Kanton Ka Uphar
By Ranu
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Kanton Ka Uphar - Ranu
कांटों का उपहार
रामगढ़ का इलाका, दूर-दूर तक फैला हुआ। सुबह की किरणें फूटकर चप्पेे-चप्पे पर अपना जाल बुन चुकी थी। वातावरण स्वच्छ था। नीले गगन की चादर पर पक्षी उन्मुक्त उड़ रहे थे। किसान अपने हल संभाले बैलों की जोड़ी सहित खेतों पर निकल चुके थे। टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, छोटे-बड़े झोपड़े, खपरैल के मकान, ईंट और पत्थर के मकान। बच्चों ने धूल और मिट्टी में खेलना आरंभ कर दिया था।
और राधा, राजा विजयभान सिंह के साथ उनके राजमहल की सबसे ऊंची मंजिल पर एक किनारे खड़ी इस कस्बे का पूरा नक्शा आज पहली बार देख रही थी, जिसकी वह एक साधारण-सी गोरी थी। पलकों पर आंसू मोती के समान टंके हुए थे, जिसके चारों ओर फैला काजल उसके जीवन के समान अंधकारमय बन चुका था। माथे की बिंदिया फैली हुई, लटें बिखरी, होंठ सूखे, दिल पर दर्द की चोट लगी हुई और मस्तक सिलवटों से भरा हुआ था। इन सिलवटों में किसी निर्दयी के प्रति घृणा झलक रही थी। मन के अंदर नफरत की आग भभक रही थी, उसकी कनपटी के समीप चोट लग जाने के कारण रक्त जम गया था। कलाइयां चूड़ियां टूट जाने के कारण कट गई थीं। ब्लाउज के बटन टूटे हुए थे, कपड़े कई जगहों से फटे थे। उसकी सांसें मानो अंदर-ही-अंदर गहरी होकर घुट जाना चाहती थीं। ऊपर से देखने पर वह उसी नदी के समान गंभीर और खामोश थी, जिसकी गोद में अनगिनत अरमानों की लाशें दम तोड़कर चुपचाप बैठ जाती हैं।
‘यह देख रही हो राधा?’ राजा विजयभान सिंह ने अपने दायें हाथ से पूर्व दिशा की ओर गांव की दूर तक फैली हुई सरहद की तरफ इशारा करते हुए कहा। ऐसा करते हुए उनकी अंगुलियों में पड़ी हीरे की अंगूठियां सूर्य की किरण से टकराकर चमक उठीं। उन्होंने बात जारी रखी‒‘यह सारा इलाका जहां भी तुम्हारी दृष्टि पहुंच सकती है, सब हमारा है, मेरा...।’ शब्द ‘मेरा’ पर उन्होंने विशेष जोर दिया‒‘मैं इसका एकमात्र मालिक हूं, राजा हूं और यहां के लोग मेरी प्रजा। यह सब मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम्हारे कदमों में बिछा दूंगा।’
राधा कुछ नहीं बोली, केवल सामने देखती रही, जहां कुछ ही दूरी पर एक विशाल वृक्ष था। इसकी जड़ में सीमेंट का एक बड़ा चबूतरा बना हुआ था, जिसकी सतह पर खून से हज़ारों बेगुनाहों की कहानियां लिखी हुई थीं। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं और होंठ भींचे। उसकी आंखों में अपनी छोटी बहन कम्मो की तस्वीर घूम गई, जो चौदह वर्ष की भी नहीं हुई थी कि विजयभान सिंह की वासना का शिकार हो गई और फिर किसी को अपना मुंह न दिखा सकने के कारण उसने एक रात इसी वृक्ष की एक टहनी से लटककर फांसी लगा ली थी। सुबह जब उसके बापू ने विजयभान सिंह से इंसाफ मांगते हुए दुहाई दी थी तो उसकी जुबान बंद करने के लिए इस जालिम ने उसे दूसरे इल्जाम में फंसाकर इसी वृक्ष से बंधवा दिया था और कोड़ों से मार-मारकर उसकी खाल खींच ली थी। इतनी भयानक यातना पाकर वह दूसरे ही दिन मर गया था। राधा के बापू के इस भयानक अंजाम को देखकर गांववालों के दिल में विजयभान सिंह का अत्यधिक भय समा गया था। राधा ने विजयभान सिंह को दिल की गहराई से बद्दुआ दी। यदि उसके बस में होता तो वह चंडाल का मुंह नोच लेती, परंतु एक गरीब लड़की थी वह, केवल तड़पकर रह गई।
