Mrinalini
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Mrinalini - Bankim Chandra Chatterjee
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मृणालिनी
प्रथम खण्ड
1
प्रयाग तीर्थ के संगम पर एक दिन शाम को अपूर्व छटा प्रकट हो रही थी। वर्षा ऋतु है, पर बादल नहीं और जो बादल हैं वे पश्चिम आकाश में स्वर्णमयी तरंगमाला के समान लग रहे हैं। सूर्य डूब चुका था। बाढ़ के पानी से गंगा-यमुना दोनों भरी हुई थीं।
एक छोटी नाव में दो नाविक बैठे हैं। नाव बड़ी हिम्मत से बाढ़ की लहरों से बचती हुई घाट पर आ लगी। एक आदमी नाव से नीचे उतरा। वह उन्नत शरीर वाला योद्धा के वेश में था। घाट पर संसार से विरागी लोगों के लिए कई आश्रम बने हैं। उन्हीं में से एक आश्रम में उस युवक ने प्रवेश किया।
आश्रम में एक ब्राह्मण आसन पर बैठा जप कर रहा था। ब्राह्मण बहुत ही दीर्घाकार पुरुष है, उसके चौड़े मुखमंडल पर सफेद बाल और माथे पर तिलक की शोभा है। आगन्तुक को देखकर ब्राह्मण के मुख का गंभीर भाव दूर हो गया। आगन्तुक ब्राह्मण को प्रणाम कर, सामने खड़ा हो गया। ब्राह्मण बोला-बैठो हेमचन्द्र! बहुत दिन से मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं।
हेमचन्द बोला-क्षमा कीजिए, दिल्ली में काम बना नहीं, बल्कि यवनों ने मेरा पीछा किया, इसलिए थोड़ा सावधान होकर आया। अतः देर हो गई।
ब्राह्मण ने कहा-मैंने दिल्ली की खबर सुनी है। बख्तियार खिलजी को हाथी कुचलता तो ठीक ही होता। देवता का दुश्मन खुद पशु द्वारा मारा जाता। तुम क्यों बचाने गये?
उसे अपने हाथों मारने के लिए। वह मेरे पिता का दुश्मन है।
फिर जिस हाथी ने गुस्सा कर उस पर चोट की, तुमने बख्तियार को नहीं मारा, उस हाथी को क्यों मारा?
क्या बिना युद्ध किए मैं दुश्मन को मारता? मैं मगध विजेता को पराजित कर पिता के राज्य का उद्धार करूंगा।
ब्राह्मण चिढ़कर बोले-ये सारी घटनाएं तो बहुत पुरानी हो गईं। तुमने देर क्यों की? तुम मथुरा गये थे?
हेमचन्द्र चुप रहा। ब्राह्मण बोले-समझ गया, तुम मथुरा गये थे। मेरी मनाही तुमने नहीं मानी। जिसे देखने गये थे, उससे मुलाकात हुई?
हेमचन्द्र रूखे स्वर से बोला-मुलाकात नहीं हुई आपने मृणालिनी को कहीं भेज दिया है?
तुम्हें कैसे पता कि मैंने मृणालिनी को कहीं भेज दिया है?
माधवाचार्य के अलावा यह राय और किसकी हो सकती है। सुना है मृणालिनी मेरी अंगूठी देखकर कहीं गई है। उसका पता नहीं। अंगूठी आपने रास्ते के लिए मांगी थी। मैंने अंगूठी के बदले दूसरा हीरा दिया लेकिन आपने लिया ही नहीं। मुझे तभी शक हुआ था पर मेरी ऐसी कोई चीज नहीं जो आपको मैं दे नहीं सकता। अतः बिना एतराज मैंने अंगूठी दे दी। पर मेरी इस असावधानी का आपने अच्छा बदला दिया।
यदि ऐसा है तो मुझ पर गुस्सा न करो। देवता का कार्य तुम न साधोगे तो कौन साधेगा? यवनों का कौन भगाएगा? यवनों का भगाना तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए। इस वक्त मृणालिनी तुम्हारे मन पर अधिकार क्यों करे? तुम्हारे पिता का राज्य चला गया। यवनों के आने के वक्त अगर हेमचन्द्र मथुरा की जगह मगध में होता तो मगध कैसे जीता जाता? तो क्या तुम मृणालिनी के वशीभूत होकर चुपचाप बैठे रहोगे-माधवाचार्य के रहते ऐसा न होगा इसलिए मैंने मृणालिनी को ऐसे स्थान पर रखा है, जहां तुम उसे न पा सको।
हेम-अपने देवकार्य का आप ही कल्याण करें।
मा.-ये तुम्हारी दुर्बुद्धि है। यह तुम्हारी देशभक्ति नहीं है। देवता अपने कार्य के लिए तुम जैसे कायर मनुष्य की मदद की आशा भी नहीं करते। माना की तुम कायर पुरुष भी नहीं हो, तो भी दुश्मन के शासन को कैसे समाप्त करने का मौका पा सकते हो! यही तुम्हारा वीर धर्म है? यही शिक्षा पायी थी तुमने? राजवंश में पैदा होकर तुम कैसे खुद को राज्य के उद्धार से अलग रखना चाहते हो?
