Premika
By Sunny Sharma
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About this ebook
Premika" takes you on a journey beyond reality, a realm where romance meets mystery and imagination intertwines with storytelling. The characters in "Premika" aren't just fiction; they're living embodiments of dreams and desires. "Premika" is a fusion of fantasy and
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Book preview
Premika - Sunny Sharma
अध्याय 1 एक आरम्भ
12 जुलाई साल 2015ः उदयपुर
गड़िया लुहार बस्ती के बाहर खड़ी कार के बोनट पर जलती कैरोसीन की बोतल आकर फूटी और उसके बोनट पर फैला केरोसीन धुंआ करके जल उठा। कार का ड्राइवर तेजी से बाहर निकला और उस आग को बुझाने लगा। आग बुझाने में उसे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी, मानसून का समय था। हल्की बारिश मौसम को खुशनुमा बनाये थी, पर वहां के माहौल में चिंता और तनाव उबल रहे थे। उसी गर्मी में, कार के अन्दर दो शख्सों की आपस में बात चल रही है।
‘‘मुझे माफ करना विक्रम, लेकिन मैने तुम्हें पहले ही बताया था, यह जमीन विवादित है।‘‘ खन्ना ने मायूसी से कहा।
‘‘कोई बात नहीं खन्ना, विवादों से मेरा पुराना नाता रहा है। एक और विवाद सही। पर ये लोग है कौन? क्या चाहते है?‘‘
‘‘ये गड़ियालुहार है। लोहे को तपा कर फौलाद बना देते हैं। दुश्मनों के हाथों से तलवारें तक छूट पड़ती थी जब इनकी बनाई हुई तलवारें दुश्मनों की तलवारों से टकराती थी। एक ही वार में दुश्मन के सर कलम हो जाते थे। कई पीढ़ियों से यहां रहते आये है अब तलवार ढालें बनाना छोड़ घरेलु और खेती केे औजार बना कर जीविका चलाते है। हल्दी घाटी के युद्ध के बाद मेवाड पर अकबर का शासन हो गया। हल्दी घाटी के युद्ध के बाद अपने राज्य से निर्वासित महाराणा ने प्रण किया- ‘‘जब तक मेवाड़ को मुगलों से आजाद ना करा लूं, तब तक जमीन पर ही सोऊंगा, कन्द-मूल खाकर ही जीवन व्यतीत करूंगा।‘‘
महाराणा ने जंगलों मेें घुमन्तू जीवन स्वीकार कर लिया। जंगलों में छिपते हुए महाराणा के साथ इन लोगांे ने भी घुमन्तू जीवन जीने की प्रतिज्ञा ली। जब तक मेवाड पर फिर से महाराणा प्रताप का राज नहीं हो जाता तब तक मेवाड़ नहीं लौटेंगे।‘‘
‘‘कई पीढ़ियों तक खानाबदोश जीवन जीने के बाद, महाराणा अमरसिंह के शासन में मेवाड़ का पुनः उत्थान हुआ। दिवेर के युद्ध के बाद, यह जगह यहां के जमींदार को मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह ने उपहार स्वरूप सौंप दी।’’
’’इसी के साथ जमीन से लगान भी माफ किया जाना तय हुआ और यहां के गड़िया लुहार, जो निर्वासन का जीवन जी रहे थे, उन्हें यहीं बसा दिया गया। इन गड़िया लुहारों की कुछ पीढीयां, दशकों बीतने के बाद भी, अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा निभाती आ रही हैं। यह प्रतिज्ञा इस समुदाय की पहचान बन कर उभरी। मेवाड़ से निकल कर ये देश के कई हिस्सों में फैल गये। अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा, खानाबदोश जीवन जीने के कारण इनका सामाजिक जीवन काफी पिछड़ गया। आज ये लोग दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं।‘‘
खन्ना अपनी बात जारी रखते हुए-‘‘इन गड़िया लुहारों में से कुछ पीढी दर पीढी इसी जमीन पर रह रहे हैं। जबकि इस जमीन का मलिकाना हक जमींदार के पास ही रहा। पीढी दर पीढी इस जमीन का मालिकाना हक भी उन जमींदारों के वारिसों को मिलता रहा। उसके बाद राजपूताने का नवीनीकरण हुआ। मेवाड राज्य राजस्थान में मिला दिया गया। जमीन को बेचने की फिराक में, जमींदार के वारिसों ने यह जमीन कई बार, गड़िया लुहारों से खाली कराने की कोशिश की, पर नहीं करा पाये और यह जमीन हमेशा के लिए विवाद का कारण बन गई।‘‘
