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Bharat Bhavishya
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Bharat Bhavishya

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सत्य और न्याय की स्थापना, संरक्षण और संवर्धन के लिए ही देश के संविधान ने विभिन्न संस्थाओं को नैतिक और कानूनी अधिकार दिये हैं। इन संस्थाओं के सुगम संचालन के लिए ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोगों को पदासीन किया गया है। संविधान का उद्देश्य अन्तिम मानव तक न्यायोचित, मानवीय अधिकारों को पहुंचाना है। लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया है तथा अपने विरुद्ध होते अन्याय से अधिकारियों को अवगत कराते हुए न्याय की मांग की है, परन्तु लम्बी चलती न्याय-व्यवस्था, खर्चीली प्रक्रिया और असंवेदनशील व्यवहार ने न्याय के प्रति समाज को निराश किया है। आमरण अनशन, व्रत और आत्महत्या को बाध्य व्यक्ति यदि न्याय पाने में सफल नहीं हो सका है, तो क्या हमारी व्यवस्था लांक्षित नहीं होती है?
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789352966356
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    Bharat Bhavishya - Ashok Kumar Pandey

    में

    आत्मकथ्य

    समझ में नहीं आता, अपनी बात कहाँ से शुरू करूँ? पीड़ा और चोटों की कसक शरीर के कभी इस अंग से उठती है तो कभी किसी दूसरे अंग से, फिर भी बात तो कहनी ही है।

    पिता स्वतंत्रता-संग्राम में लगकर, समाज-सेवा के लिए समर्पित हो गये। देश-सेवा, भ्रष्टाचार मुक्त नागरिक जीवन और नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष, उनकी जीवनचर्या बन गयी। बिजली, पानी, राशन, भ्रष्टाचार, गरीबों को न्याय जैसे मुद्दों पर, वे रात-रात भर, लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिला अधिकारी आदि को लिखते और जब उनकी चिट्ठियों पर शीघ्रता से कार्यवाही होती और सम्बन्धित पक्षों को न्याय मिलता, तो उनके चेहरे पर खजाना पा लेने जैसी अपार प्रसन्नता होती और देश की न्याय व्यवस्था के प्रति उनका विश्वास और गहरा हो जाता। कभी-कभी जब पीड़ित को या आम नागरिकों को अधिकार मिलने में विलम्ब होता अथवा उनके पत्रों पर कार्यवाही नहीं होती तो अकेले ही कभी गाँधी जी की मूर्ति के नीचे या कभी किसी भी चौराहे पर अनशन और आमरण-अनशन पर बैठ जाते थे। तत्कालीन प्रशासन की संवेदनशीलता ही थी कि तुरन्त ही प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करा दिया जाता था। पिता जी सदैव देश की न्याय व्यवस्था में गहरी आस्था रखते थे और हमें भी यही समझाते थे।

    पिता जी के इस विश्वास ने मेरे अन्दर भी उन्हीं संस्कारों का पोषण किया। यह बात अलग है कि मैं उनकी भाँति समाज-सेवा में संलग्न नहीं हुआ किन्तु आदर्श, सच्चाई, ईमानदारी और सेवा-भाव के मार्ग पर चलने की आदत मेरी भी हो गयी। युवावस्था में रोजगार की तलाश करते-करते स्थानीय नगरपालिका के जल-कल विभाग और प्रकाश विभाग में दैनिक वेतन पर नियुक्त हो पाया। कई बार पिता जी से सहयोग की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उन्होंने हर बार एक ही जवाब दिया- ‘अपनी योग्यता एवं ईमानदारी पर विश्वास रखो’। मैं आज भी मानता हूँ कि यदि वे चाहते तो मुझे बहुत सरलता से किसी सामान्य स्थायी पद पर नियुक्त करवा सकते थे, क्योंकि अधिकारी उनका बहुत सम्मान करते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। समस्या उस समय और बड़ी हो गयी जब नौकरी के दौरान मुझसे फर्जी बिल-बाउचर्स पर हस्ताक्षर कराने का प्रयास होने लगा और मेरे द्वारा बार-बार इन्कार किया जाने लगा। मुझे लगता था कि मेरी ईमानदारी पर अधिकारी मेरा समर्थन करेंगे लेकिन हुआ उसका उल्टा। मुझे तत्कालीन प्रशासनिक अधिकारी द्वारा नौकरी से हटा दिया गया। मेरे जीवन पर यह आघात था जिसने मेरे परिवार की भरण-पोषण की समस्या खड़ी कर दी। परिवार में एक बेटा, एक बेटी, पत्नी हम चार लोग थे। पिता जी भी साथ में रहते थे। मैंने पिता जी के सम्मुख समस्या रखी और उनसे अधिकारियों के पास चलकर सिफारिश करने की बात कही परन्तु उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि मैं तुम्हारी सिफारिश को नहीं जा सकता। भगवान पर भरोसा रखो और कोई नया काम ढूँढ़ो।

    यहाँ मैं एक बात का और उल्लेख करना चाहता हूँ कि जब मैं हाईस्कूल का विद्यार्थी था, तभी से छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था, जिससे तकरीबन एक सौ रुपये से लेकर एक सौ पचास रुपये तक प्राप्त हो जाते थे। जिससे परिवार का भरण-पोषण हो जाता था। नगर पालिका में नौकरी मिली, तो ट्यूशन का कार्य बन्द हो गया था। नौकरी छूट जाने के बाद फिर आजीविका का कोई रास्ता नहीं था अतः फिर उन्हीं परिवारों में जाकर ट्यूशन के लिए सम्पर्क कर जीविका का रास्ता खोजा। विचारणीय बात यह है कि तब से लेकर आज तक यानी अपने जीवन के लगभग 40 वर्ष से अधिक का समय छोटी-छोटी ट्यूशन पढ़ाकर अथवा अपने को खपाकर भरण-पोषण के लायक ही कमा पाया। यह बात अलग थी, मैंने इस बीच ट्यूशन के साथ-साथ एम. ए. भी किया और बच्चों को भी पढ़ाता रहा।

    मेरी कहानी यहाँ से शुरू होती है, जब बच्चे बड़े हो गये और मैं परिवार के साथ किराये के मकान में रहता था। इस बीच मैं आपको और यह बताना चाहूँगा कि जहाँ पर मेरा जन्म हुआ था वह स्थान एक छोटा-सा कस्बा है और जहाँ पर आय के साधन भी बहुत सीमित हैं। बार-बार किराये के मकान बदलने से जीवन अस्त-व्यस्त था। मन के अन्दर विचार आया कि एक छोटा-सा टूटा-फूटा मकान खरीद लिया जाये। थोड़े से पैसे जो बचा-बचा कर इकट्ठे किए थे, उनसे एक छोटा-सा प्लाट खरीदा। मकान के वास्ते एक प्लाट की मैंने श्री ‘मोहनलाल पुत्र श्री हीरालाल’ निवासी सोरों से दि. 9 जनवरी, 1997 को बैनामा रजिस्ट्री करायी।

    मैं बहुत खुश था और सोच रहा था कि धीरे-धीरे करके दो-चार साल में कुछ पैसा जोड़ कर कुछ निर्माण कराऊँगा। तभी अचानक प्रेमसहाय (उक्त सम्पत्ति के पड़ोसी) ने दि. 31 जनवरी, 1997 को मान.

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