Par-Kati Pakhi
()
About this ebook
बालक के माता और पिता, दो पंख ही तो होते हैं उसके, जिनकी सहायता से बालक अपनी बुलन्दियों की ऊँचे-से-ऊँची उड़ान भर पाता है। एक बुलन्द हौसला होते हैं, अदम्य-शक्ति होते है और होते हैं एक आत्म-विश्वास, उसके लिये, उसके माता और पिता। इस उपन्यास में पाखी हर घटना का मुख्य पात्र है। उपन्यास की हर घटना पाखी के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। पाखी के पिता सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की भ्रष्टाचारी और असामाजिक तत्वों के द्वारा हत्या करा दी जाती है। पाखी किस प्रकार से समाज और कानून की व्यवस्था से लड़कर उन्हें दण्डित कराती है, अत्यन्त रोचक घटना बन पड़ी है।
Related to Par-Kati Pakhi
Related ebooks
Chalo Fir Kabhi Sahi (चलो फिर कभी सही) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMujhko Sadiyon Ke Paar Jana Hai Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Balman ki Kahaniyan : Himachal Pradesh (21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियां : हिमाचल प्रदेश) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsभीम-गाथा (महाकाव्य) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsJaishankar Prasad Kavita Sangrah : Prem Pathik - (जय शंकर प्रसाद कविता संग्रह: प्रेम पथिक) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMahan Chanakya: Jivani , Niti, Sahitya aur Samgra Sahitya Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsTitli (तितली) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsचिंगारियाँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsGoli (गोली): राजस्थान के राजा - महाराजाओं और उनकी दासियों के बीच के वासना-व्यापार पर ऐतिहासिक कथा Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMangal Sutra (Hindi) Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Lok Kathayein : Himachal Pradesh (21 श्रेष्ठ लोक कथाएं : हिमाचल प्रदेश) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsDo Bailon Ki Katha & Tatha Anya Kahaniya Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAnandmath - (आनन्दमठ) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsYug Purush : Samrat Vikramaditya (युग पुरुष : सम्राट विक्रमादित्य) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBalswaroop 'Rahi': Sher Manpasand (बालस्वरूप 'राही': शेर मनपसंद) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRajrishi Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAag Aur Paani (आग और पानी) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsTum Yaad Na Aaya Karo (तुम याद न आया करो) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsZindagi Ki Rele - Re (ज़िन्दगी की रेले - रे) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsJaishankar Prasad Granthawali Kamna (Dusra Khand Natak) - जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली कामना (दूसरा खंड - नाटक) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPutali Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRabindranath Ki Kahaniyan - Bhag 2 - (रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ - भाग-2) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsSikhen Jeevan Jeene Ki Kala (सीखें जीवन जीने की कला) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBandhan Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsJaishankar Prasad Granthawali Vishakh (Dusra Khand Natak) - (जय शंकर प्रसाद ग्रंथावली विशाख (दूसरा खंड - नाटक)) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAanuvanshik Utpat - आनुवांशिक उत्पात : (काव्य संग्रह) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRas Pravah Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsHar Ke Bad Hi Jeet hai : हार के बाद ही जीत है Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Reviews for Par-Kati Pakhi
0 ratings0 reviews
Book preview
Par-Kati Pakhi - Anand Vishvas
फुर्र
1. पर-कटी पाखी
कल से ही तो चालू होने वाले हैं पाखी के प्रिलिम एग्ज़ामस्। पढ़ते-पढ़ते मन बदलने के लिये वह टैरस पर आ गई। ऊपर आकाश पतंगों से अटा पड़ा था और नीचे टैरस लोगों से। ऐसी कोई भी छत न थी जिस पर कि दस-बीस लोगों का जमावड़ा न हो।
उत्तरायण का पर्व जो था, अपने चरम पर। और उसके अड़ौस-पड़ौस के सभी लोग अपनी-अपनी पतंगों को ऊँचे से ऊँचा उड़ाने में और दूसरों की पतंगों को काटने में प्रयत्नशील थे। सभी ओर से बस एक ही तो आवाज आ रही थी और वो थी, वो काटा…, वो काटा… और वो काटा।
बच्चों का शोर और वो भी लाउड-स्पीकर्स पर। आकाश को फाड़कर रख देने वाला शोर। क्या बच्चे, क्या बूढ़े और क्या जवान। सब के सब मस्त थे, बस अपने आप में, अपनी धुन में और अपने आकाश में। कोई पतंगों को उड़ाने में, तो कोई पतंगों को काटने में, तो कोई कटी हुई पतंगों को लूटने में।
और कुछ लोग तो कुर्सी पर या फिर धरती पर ही अपनी चटाई या कम्बल पर बैठकर सूर्य के कोमल प्रकाश को अपने रोम-रोम में आत्मसात करने का प्रयास कर रहे थे। उत्तरायण का पर्व जो था, देवी-देवताओं का प्रभात-काल और भगवान भास्कर की उपासना का मंगलमय, मनभावन पावनपर्व, उत्तरायण।
हाँ, आज के दिन की ही तो प्रतीक्षा थी, कुरुक्षेत्र में युद्ध के मैदान पर, शर-शैय्या पर लेटे हुये, इच्छा-मृत्यु के धनी, गंगा-पुत्र भीष्म पितामह को। आज ही के दिन तो भगवान सूर्य नारायण, दक्षिणायन से उत्तरायन में प्रवेश करते हैं।
और यही कारण था कि गंगा-पुत्र भीष्म पितामह ने भी उत्तरायण के पुनीत-पावन पर्व पर ही अपने पंचतत्व निर्मित नश्वर मानव शरीर को त्यागना उचित समझा। और इसीलिये तो आज का दिन पूजा-पाठ, भजन-पूजन, दान-पुण्य, ध्यान-योग और प्राणायाम आदि के लिये विशेष महत्व रखता है।
यूँ तो भोजन और भजन दोनों ही एकान्त में उत्तम माने जाते हैं। पर आज तो भोजन और भजन दोनों ही, अपने भगवान भास्कर के सान्निध्य में, नीले आकाश के तले, दिन के उजाले में, टैरस के ऊपर, सबके साथ और सबके सामने हो रहे हैं।