‘‘इस जमीन के लिए हम कितनी रकम दे चुके हैं।‘‘ विक्रम ने पूछा ।
‘‘पूरा हिसाब मैं लगाऊं तो, यही करीब बीस करोड़।‘‘
‘‘पर मेरी नजर में इन लोगों का बलिदान कहीं ज्यादा कीमती है, खन्ना।‘‘
‘‘मैं समझा नहीं।‘‘ खन्ना के माथे पर सलवटें पड़ गई।
‘‘समझ जाओगे।‘‘ ‘‘चलो।‘‘
‘‘कहाँ जा रहे हो।‘‘ खन्ना ने विक्रम को रोकना चाहा।
‘‘इन लोगों से मिलने।‘‘ कार से बाहर आते हुए विक्रम ने कहा।
‘‘तुम पागल हो गये हो विक्रम। भगवान के लिए मत जाओ वहां। मार डालेंगे वो तुम्हें।‘‘ खन्ना घबरा गया।
‘‘आ जाओ। आखिर ये लोग अपने हक के लिए ही तो लड़ रहें है।‘‘
विक्रम कार से उतर कर भीड़ की ओर बढ गया। हल्के नीले रंग का सूट, पैरों में फॉर्मल काले रंग के जूते। बाहर आकर, आंखों पर उसने चश्मा लगा लिया। विक्रम रॉय तीस वर्षीय, एक सजीला, लंबा चौड़ा, सुन्दर और आकर्षक, अनुशासित और ढृढ़ निश्चयी, आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्तित्व वाला था। वह भीड़ की ओर मुस्कुराते हुए बढता जा रहा था। अपनी सफेद पोशाक में ड्राइवर हाथ में छाता लिये विक्रम के पीछे चल दिया और उसके पीछे मुंह बनाता हुआ, काला कोट, पैंट शर्ट पहने खन्ना चल रहा था, दूर से ही उसे देख लग रहा था सरकारी वकील चला आ रहा है। सामान्य कद काठी और संावले रंग का खन्ना, विक्रम का दोस्त, एक वकील और कानूनी परामर्शदाता भी था। विक्रम की सम्पत्तियों से जुडे़ सारे काम वही देखता था।
विक्रम ने दिल्ली के एक कॉलेज से एमबीए किया, उसके बाद विक्रम कुछ साल भारत में और उसके बाद एक आस्ट्रेलिया की एक निजी कम्पनी में नौकरी कर रहा था। काफी अच्छे सैलेरी पैकेज के बाद भी, उसे संतुष्टि कहीं नहीं मिली। विदेश में अपनों से दूर रहकर दिन-रात भागते हुए बीत रहे थे। उसकी जिदंगी एकदम खाली सी हो गई थी। एक दिन उसने नौकरी छोड कर बिजनेस करने का मन बना लिया।
उदयपुर में एक अच्छी सी जमीन देखकर, उसने वहॉ होटल बनाने का फैसला किया। उसका डिजाइन, इंटीरियर, स्टाफ रिक्रूटमंेट इन्हीं सब पर बारिकी से ध्यान देता हुआ, अपने सपनों को आकार लेता देख कर, वह बहुत खुश था। लेकिन जमीन विवादित निकली। उसका मालिक सात समंदर पार इग्लैंड बैठा था जाहिर है वह किसी तरह उस जमीन से पीछा छुडाना चाह रहा था। विक्रम के रूप में उसे एक अच्छा खरीदार मिल गया। लेकिन सदियों पुराना यह विवाद फिर खड़ा हो गया।
इस पूरी जमीन के एक हिस्से पर गड़िया लुहारों की कच्ची बस्ती थी। यह बस्ती चारों तरफ से टूटी-फूटी दीवारों से घिरी हुई थी, हाइवे के करीब भी थी। एक कच्ची सड़क बस्ती के अंदर तक जाती थी। उस सड़क में छोटे-बड़े गड्ढे थे जो बारिश के पानी से भर जाया करते थे। गड्ढों से भरी यह सड़क ही उस बस्ती की मुख्य सड़क थी। इस मुख्य सड़क से जुडी कई कच्ची पगडंडियां थी, जो बस्ती के हर एक झोंपडे तक जाती थी। कच्चे झोंपडे जोकि टीन और प्लास्टिक की शीट से बने हुए थे, एक तेज आंधी की मार तक झेलने लायक नहीं थे। देखने मे सभी झोंपडे एक जैसे ही लगते थे और बेहद कम दूरी पर एक दूसरे से सटा कर बनाये गये थे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उस जगह रह सकें। दिन के समय पूरी बस्ती धुंए से सरोबार रहती और लोहे पर पड़ रहे हथोडे की चोंटों से गूजा करती थी। लेकिन आज यह बस्ती विरोध के सुर से गूंज रही थी। अपनी बस्ती की ओर बढती जेसीबी को लोगों ने उस मुख्य सडक पर ही रोका हुआ था। उसके आगे एक बड़ा सा टायर जल रहा था। भीड़ आग-बबूला थी उनके हाथों में उन्हीं के बनाये औजार और कैरोसीन की बोतलें थी जिनमें कपड़ा इस तरह ठूंसा था कि मौका मिलते ही आगजनी की जा सके। मौजूदा पुलिस भीड़ काबू करने के आलावा कुछ और नहीं कर पा रही थी। उनमें से कई लोग विक्रम की जान तक लेने पर उतारू थे।
