आर्ट्स फैकल्टी: Fiction, #1
By Ashish Kumar
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About this ebook
मानविकी शब्द आपने सुना है? अगर सुना है, तो आप किस्मत वाले हैं। अंग्रेजों ने एक समय कई उद्योग लगाए। उनमें से एक बड़ा उद्योग था शिक्षा का। जहाँ लोगों को इतना ज्ञान दिया जाता कि लोग नौकर की नौकरी कर सके। उनका मूल उद्देश्य विवेक विकसित करना नहीं था। समय के साथ ये उद्योग फला फूला और इसने हमें आज तीन स्ट्रीम दिए साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स। साइंस और कॉमर्स तो बाजारवाद के स्तंभ पर खड़ा रहा पर आर्ट्स जिसे 'मानविकी' या 'कला' कहते है। यह विषय आज विलुप्त होने के कगार पर है। इसपर न ध्यान दिया जाता है और न ही जरूरी समझा जाता है। इसे केवल यूपीएससी नामक परीक्षा ने बचाए रखा है। वरना ये तो कब का गुजर गया होता। आर्ट्स ऐसा विषय है जहाँ आपका जाना खतरे की निशानी है। यहाँ आपको समाज के ताने (आर्ट्स लिया है? आर्ट्स क्यों? कुछ नहीं किया बस बीए लिए बैठा है?) सुनने को मिल जाएंगे। समाज का निर्माण करने वाले विषय को खुद का अस्तित्व बचना मुश्किल हो गया। इस विषय ने आज तक प्लेसमेंट का नाम नहीं सुना। बुद्धिजीवियों का मानना है कि विषय आर्ट्स है तो प्लेसमेंट तो उसकी कला पर निर्भर करता है। इस विषय में बड़ी जिल्लत है भई। अगर आप इसमें हारे तो पूरी जिम्मेदारी आपकी। लेकिन इस विषय को कई पागल ने लिया और बिना प्लेसमेंट के निभाया। और वो कहलाये कलाकार। ये कहानी कलाकारों की आर्ट्स वालों की है।
आर्ट्स फैकल्टी की कहानी उन्हीं किरदारों की देन है। जिन्हें हम सालों से जानते है। जब हम बच्चे होते है तो हमारे अंदर गजब का जोश रहता है। बैठे बैठे ही कह देते है कि अगर हम नेता बने तो बिजली, पानी, भ्रष्टाचार की समस्या से मुक्त कर देंगें। ये करेंगें वो बनेंगें। फिर हम बड़े होते है। और हमारे अंदर का भूत उतर जाता है। हम इसी दुनिया के गुलाम बन जाते है। जहाँ रास्ते मंजिल कोई दूसरा तय करता है। बस आपको बेवकूफ बनाया जाता है कि जो कुछ आप कर रहें है वो आपकी पसंद है। लेकिन ये पसंद कभी आपकी थी ही नहीं। वह तो आपको अब तक नहीं पता। बचपन की गहराईयों में कभी झाँक कर देखिएगा तो आपको आपकी मंजिल मिल जाएगी।
बस इतना ही। अब ये कहानी आपकी….
आशीष कुमार
9 जून 2021
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आर्ट्स फैकल्टी - Ashish Kumar
Authors Tree Publishing
KBT MIG - 8, Housing Board Colony
Bilaspur, Chhattisgarh 495001
Published ByAuthors Tree Publishing 2021
Copyright © Ashish Kumar 2021
All Rights Reserved.
ISBN: 978-93-91078-61-4
MRP: Rs.250/-
This book has been published with all reasonable efforts taken to make the material error-free after the consent of theAuthor. No part of this book shall be used, reproduced inAny manner whatsoever without written permission from theAuthor, except in the case of brief quotations embodied in critical Articles and reviews. The Author of this book is solely responsible and liable for its content including but not limited to the views, representations, descriptions, state-ments, information, opinions and references [content
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आर्ट्स फैकल्टी
आशीष कुमार
धन्यवाद करता हूँ...
माँ को, जो 24 घंटे का ज्ञान है...