राजा विजयभान सिंह ने राधा की बांह थामी और उसे दूसरी ओर ले गए... पश्चिम दिशा की ओर। काफी दूर, कुछेक ताड़ के वृक्षों पर बैठे गिद्ध स्पष्ट दिखाई पड़ रहे थे। उन्होंने कहा‒‘उन ताड़ के वृक्षों से भी बहुत दूर, जहां तुम्हारी दृष्टि भी नहीं पहुंच सकती, सब हमारा है, मैं यह सब कुछ तुम्हें दे दूंगा। तुम्हें इस इलाके की रानी बना दूंगा... यहां के निवासी तुम्हारी प्रजा होंगे, लेकिन एक शर्त... मुझे क्षमा कर दो। मेरे प्रति अपने दिल में एक जगह बना लो। अपनी उदासी को भूलकर मेरे प्रति दिल खोलकर मुस्कुराने लगो। मुझे इस संसार में और कुछ भी नहीं चाहिए। तुम स्वयं जानती हो, मुझे इस संसार में किसी वस्तु की कमी नहीं रही है। मैंने जो कुछ भी चाहा, वह एक इशारे पर कदमों में आ गिरा, परंतु कल रात तुम्हारे साथ जबरदस्ती करने के बाद ही न जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो मैंने तुम पर बहुत बड़ा जुल्म किया है‒तुम पर ही नहीं, उन तमाम लड़कियों पर, जो मेरी वासना का शिकार हुई हैं। तुम्हारी इन काली आंखों में न जाने कैसा जादू है कि इनमें अपने प्रतिबिम्ब को देखकर मेरे अंदर का मानव जाग उठा है। मेरे अंदर की इंसानियत मुझे धिक्कार रही है। राधा क्या तुम मुझे क्षमा करके एक नया जीवन अपनाने का मौका नहीं दोगी?
‘राजा साहब!’ राधा ने भीगे स्वर में तड़पकर कहा‒‘आपको मैं कभी क्षमा नहीं करूंगी, मरते दम तक नहीं। आपको क्षमा करके मैं उन सैकड़ों-हजारों अबलाओं के विरुद्ध किस प्रकार एक बड़ा पाप अपने ऊपर ले सकती हूं, जिनकी अभिलाषाओं का खून आपके सिर है। उन मजबूर और बेबस लड़कियों में मेरी भोली-भाली बहन भी सम्मिलित है। उसे उठवाते समय आपने यह तक नहीं सोचा कि वह कच्ची आयु की लड़की आपकी वासना की भूख मिटाने योग्य है भी या नहीं। आपके जुल्म के कारण उसने अवश्य आत्महत्या कर ली, परंतु मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी। मैं जिऊंगी और जीवित रहकर संसार के आगे आपका भांडा फूटने की प्रतीक्षा करूंगी। आखिर कोई तो इस संसार में ऐसा उत्पन्न होगा, जो आपके कर्मों का फल आपको देगा। आप मनुष्य नहीं शैतान हैं, मुझे शादी के मंडप से उठवाते हुए आपने यह नहीं सोचा था कि आपकी इस करनी से मेरा बूढ़ा बाबा मर जायेगा, अनगिनत लोगों का दिल टूट जाएगा। राजा साहेब! ऐसा नहीं है कि भगवान कुछ नहीं देखता है‒वह सब्र करते हुए सबकी सुनता है। आप देख लीजिएगा‒दौलत का यह घमंड एक दिन टूटकर चूर-चूर हो जाएगा। आप कहीं के नहीं रहेंगे। मेरी सिसकियां आपको खा जाएंगी। मेरे आंसू आपको जीने नहीं देंगे। मेरी आहें इस खूबसूरत महल को खंडहर बनाकर रख देंगी।’
‘लड़की!’ सहसा समीप आये एक मंत्री ने राधा की बात सुनकर अपनी तलवार बाहर खींची। चाहा कि अपने स्वामी के अपमान के बदले में उसका सिर कलम कर दे, परंतु तभी राजा विजयभान सिंह बीच में आ गए।
‘प्रताप!’ उन्होंने उसे हाथ के इशारे से मना करते हुए कहा‒‘कहने दो इसे, कहने दो। जो कुछ भी इसके मन में है, कह लेने दो। इसे मना मत करो।’