लेकिन विक्रम मुस्कुराता हुआ उनकी ओर ही बढता जा रहा था ‘‘रूक जाइए। शांति बनाये रखिये।‘‘
‘‘आपको यहां नहीं आना चाहिए था मिस्टर विक्रम।‘‘ पुलिस बल के साथ भीड़ को काबू में करते हुए पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा, ’’यहां आपकी जान को खतरा है, और हमें खबर मिली है आपके आफिस में भी काफी तोड़-फोड़ की है इन लोगों ने। मीड़िया इसे कवर कर रही है।‘‘
‘‘चलो आज यह मुद्दा ही खत्म कर देते है।‘‘
यह सुनकर खन्ना और इंस्पेक्टर एक दूसरे का मंुह ताकने लगे। विक्रम अपने अंदाज में भीड के करीब पहुँच गया। विक्रम ने भीड़ से धक्का-मुक्की कर रहे हवलदारों को रूकने का इशारा किया। इतने में भीड़ से निकलकर एक आदमी आगे आया और रूआंसा होकर बोला-‘‘यह तुमने ठीक नहीं किया साहब। हम गरीबों की हाय लगेगी। आज हमें बेघर कर रहे हो। कहाँ जायेंगे हम। पीढ़ियां गुजर गयी साहब यहां।‘‘
‘‘आप लोग चिंता मत कीजिए‘‘- विक्रम ने शांति से उसकी बात का जवाब दिया और अपनी बात जारी करते हुए उसने खन्ना को अवाज दी-‘‘अरे कहाँ छुप रहे हो। आगे आओ।‘‘
खन्ना घबराता हुआ विक्रम के पास आकर खड़ा हो गया।
‘‘खन्ना, इन्हेें इनकी जमीन लौटा दो। इन सभी के लिए पक्के मकान बनवाने का काम शुरू करवाओ।‘‘ विक्रम की बात सुनकर बस्ती वालों में खुशी की लहर दौड़ गई लेकिन खन्ना के पैरों तले जमीन खिसक गई।
‘‘जीओ साहब जीओ। बडे घर वाले बहुत देखे आज बडे दिलवाला भी देख लिया। जीओ साहब जीओ।‘‘ विक्रम के सामने खडे उस आदमी की बाछें खिल उठी। बस्ती वालों की आज दिवाली हो गई। विक्रम ने पुलिस को वापस जाने का इशारा किया।
बस्ती के बाहर आकर विक्रम वापिस आकर कार में बैठ गया साथ ही खन्ना भी। खामोश खन्ना उसकी ओर हैरानी से देखता है।
‘‘क्या देख रहे हो।‘‘ विक्रम ने खन्ना से पूछा
खन्ना हड़बड़ाते हुए -‘‘विक्रम यह सब क्या है? बहुत भारी नुकसान है, ये तुम्हें बहुत भारी पडे़गा।‘‘
लेकिन विक्रम के चेहरे पर असीम आनन्द और शांति थी -‘‘कोई बात नहीं खन्ना होटल एमराल्ड ना सही, गरीबों के घर ही सही। कुछ तो बना, बवाल खत्म।‘‘
‘‘होटल एमराल्ड।‘‘ खन्ना हंसते हुए कहता है-‘‘काहे का होटल भाई। फिर से नौकरी ढूंढ लो। पैसा कमाने के लिए।‘‘
इस बात पर खन्ना, विक्रम हंस पडे।
खन्ना जिसका पूरा नाम कुमार खन्ना था, विक्रम के बचपन का दोस्त था। ग्रेजुएशन के बाद उसने वकील बनने की ओर कदम बढा दिये थे क्योंकि उसके पिता भी एक सरकारी वकील थे जिनके नाम का वकालत में सिक्का चलता था। उसकी बदौलत वह भी अपनी वकालत चमकाने में लगा हुआ था। उसके बाद शादी कर, बच्चों सहित गुजर बसर चल रही थी। वकील था, दोस्त भी था तो विक्रम को कानूनी सलाह खन्ना ही दिया करता था।
अगले दिन यह घटनाक्रम एक बडी़ खबर बन गई। देश के कई जाने माने न्यूज चैनलांे पर यह खबर सुर्खियां बटोरने लगी। इग्लैण्ड में ठाकुर वीरेन्द्र सिंह को जब इस बात का पता लगा तब उन्हें शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने तुरंत विक्रम को फोन किया।
‘‘मुझे माफ कर देना विक्रम तुम्हें इस मुसीबत में फंसाने के लिए।‘‘
‘‘कोई बात नहीं वीरेन्द्र जी कोई दिक्कत नहीं और जो समस्या थी मैंने सुलझा दी है।‘‘
‘‘नहीं, ऐसा मत कहिये। आज आपने एक बात का अहसास मुझे करा दिया। हम लोग सदा ही अपना घर भरते रहे। इन गरीबों का तो कभी सोचा ही नहीं। मैं इस जमीन को बेचना चाह रहा था। जबकि इस जमीन के असली वारिस ये लोग ही है।‘‘