शिक्षक को, जो आगे का अभियान है...
और पिता को, जिनके कंधे पर यह सारा बोझ महान है...
बहन भाई जो मेरे सबसे अच्छे दोस्त है...
कन्हैया आदित्य और आनंद को:- जिसने अपने अनुभव से मेरी मदद की।
बाकी सभी दोस्तों को जिसने मुझे अपनी जिंदगी के आयाम दिए।
आखिर में दो शहर...
पहला चतरा, जिसने मेरी परवरिश की।
दूसरा बनारस, जिसने मुझे जीना सिखाया।
कुछ बातें
मानविकी शब्द आपने सुना है? अगर सुना है, तो आप किस्मत वाले हैं। अंग्रेजों ने एक समय कई उद्योग लगाए। उनमें से एक बड़ा उद्योग था शिक्षा का। जहाँ लोगों को इतना ज्ञान दिया जाता कि लोग नौकर की नौकरी कर सके। उनका मूल उद्देश्य विवेक विकसित करना नहीं था। समय के साथ ये उद्योग फला फूला और इसने हमें आज तीन स्ट्रीम दिए साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स। साइंस और कॉमर्स तो बाजारवाद के स्तंभ पर खड़ा रहा पर आर्ट्स जिसे 'मानविकी' या 'कला' कहते है। यह विषय आज विलुप्त होने के कगार पर है। इसपर न ध्यान दिया जाता है और न ही जरूरी समझा जाता है। इसे केवल यूपीएससी नामक परीक्षा ने बचाए रखा है। वरना ये तो कब का गुजर गया होता। आर्ट्स ऐसा विषय है जहाँ आपका जाना खतरे की निशानी है। यहाँ आपको समाज के ताने (आर्ट्स लिया है? आर्ट्स क्यों? कुछ नहीं किया बस बीए लिए बैठा है?) सुनने को मिल जाएंगे। समाज का निर्माण करने वाले विषय को खुद का अस्तित्व बचना मुश्किल हो गया। इस विषय ने आज तक प्लेसमेंट का नाम नहीं सुना। बुद्धिजीवियों का मानना है कि विषय आर्ट्स है तो प्लेसमेंट तो उसकी कला पर निर्भर करता है। इस विषय में बड़ी जिल्लत है भई। अगर आप इसमें हारे तो पूरी जिम्मेदारी आपकी। लेकिन इस विषय को कई पागल ने लिया और बिना प्लेसमेंट के निभाया। और वो कहलाये कलाकार। ये कहानी कलाकारों की आर्ट्स वालों की है।
आर्ट्स फैकल्टी की कहानी उन्हीं किरदारों की देन है। जिन्हें हम सालों से जानते है। जब हम बच्चे होते है तो हमारे अंदर गजब का जोश रहता है। बैठे बैठे ही कह देते है कि अगर हम नेता बने तो बिजली, पानी, भ्रष्टाचार की समस्या से मुक्त कर देंगें। ये करेंगें वो बनेंगें। फिर हम बड़े होते है। और हमारे अंदर का भूत उतर जाता है। हम इसी दुनिया के गुलाम बन जाते है। जहाँ रास्ते मंजिल कोई दूसरा तय करता है। बस आपको बेवकूफ बनाया जाता है कि जो कुछ आप कर रहें है वो आपकी पसंद है। लेकिन ये पसंद कभी आपकी थी ही नहीं। वह तो आपको अब तक नहीं पता। बचपन की गहराईयों में कभी झाँक कर देखिएगा तो आपको आपकी मंजिल मिल जाएगी।
बस इतना ही। अब ये कहानी आपकी....
