Tum Yaad Na Aaya Karo (तुम याद न आया करो)
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Tum Yaad Na Aaya Karo (तुम याद न आया करो) - Sanjay Kejariwal
तुम याद न आया करो
eISBN: 978-93-9050-431-2
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
TUM YAAD NA AYA KARO
By - Sanjay Kejariwal
‘गण्डक’ की उस जलधारा को
जो सोनपुर के आगे
‘गंगा’ में विलीन हो जाती है।
पुराने हिन्दी गीतों को
१
का र्तिक पूर्णिमा के स्नान दान के साथ पूरे महीने भर चलने वाला बिहार राज्य के सोनपुर का मेला अपने अतीत के साथ पूरे जोर से प्रारम्भ हो गया।
सन् उन्नीस सौ चौरासी का नवम्बर था। रात में ठंडक हो चली थी। कुआर के धूप के बाद मौसम में एक सुहाना बदलाव आ गया था। रात में मीठी-मीठी सिहरन भरी सर्द हवा बहने लगी थी। मेले में बिजली की जगमग रोशनी चारों तरफ फैली थी। उसी मेले के एक थियेटर के स्टेज पर रजनी के नृत्य के साथ दर्शक दीर्घा के दर्शक पूरे शबाब पर थे, हर एक के मन में रजनी के नृत्य ने उमंग और प्रसन्नता का संचार कर दिया, हर मुख से वाह-वाह होने लगी, रजनी के नृत्य में यौवन और उमंग का समावेश था, रजनी भी यही कोई बीस-इक्कीस वर्ष की लम्बी गोरी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों वाली सुन्दर सलोनी नवयौवना थी।
उसकी मुस्कान भी ऐसी जो हर एक दिल को मुस्कुराने के लिए मजबूर कर दे। उसके चेहरे की आभा व बनावट कुछ इस तरह की थी, कि सामने बैठे हर दर्शक को ऐसा लगता कि वह उसे ही देखकर मुस्कुरा रही है। उसके सुर्ख गोरे रंग, लम्बे कद, मुस्कुराते बदन में खूब आकर्षण था। उसके कमर में गजब की लचक और ठुमके में गजब की चाल थी। इस तरह दर्शक दीर्घा के आगे बैठे कुछ दर्शकों के कमर भी रोज रजनी के कमर के साथ लचकने लगते। रजनी के ठुमके साथ ही कुछ लड़के अपने कुर्सी पर खड़े होकर उसके ठुमके की नकल करने लगते। उनमें दो-चार तो ऐसे थे, जो रजनी के ठुमके के साथ ठुमका लगाने लगते या फिर उसके ठुमके को चुनौती देते। परन्तु रजनी भी पारंगत नृत्यांगना थी, या यह कह लें कि वह हार मानने वाली जीव नहीं थी, जब तक एक-एक करके सभी लड़कों के कमर और ठुमके अपदस्थ नहीं हो जाते तब तक उसके कमर और ठुमके की थिरकन की रफ्तार में जरा भी कमी नहीं आती। और जब कभी तबलची, ढोलकी के ताक धिन्ना-ताक धिन्ना, तिरकिट गिन्ना-तिरकिट गिन्ना, पर पूरे रफ्तार में थिरकती लम्बी तान लगाती तो तबलची ढोलकी के भी हाथ भर जाते, सांसे फूल जाती।
इस तरह जब-जब स्टेज पर नृत्य करने की बारी रजनी की आती तो पूरा थियेटर परिसर हूटिंग, हो हल्ला के वाहवाहियों और सीटियों से गूंज जाता। रजनी भी अपनी सुन्दर मुस्कान के साथ दर्शकों का फिर से एक नये अंदाज में अभिनन्दन करती और उनके अभिवादन स्वीकार करती और नृत्य करते-करते कभी-कभी अपने भाव भंगिमाओं में एक हल्की सी कुचीपूड़ी, भरतनाट्यम ओडिसी अथवा कथकली के एक दो स्टेप कर जाती लोगों को लुभा जाती। रजनी की छैल छबीली चाल, बाली उमर लरकैंया की तरह जब बांस के कोमल तने की तरह लचकती-थिरकती तो अच्छे-अच्छों