‘‘इट्स ओके, मुझे जो सही लगा मैंने किया। ये पैसा दौलत वापस भी कमाया जा सकता है ना।‘‘
‘‘लेकिन मैं आपका नुकसान होने नहीं दूंगा, विक्रम।‘‘
‘‘क्या, ठाकुर साहब। भगवान का दिया सब कुछ है आपके पास। क्या करोगे इन गरीबों से जमीन छीन कर।‘‘
‘‘नहीं-नहीं, आप मेरी बात समझे नहीं। यह जमीन गई सो गई। वहां उनके लिए अच्छे मकान बनाये जाऐ, इस फैंसले में मैं आपके साथ हँू। मेरी ओर भी जमीनें है उदयपुर में, उनमें से जो आपके लायक हो वहां खड़ा कीजिए अपना होटल और मेरी कम्पनी आपके होटल वाले प्रोजेक्ट को फाइनंेशियल सपोर्ट भी करेगी।‘‘
‘‘अरे! ठाकुर साहब आप क्यों चिंता करते हैं।‘‘
विक्रम की बात बीच में काटते हुए-‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। यह आपके नुकसान की भरपाई समझ लीजिए।‘‘
‘‘लेकिन यह मैं आपकी तरफ से एक लोन ही समझूंगा।‘‘
‘‘ठीक है, विक्रम। तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय जय।‘‘
अपनी बात पूरी कर विक्रम ने अपना फोन पलंग पर रखा ही था कि वह फिर बज उठा। फोन विक्रम की मां का था और उधर विक्रम की मां फोन पर काफी परेशान लग रही थी। उदयपुर से आ रही न्यूज ने उन्हें अंदर तक हिला दिया। उनका इकलौता बेटा सही सलामत है, बस इसी बात से भगवान का शुक्रिया अदा कर रही थी। विक्रम ने अपनी मां को सांत्वना देकर, फोन काट दिया।
बात आई-गई हो गई। कुछ ही दिन में नई जमीन फाइनल कर सारे विधि-विधान से भूमि पूजन किया गया और नींव खुदाई शुरू हो गई। इसके कुछ दिन बाद खुदाई कर रहे मजदूरों को वहॉ कुछ मिला।
‘‘साहब।‘‘ गढढे से मजदूर चिल्लाया
सुपरवाइजर-‘‘हां, क्या हुआ।‘‘ सुपरवाइजर गढ्ढे की तरफ दौड़ा, उसने गढ्ढे में झांका।
‘‘यहॉ कुछ है,साहब।‘‘ ऊपर से झांकते सुपरवाइजर को देखकर मजदूर बोला।
‘‘क्या हुआ बताओ भी।‘‘
‘‘यहाँ कुछ गढ़ा हुआ है साहब। लगता है कोई मूर्ति हैै।‘‘
सुपरवाइजर-‘‘अरे ये क्या हो गया। इसे जल्दी निकालो। लोगों ने देख लिया तो यहॉ होटल की जगह मंदिर बनवाना पडे़गा। इससे पहले भी जमीन उन गरीबों को दान देनी पड़ी। लगता है यह होटल बनने से पहले ही मेरी नौकरी खा जायेगा। क्या मुसीबत है।‘‘
मजदूर मिलकर उस मूर्ति को बाहर निकालने लगेे।
मजदूर-‘‘साहब ये किसी देवी-देवता की नहीं, किसी औरत की मूर्ति है।‘‘ दूसरा मजदूर-‘‘लगता है, किसी किसी अप्सरा की मूर्ति है, हो सकता है कि उर्वशी या मेनका की हो।‘‘ आस-पास खडे़ सभी मजदूर एक साथ हंस पडे़।
सुपरवाइजर-‘‘बकवासबाजी बंद करो। इसे निकालकर एक कोने में रख दो और अपना काम करो।‘‘
‘‘ठीक है साहब।‘‘ मजदूर मूर्ति दूसरी जगह रख, वापस काम पर लग गये। तभी तेज बारिश शुरू हो गई। बारिश से बचने के लिए सुपरवाइजर छाता लेकर एक कोने में खड़ा हो गया। उसने नौकर से कहकर अपने लिये चाय मंगवा ली।
गर्म चाय से आती इलायची की खुश्बू लेते हुए सुपरवाइजर-‘‘चाय की चुस्कियों के साथ बारिश का आनंद, वाह-भई-वाह। पर लगता है आज का काम यहीं रोकना पडे़गा।’’
चाय पीते हुए उसकी नजर बारिश में खड़ी उस मूर्ति की ओर पडी, जो बारिश में धुलकर साफ नजर आ रही थी। उस मूर्ति को देखने के लिए सुपरवाइजर उसके पास चला गया। मूर्ति के पास पहुँचते ही बारिश अचानक रूक गई।
सुपरवाइजर मूर्ति की तराश देखकर-‘‘वाह! क्या कलाकारी है। पूरी मूर्ति सफेद संगमरमर से बनी हुई है। ऐसा लग रह है जैसे अभी बोल उठेगी। ऐसी मूर्ति पहली बार ही देख रहा हँू। इसके सिर पर जो घूंघट है, संगमरमर को बारीकी से तराश कर बनाया है। लगता है जैसे किसी झीनी चुनरी का बना हो और इस घूंघट से झांकता यह खूबसूरत सा चेहरा। वाकई लाजवाब है इसकी नक्काशी। यह जरूर अपने जमाने में अप्सरा रही होगी और जिस कलाकार ने यह मूर्ति बनाई है वह भी मंझा हुआ मालूम होता है। इसे देखकर साहब जरूर खुश होंगे।‘‘
