Chanakya Aur Chandragupt - (चाणक्य और चंद्रगुप्त)
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Chanakya Aur Chandragupt - (चाणक्य और चंद्रगुप्त) - Rajendra Pandey
गया।
1
चाणक्य और चन्द्रगुप्त
हिमालय की घाटी में एक आश्रम था, जिसका नाम ‘चाणक्य आश्रम’ था। इस आश्रम की भव्यता और तेजस्विता किसी से छिपी नहीं थी। चाणक्य आश्रम की एक विशेषता यह भी थी कि यह ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर था। इस आश्रम का आचार्य चाणक्य, कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। वह जितना अधिक विद्वान था, उससे कहीं अधिक आग्रही प्रवृत्ति का था। आश्रम में विद्यार्जन के लिए आए विद्यार्थियों का तांता लगा रहता था। चाणक्य को वेद और शास्त्रों का अद्भुत ज्ञान था। वह धनुर्विद्या में भी निपुण था। उसकी इच्छा थी कि वह एक ऐसा राज्य स्थापित करेगा, जो दुनिया से अलग और अद्भुत विशेषता लिए हुए हो। उसका कहना था‒ मैं एक ऐसे क्षत्रिय बालक को सभी विद्याओं में पारंगत कराकर राजा बनाऊंगा, जिसका कोई सहारा नहीं... कोई पहचान नहीं। जिस मगध देश के राजा ने, ढोंगी और चुगलखोर पंडितों के कहने में आकर मुझे अपमानित कर दरबार से बाहर कर दिया, उसके वंश का मटियामेट कर दूंगा और उसके राजसिंहासन पर उसे बिठाऊंगा, जो क्षत्रिय हो और सबका आदर करने वाला हो।’
चाणक्य के ये शब्द केवल चाणक्य तक ही सीमित नहीं थे, आश्रम के सभी शिष्य इन शब्दों के साथ ही जीते थे। चाणक्य ने एक तेज और मेधावी बालक को खोज निकाला था और उसके साथ-साथ ही हिमालय के पर्वतीय इलाकों के भील-कुमारों को भी शस्त्र का ज्ञान देने लगा था। चाणक्य के सभी शिष्य आज्ञाकारी और शस्त्र-शास्त्र में कुशल थे। चाणक्य बहुत ही प्रसन्न था कि वह सही रास्ते पर जा रहा है, लेकिन समस्या यह थी कि शिष्य कुशल योद्धा तो थे, पर उनकी संख्या बहुत ही कम थी। युद्ध जीतने के लिए यह पर्याप्त नहीं था। चाणक्य को यह मालूम था कि मगध राज्य केवल पराक्रमी ही नहीं, उसका सैन्य-बल भी अथाह है। चाणक्य के सामने यह बहुत बड़ा प्रश्न था, जो उसके दिमाग में हमेशा घूमता ही रहता था। जब वह अधिक विचलित हो जाता, तब नदी के तट पर जा बैठता। चाणक्य का अत्यंत ही प्रिय शिष्य चन्द्रगुप्त था। उसके लिए कोई बंदिश नहीं थी। चाणक्य से वह कहीं भी मिल सकता था। उनमें परस्पर गुरु-शिष्य के अलावा पिता-पुत्र जैसा भी रिश्ता था। चाणक्य के अनेक शिष्य थे, पर चन्द्रगुप्त पर उसका कुछ ज्यादा ही स्नेह था।
चन्द्रगुप्त कोई और नहीं, बल्कि वही बालक था, जिसे विष्णु शर्मा यानी चाणक्य ने उस गरीब से मांग लिया था। मगधराज से अपमानित होने के बाद विष्णु शर्मा ने अपना नाम चाणक्य रख लिया था और यह संकल्प लिया था कि जब तक मगधराज का तख्ता न पलट दूंगा, तब तक पुराना नाम धारण नहीं करूंगा। चाणक्य फिर तक्षशिला नहीं गया और हिमालय के ही एक वन में झोंपड़ी बनाकर उस बालक को शस्त्र-शास्त्र की विद्या देने लगा।