‘कहूंगी और जरूर कहूंगी।’ राधा तड़पकर बोली‒‘जब तक जीवित रहूंगी, तब तक तुम्हारे राज्य की बर्बादी की कामना करती रहूंगी।’ राधा जोश में आकर एकदम से ‘आप’ कहते-कहते ‘तुम’ पर उतर आई। प्रताप सिंह, राजा विजयभान सिंह का मंत्री ही नहीं मित्र भी था। उससे यह अपमान सहन नहीं हो सका तो कंधा झटककर तलवार म्यान में डालते हुए वहां से चला गया। राधा ने अपनी बात जारी रखी। रोते हुए वह बोली‒‘इस हवेली में दिन-रात उल्लू बोलेंगे, चमगादड़ और सियारों का यह अड्डा बन जाएगा। यहां आत्माएं भटक-भटककर तुम्हारा गला दबाती फिरेंगी। लोग इस हवेली, इस राजमहल की चौखट पर थूकेंगे। एक अबला की आह कभी बेकार नहीं जाती।’
‘राधा!’ राजा विजयभान सिंह ने सब्र से काम लिया। बोले‒‘कल किसने देखा है, लेकिन फिर भी यदि मैं अपने पापों का पश्चाताप कर लूं तो क्या तुम तब भी मुझे क्षमा नहीं करोगी?’
‘कभी नहीं।’ राधा अटल मन से बोली‒‘बल्कि मैं चाहूंगी कि भगवान तुम्हें ऐसी जगह मारे, जहां तुम पानी की एक बूंद को भी तरस जाओ। तुम्हें चिता भी प्राप्त नहीं हो। तुम्हारे शरीर में कीड़े पड़ जाएं। गिद्ध और कौवे तुम्हारी लाश को नोच-नोचकर खाएं।’
‘नहीं राधा! नहीं, ऐसी नफरत मत करो, वरना मेरा जीना कठिन हो जाएगा।’ राजा विजयभान ने अपने होंठ भींचे। उनकी आंखें छलक आईं‒ ‘तुम्हें मुझे क्षमा करना ही पड़ेगा।’
‘ऐसा समय कभी नहीं आएगा।’ राधा ने उसी प्रकार सामने देखते हुए कहा और मन की गहराई से उन्हें फिर कोसा।
‘ऐसा समय आएगा...।’ राजा विजयभान सिंह बोले‒‘ऐसा समय अवश्य आएगा, परिस्थितियां क्या नहीं करतीं? तब तुम मुझे क्षमा ही नहीं करोगी, प्यार भी करने लगोगी। मेरी तड़प देखकर तुम्हारे दिल में दर्द उठने लगेगा। मेरी आंखें उदास पाकर तुम्हारी पलकें भीग जायेंगी। अपने पापों का मैं ऐसा प्रायश्चित करूंगा‒ऐसा पश्चाताप कि तुम मुझे अपना लोगी। संसार में कुछ भी असंभव नहीं।’
तभी प्रताप सिंह वहां फिर आ धमका। विजयभान सिंह की भीगी आंखें देखकर उसने राधा को घूरकर देखा। मगर फिर नजरें फेरकर बोला‒‘महाराज! गांव से फरियादी आए हैं।’
‘तुम इन्हें रंगमहल में पहुंचा दो, हम अभी दरबार में पहुंचते हैं।’ विजयभान सिंह ने अपनी अवस्था संभालकर राधा की ओर इशारा किया और फिर दूसरी ओर मुंह फेर लिया।
राधा ने अपनी दृष्टि नीचे झुका ली। उसने देखा हवेली के पिछले भाग में चारदीवारी के अंदर एक तालाब है... छोटा-सा खूबसूरत तालाब, जिसकी सतह पर रंग-बिरंगे फूल तैर रहे हैं। तालाब से उठती इत्र की सुगंध उसके नथुनों तक पहुंच रही थी, परंतु उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह फूलों का इत्र नहीं, गांव की कमसिन और मासूम लड़कियों के शरीर से निचोड़ा हुआ रक्त है, जो सड़-सड़कर उसके नथुनों में नासूर उत्पन्न कर रहा है। तालाब की चारदीवारी को अगणित सुंदर नग्न शरीरों को मछलियों के समान बल खाकर तैरते हुए देखने का सौभाग्य वर्षों से प्राप्त था। तालाब के बाहर एक ओर बेंत के कुछेक मोढ़े सजे थे। इधर-उधर सिपाही टहल रहे थे। राधा ने घृणा से उस ओर थूकना चाहा, परंतु उसका गला सूखा हुआ था। उसकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हो सकी।