आशीष कुमार
9 जून 2021
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1. एडमिशन भगवान भरोसे
X
श
हर में सब्जी लाना एक परंपरा है। और इस परंपरा का उत्तराधिकारी अगर आप होने लगे तो समझ लीजिए आप बड़े होने लगे। घर की जिम्मेदारी आपकी होने लगी। लेकिन बच्चे इस तुरंत होने वाले परिवर्तन पर पूरा फिट नहीं बैठते। अभी दुनिया देखने की उम्र में दुनिया बसाने की कला सीखना उन्हें पसंद नहीं। वे तो अपने अनुसार फिल्मी अनुभव से दुनिया बसाना चाहते है। जहां प्यार हो, तकरार हो, थोड़ी ट्रेजडी हो, कॉलेज की दुनिया हो, गोआ के सपने हो। यूरोप की बातें हो, क्योंकि वहाँ तो सपने में भी नहीं पहुँच सकते।
अतुल उन्हीं में से एक है जिसने किशोर कुमार के गानों से आठवां, कुमार सानू से नौवाँ, और हिमेश रेशमिया के गानों से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। परीक्षा में अंक उतने ही आए थे; जितने में घर पर डांट, दोस्तों से बात और किसी कॉलेज में एडमिशन हो जाए।
अतुल तीन महीने के कड़े प्रयासों के बाद भी साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स के रहस्य को नहीं समझ पाया था। दसवाँ ही ठीक था सब विषय पढ़ना था। साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स का लफड़ा तो नहीं था। इंटर में स्ट्रीम चुनना शादी में लड़की चुनने जैसा होता है कि आगे भविष्य कैसा होगा। किसके साथ जिंदगी संवर जाएगी और किसके साथ बस नाम खराब होगा। इस विषय चयन में अतुल के पापा का मानना था कि बेटे को साइंस का चयन करना चाहिए, क्योंकि इस लड़की के पास धन दौलत है परिवार का अच्छा बैकग्राउंड है और सबसे जरूरी बात उसके ऊपर सेल्फ इंडिपेंडेंट वूमेन का टैग लगा हुआ है। कॉमर्स का चयन किया तो भविष्य में घर गृहस्थी की चिंता दूर हो जाएगी। अतुल सीधा पापा के धंधे पर बैठेगा। लेकिन अगर उसने आर्ट्स ले लिया तब तो हाय तौबा; समाज में नाक कट जाएगी। आर्ट्स को तो अतुल के पापा तवायफ़ का कोठा समझते थे जहाँ जाने मात्र से ही नाम खराब होता है। इन सारी घटना के कालक्रम की बात करें तो ये वो वक्त था जब हनुमान जी के लॉकेट के जगह अब इयरफोन ने ले ली थी और मोबाइल में सिम के बगल में चिप लग चुकी थी। 'यहाँ गाना डाउनलोड करके चिप में भरा जाता है' इस टैगलाइन के साथ कितनों ने दुकान डालकर अपना रोजगार सुनिश्चित किया था।
ये कहानी है चंदनपुर शहर की। यहाँ सड़क पर चलान काटने पुलिस भी तभी आती है जब सरकार कर्ज़ में चली जाए। बाज़ार में बाज़ार तभी लगता है जब बाजार का दिन आए । गाँव और शहर के बीच कहीं ठहरता है ये चंदनपुर। सरकार यहाँ इस बात पर परेशान रहती कि इस योजना को ग्रामीण में डाले या शहरी में।
यही कारण है कि इस शहर ने तरक्की का मुंह नहीं देखा। शहर में गड्ढों की सड़क, बिना डॉक्टर के अस्पताल, और गिने चुने सरकारी दफ्तर में लोग। यही यहाँ की कहानी है। अंग्रेजों ने चंदनपुर को जैसा आज़ाद छोड़ा था वैसा ही आज तक ये शहर है। हाँ, किसी बड़े स्वतंत्रता सेनानी की देन थी जिसने यहाँ राम मनोहर लोहिया कॉलेज खुलवाया। जो अब तक चला आ रहा है । हालांकि इसका भी कारण दूसरा है। अस्सी के दशक में ये चुनाव के लिए जाना जाता था। लोग कहते थे कि लोहिया कॉलेज से जो चुनाव जीत गया। वही अगला विधायक होगा और ऐसा होता भी था। लेकिन एक दफ़ा कॉलेज की चुनावी रैली में गोली क्या चली। अफरा-तफरी मच गई और कॉलेज का चुनाव बंद हो गया। अभी दो साल से युवा छात्रों ने मिलकर चुनाव शुरू करवाया लेकिन अब माहौल पहले जैसा नहीं है। दो साल से एकलौती पार्टी है। जो जीतती आ रही है।