चाणक्य एक ब्राह्मण था तो क्या हुआ, उसमें सैन्य-बल खड़ा करने की अपार क्षमता थी। उसने भील आदि जातियों को भी शस्त्रविद्या देनी शुरू कर दी, ताकि उस मदांध मगधराज को हराकर अपने अपमान का बदला ले सके।
इससे चाणक्य की एक दूसरी ही सोच उभरकर सामने आयी और जन-जातियों में उसकी लोकप्रियता और भी अधिक बढ़ गई। उसका आश्रम इतना प्रसिद्ध हो गया कि दूर-दूर से ब्राह्मण एवं क्षत्रिय शिक्षा ग्रहण करने के लिए आने लगे। इस तरह से चाणक्य का यश पूरे हिमालय प्रदेशों में अपनी पताका फहराने लगा।
चाणक्य को चैन नहीं था। वह नदी की ओर चला जा रहा था। सूरज आकाश के मध्य में था। ऊपर से चाणक्य शांत नजर आ रहा था, पर भीतर ही भीतर तूफान-सा उठा हुआ था। नदी के तट पर पहुंचते-पहुंचते चाणक्य अचानक ही हंस पड़ा और अपने आपसे बातें करने लगा‒ ‘चन्द्रगुप्त ने एक साल में काफी विद्याएं हासिल कर ली हैं। जब मैं पाटलिपुत्र गया था और जो हालात वहां के थे, अगर अब भी वही हालात होंगे तो मुझे सफलता मिलने में बाधा नहीं आएगी। क्या वहां मुझे जाना चाहिए? क्यों नहीं, जब इतनी बड़ी प्रतिज्ञा मैंने ले ली है, तो उसे पूरा करने के लिए मुझे कुछ भी करना चाहिए। राजनीति में सब कुछ जायज होता है... चाणक्य अपने आपसे बातें करता हुआ नदी में स्नान करने के लिए उतर गया, लेकिन मन योजना का ताना-बाना बुनने में व्यस्त था। स्नान हो गया तो वह आसन बिछाकर बैठ गया। आराधना पूरी करने के बाद वह योगाभ्यास के लिए सोच ही रहा था, तभी उसका परम शिष्य चन्द्रगुप्त सामने आकर खड़ा हो गया। उसने शीश झुकाकर गुरु को प्रणाम किया, फिर बताने लगा कि आज उसने जंगल में किन-किन जानवरों का शिकार किया। उसका एक साथी बीच में ही बोल पड़ा‒ ‘हां गुरुदेव, चन्द्रगुप्त ने आज बहुत पराक्रम का काम किया है। इसने इतने बड़े तेंदुए को कुत्ते-बिल्ली की तरह पलक झपकते ही मार गिराया। आप चलकर उस तेंदुए को देखेंगे तो आपको इसके साहस पर विश्वास हो जाएगा।’
चाणक्य चन्द्रगुप्त की वीरता के बारे में सुनकर आनंदित हो उठा। जैसे पिता पुत्र की प्रशंसा सुनकर खुश हो जाता है, वैसे ही भाव उसके चेहरे पर उभर आए। चाणक्य चन्द्रगुप्त को चमकती आंखों से देखते हुए बोला‒ ‘वत्स चन्द्रगुप्त! मुझे कुछ दिनों के लिए कहीं जाना है। वैसे तू अभी बालक है, लेकिन जो महान कार्य तुझे करना है, उसका शुभारम्भ अभी से हो जाना ही ठीक रहेगा। आश्रम की व्यवस्था मैं तुझे सौंपूंगा। तुझे राजा बनना है। व्यवस्था का ज्ञान तो होना ही चाहिए। वत्स! मेरी इन अपमानित आंखों को ठंडक तभी मिलेगी, जब मैं तुम्हें मगध नरेश बना दूंगा। तू भावी मगध नरेश है। तू इस आश्रम का स्वामी है। यह आश्रम तेरा है और मैं भी तेरा ही हूँ। आश्रम का संचालन तू किस तरह से करता है, यह बता देगा कि तू क्या है और जिम्मेदारियों को निभाने में कितना निपुण है।’