राज्य, शिक्षा, धर्म सभी जाएं जहनुम में।
नराधम! क्या तुम्हें तुम्हारी मां ने दस महीने दस दिन गर्भ में रखकर इसीलिए दुःख भोगा? क्या मैंने ईश्वर की आराधना छोड़कर बारह वर्ष तक तुम जैसे पाखंडी को सारी विद्या इसीलिए सिखाई?
माधवाचार्य बहुत देर तक चुपचाप रहे। फिर बोले-हेमचन्द्र! धैर्य रखो। मृणालिनी का पता मैं बताऊंगा। उससे तुम्हारी शादी भी करवा दूंगा लेकिन तुम मेरी राय पर चलो और अपने काम का साधन करो।
हेमचन्द्र बोले-अगर मृणालिनी का पता न बतायेंगे तो मैं यवनों के लिए अस्त्र भी नहीं छुऊंगा।
यदि मृणालिनी मर गई तो.......?
माधवाचार्य ने पूछा।
हेमचन्द्र की आंखों से लाल अंगारे निकलने लगे।
फिर यह आपका ही काम है।
मैं मंजूर करता हूं कि मैंने ही देवकार्य की बाधा को दूर किया है।
हेमचन्द्र ने गुस्से से कांपते हुए धनुष पर बाण चढ़ाकर कहा-मृणालिनी का जिसने वध किया है, वह मेरे द्वारा वध्य है। मैं इस बाण से गुरु और ब्राह्मण दोनों की हत्या का दुष्कर्म करूंगा।
माधवाचार्य हंसकर बोले-तुम्हें गुरु और ब्रह्महत्या में जितना आमोद है मेरा स्त्री हत्या में वैसा नहीं है । मृणालिनी जिन्दा है। उसे ढूंढ सकते हो । मेरे आश्रम के अलावा कहीं और चले जाओ। आश्रम कलुषित मत करो ।
कहकर माधवाचार्य फिर ध्यानमग्न हो गये ।
हेमचन्द्र आश्रम से बाहर आ गये और घाट पर आकर अपनी नाव में जा बैठे । नाव में बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा-दिग्विजय, नाव खोल दो।
दिग्विजय ने पूछा, कहां चलना है ।
जहां ठीक हो यमालय चलो ।
वह तो थोड़ी-सी दूर है ।
कहकर उसने नाव खोल दी ।
हेमचन्द्र थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोला-ज्यादा दूर है तो वापिस चलो।
दिग्विजय ने नाव वापस ले ली और प्रयाग के घाट पर जा लगाई । हेमचन्द्र वापस माधवाचार्य के आश्रम में पहुंचे । माधवाचार्य ने देखते ही पूछा-फिर क्यों आये हो?
हेमचन्द्र ने कहा-मैं आपकी हर बात स्वीकार करूंगा । बताइए मृणालिनी कहां है?
इस पर माधवाचार्य प्रसन होकर बोले-तुमने मेरी आज्ञा मानना स्वीकार किया है, मैं संतुष्ट हूं । मृणालिनी को गौड़ नगर में एक शिष्य के मकान में रखा है । तुम्हें उधर जाना पड़ेगा पर तुम उससे मिल न सकोगे । शिष्य को मेरा विशेष हुक्म है कि मृणालिनी जब तक उसके घर रहे किसी पुरुष से न मिल पाये ।
ठीक है मैं संतुष्ट हूं। आज्ञा दीजिए मुझे कौन-सा काम करना है ।
दिल्ली जाकर तुमने क्या मुसलमानों की मंशा जानी है?
यवन बंग-विजय का यत्न कर रहे हैं। बख्तियार खिलजी जल्दी ही सेना लेकर गौड़ की तरफ जायेंगे ।
माधवाचार्य प्रसन्न हो उठे । बोले-भगवान शायद अब इस देश के प्रति उदार हुए हैं । मैं काफी दिनों से सिर्फ गणित निकालने में लगा हूं । गणित से जो भविष्य निकलता है उसके फलित होने की तैयारी है ।
कैसे?
यवन राज्य का विध्वंस बंग राज्य से शुरू होगा ।
कितने दिन में, और किसके द्वारा!
मैंने इसकी भी गणना कर ली है । जब पश्चिम देश के वणिक बंग राज्य में शस्त्र धारण करेंगे, तब यवन राज्य नष्ट हो जायेगा ।
फिर मेरी विजय की संभावना कहां है? मैं तो बनिया हूं नहीं ।
तुम बनिया हो । तुम मथुरा में जब मृणालिनी के सहारे पर काफी दिन तक रहे तब किस बहाने से वहां रहे?
मैं वणिक नाम से मथुरा में पहचाना जाता था ।
फिर तुम ही पश्चिम देश के वणिक हो । गौड़ राज्य जाकर तुम्हारे शस्त्र धारण करने से ही यवनों का नाश होगा । तुम प्रतिज्ञा करके कल सुबह ही गौड़ राज्य प्रस्थान करो । जब तक मुसलमानों से युद्ध न हो, मृणालिनी से भेंट न करना ।
ठीक है । पर मैं अकेला युद्ध कैसे करूंगा?
गौड़ेश्वर के पास सेना है ।
होगी लेकिन संदेह है कि वह मेरे अधीन क्यों रहेगी?
"नहीं तुम पहले जाओ