सुपरवाइजर ने मजदूरों से कहा-‘‘अरे! सुनों, सभी आओ यहाँ। इस मूर्ति को ट्रक में रखवाकर साहब के घर भिजवा दो। उन्हें मूर्तियों का बहुत शौक है। मैं जब यह वाकया उन्हें बताऊंगा तो खुश हो जायेंगंे।‘‘
‘‘जी साहब।‘‘ मजदूर बोले।
सुपरवाइजर-‘‘और हां ध्यान से टूटफूट नहीं होनी चाहिए। संभाल कर लोड करना।‘‘ मजदूरों ने वैसा ही किया और शाम तक मूर्ति विक्रम के बेडरूम में पहंुच गई। बेडरूम के एक कोने में उसे सजा दिया गया।
सुपरवाइजर ने फोन पर सारा घटनाक्रम विक्रम को बता दिया और अंत मंे अपनी बात खत्म करते हुए उसने कहा-‘‘सर वह मूर्ति आपके बैडरूम में लगा दी है। आपको देखना चाहिए वाकई बनाने वाले ने काफी बारीकी से काम किया है।‘‘
विक्रम दिन भर के काम से थका मांदा लौट रहा था। बस्ती में हुई घटना के बाद विक्रम अपने खर्चों में कटौती कर रहा था। विक्रम ने कुछ समय के लिए वापस अपनी कम्पनी को ज्वाइन कर लिया ताकि होटल बनने तक कुछ फंड तैयार हो जाये। किस्मत से अपनी आस्टेªलियाई कम्पनी का काम घर से ही संभालने का मौका मिल गया। परन्तु भारत लौटने के बाद कम्पनी विक्रम की उपेक्षा करने लगी। कम्पनी ने जो ऑफर किया उसे ही स्वीकार करना उसकी मजबूरी थी। लेकिन कुछ तो मिला।
अनमने होकर उसने सुपरवाइजर से कहा-‘‘तुमने बिल्कुल ठीक किया, नही ंतो इस बार फिर बखेडा खड़ा हो जाता। ठीक है, मैं आकर देख लूंगा।‘‘ मूर्ति के बारे में विक्रम ने केवल इतना ही कहा और फोन काट दिया।
लेकिन घर आकर जब उसने मूर्ति को देखा तो देखता रह गया। पत्थर पर ऐसी नायाब बारीक नक्काशी उसने पहले कहीं नहीं देखी थी। यह मूर्ति दुलर्भ नजर आ रही थी। मूर्ति को देखकर लग रहा था कि यह किसी बेहद संुदर औरत की मूर्ति है जिसे देखकर इसकी सुंदरता से मोह हो रहा था। वह मूर्ति लम्बी, अपनी सुंदरता के गर्व से भरी उस कोनें में खड़ी थी। उसके सभी वक्र, विशेषताएं सूक्ष्मता से गढे गये थे। मूर्तिकार ने आंखे, भौंह, गाल, नाक, होठों की बनावट में स्त्री सौन्दर्य को बारीकी से उकेरा था। मूर्ति में तराशेे गये उसके बाल, किसी बहते झरने जैसे थे। उनमें हर लट, ऐसी उभारी थी, जैसे मंद हवा से लहरा रही हो। शरीर का हर हिस्सा अनुपात में लिया गया था। मूर्ति आज विक्रम के बैडरूम की शोभा बढ़ा रही थी।
रोज काम पर जाते वक्त विक्रम उस मूर्ति को निहारता और निकल जाता। घरवाले सभी दिल्ली रहा करते थे। घर में मां-पिताजी के अलावा एक बहन थी जो शादी के बाद पुणे सैटल हो चुकी थी। पिताजी रिटायर्ड प्रोफेसर थे और माताजी सामान्य गृहणी थी। मां वक्त बेवक्त हालचाल जान लिया करती और होटल के काम के बारे में पूछ लिया करती थी। विक्रम को अपना अकेलापन थोड़ा अखरता था। और उसके घर में भी उसके और उस मूर्ति के अलावा कोई ना था।
यह थ्री बीएचके फलैट था। जिसके दो कमरे अक्सर बंद ही रहा करते थे। उस फलैट में एक ही कमरा उसका पसंदीदा था जिसमें वह रहता था। पसंद उसे इसलिए था कि बेड के सामने बडी सी खिडकी थी जो पूर्व दिशा में खुलती थी। इसी खिड़की से अक्सर वह उदय होते सूरज और पूर्णमासी के चांद को निहारा करता था। पूर्णमासी के चांद को वह काफी देर तक बैड पर बैठे हुए निहारा करता था। जब उसकी पलके नींद के बोझ से झुकने लगती तब खिडकी बंद कर सो जाता। अक्सर जब खिडकी खुली रह जाती तब रात भर ठण्ड से ठिठुरता रहता। काफी अरसा हो गया था उसे इस अकेलेपन से जूझते हुए।
आखिर एक रात वह ऑफिस से लौटा। खाना टेबल पर रखा हुआ था और अपना अकेलापन दूर करने के लिए उस मूर्ति से बात करने लगा-’’तुम कौन हो? क्या नाम है तुम्हारा?’’