कहीं ऊंधियु-जलेबी है, तो कहीं गांठिया, पापड़ी, फाफड़ा, पात्रा, समोसा, मसाला-कचौड़ी, कांधा-कचौड़ी और आलू-बेसन के पकौड़े हैं। और कहीं मरी-खम्मण, नायलोन-खम्मण, खम्मणी, ढोकला, सेन्डविच-ढोकला और फुलवड़ी के साथ चटकारेदार बेसन की कढ़ी-चटनी है तो कहीं तिल-पापड़ी और तिल के लड्डू के साथ सींग-चना, ममरा, खाखरा, थेपला और मठिया। दालबड़ा और मेथी के गोटे की तो बात ही कुछ अलग है। और कहीं सूखे-मेवे, काजू, किशमिश, पिस्ता, बादाम, अखरोट और अंजीर हैं।
आज पूरे दिन छत पर जो रहना है इसलिये तो ये सब कुछ जरूरी भी है। आज के दिन सभी लोग अपना अधिक से अधिक समय अपने भगवान भास्कर के सान्निध्य में ही गुजारना चाहते हैं। भगवान भास्कर के कोमल प्रकाश की ऊर्जा-युक्त किरणों को अपने रोम-रोम में आत्मसात कर, अपना तन और मन ही नहीं अपितु अपना सारा जीवन ही ऊर्जा-युक्त निर्मल और पावन बनाना चाहते हैं।
और ऐसे रोमांचक, मंगलमय, पावन पर्व के मनभावन वातावरण में पाखी के प्रिलिम ऐग्जामस्।
थोड़ी ही देर बाद, फिर से पढ़ने का मन बनाकर, पाखी टैरस से नीचे उतर ही रही थी कि उसके पीछे ‘थप्प’ की एक जोरदार आवाज हुई और वह चौंक पड़ी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक चीख-सी निकल कर रह गई थी उसकी। अरे…रे…, हाय…, अरे ये क्या…, अरे ये क्या हुआ।
एक छोटी-सी मासूम चिड़िया और वह भी खून से लथपथ, घायल अवस्था में, पाखी के पीछे, आकाश से छत पर आ गिरी थी और असहाय बेदम-सी फड़फड़ा रही थी वह। शायद एक पंख ही कट गया था उसका, पतंग के तेज धागे से।
और कटा हुआ वह पंख, कटी-पतंग सा उड़ता-उड़ता, कहाँ पर जा गिरा होगा, यह तो बता पाना बेहद मुश्किल होगा। पर हाँ, बेचारी बेदम अबोली भोली घायल ‘पर-कटी चिड़िया’, यहाँ पाखी के घर की छत पर पड़ी-पड़ी तड़प तो जरूर ही रही थी। और उसके आस-पास बिखरा पड़ा था खून ही खून।
शायद अपनी जिन्दगी की अन्तिम साँसें गिन रही थी वह। एक तो पंख के कटने की कष्टदायक वेदना और दूसरे इतनी ऊँचाई से गिरने की असहनीय चोट। दोनों ही उसे यमपुरी तक पहुँचाने के लिये पर्याप्त थे।
एक क्षण के लिये तो पाखी कुछ सोच भी न पाई थी कि अब क्या करे वह। और दूसरे ही क्षण उसने खून से लथपथ, फड़फड़ाती हुई, उस मासूम ‘पर-कटी चिड़िया’ को अपने हाथों में उठा लिया और फिर अपने दुपट्टे से उसके खून को पोंछते हुये, तेज गति से वह टैरस से नीचे उतर आई।
उसने मम्मी को जल्दी से हल्दी लाने को कहा। घाव पर हल्दी लगाने से खून का रिसाव तो थोड़ा-बहुत कम हो गया था पर, पर कटने की वेदना को तो चिड़िया ही जाने।
मम्मी, मैं डॉक्टर अंकल के पास जा रही हूं। ऐसा कहकर वह, घायल ‘पर-कटी चिड़िया’ को अपने हाथों में लिये हुये, दौड़ पड़ी थी अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने की ओर।
डॉक्टर अंकल, उसकी क्लास-मैट पलक के पापा और उसके पापा के बचपन के जिगरी दोस्त, डॉक्टर गौरांग पटेल।
पाखी और पलक दोनों एक ही क्लास में साथ-साथ पढ़ते थे। दोनों पक्के दोस्त भी थे और एक ही सोसायटी में रहते भी थे। पाखी पढ़ने में नम्बर वन तो पलक गेम्स-स्पोर्टस् में नम्बर वन। और दोनों की दोस्ती भी थी स्कूल में नम्बर वन।
सभी लोग इन दोनों की दोस्ती का उदाहरण दिया करते थे और कहते भी थे कि दोस्ती हो तो पाखी और पलक जैसी। बिलकुल दूध और पानी जैसी दोस्ती, पूर्ण-समर्पित दोस्ती। एक दूसरे के लिये जान देतीं थीं, दोनों सहेलियाँ।