मंत्री प्रताप सिंह उसको चलने का इशारा कर रहा था। सीढ़ियां उतरकर वह नीचे पहुंची... सामने के लम्बे-चौड़े बरामदे में। फिर वहीं बीच के कमरे में प्रविष्ट हुई। एक पल के लिए वह ठिठकी। एक बहुत बड़ी तस्वीर थी‒ खूबसूरत... बहुत खूबसूरत तस्वीर किसी विदेशी चित्रकार द्वारा बनाई गई थी, जिसमें उसने तूफान में फंसी एक कश्ती को मौजों का मुकाबला करते दिखाया था। नाविक के पतवार टूट गए थे, परंतु फिर भी उसने साहस नहीं छोड़ा था। इस तस्वीर ने उसके अंदर जीवित रहने की अभिलाषा दृढ़ कर दी। उसने सोचा, वह भी अपने जीवन को राजा विजयभान सिंह के जालिम थपेड़ों से निकालकर अलग ले जाएगी। वह देखेगी, अपनी आंखों से देखेगी कि उस आदमी का क्या परिणाम निकलता है, जो जुल्म और सितम ढाते-ढाते सीमा के पार निकल चुका है। वह आगे बढ़ी, कमरे में नज़र डाली। मोटी सुर्ख कालीन, कीमती फर्नीचर, सुंदर फानूस। उसने एक दरवाजा पार किया, जहां से वह जाते समय निकली थी। कुछेक सीढ़ियां और नीचे उतरी तो एक पत्थर का दरवाजा मिला। प्रताप सिंह ने आगे बढ़कर उसकी कलाई दबाई तो वह आहिस्ता से अपनी जगह से सरका। राधा अंदर प्रविष्ट हो गई। यहां दिन के समय भी फानूस में प्रकाश उजागर था। उसने पलटकर देखा तो प्रताप सिंह जा चुका था। कमरा इस प्रकार चारों ओर से बंद था कि उसकी चीख तक बाहर नहीं जा सकती थी। बाहर से देखने में किसी को ध्यान भी नहीं आ सकता था कि यह किसी का तहखाना है या रंगमहल है। इस रंगमहल में किसी को भी जाने की आज्ञा नहीं है। प्रताप सिंह स्वयं इसकी देखभाल करता है। यह रंगमहल बहुमूल्य धातुओं से सुसज्जित है। अखरोट की लकड़ी के सुंदर फर्नीचर, चांदी के बड़े-बड़े फूलदान, पत्थर की नग्न मूर्तियां, नग्न तस्वीर, फर्श पर सुर्ख कालीन, परंतु बीच का एक अच्छा भाग खाली था। चिकने संगमरमर के फर्श को शायद सुंदरियों के थिरकते कदमों के लिए सुरक्षित छोड़ दिया गया था। एक ओर अक्वेरियम रखा था... बड़ा और सुंदर, जिसके अंदर अनेक प्रकार की रंगीन मछलियां तैर रहीं थीं। राधा ने इन्हें दूर से ही देखा, इनके हाल पर उसे तरस भी आया, बंद पिंजरे में हर वस्तु कैद होती है। वह एक पलंग पर बैठ गयी। उसके हल्के से बोझ से पलंग का मखमली गद्दा अंदर को धंस गया। पैरों को ऊपर समेटकर उसने घुटनों के चारों ओर अपनी नर्म बांहें लपेट लीं और गर्दन झुकाकर अपना एक गाल इस पर रख लिया। सामने, पलंग के समीप ही एक छोटी मेज पर एक शमां रखी थी, जिसे सुबह होने से पहले ही बुझा दिया गया था। शमां यहां कई जगहों पर थी, परंतु सब बुझी हुई‒उसकी जिंदगी के समान खामोश, उदास, बेदम। उसकी आंखों से आंसू मोतियों के समान पलकों से छलक पड़े। ‘भोला!’ उसके होंठों से एक आह निकली। वह जैसे स्वयं से ही बोली‒‘तुमने मुझे क्यों छोड़ दिया? क्यों नहीं अपनी जान की बाजी लगाकर मुझे बचा लिया?’ वह सिसक पड़ी और उसकी आंखों से टपकते आंसू उसकी बांहों पर फिसलकर उसके सामने जीवन की एक कथा प्रस्तुत करने लगे। भोला उसके बचपन का साथी... बचपन में ही उनके घरवालों ने उन दानों की मंगनी कर दी थी।
राधा का दिल कांप गया। वह जानती थी कि गांव की कितनी लड़कियां इज्जत लुटने का सारा गम सोने-चांदी के तराजू में बैठते ही भूल जाती हैं, परंतु वह ऐसा कदापि नहीं होने देगी। उसने भोला को देखा, बहुत आशा से, परंतु वह उस समय भीगी बिल्ली बना अपनी आंखें नीचे ही झुकाए हुए था।
‘तुम कौन हो?’ राजा विजयभान सिंह ने प्रताप सिंह को उत्तर न देते हुए भोला को देखा।
‘जी मैं... मैं सरकार! इसका होने वाला पति हूं।’ उसने घबराकर अटकते स्वर के साथ उत्तर दिया।
राजा विजयभान सिंह ने मुस्कुराकर अपने घने सुंदर बालों पर हाथ फेरते हुए पूछा‒ ‘कब है शादी?’