***
ॐ भूर्भुवः स्वः......। मोबाइल की घंटी अब तक आठ बार बज चुकी थी। नींद का धनी अतुल अब तक सपनों में था। नौंवी बार भी अतुल घंटी बर्दाश्त कर लेता पर माँ आ गई।
रे चिंटू..., उठो केतना कड़ा नींद है। उठो कौन फोन कर रहा है बार बार? थैला लो, जाकर सब्जी ले के आओ। उठो।
माँ ने अतुल को हिलाते हुए कहा। माँ ने टेबल पर से फोन उठाया और अतुल के कान के पास रखकर चली गई।
अबकी बार की घंटी से अतुल उठ कर बैठ गया। कॉल सूरज का था। दो कोशिश के बाद भी उसके मोबाइल के टच ने साथ नहीं दिया। फोन उठाने से पहले ही कट गया। ग्यारहवीं बार जब कॉल आया। उसने उठाते हुए कहा, बकलोल हो का बे पचहत्तर बार कॉल करता है। इतना सबेरे कौन मर गया।
कॉलेज जाना है कि नहीं? आज आखिरी दिन है एडमिशन का। भूल गया का। ससुरा ख्याल करा दे रहे है तऽ तुम हमही को गरिया रहा है।
सूरज ने चढ़कर कहा।
क्या आखिरी दिन है? ई एडमिशन पगला देगा यार सूरज। केतना गिन गिन के डॉक्यूमेंट ले जाये कुछ न कुछ घट ही जाता है।
अतुल ने अंगड़ाई भरी आवाज़ में कहा।
हम तो पहले ही बता दिए थे क्या क्या लाना है। तुम ही तो मार्कशीट का फोटोकॉपी भूल गया था।
सूरज ने दोबारा चढ़ कर कहा।
अतुल उठकर बैठ गया।
ज़्यादा बिद्वान नहीं बनो। समझा। जब से ई स्कूल छूटा है जिंदगी अस्त-ब्यस्त हो गया है। रात को नींद नहीं आता है और दिन में कुछ काम नहीं समझ आता। कभी बाबूजी का काम देखो कभी घर का। हमको तऽ ड्यूटी मिल गया है सबेरे सब्जी लाने का। बोलो तो, भोरे-भोरे उठना पड़ता है। और ई मोबाईल तो अलग परेशान किए है टीपते है आँय टिपाता है बाँय।
अतुल ने थैला मोड़ते हुए कहा।
भाई एक दो हज़ार तुम हमसे ले लो। लेकिन ई मोबाइल बदलो। लगाते हैं आज त उठता है दू दिन बाद। मिज़ाज खिसिया जाता है।
सूरज ने कहा।
सब गलती उऽ बगलगीर शिवनरेश शर्मा का है। हमसे चार नंबर ज्यादा का लाया उसका बाप फुरफुरा रहा है। दिनभर दुकान पर बैठकर बेटे को डॉक्टर बनाने का विधि बतियाते रहते है कि देखिए रमानाथ जी ऐसा कीजिए, लड़के को कोटा भेजिए। लखनऊ भेजिए। कलकत्ता भेजिए। उऽ कोचिंग मस्त है वहाँ पढ़ाई अच्छा होता है। दिल्ली में तो सब लड़का बिगड़ जाता है। हम तो कोटा भेजने का तय किये है। यही सब अंड संड बोलते रहते है। बाप हमारे सीधे-साधे उनको भी हम सपने में डॉक्टर दिख जाते है। वो भी आला लगाए हुए।
अतुल ने तल्लीनता से सब्जी की थैली समेटते हुए कहा।
हह... डॉक्टर छोड़ो अतुल पहिले एडमिशन का सोचो। चार स्कूल नाप चुके है एडमिशन का फार्म तक नहीं मिला। आज आखिरी दिन है बे। जल्दी करना वरना वही झंडूबाम कॉलेज में नाम लिखवाना पड़ेगा। समझा। जल्दी तैयार रहना हम नौ बजे तक आ जाएँगे।
सूरज ने कहा।
ठीक है। ठीक है। अच्छा सुनो अपना फटफटिया ले आना। समझा।
अतुल ने प्यार से विनती करते हुए कहा।
काहे बे साइकिल बेच दिया का?