भला मूर्ति से भी कहाँ जवाब मिलना था-’’नहीं बोलना। चलो कोई बात नहीं। तुम्हें पता है आज काम पर जाते वक्त मैं पहाडी रास्तों से गुजर रहा था। बारिश बंद हो चुकी थी। लेकिन उस बारिश से मौसम खुशनुमा हो गया। पहाड़ो पर बादल छाये हुए थे, हल्की ठण्ड भी थी। उस जगह का एक फोटो लेने के लिए पहाड़ों तक चला गया, लेकिन नीचे आते वक्त तो कीचड़ में फिसल कर गिर गया। सारे कपडे़ गंदे हो गये। फिर एक आदमी ने मुझे यह कहते हुए उठाया संभल कर बारिश में सब जगह फिसलन हो रही है। मेरे कपडे साफ करने के लिये पानी लाया और मुझे चाय भी पिलाई, भला आदमी था। अरे मैं भी क्या बोले जा रहा हँू, तुम भी तो कुछ कहो।’’ सोचकर वो एक बेजान मूर्ति से बात कर रहा है, अपनी नादानी पर विक्रम हंसने लगा।
लेकिन अगले दिन से रोजाना उसका यही नियम बन गया। सुबह मूर्ति से बात करता, काम पर जाता और शाम को आकर उसे दिनभर की बातंे बताता। कभी होटल के चल रहे काम के बारे में। कभी अपने घरवालों के बारे में। पर कभी-कभी उसे यह सब अजीब लगने लगता। ऐसा करते हुए बेजान मूर्ति उसकी राजदार बन गई। इन्हीं बातों में कुछ दिन बीत जाने पर, अमावस्या की रात विक्रम ने सोते हुए सपना देखा कि वह मूर्ति एक स्त्री का रूप लेकर कर उसे बुला रही है।
’’विक्रम।’’ ’’विक्रम।’’ आवाज देकर वह विक्रम को बुलाने लगी। अगले ही पल विक्रम ने देखा वह स्त्री उसके नजदीक आ चुकी थी। सोने के तारों से कढाई किया, लाल रंग का घूमरदार लंहगा, चोली पहने वह विक्रम के ठीक सामने खडी़ थी। चुनरी से उसने घूंघट लिया हुआ था जिससे सिर्फ उसके सुर्ख लाल होंठ ही नजर आ रहे थे। विक्रम उससे बात करते हुए उसके हिलते हुए उसके होंठ ही देख पा रहा था। उन्हीं होंठो के किनारे दांई तरफ एक तिल पर उसकी नजर ठहर गई। पैनी सी नाक में नथनी थी जो उसके उपर के हांेठ तक आ रही थी और झीने घूघंट से ही सिर पर बोरला चमक रहा था। गले में हार और मोतियांे की माला थी। उसका चेहरा भले ही घूंघट में छिपा था लेकिन कमर तक लटक रही चोटी, सुढौल कद काठी, गर्दन, कमर और हाथों की उजली रंगत से ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह दिखने मंे अप्सरा जैसी थी।
खुद को होश में लाते हुए विक्रम ने कहा ’’हां मै यहीं हूँ।’’ ’’तुम मुझसे बात क्यों नहीं करती।’’ विक्रम के शब्दों में बैचेनी थी। शायद इस बैचेनी की वजह उस रूपसी को ठीक से ना देख पाना था।
स्त्री-’’मैं कैद में हूँ विक्रम।’’ ’’मुझे इस कैद से आजाद कराओ।’’
वह स्त्री बेहद घबराई सी लग रही थी उसकी अधीरता का जवाब देते हुए विक्रम ने कहा-’’मैं तुम्हे आजाद कराऊं?’’ ’’पर कैसे?’’ ’’मुझे बताओ मैं तुम्हें कैसे आजाद करा सकता हूँ?’’