चन्द्रगुप्त के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं थी। उसकी आंखों में उदासी थी। वह उदास इसलिए था कि गुरुजी उसे यहां अकेला छोड़कर चले जाएंगे। वह यहां उनके बिना समय कैसे गुजारेगा। वह अधीर होकर बोल पड़ा‒ ‘अभी मुझे किसी भी शिक्षा में निपुणता नहीं मिली है और आप जाने की बात कह रहे हैं। आपके साथ तो मैं भी चल सकता हूं। आपके बिना मैं अधूरा हूं, आपके बिना मेरी दशा बिगड़ जाएगी ... गुरुदेव, मुझे भी अपने साथ ले चलें।’
‘वत्स, मेरी विवशता समझो। इस कार्य के लिए मुझे अकेले ही जाना होगा। तू मेरा कहना मान ... मैं तुझसे अलग कहां हूं। जहां चाणक्य होगा, वहां चंद्रगुप्त होगा ही... मैं सिर्फ तेरा भला चाहता हूं और तेरे भले के लिए ही जा रहा हूं। इसमें हम दोनों का ही भला है।’
चन्द्रगुप्त ने आगे कुछ कहा तो नहीं, पर गुरु से अलग होने का दुःख मन में अवश्य ही था, जिसका बोध चाणक्य को भी था। उसका मन विचलित तो हुआ, पर चाणक्य एक दृढ़निश्चयी शख्स था। अपने निर्णय को भावनाओं में आकर भला कैसे बदल सकता था। चन्द्रगुप्त को अकेला छोड़कर वह चला गया और अपने पीछे छोड़ गया चन्द्रगुप्त पर आश्रम की व्यवस्था।
2
मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र गंगा और सोन नदी के मध्य स्थान के पास बसा हुआ था, जिससे यह नगरी व्यवसाय की दृष्टि से बहुत ही विकसित थी। यहां यज्ञ-हवन प्रतिदिन होते ही रहते थे, जिनमें पशुओं की बलि आम थी। बौद्ध धर्म के अनुयायियों को यह क्रूर व्यवहार पसंद नहीं था, लेकिन शासन बौद्ध धर्म के अनुयायियों के खिलाफ था और राजा की ओर से सख्त आदेश था कि बौद्ध प्रचारकों को राज्य में प्रश्रय न दिया जाए और ध्यान रहे कि वे अपने धर्म का प्रचार न कर सकें।
मगध का राजा धनानंद दूर-दूर तक लोगों में दानवीर और शूरवीर के नाम से विख्यात था, लेकिन सच्चाई यह थी कि मगध नरेश दुराचरण, मद्यप और मतिभ्रम जैसे दुर्व्यसनों का शिकार था। इतना होने पर भी राजा तो राजा होता है, प्रजा उसे देवता ही मानती है। धनानंद के आस-पास चापलूसों और कुटिल लोगों का जमावड़ा हमेशा लगा रहता। वे जब जैसा चाहते, धनानंद को उपदेश देकर अपने रंग में ढाल लेते और अपने मन की करते।
यह भी कटु सत्य था कि ऐसे लोगों के कारण धनानंद को राज-काज चलाने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता। कुछ ऐसे अधिकारी भी थे, जो ईमानदार और वफादार थे और उनके सहयोग से मुश्किलें आसान होती चली जाती थीं। ऐसे विशेष व्यक्तियों में राजपरिवार पर अपना सर्वस्व लुटाने वाला राक्षस नाम का एक शख्स था। नाम तो इसका राक्षस था, पर कार्य राक्षसों जैसा नहीं था। धनानंद पर राक्षस का अत्यधिक प्रभाव था और राजा राक्षस से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई कार्य करता था।