का दिल भी लचक-थिरक जाता। हर एक के मन में उमंग और बहार आ जाती, महफिल में समाँ बँध जाती। उसका हर एक गाने पर बहुत सुन्दर स्टेज प्ले होता और जब दर्द भरे पुराने हिन्दी गीतों को गाती तो लोगों के दिलों में एक दर्द उभर जाता, कुछ आँखें छलक भी जाती। उसका स्वर भी काफी सुन्दर सुरीला था, जो उसके मुख से चमकते दाँतों के बीच बहुत सुन्दर लगता। वह हर एक गीत को गाते हुए इतनी संजीदगी से नृत्य किया करती जैसे ये गीत रजनी के रोम-रोम में बसे हों। रजनी को सोहर, बन्ना, झूला, कजरी, होली, चौती, विवाह, ठुमरी, धोबिया, निर्गुन जैसे परम्परागत स्थानीय लोकगीतों को गाने में भी महारत हासिल थी। वह इन लोकगीतों की बहुत सुन्दर प्रस्तुति किया करती।
थियेटर के मालिक और प्रबंधक ने दर्शकों की नब्ज को भांप लिया, दर्शकों की चाहत के अनुरूप, स्टेज पर रजनी की प्रस्तुति व समय को और बढ़ा दिया। रजनी ने भी भीड़ को खींचने, थियेटर को चलाने में अपने को लगा दिया। वैसे तो थियेटर में दस-पन्द्रह नर्तकियां थीं, जो नये डीजे, डेक साउण्ड सिस्टम पर बज रहे गीतों पर खूब थिरका और गाया करतीं, रोज नए-नए स्टेज प्ले नाटकों को खेला करतीं, परन्तु रजनी की माँग कुछ ज्यादा ही हो आई थी। थियेटर के मालिक व प्रबंधक, रजनी को खोजकर अपने थियेटर में लाने के स्वयं के फैसले पर काफी प्रसन्न थे। इस तरह रातें होती, स्टेज प्रतिदिन नये-नये गुब्बारों फूलों पर्दो से सजने लगा। हैलोजन, मरकरी के दूधिया रोशनी में थियेटर का स्टेज अगहन के अलसाते ठंडक मन्द-मन्द पड़ते शीत की रात में नहाने लगा। प्रत्येक रात दस-पन्द्रह नर्तकियों का नृत्य प्रारम्भ होता और रजनी की कलाएं दर्शकों के सिर-चढ़कर बोलती। हर रात रजनी स्टेज पर अपनी नई अदाओं के साथ आती, नये अंदाज बिखेरती, नये-नये रंगो में दिखती। रजनी की अनगिनत अदाओं, कलाओं के कारण थियेटर खचाखच भरा रहने लगा। मेला भी पूरे शबाब पर चल रहा था। थियेटर के अन्दर चार-पाँच सौ की भीड़, बाहर टिकट की कतार के कारण अगल-बगल के तीन-चार प्रतिस्पर्धी थियेटरों को भी रजनी की जानकारी हो गई। रजनी के कारण ही इस थियेटर की भीड़ ने मेले के अन्य सभी थियेटरों को पीछे छोड़ दिया।
इस तरह रजनी की बातें काफी दूर तक थियेटर देखने वाले शौकीन मिजाज दर्शकों तक पहुँच गई। जब दो शौकीन मिजाज आपस में मिलते, मेला चलने की बात करते, थियेटर देखने की बातें करते और जब थियेटर देखने के बाद बातें करते, तो एक दूसरे से कह ही देते, हरिहर क्षेत्र सोनपुर का मेला देखा, हाथी घोड़ा, ऊँट बाजार देखा परन्तु यदि रजनी का नृत्य नहीं देखा तो कुछ भी नहीं देखा। इस तरह रोज शाम होती, थियेटर देखने वालों की महफिल जुटती। खत लिख दो साँवरिया के नाम बाबू, कोरे कागज पर लिख दो सलाम बाबू.....। सुनने वाले जुटने लगे। हर रोज रजनी स्टेज पर उतरती, उसके मुस्कुराते मुख मंडल, गौर वर्ण, मोतियों जैसे चमकते दाँतो के बीच प्रस्फुटित होते गीत को सुनकर हर एक मन आनंदित हो जाता। परन्तु उनमें एक नजर ऐसी थी, जो रजनी को रोज एकटक देखती और मुस्कुराती रजनी भी उस नजर को