‘इसी पूर्णमासी को...।’ भोला को साहस बंधा। वह सीधा खड़ा हो गया।
राजा विजयभान सिंह फिर मुस्कराए। उनके भरे-भरे सुंदर मुखड़े पर यह मुस्कान बहुत सुंदर लगती थी, परंतु राधा को यह जरा भी अच्छी नहीं लगी। प्रताप सिंह इशारा पाकर जब दुबारा घोड़े पर सवार हुआ तो ऐड़ लगाकर दोनों ही हवेली की ओर बढ़ गए।
‘मुझे इस राजा के बच्चे की नीयत अच्छी नहीं लगती।’ राधा एक अज्ञात भय से कांपकर भोला के समीप होती हुई बोली।
‘और मुझे भी।’ भोला ने अपने भय खाए दिल पर काबू करते हुए कहा।
‘भोला!’ राधा ने उसका हाथ पकड़ लिया और डरकर बोली‒ ‘तू मेरा साथ तो कभी नहीं छोड़ेगा ना?’
‘नहीं राधा! कभी नहीं, मरते दम तक नहीं।’ भोला ने उसे अपनी छाती से लगा लिया।
राधा उसके मुखड़े के नीचे गहरी-गहरी सांसें लेने लगी थी।
***
पूर्णमासी की रात राधा मंडप में सबके सामने भोला के गले में जयमाला डालने ही वाली थी कि शोर मच गया‒‘डाकू आ गए, डाकू आ गए।’ अधिकांश डाकू गांव की सुंदर लड़कियों के विवाह में ही आते थे। धन-दौलत लूटने के बजाय लड़कियों को उठा ले जाना ही इनका ध्येय रहा है। गांव वालों को इन डाकुओं पर संदेह भी रहा है, फिर भी अपने छोटेपन का विचार करके वह सब्र कर लेते थे, जानते थे हाथ-पांव चलाने का अंजाम बहुत बुरा होता है, अपनी बहू-बेटियों को खोने से भी अधिक भयानक। बारात में हलचल मच गई। लोग इधर-उधर दौड़ पड़े। कुछेक नवयुवकों ने लाठियां उठाईं तो गोलियों के शिकार हो गये। डाकुओं ने बहुत आसानी के साथ राधा को उठा लिया, भोला ने आगे बढ़ना चाहा तो सिर पर लाठी का भरपूर वार पड़ा। राधा की चीख निकल गई। वह तड़पी, छटपटाई, अपने बाल नोंच लिए, कलाइयों की चूड़ियां तोड़ डालीं, भगवान की दुहाई दी, परंतु डाकुओं ने उसका मुंह बांध दिया। आंखों पर पट्टी चढ़ा दी। हाथ-पैर बांधेे और घोड़े पर चढ़ाकर अपने झुंड के साथ खेतों के अंधकार में लुप्त हो गए। गांव की चीख-पुकार, उसके बूढ़े बाबा की तड़पती दुहाई, शोर कानों में दूर तक आ रहा था‒ सब कुछ लुट गया, बर्बाद हो गया। गांव की एक इज्जत और चली गयी‒ लुटने के लिए।
एक स्थान पर ले जाकर राधा को घोड़े पर से उतारा गया, फिर उसे किसी मर्द का कंधा नसीब हुआ। जब कुछ देर तक हिचकोले खाने के बाद उसे बहुत कोमलता से नीचे उतारा गया तो उसके कदमों तले मुलायम कालीन थी। कुछ देर बाद कदमों की चाप लुप्त हो गई। जैसे उसे उठाकर लाने वाला व्यक्ति जा रहा हो‒ फिर दूसरी चाप समीप आई। उसके बिलकुल समीप आकर रुक गई और तब उसकी आंखें खोल दी गईं।
राधा कांपकर पीछे हट गई। उसने भाग निकलने के लिए चारों ओर का निरीक्षण किया। कहीं कोई दरवाजा नहीं, खिड़कियां नहीं, केवल दीवारें-ही-दीवारें थीं, मानो वह जमीन की कोख से निकलकर यहां आ गई थी।