सूरज ने हँसते हुए पूछा।
कॉलेज जा रहे हैं कुछ तो इज्जत का ख्याल करो आने वाली पीढ़ी है हम, भविष्य है। पैदल थोड़े जाएंगे।
अतुल ने तैश में कहा।
हाँ ससुरा, तुमको तो हवाई जहाज चाहिए।
सूरज ने चुटकी ली।
उऽ भी हो जाएगा। अबे जब कमाएँगे तब राजा की तरह रहेंगें। चॉपर से उड़ेंगे। तब तुम्हारा फटफटिया का चीज़ है।
अतुल ने कल्पना में कहा।
सबेरे-सबेरे भाँग खाया है का। ऐसा करो तुम अपना चॉपर से पहुँचो। हम पीछे से आते हैं।
अभी कमाए कहाँ है बे। कमाएंगे तब न उड़ेंगे। हम समय से तैयार रहेंगें। बस, तुम फटफटिया लेकर आना। अच्छा ठीक है अभी हमको सब्जी लेने जाना है बाय.....।
अतुल सब्जी लेने मंडी निकल गया।
***
चंदनपुर को शहर का दर्जा भले था पर इसमें अब तक गाँव का रहन सहन था। शहर में पैसे वालो ने पक्के मकान बना लिए थे। फिर भी कुछ पुराने घर मिट्टी की पकड़ बनाए रखे थे। सुविधा इस शहर में उतनी ही थी जितनी आप इस देश मे कल्पना कर सकते है।
रमानाथ आंगन में सवेरे सवेरे ही नहा धोकर तौलिया लपेटे तुलसी के पिंडा के पास पूजा कर रहे थे। घर वही पुराना-सा था। जिसके केंद्र में आंगन से सारे कमरे का विलय होता था। पूजा के बाद रमानाथ ने टंकी भरने के लिए मोटर चालू किया और बरामदे में खाने के लिए बैठ गए। चार दिन से एक ही आदमी के पास तकादा करते करते परेशान थे। न वो पैसा दे रहा था, न रमानाथ जी का मन शांत हो रहा था। जिसका मुख्य कारण धनतेरस था। बर्तन की दुनिया का इकलौता त्योहार। साल भर सारे दुकान में खरीद बिक्री होती है। लेकिन बर्तन दुकान में दुकानदार खरीदी साल में एक बार ही करता है। कर्ज में चल रहे रमानाथ जी का सहारा अपना दिया हुआ कर्ज था। लेकिन लोग गोल-गोल बतिया कर लग्न के लिए बर्तन ले जाते थे। पर पैसा देते वक्त बेटे को साथ लाते थे। इस तंगी के कारण रमानाथ और कामिनी के बीच कभी कभी झगड़ा भी हो जाता था। पर फिर भी आस सम्भाले रमानाथ का जीवन उसी तरह चल रहा था जैसे इस देश मे बाकियों का चलता है।
अजी सुनती हो.... जल्दी खाना लाओ। दुकान का समय हो गया है।
रमानाथ ने डाइनिंग टेबल के बगल की कुर्सी पर बैठते हुए कहा। गाँव या ऐसे छोटे शहर में डाइनिंग टेबल का कद छोटा ही होता है। वजह, कि इसका उपयोग मेहमान के नाश्ते के लिए भी हो जाता है और खाने के लिए भी।
हाँ लाती हूं।
रसोई के भीतर से कुकर की सीटी के साथ आवाज़ आई।
आज का अखबार देखी है?