देख लिया करती और मुस्कुरा देती। इस तरह दोनों एक दूसरे को देखते और मुस्कुरा देते। रजनी जब स्टेज पर उतरती तो वह नजर उसे मुस्कुराते हुए दिख ही जाती। अगल बगल के दर्शक इन दोनों के मुस्कान को मिलाते और कुछ समझने की कोशिश करते, फिर मुस्कुरा देते। रजनी के साथ नृत्य करने वाली हमजोली नर्तकियां भी रजनी का ध्यान उस नजर की तरफ कर दिया करतीं, जो रजनी को देखा करती, देख लिया करती और फिर आपस में खिल-खिलाकर हँस दिया करती, सामने बैठे दर्शकों को हँसा और लुभा दिया करती, इस तरह सप्ताह दिन बीत गये।
२
रा त के बारह बजे बाइस-तेइस वर्ष के एक हँस मुख गोरे लम्बे सुन्दर आकर्षक नौजवान डगरू और थियेटर के एक कर्मचारी में विवाद होने लगा।
कर्मचारी - भाई साहब आपको अन्दर जाने की इजाजत नहीं हैं, यह हमारे नियमों के विरुद्ध है।
डगरू - मेरे भाई, मुझे भी पता है, परन्तु आज तो मैं किसी एक से मिले बिना अपने घर नहीं जा सकता, मेरा आपसे अनुरोध है, मुझे किसी से मिल लेने दें। दोनों में कुछ वाद-विवाद हुआ और डगरू नर्तकियों के अस्थायी आवास की तरफ जाने वाले दरवाजे को पार कर गया।
स्टेज के पीछे पाँच-सात टेन्ट थे, जिसमें सभी नर्तकियाँ अपने-अपने परिवार के साथ रहा करती, उनमें एक छोटा सा तिरपाल-कनात का टेन्ट रजनी और उसके कुनबे का था, जो एकदम किनारे, अकेले में था, जिसमें एक बल्ब बढ़ते ठंडक और रात के अंधेरे को चीरता हुआ जल रहा था। कनात के अन्दर दो फोल्डिंग पलंग एक स्टोप दो-तीन बक्से व कुछ बर्तन इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
डगरू - (बेझिझक) मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।
रजनी - (डगरू को आश्चर्य भाव से देखते हुए) मुझे भी ऐसा लग रहा था, तुम्हारा मन कुछ कहना चाहता हैं, क्या कहना चाहते हो?
डगरू - मेरा नाम डगरू हैं, मैं रोज तुम्हारे नृत्य को देखता हूँ, मैं प्रतिदिन तुमसे मिलने की कोशिश करता हूँ। थियेटर के अस्थाई दरवाजे के पास आता हूँ। फिर मन में कुछ संकोच होता है, और वापस चला जाता हूँ। कल आधी रात प्रोग्राम देखने के बाद घर जा रहा था, बीच रास्ते से लौट आया, रोज की तरह दरवाजे के पास आकर फिर वापस चला गया। आज तुमसे मिलने, बातें करने, पास से देखने का बहुत मन हो आया, इसलिए आज मन के सभी झंझावतों को पार कर, पीछे छोड़ चला आया हूँ।
रजनी - मैं जानती हूँ तुम रोज थियेटर देखने आया करते हो।
डगरू - नहीं, मैं रोज सिर्फ तुम्हें ही देखने आता हूँ।
रजनी - मुझे पता है, तुम रोज आते हो और मुझे एकटक देखा करते हो। आगे वाली कुर्सी पर बैठकर मुस्कुराते रहते हो। तुम्हें देखकर मुझसे भी रहा नहीं जाता और मैं भी जब तुम्हारी तरफ मुखातिब होती हूँ, तो मुस्कुरा देती हूँ।
डगरू - मैं रोज सोचता हूँ, आज तुमसे मिलूँगा कुछ बातें करूँगा। तुम्हें पास से देखकर जाऊँगा। तुम्हारे नृत्य के लिए तुम्हें धन्यवाद कहूँगा और तुम्हारी एक बात भी तुमसे कहनी है तुम्हें बतलानी है।
रजनी - (थोड़ा रुककर हल्के से मुस्कान के साथ डगरू को देखते हुए) क्या बात बतलानी है, तुम्हें क्या बात कहनी है?