पड़ोसी राज्य धनानंद को परास्त कर मगध देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बहुत इच्छुक थे, लेकिन राक्षस का ख्याल आते ही उनकी हिम्मत जवाब दे जाती। मगध देश में राक्षस जैसा शख्स नहीं होता तो नंदवंश का दीपक कब का गुल हो गया होता, लेकिन सच्चाई यह थी कि धनानंद से प्रजा मन-ही-मन असंतुष्ट थी।
यह राक्षस तो ऐसा शख्स था, जिसके प्रभाव से केवल मंत्रिवर्ग बेदाग था और मगध की राजसभा दूर-दूर तक मशहूर थी। वैसे कुछ भी हो, पाटलिपुत्र उन दिनों काफी विख्यात था। यहां की आबादी अधिक थी। भगवान बुद्ध के अहिंसा धर्म के अनुयायी भी यहां थे। इसके साथ ही किरात, शक, हूण, यवन, म्लेच्छ, चीनी, फारसी, गांधार आदि जातियां भी फल-फूल रही थीं। यहां खूबसूरत महल, पाठशाला आदि की भी कमी नहीं थी।
राजपरिवार का महल तो जन्नत के मानिंद हसीन और वैभवपूर्ण था। पाटलिपुत्र जिस तरह से संपन्न व सुव्यवस्थित था, ठीक उसी तरह से सैन्य-बल भी अथाह व सुदृढ़ था। राजा ने सेनापति को पूरा अधिकार दे रखा था और प्रशासन के मामले में जरा-सी ढील नहीं थी। सेनापति अपनी सूझ-बूझ से अवसरानुकूल निर्णय ले सकता था, ये ही बातें थीं, जिसके कारण धनानंद का सिंहासन सुरक्षित था।
पाटलिपुत्र का प्राकृतिक दृश्य राजनीतिक दृश्य से कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। संध्या काल में इसकी शोभा स्वर्गिक हो जाया करती थी। आज तो पाटलिपुत्र में काफी चहल-पहल थी। सड़क पर फूल बेचने वालों की दुकानों पर भीड़ थी। लोग हाथ में फूल तथा फूलों की मालाएं लिए आगे बढ़ते जा रहे थे। झरोखों से नर-नारी झांक रहे थे, तभी नगर से दूर कई तरह के बाजों की धुन सुनाई देने लगी। लोग बड़ी संख्या में, बाजे की आवाज जिधर से आ रही थी, उधर बढ़ते हुए जमा होते चले गए। सबकी यही इच्छा थी, वह जुलूस पहले हमें ही नजर आए। धीरे-धीरे बाजे की आवाज और तेज हो गई। भीड़ में जिज्ञासा और अधिक बढ़ गई, तभी मगध देश के एक हाथी पर विजय-पताका दिखाई दी। पीछे बाजे बजाने वाले हाथियों, ऊंटों और घोड़ों पर सवार थे।
कुछ सैनिक पैदल थे तो कुछ घोड़ों और हाथियों पर थे। इसी बीच सब की नजर उस हाथी पर जा ठहरी, जिस पर मगध के युवराज सवार थे और हाथी को हीरे-पन्नों से सजाया गया था। तो यह था फूल-माला खरीदने का कारण। लोग दोनों हाथों से युवराज पर फूल-मालाएं फेंकने लगे। यह उनका अपने युवराज के प्रति असीम स्नेह और अनुराग था। प्रजा का क्या, राजा या युवराज कैसा भी हो, जब वह सामने होता है, तब प्रजा के मन में राजा के प्रति जो भी कटुता होती है, वह धुल जाती है। युवराज पर बरस रहे फूल इस बात के साक्षात् प्रमाण थे।
3
यह उत्सव बहुत ही खास था। युवराज को राजभवन तक पहुंचने में कोई घंटा-भर लग गया। धनानंद का सेनापति किसी राजा को पराजित कर उस राजा की पुत्री से युवराज का ब्याह कराकर वापस लौटा था, इस खुशी को बाजे-गाजे और सैन्य बल के प्रदर्शन से व्यक्त करने का तरीका बेहद ही खूबसूरत था। प्रजा में इस बात को लेकर हर्षोल्लास उछालें मार रहा था। वह खुश थी कि युवराज ने न सिर्फ विजय हासिल की, बल्कि उस राज्य की राजकुमारी को वधू भी बना लिया। राजा के प्रति प्रजा के मन में जो कटुता थी, वह इस समय नहीं थी। चारों तरफ सड़कों पर इतनी भीड़ थी कि सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी।