रमानाथ ने सीटी की आवाज बंद होते ही पूछा।
अतुल पढ़ रहा था।
कामिनी ने झटके से उत्तर दिया।
हिंदी वाला अखबार क्या पढ़ता है पढ़े न अंग्रेजी वाला। तब न माने।
रमानाथ ने तैश में कहा और अतुल को आवाज़ दिया।
अतुलऽऽअतुल.... ए चिंटू कहाँ गया रे अखबार ले आओ। बाप का एक ही तो किताब बचा है कि देश दुनिया जानते है वरना कौन है बताने वाला।
रमानाथ ने अतुल को सुनाते हुए कहा।
अतुल दौड़ कर अखबार ले आया। जानता था जितनी देर होगी उतने ही किस्से सुनने मिलेंगे अपनी जिंदगी पर। अतुल अखबार लिए झट से पहुँचा और चुपचाप रमानाथ के बगल में खड़ा हो गया।
क्या बात है एडमिशन हो गया?
रमानाथ ने अखबार खोलते हुए पूछा।
नहीं पापा, वो कल मार्कशीट की फोटोकॉपी छूट गई थी। बस, उसी को ले जाना है।
अतुल ने सिर झुकाकर कहा। जैसे कोई निर्दोष को सजा होने वाली हो।
आज जेईई मेन्स का परिणाम आया था। सारे टॉपर की तस्वीर अखबार के पहले पन्ने पर छपी थी। देखकर रमानाथ ने पूछा, ये देखो यहाँ सब आईआईटी जाने के लिए तैयार है और साहब को बस इंटर में एडमिशन करवा लेना है।
तो क्या करें पापा।
अतुल ने बुदबुदाते हुए कहा, रमानाथ ने सुन लिया। भीतर ही भीतर क्रोध पीते हुए बोले, अरे! कोटा जाओ, दिल्ली जाओ। तैयारी नहीं करोगे तो कैसे नौकरी करोगे? बैठ के खाने से तो सोने का महल ढह जाता है। ई प्रतिस्पर्धा का दौर है। अभी से नहीं लगोगे तो कैसे होगा?
पहले एडमिशन तो कर लेने दीजिए पापा। उसके बाद महल ढहाने का सोचेंगे।
अतुल ने इस बार बेबाकी से कहा। अतुल अपने पापा से पाँचवाँ छठा तक बहुत डरता था लेकिन बाद में दोस्तों के साथ-साथ वह भी मुँहफट हो गया। सही बात दो पल के लिए बर्दाश्त कर ले, पर गलत तो उसके गले नहीं उतरती थी।
हाँ तुम एडमिशन करवाते रह जाओ। शर्मा का बेटा देखना तुमसे आगे निकल जायेगा। परीक्षा देते ही निकल गया कोटा। कभी तो नाम ऊंचा करो बेटा कि शर्मा को हम सुनाए कि कैसे करनी चाहिए पढ़ाई।
यहाँ जितनी उम्मीद से कोटा का नाम लेते हैं ना पापा। कि फलना का बेटा कोटा में है। तो आप नाम नहीं लेते हैं लड़के को डिप्रेशन देते हैं। तो क्या चाहते है कि लाख डेढ़ लाख कोटा जाकर डूबा दे। नहीं करनी है तैयारी आपके कहने से आर्ट्स की जगह साइंस ले रहे है न।
अतुल ने बहुत से कोटा लौटे मुसाफ़िरों के अनुभव को समेटते हुए कहा।
आर्ट्स का नाम तो लेना ही मत। उ लफूवा विषय है। जिंदगी बर्बाद कर देगा। आर्ट्स वही लेता है जो कुछ नहीं करता है।
रमानाथ ने घिसे पिटे डायलॉग झाड़ते हुए कहा।
हाँ हाँ तो ले रहे है न साइंस खुश है न आप।
अतुल ने एहसान जताते हुए कहा।
हाँ बहुत खुश है कम से कम मेरा बेटा गड्ढे में तो नहीं जा रहा है। और हाँ कोई कोचिंग ज्वाइन कर लो। जब तक प्रतिस्पर्धा के लिए मैदान में कदम नहीं रखेगा तो जीतेगा कैसे?