स्त्री-‘‘मैं सच्चे प्रेम की तलाश में भटक रही हँू। क्या तुम मुझे मेरे सच्चे प्रेम से मिला दोगे? क्या तुम जानते हो मैं जिस सच्चे प्रेम की तलाश में हँू वह मुझे कहाँ मिलेगा? क्या मैं जान सकती हूँ वह सच्चा प्रेम क्या है?‘‘
विक्रम -‘‘प्रेम??‘‘
‘‘मैं कुछ समझा नहीं। अभी तुम्हें आजादी चाहिए थी पर अब प्रेम, प्रीत, प्यार, मोहब्बत की बात कर रही हो और मुझे ऐसा कोई वाकया याद नहीं जो सच्चे प्रेम से जुड़ा हो या मेरा कोई इस तरह का तजुर्बा रहा हो जिससे मैं तुम्हें बता सकूं कि यह सच्चा प्रेम किस चिड़िया का नाम है और यह किस ड़ाल पर बैठती है।‘‘
इतना सुनकर वह स्त्री विक्रम से दूर जाने लगी। विक्रम फिर बैचेन हो उठा, ‘‘रूको’’ ’’कहाँ जा रही हो?‘‘
विक्रम ने उसे हाथ बढाकर रोकना चाहा और उसी क्षण विक्रम सपने से जाग गया। पसीने से तर बतर उसने बाहर देखा, कमरे की खिड़की खुली हुई थी जिससे तेज हवा कमरे के अंदर आ रही थी। वह पूरा पसीने से लथपथ था। यहां तक कि, उसके कपड़े और तकिया पसीने से भीग चुके थे। अपने माथे पर जमा पसीने की बूंदो को पोछते हुए, वह खिड़की की ओर बढ़ा। खिड़की को बंद कर, उसने मूर्ति की ओर देखा। वह मूर्ति अभी भी पहले की तरह उसी जगह खड़ी थी। कुछ देर में विक्रम वापस सो गया।
विक्रम अपनी दिनचर्या के अनुसार सुबह काम पर निकल गया। पर उसके जहन में रात के सपने वाली बात घूम रही थी। उसने शाम को उसी मूर्ति के आगे बैठकर, खाना खाते हुए, उसे देखा, पर कुछ कहने की बजाए, वह अपने बिस्तर पर जाकर सो गया। लेकिन आज उसकी आंखों नीद बिलकुल भी नही थी। इसलिए वह वापस उठा और उस मूर्ति के सामने बैठ गया।
विक्रम-‘‘तुम्हें तलाश है सच्चे प्रेम की? तुम्हें जानना है तुम्हारा सच्चा प्रेम तुम्हें कहाँ मिलेगा? क्या तुम्हें लगता है कि इस तमाम दुनियां जहान में मैं ही एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसको इस सच्चे प्रेम का सही मतलब मालूम होगा?‘‘
‘‘मैं इतना यकीन से तो नहीं कह सकता कि मैं ऐसा कुछ जानता हँू भी या नहीं पर इस प्रेम प्रीत को लेकन जितना मेरा तजुर्बा है उतना मैं तुमसे जरूर कहूँगा। इसके लिए मैं तुम्हें सुना सकता हूँ मेरी प्रेम कहानी।‘‘
अध्याय 2 एक अधूरा प्रेम
सन् 2000 जयपुर
उस वक्त मेरी उम्र चौदह साल होगी जब मुझे किसी से प्यार हुआ था। मैं और मेरा परिवार उन दिनों जयपुर रहा करता था। मेरे पिताजी वहां केन्द्रीय विद्यालय में प्रोफेसर थे। मिडिल स्कूल से मैने हायर स्कूल में प्रवेश लिया था मेरे साथ मेरे कुछ दोस्त भी थे जिन्होने आगे की पढाई के लिये उस स्कूल को चुना था। नए स्कूल का पहला ही दिन था जो नये छात्रों के परिचय में बीत रहा था। क्लास में सभी बारी-बारी से सामने आकर परिचय दे रहे थे। उसी परिचय के दौरान मैंने देखा उसे। नीता नाम था उसका। क्या बताऊं उसके बारे में। सफेद रंगत वाला चेहरा, अपने सपाट माथे पर वह बेहद महीन सी काली बिंदी लगाये रखती थी। लम्बे घुंघराले बाल जिन्हें वह बांई तरफ से मांग बना कर पीछे से पोनी बना लिया करती थी। हिरणी जैसी हल्की भूरी आंखे, उसके आगे छोटी, नोकदार नाक और गुलाब की पंखुडी जैसे होंठ। मैंने बडे जोशीले अंदाज से अपना परिचय दिया और उसका भी वही अंदाज था ठंडी हवा के झोंके जैसा। अपना परिचय देकर जब वह वापस आई तब उसकी नजर मुझ पर पड़ी और वह मुस्कुरा दी, उन होंठो की एक मुस्कान पर मेरा दिल जोरों से धड़क उठा।
अब रोज मैं सुबह स्कूल जल्दी इसीलिये जाने लगा ताकि उसकी मुस्कान देख सकूं। बाद में तो क्लास रूम में बाकी छात्रों की भीड़ हो जाया करती थी। उस भीड़ में हम एक दूसरे को अक्सर नजरअंदाज ही करते थे, खासकर वो।
पढाई में वह मुझसे आगे थी। सारे दिन पढाई मंे मशगूल रहती थी और मैने जबसे उसे देखा था किताबों उठाने का मन तक नहीं करता था। पढाई में मन ही नहीं लगता था, ना क्रिकेट में, ना दोस्तों में, ना घूमने फिरने में, उबाऊ हो चुका था सब। मैं सोचता रहता था कि कौनसा जरिया हो जिससे उससे दोस्ती हो। उसे और करीब से जान पाऊं। उसे अपने दिल की कहूँ या उसके दिल में क्या है जान पाऊं।