कभी-कभी मतभेद भी होता था दोनों में, पर मनभेद तो कभी भी नहीं। और ऐसी ही दोस्ती थी पलक के पापा और पाखी के पापा की भी। दोनों बचपन के जिगरी दोस्त जो ठहरे। उनका बचपन भी साथ-साथ ही गुजरा था। साथ-साथ ही पढ़े-लिखे, खेले-कूदे और बड़े हुये और अब तो रहते भी साथ-साथ ही हैं, एक ही सोसायटी में पास-पास।
पाखी के हाथों में खून से लथपथ घायल चिड़िया को देखते ही डॉक्टर अंकल को सब कुछ समझने में देर न लगी और उन्होंने शीघ्र ही नर्स-स्टाफ की सहायता से घायल चिड़िया के उपचार की उचित व्यवस्था की। डॉक्टर गौरांग पटेल के द्वारा हर सम्भव आधुनिक उपचार किया गया था घायल चिड़िया का।
घायल, बेहोश और बेदम चिड़िया, इलाज के लगभग दो-ढाई घण्टे के बाद जब फड़फड़ाई थी, तब कहीं जाकर डॉक्टर अंकल, नर्स-स्टाफ और पाखी ने चैन की साँस ली थी। सभी लोग अपार खुशी का अनुभव कर रहे थे।
सबका मानना था कि अगर पाखी शीघ्रता के साथ घायल चिड़िया को लेकर अस्पताल तक न पहुंची होती तो शायद उसे निराशा ही हाथ लगी होती। अनेक व्यक्ति दुःखी भी हुये होते और सबसे अधिक तो शायद पाखी ही।
दो दिन तक घायल चिड़िया की दवाखाने में ही दवा-दारू और देखभाल की गई। डॉक्टर अंकल और नर्स-स्टाफ के अथक परिश्रम और प्रयास के परिणामस्वरूप ही चिड़िया को बचाया जा सका। पर उसके देखभाल, विश्राम और इलाज की तो अभी भी आवश्यता थी ही।
और जब तक उसके रहने, खाने-पीने की कोई सुरक्षित, संतोषजनक और उचित व्यवस्था न हो जाये तब तक तो उसे अस्पताल में ही, डॉक्टर अंकल और नर्स-स्टाफ की देख-रेख में रखना उचित समझा गया।
अस्पताल में भी सभी लोगों की सहानुभूति और दया की पात्र थी वह और इस घटना के प्रति सभी को अफसोस भी था।
चलो, बेचारी चिड़िया तो बच गई और पाखी ने उसे बचा भी लिया। पर अब ये बेचारी मासूम ‘पर-कटी चिड़िया’, कैसे जी पायेगी अपनी जिन्दगी के शेष दिन और कैसे काट पायेगी ये, अपनी जिंदगी की शेष भयावह रातें।
कोई पैसे वाली बड़ी आसामी रही होती, तो पैसे के पंख लगाकर उड़ लेती। कोई चार्टर-प्लेन ही ले लेती और अपने घर पर ही लैंडिंग की सुविधा भी बना लेती। आगे-पीछे घूमने वाले हजारों नौकर-चाकर भी मिल जाते इसको। और अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को भी बड़े ऐश और आराम के साथ पसार भी कर लेती यह। और इतना ही नहीं, शान और सम्मान के साथ जी भी लेती।
पर इसका तो दूर-दूर तक, पैसे से कोई लेना-देना भी नहीं है। और ये बेचारी, ये बेचारी तो ये भी नहीं जानती कि क्या होता है पैसा, कैसा होता है पैसा, कहाँ से आता है पैसा, कैसी होती है पैसे की ये चकाचौंध दुनिया और कैसी होती है पैसे की शक्ति।
इसे तो ये भी नहीं मालूम कि पैसे की महिमा कितनी अपरम्पार होती है। ये तो ये भी नहीं जानती कि पैसा ही तो आज का खुदा है इस संसार में, जिसके पीछे सारी दुनिया ही पागल-सी दौड़ती फिरती है।
और आज, आज की तारीख में ना तो इसके पास पैसा ही है, ना ही इसके पास कहीं से पैसा आने वाला है और ना ही इसे कोई पैसा देने वाला है। और पैसे के बिना तो ‘कृत्रिम-पंख’ भी नहीं लगवा सकती है ये बेबस, बेचारी ‘पर कटी चिड़िया’। तो फिर कैसे उड़ सकेगी ये बेचारी अपने आकाश में, बिना पंख के।