डगरू - (मुस्कराकर) तुमसे भी कहीं सुन्दर तुम्हारी अदाएँ हैं। जब तुम मुस्कुराती हो, तो और भी सुन्दर दिखती हो। सामने वाले को तुम्हारी सुन्दर मुस्कान काफी अच्छी लगती है और जब तुम नृत्य किया करती हो, तो तुम्हारी अल्हड़ सी अठखेलियाँ और भी अच्छी लगने लगती हैं। हर कोई तुम्हारे गाते मुस्कुराते चेहरे को बार-बार देखना चाहता है, तुम्हारा स्वर भी लाजबाब है, मेरा मन तो तुम्हें देखते रहने को कहता है। यही कहने चला आया हूँ।
रजनी - (थोड़ा नाराजगी के साथ) तुम्हें और भी कुछ कहना है?
डगरू - क्या मैं अपने मन की बात पूरी कर सकता हूँ?
रजनी - मन में कोई बात नहीं रखनी चाहिए, मन में बात रहने पर मन भारी-भारी बेचैन रहता है, तुम मेरे दर्शक हो, इसलिए तुम जो कुछ कहना चाहते हो, कह सकते हो। हमें पब्लिक की हर एक बात सुनने की आदत है।
डगरू - (बेधड़क) तुम्हारे काले-काले बाल जो ऊपर-नीचे होते रहते हैं, उसमें भी बाँयी तरफ जब ये ऊपर-नीचे होते हैं और कभी-कभी तुम्हारे गोरे मुस्कुराते चेहरे को थोड़ा बाँये तरफ से ढक लेते हैं, उस अदा को देखने को मेरा बहुत मन कहता है, उसी को देखने रोज चला आता हूँ।
रजनी - (आश्चर्यचकित होकर) मैं तो अपने बारे में इतना कुछ नहीं जानती जितना तुमने देख लिया, यह मेरे जीवन का पहला इतना बड़ा प्रोग्राम, और इतना बड़ा मंच है। इससे पहले मैं छोटे-मोटे थियेटर नौटंकी कम्पनी में रहा करती। मैंने इतने बड़े थियेटर में इतने लोगों के साथ पहली बार नृत्य किया है। यह कम्पनी इस सोनपुर मेले में हर वर्ष आती है और इसके आर्टिस्ट काफी जगहों से कई कम्पनी से आते हैं। मैं यहाँ इस हरिहर क्षेत्र में पहली बार कहीं दूर से आई हूँ।
डगरू - मैंने भी पहली बार थियेटर के डांस प्रोग्राम को ठीक से देखा है, पहली बार नृत्यकला नृत्यसंगीत को जाना समझा है।
रजनी - क्या जाना समझा है?
डगरू - यही, मन को हर्षाने, मन में एक उमंग लाने के लिए इससे अच्छी कोई चीज नहीं हो सकती।
रजनी - कैसा लगता है?
डगरू - (थोड़ा रुककर) मुझे यह नहीं पता था थियेटर के अन्दर की मंच इतना सुन्दर, इतना लुभावना भी होता है।
रजनी - (डगरू के चेहरे की तरफ देखते हुए