपर नन्हें-नन्हें आलू रख कर पत्तों से ढक कर उस पर मिट्टी बिछा दी । फिर आस पास की झाड़ियों से सूखी टहनियों पत्ते और झाड़ झंकार तोड़ तोड़ कर उसी मिट्टी पर रख कर जलाने का आयास हुआ । पर यह क्या ? आग तो थी ही नहीं ... फिर भला भाजी कैसे पकती ?
सरो ने लालमनी से कहा -
जा । बाबा की चिलम के लिए ननकू गोरसी लगाए बैठा होगा । जरा सी आग ले आ ।
नहीं नहीं ।
लालमनी ननकू से डरती थी उसकी गाजे के दम के कारण सुर्ख़ हुई लाल आंखें अकारण ही उसे सहमा देती थीं ।
न बाबा ! मुझसे तो न होगा ।
लालमणि ने कहा ।
तो ?
सरो ने पूछा ... और इस 'तो' के बाद तो कुछ किया ही नहीं जा सकता था । डांट पड़ने के भय से दोनों ही आग जलाने के लिए आग लेने न जा सकी थीं ।
एक बार लालमणि के चौपाल में एक बाबा जी आ कर रुके थे । वे किसी का पकाया भोजन न खाते थे । उन्हें ही दोनों सखियों ने पृथ्वी में गड्ढा खोद कर आलू पकाते देखा था किंतु आग के अभाव में अग्नि का आविर्भाव करने की विद्या उन्होंने नहीं बताई थी ।
तब क्या आज जैसा जमाना था ? तब माचिस की इतनी इतनी डिब्बियां कहां मिल पाती थीं ? न जाने कैसे कभी किसी ग्रामवासी ने अपने घर में आग जलाई होगी और फिर उसी के घर से आग के अंगारे थोड़े-थोड़े करके सभी घरों में पहुंच कर आग जला गए होंगे ।
लालमणी और सरोज ने कभी अपने घर में आग जलाई जाते नहीं देखा था । उनके घर कभी आग बुझती ही नहीं थी तो जलाई कैसे जाती ? चूल्हा जरूर बहुत रात गये ठंडा हो जाता था लेकिन ननकू की गोरसी में आग तब भी सजग सचेतन बनी अपनी अनंतता का बोध कराती रहती ।
अंततः दोनों सहेलियां घोर निराशा में डूबी उतरा मुंह लिए लौट गई थीं और रसोई बनाने का उनका चाव अधूरा ही रह गया । सोच कर भी वह गांव के निम्न परिवार की स्त्रियों की भांति कहीं किसी के घर आग मांगने नहीं जा सकीं ।
सरो के आंगन में एक नीम का घना पेड़ था और गौशाला के पास न जाने किस घड़ी कब कौआ या कौन पंछी इमली का बीज गिरा गया था जो कब अंकुरित हुआ और कब उसका बिरवा छोटे से पेड़ के रूप में बदल गया इसे किसी ने न देखा ।
एक दिन सरो और लालमणी नीम के फूलों और नीमकौड़ियों की माला बनाते बनाते गौशाला की ओर जा निकलीं । तभी जैसे उस इमली के वृक्ष - शिशु का अस्तित्व उजागर हुआ । उस दिन उन दोनों ने उसकी सारी कोमल पत्तियां बकरियों की तरह चर डाली थीं । यादें और यादें ।
कितनी सारी यादें थी नानी की एक स्मृति से जुड़ी हुई । जब लाली को नानी की याद आती तो वे अपने समग्र रूप में उसके सामने जीवंत हो उठतीं । कैसे नानी का जन्म हुआ, कैसे बचपन और यौवन बीता सभी कुछ जैसे चलचित्र की पूरी रील में बंधा उसकी आंखों के सामने से गुजरता जाता । उनके हर दुख सुख की साक्षी बन गई थी वह ।
बचपन की खिलखिलाहट की गूँज भी नहीं समाप्त हुई थी और वह अचानक ही अनंतपुर के संभ्रांत धनी परिवार की वधू बन गई । श्वसुर भवानी प्रसाद तथा सास की आंखों का तारा तो वह बनी ही पति भुवनेश्वर का भी असीम प्रेम पाया उन्होंने ।
बाल विधवा लाली न ससुराल की गृहस्थी जानती थी और न पति के प्यार का सुख ही उसने भोगा था परंतु नानी लालमणि ने अपने जीवन के कितने ही अदेखे पृष्ठ उसके सामने इस सहजता से खोल दिए थे कि उसे अब कुछ भी अजाना या अदेखा नहीं लगता था ।
अनंतपुर था तो गांव किंतु वैद्य गांव जैसा अगम्य नहीं था ।