रमानाथ ने इस बार शालीनता से कहा। क्योंकि उनको अखबार में कहीं बर्तन दिख गया था। सवाल करके रमानाथ अखबार के पन्नों में उलझ गए। अतुल चाहता तो था पर कुछ बोल नहीं पाया।
पापा हमको मोबाइल चाहिए।
अतुल ने दो मिनट बाद मौन तोड़ा। रमानाथ अभी अतुल के भविष्य की चिंता कर रहे थे और अतुल अपने मोबाइल की।
काहे बाबू है तो...।
रमानाथ क्रिकेट वाले पन्ने तक पहुंच गए।
वो खराब हो गया है। कितना भी उठाते है उठता ही नहीं हरा वाला बटन बिगड़ गया है। धनतेरस भी आ रहा है। हमको मोबाइल मिल जाता तो...।
अतुल ने मोबाइल दिखाते हुए हक से कहा।
तो राजेश को दिखा दो। उसका पैसा बाकी है। मुफ़्त में ठीक कर देगा।
रमानाथ ने कहा और कामिनी को दोबारा आवाज़ दिया।
नहीं ठीक हो रहा है तब न कह रहे हैं। चार दिन काम करता है फिर बिगड़ जाता है। अबकी बार हमको टच वाला मोबाइल चाहिए।
अतुल ने जिद्द पकड़ते हुए कहा।
नहीं मिलेगा। पहले अच्छे से कुछ कर लो तब। मोबाईल खाली बिगड़ने का साधन है। काम क्या है टच मोबाइल का। वही चिप में गाना लोड करके सुनने का। नहीं मिलेगा मिसरा का लड़का को देखो अभी भी नोकिया का मोबाइल रखे हुए है।
रमानाथ ने बाप वाला जिद्द पकड़ते हुए कहा।
लेकिन हमको चाहिए। बात करने में दिक्कत होता है।
अतुल ने खिसियाकर कहा।
नहीं मिलेगा।
रमानाथ का नाश्ता आ गया वो नाश्ते में मग्न हो गए। अतुल जवाब के इंतजार में रुका कि कहीं पापा मोबाइल के लिए हाँ कर दे। पर उसे पापा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
अतुल अपने कमरे में आ गया। उसका मिज़ाज बिगड़ गया था। 'कहते थे कि दसवाँ पास करो तब ले देंगें। आठवाँ से चला रहे है। अब कब ले देंगें । जिस दिन कमाएंगे न महंगा वाला फोन लेंगें। मजाक नहीं पापा देखिएगा। अतुल आधे घंटे तक भुनभुनाता रहा और फिर नहाने चला गया।
***
नौ बजते ही सूरज अतुल के घर के बाहर आ गया। और दनादन हॉर्न बजाने लगा। अतुल अंदर अभी पाँव में जूता डाल रहा था, हड़बड़ा गया।
आ रहे है।
अतुल ने घर के भीतर से चिल्ला कर कहा। पर सूरज सुनने कहाँ वाला था वो बस साइलेंसर के गरज पर हॉर्न मार रहा था। उधर, बाहर रमानाथ खिसिया रहे थे, कैसा लोफर दोस्त है इसका। रोज मेरा बेटा को बिगाड़ने आ जाता है। इधर, अतुल बिजली की रफ़्तार से तैयार होकर बाहर आ गया।
केतना हॉर्न मारता है मर्दे। एक बार में हमको सुनाई देता है। मोहल्ला को बताना जरूरी है।
अतुल ने तुनककर कहा और झट से सूरज की फटफटिया पर बैठ गया।
सूरज की फटफटिया शहर की सबसे पुश्तैनी फटफटिया में से एक थी। इतनी कबाड़ की उसके पुर्जे दिखते थे। उसके इंजन से लेकर साइलेंसर तक आवाज़ करती थी। और साइलेंसर से ऐसा काला धुँआ निकलता था जैसे गाड़ी न हो खुद थर्मल पावर प्लांट हो। न गाड़ी का नंबर, न कागज़, पुलिस भी चेकिंग के वक्त उसे छोड़ देती थी कि इसको क्या ही पकड़े। हाँ, पेट्रोल ज्यादा खाती है। तो खाये। पुरखों की संपत्ति संभालने के लिए