‘दरवाजा उस तरफ है।’ राजा विजयभान सिंह ने मुस्कराते हुए एक ओर इशारा किया‒‘मगर तुमसे वह नहीं खुलेगा। काफी ताकत लगानी पड़ती है, क्योंकि पलड़े पत्थर के हैं।’
राधा कुछ न बोली। तड़पकर रह गई।
‘यह हमारा रंगमहल है।’ राजा विजयभान सिंह ने फिर कहा‒‘यहां तुम्हें किसी वस्तु की कमी नहीं होगी। जब तक हमारी इच्छा होगी, तुम यहीं रहोगी, हमारी रानी बनकर। उसके बाद हम तुम्हें इतनी दौलत दे देंगे कि तुम जहां चाहो जा सकती हो और बहुत शान के साथ रह सकती हो।’
राधा के दिल पर बरछियां चल गईं। नफरत से उसने अपना मुंह फेर लिया, जिधर दीवारों पर बड़े-बड़े शीशे जड़े हुए थे। रात के झागदार प्रकाश में उसने अपनी अवस्था देखी तो दिल रो दिया। लटें बिखरी हुई थी, कपड़े जगह-जगह से फटे हुए, दिल की तड़प के आगे उसने इसका ध्यान ही नहीं किया था। शरीर पर अब भी चांदी के गहने चमक रहे थे। कानों में बड़े-बड़े झुमके; गले में मोटा हार। कलाइयों पर पहना कंगन रक्त से लथपथ था, अंगुलियों में कुछेक चांदी के छल्ले। एक अंगूठी पर लिखा था‒ राधा। सिर का मुकुट जाने कहां गिर गया था और करधनी कमर के नीचे लटक आयी थी। पैरों में पायल, बिछिया, हाथ-पैरों में रची-बसी मेंहदी की सुगंध शेष थी।
राजा विजयभान सिंह ने शीशे की एक अलमारी खोली। विदेशी शराब की अनगिनत बोतलें चमक उठीं। उसने अपना जाम भरा। फिर समीप ही रखे अक्वेरियम में छोटी-छोटी मछलियों को देखता हुआ बोला‒ ‘राधा! जितनी मछलियां इस अक्वेरियम की शान रही हैं, इतनी ही लड़कियां मेरी बांहों में भी आई हैं, जिस प्रकार इन मछलियों को पानी और चारे की कमी नहीं होती, उसी प्रकार मैं अपनी बांहों में आई लड़कियों को भी किसी वस्तु की कमी नहीं होने देता हूं। जिस मछली ने अपनी झूठी शान के कारण मेरी इच्छा से इनकार किया है, उसे मैं पानी से निकालकर फर्श पर छोड़ देता हूं, फिर जब यह तड़प-तड़पकर मरती है, तो मुझे बहुत आनंद आता है।’
राधा ऊपर से नीचे तक कांप गई।
राजा विजयभान सिंह ने एक ही झटके में शराब खत्म की और जाम को फेंकते हुए ताली बजाई। दो दासियां उपस्थित हुईं अर्धनग्न-सी। उन्होंने झुककर अपने मालिक की आज्ञा की प्रतीक्षा की।
‘इस हसीना के शरीर से गांव की यह गंदगी दूर करके इस पर शाही नगीने जड़ दो।’ राजा विजयभान सिंह ने कहा।
दासियों ने आगे बढ़कर राधा को घेर लिया। उन्होंने उसके शरीर से गहने उतारे, गले का हार, झुमके, करधनी, पायल, बिछिया। राधा उसी प्रकार बुत बनी खड़ी रही, शादी के फटे हुए जोड़े में वह एक लुटी हुई विधवा लगने लगी। उन दासियों ने ज्यों ही उसके शरीर से कपड़े उतारने आरंभ किए, राधा की मुर्दा आत्मा में जाने कहां से जान आ गई। सहसा उसका हाथ हवा में लहराकर एक दासी के गाल पर इस प्रकार पड़ा कि वह छटपटाकर रह गई। तमाचे का स्वर सुनकर राजा विजयभान सिंह झट पीछे पलटा, लपककर वह राधा के सामने आया। उसे घूरकर देखा। फिर उसने दासियों पर दृष्टि डाली। वे पीछे हटकर दूसरी ओर चली गईं।