कृत्रिम-पंख के निर्माण के क्षेत्र में, यदि पैसा बनाने की थोड़ी बहुत भी संभावनाएं रही होती, तो वैज्ञानिकों ने और उद्योगपतियों ने जरूर ही इस क्षेत्र में प्रयास किया होता और एक से एक अच्छे कुशल अनुभवी वैज्ञानिक और आविष्कारक ही नहीं, बल्कि हजारों जानी-मानी हस्तियां और कम्पनियां भी आ चुकी होतीं, इस ‘कृत्रिम-पंख’ के निर्माण के क्षेत्र में अब तक।
देशी-विदेशी हजारों कम्पनियों की तो होड़ ही लग गई होती, अपने-अपने आकर्षक, लुभावने प्रोडक्टस् को लॉन्च करने के लिये और वह भी स्पेशल डिस्काउंट ऑफर के साथ, जीरो परसेंन्ट इन्ट्रेस्ट रेट पर और साथ में ढेरों लुभावने, मनभावन गिफ्ट आर्टिकिलस् तो पक्के।
पर दरिद्रनारायण श्री-क्षय पक्षियों के पास पैसा ही कहाँ होता है, जो लक्ष्मी-उपासक यक्ष-श्री चंचल मानवमन को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। शायद इसीलिये वैज्ञानिकों ने कृत्रिम-पंख के निर्माण और अनुसंधान के क्षेत्र में न तो कभी कोई जिज्ञासा ही दिखाई और ना ही कभी कोई ध्यान ही दिया।
स्वार्थी, चंचल, चालाक, अहंकारी, मानव-मन ने, मोम के कृत्रिम-पंख बनाकर, आकाश की ऊंचे से ऊंची ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है, यह दिव्यज्ञान तो प्राप्त कर लिया इन अबोले भोले पक्षियों से, इनके समाज से।
लेकिन जिनसे प्रेरणा प्राप्त की और जिनका अनुसरण कर, आकाश की ऊंचे से ऊंची ऊंचाइयों तक पहुंचने का दिव्य-ज्ञान प्राप्त किया, उसी समाज के पर-कटे और अंग-भंग पक्षियों के समाज के बारे में कुछ भी तो नहीं सोचा, स्वार्थी, चंचल, चालाक मानवमन ने, मानव-समाज ने।
स्वार्थी, मानवमन ने तो अपने गुरुश्री को, गुरु-दक्षिणा तक भी देना उचित नहीं समझा। एकलव्य ने तो अपने परमपूज्य गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर, अपने दाहिने हाथ का अँगूठा ही काटकर समर्पित कर दिया था अपने गुरुश्री के पावन-चरणों में। और गुरु-भक्ति की पावन-परम्परा में एक ऐसा वन्दनीय और अभिनन्दनीय उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था, जिसे इतिहास युगों-युगों तक न भुला सकेगा।
कितना अच्छा हुआ होता, यदि मानव समाज ने भी गुरु-भक्ति का कोई अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत किया होता और गुरु-दक्षिणा के नाम पर कृत्रिम-पंख और कृत्रिम-अंगों को बनाने वाला कोई छोटा-मोटा संस्थान ही खोल दिया होता।
और उसमें पर-कटे, अंग-भंग पक्षियों के लिये कृत्रिम पंख और अन्य कृत्रिम अंगों के प्लांटेशन की सभी सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध करा दी होतीं या फिर कोई चैरीटेबल ट्रस्ट ही खोल दिया होता तो अबोले भोले पक्षियों का ये समाज, युगों-युगों तक देवतुल्य मानव का सदा-सदा के लिये ऋणी हो गया होता।
और तब, निश्चय ही गुरु-भक्ति के पावन-सोपान में एकलव्य का नाम भी फीका पड़ गया होता और मानव का यह गौरवमयी दैवीय परजनहिताय सुकार्य मानव इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम-अक्षरों में लिखा गया होता।
पर, परोपकार का मुखौटा लगाकर घूमने वाले इन स्वार्थी-वैज्ञानिकों के स्वार्थी-मन में, कृत्रिम पंख और कृत्रिम अंग बनाकर, अबोले भोले पक्षियों को नई जिन्दगी देने की बात, इनके गले से ही न उतर पाई। और इसीलिये इस दिशा में कोई भी