यह समय अलौकिक था और सभी को ही अभिभूत कर देने वाला था। इस अवसर पर किसी के मन में किसी भी तरह की कटुता राजपरिवार को लेकर नहीं थी। जुलूस पाटलिपुत्र की सीमा पर पहुंचा, तब वर-वधू के मंगलमय जीवन के लिए पशु बलि दी गईं। खून के छींटों से मार्ग रंग गया। पुष्प लेकर खड़ी नवयौवनाओं ने वर-वधू पर फूलों की वर्षा की, फिर जुलूस बाजे-गाजे के साथ राजमहल के सामने जाकर ठहर गया, फिर युवराज का मंगल तिलक से अभिषेक कर स्वागत किया गया।
लेकिन इस महोत्सव के बीच राजमहल का एक शख्स दुःखी था। उसके चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी, बल्कि गुस्सा पसरा हुआ था। राजभवन में खुशियों की लहर-सी थी, पर केवल वही एक स्त्री दुःखों के सागर में डूबी हुई थी और उसे उसकी दासी वृंदा शांत करने की कोशिश में जुटी हुई थी, लेकिन वह स्त्री भला कैसे शांत हो सकती थी। उसका दुःख अपार था। जहां चारों तरफ जुलूस-सा माहौल था, वहां वह स्त्री इतना क्रोधित और शोकाकुल क्यों थी? वह यही कोई 30 वर्ष की थी और उसके कपड़े साधारण ही थे। बाल खुले हुए थे। उसकी दशा बहुत ही दयनीय थी। जहां सबने उत्सव के इस अवसर पर साज- शृंगार किया था, वहीं उसकी दशा इतनी वीभत्स क्यों थी?
वृंदा जब समझाकर थक गई, तब वह स्त्री आंसू भरे नेत्रों से घूरती हुई बोली‒ ‘हे माते, आप जो कुछ भी कह रही हो, वह सुनने में अच्छा है, लेकिन जो उत्सव मेरे पुत्र के लिए होना चाहिए, वह सौतन के पुत्र के लिए हो रहा है। आपको मेरी पीड़ा का अनुमान भला कैसे होगा। पीड़ा तो मेरे हृदय में बह रही है न, आप क्या जानें। राजकन्या होने के बावजूद आपको पता है, मेरा समय यहां एक दासी का कार्य करते हुए गुजरा है।’ यह कहते-कहते वह स्त्री और भी अधिक गुस्सा हो गई‒ ‘कहां मैं किरातराज की पुत्री... उस राज्य की एकमात्र राजकुमारी... सेनापति मेरे पिता को पराजित कर मुझे जबरन उठा लाया और मुझे मगध नरेश के हवाले कर दिया। मेरी इच्छा के विरुद्ध मगध नरेश ने मुझसे विवाह कर लिया और मुझसे जो संतान पैदा हुई, उसे राजा की दूसरी पत्नियों ने युवराज नहीं बनने दिया। यही नहीं, उन्होंने यह कहकर मेरा अपमान किया कि तुम दासी हो और एक दासी-पुत्र भला युवराज कैसे हो सकता है! क्या पता तुम्हारी यह संतान किसकी है। मैं भला उस हादसे को कैसे भूल सकती हूं?’
वृंदा गुमसुम सुने जा रही थी। उसके पास अब समझाने के लिए जैसे शब्द ही नहीं थे। वह स्त्री आगे बोली‒ ‘मैं एक स्त्री हूं... वह भी दासी जैसी... पददलित और अपमानित... इस अन्याय पर सिर्फ रो ही तो सकती हूं... मुझे रो लेने दीजिए। मैं भला कैसे न रोऊं.... मेरे पुत्र को युवा होने से पहले ही