‘तुमको शायद नहीं मालूम कि आज तक हमारी इच्छा के विरुद्ध इस इलाके में एक पक्षी भी नहीं फड़फड़ाया है।’ राजा विजयभान सिंह ने उसे बांहों से पकड़कर झंझोड़ दिया। फिर उसका मुखड़ा अपनी ओर करते हुए क्रोध से कहा, ‘हमने कभी ऐसी जुर्रत बर्दाश्त नहीं की है।’
‘अपनी दौलत के नशे में तुम कुछ भी कर सकते हो।’ राधा ने अपने दिल को मजबूत करते हुए कहा‒‘परंतु तुम्हारा यह जुल्म अधिक दिन तक नहीं चलेगा।’ राजा विजयभान सिंह एक शेर के समान बल खाकर रह गया। राधा के गाल पर उसने एक ऐसा सख्त थप्पड़ मारा कि एक ओर रखे बड़े चांदी के फूलदान से टकराकर वह वहीं गिर पड़ी, उसकी कनपटी के समीप घाव बन गया। रक्त की तेज धार निकल आई।
राजा विजयभान सिंह ने दुबारा जाम डाला। पीता ही गया‒ कई-कई बार, यहां तक कि उसकी गुस्से-भरी आंखों में भी शराब का रंग उतर आया। चेहरा तमतमा उठा, होंठ भिंच गए और जब उसने अपने पैर राधा की ओर बढ़ाए तो वे लड़खड़ा रहे थे।
राधा एक घायल मृग के समान फर्श से उठने का प्रयत्न करती-सी सहमी-सहमी आंखों द्वारा उसे देख रही थी, जिसके चंगुल से बच जाना एक दैवी चमत्कार ही होता। शेर की मांद में आया शिकार भी कभी वापस गया है?
विजयभान सिंह उसके समीप आया, झुककर उसकी बांहें थामीं और उसे खड़ा किया। राधा एक बेजान लाश के समान थी। उसने पलकें झुकाये रखीं तो राजा विजयभान सिंह ने अपनी एक अंगुली द्वारा उसकी उलझी लटों को और उलझा दिया। चंद्रमा पर मानो बादलों के टुकड़े आ गए। उसने उसके मुखड़े को ठोड़ी पकड़कर ऊपर उठाया, देखने लगा... देखता रहा, बहुत देर तक जाने क्या ढूंढ रहा था, फिर अचानक ही कुछ सोचकर वह चौंक पड़ा, उसकी एक बांह थामकर वह उसे पलंग की ओर ले गया। उसे बिठाकर उसने समीप रखी शमा जलाई, फिर राधा के समीप ही बैठ गया। कुछ देर उसी प्रकार देखते रहने के बाद जाने क्यों उसने अपने अंदर एक परिवर्तन प्रतीत किया। राधा की पलकों पर अटके आंसू उसके दिल पर अंगारे बनकर जलने लगे थे। शमां की लौ द्वारा इनकी चमक में एक अजीब-सी रंगत उभर आई थी और इससे पहले कि वह रंगत उसके दिल पर पूरी तरह छाकर एक नई प्रेरणा को जन्म दे, उसके मन को एक नई करुणा का आभास कराए, उसके दिल पर छाले उत्पन्न कर दे और वह तरस खाकर उसे छोड़ दे, उसने हाथ बढ़ाकर अपनी हथेली को शमा की लौ पर रख दिया, कमरे में घना अंधेरा छा गया। राधा की काली लटों से भी अधिक घना अंधकार। राधा को जब उसने अपनी ओर खींचा तो वह अपनी चिता पर भेंट चढ़ने को तैयार हो गई। वह जानती थी