मैं बहुत शर्मिला था। कुछ कहने की हिम्मत मुझमें थी ही नहीं। सारे दिन उसे छुप-छुप कर देखना ही मेरा रोज का नियम बन गया था। बस नजरे मिलती दिल धड़क उठता और उसकी मुस्कान उसके चेहरे पर तैर जाती। हमारा यह रिश्ता बस एक मुस्कुराहट के लेन देन तक ही सीमित था। मुस्कुराहट जिसे मैं सारे दिन नहीं भूलता था। जिसे मैं आज तक भी नहीं भूला हूँ। वो चेहरा मेरी आंखों को आज भी उतना ही सुकून देता है जितना उसे पहली बार देखकर मिला था।
वो जितनी पढाई में आगे थी उतना ही गजब का डांस भी किया करती थी। स्कूल के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम उसे पहली बार डांस करते हुए देखा था। उस दिन तो मैं लुट चुका था। जुंए में हार गये हों जैसा। ऐसा इसलिए कि मैं नाचने के मामले में ठेठ गंवार जैसा ही था और अक्सर शादियों में घोड़ी के आगे ही नाच पाता था। जहां भीड़ में कोई देख ना पाये और हंसी भी ना उडा पाये कि इसे नाचना नहीं आता।
इसके अलावा वह बैडमिंटन की खिलाड़ी भी थी और हम क्रिकेट के उस्ताद थे। पर मैं बैडमिंटन भी खेल लिया करता था। एक दिन मौका भी मिला। मौका मिला क्या छीन लिया था। नीता और उसकी एक सहेली साक्षी स्कूल के अन्दर बने बैडमिंटन कोर्ट में बैडमिंटन खेल रहे थे। साक्षी एक भारी भरकम कद काठी की लड़की थी। बड़ी मुश्किल ही वह अपने आप को मुकाबले मे रख पा रही थी। आखिर मैंने उसे इशारा कर रैकेट उसके हाथ से ले लिया। नीता समझ गई थी अब सामने से सुनीता नहीं मैं आ रहा हँू। देखते ही देखते बेचारी शटल कोक की पिटाई शुरू हो गई। उसने भी ठान लिया था मुझसे नहीं हारेगी।
लेकिन शटल कोक की धज्जियां उडने से पहले लंच ब्रेक ऑफ हो गया और बैल बज गई। हमें बैड़मिंटन का संग्राम वहीं रोकना पड़ा। मैनें रैकेट वापस साक्षी के हाथ में दे दिया और अपना सा मुंह बना कर जाने लगा तब एक नजर नीता की मुस्कान पर पड़ी। भाड़ में जाये बैडमिंटन हम हमारा मैच जीत चुके थे।
स्कूल से छूटने पर मैं रोजाना साईकिल से उसके घर तक उसका पीछा किया करता था। हालांकि इससे मुझे घर पहुँचने में कुछ देर हो जाया करती थी फिर भी यह मेरा रोज का काम था। मुझे कहना कुछ नहीं होता था, बस मेरी साईकिल उसकी साईकिल के अगल बगल में चलती रहती थी। लगता था साईकिल भी उसकी दिवानी हो गई थी जो कभी-कभी मुझे उसके बगल में ले आती थी। ऐसे में जब उससे नजरें मिलती तो ऐसा लगता जैसे जीवन सफल हो गया हो। कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। हम दोनों मिलते, एक दूसरे को देख मुस्कुराते, और चले जाते।
एक दिन हिम्मत कर एक कार्ड के नीचे कोने पर दिल बनाकर अपना नाम शार्टकट में लिखकर उसकी सहेली साक्षी के हाथोें भिजवा दिया। उसके बाद कई दिनों तक इंतजार किया उसके जवाब का। पर कोई जवाब नहीं आया नीता से नजर मिलाने की हिम्मत तो बची ही नहीं थी।
एक दिन साक्षी से पूछा कि कोई जवाब दिया या नहीं। यार तुम लोग मुझे मरवा डालोगे साक्षी घबराई हुई सी बोली। मैंने ये कार्ड जैसे तैसे घरवालों की नजरों से छुपाये हैं। आज के बाद प्लीज मुझसे ऐसा काम मत करवाना, हाथ जोड़ती हँू। मुझे माफ करो तुम लोग। इतना कह कर साक्षी ने एक कार्ड मेरे आगे बढा दिया।
उसने भी उसी अंदाज से अपने प्यार का इजहार किया। जवाब में मुझे भी एक कार्ड मिला वही सब लिखा हुआ जो मैंने लिखा था। कार्ड के आखिर में शार्ट में उसका नाम भी लिखा था। वो भी मुझे बहुत चाहती थी। हम कभी खुलकर एक दूसरे से अपनी बात ना कह सके लेकिन वह कार्ड जरिया बना दिल की बात कहने का और वह डायरी जिसमें सभी अनकही बातें मैं अक्सर लिख दिया करता था जो उससे ना कह पाया।
तेरे आने से महका है मन मेरा,
तुमसे ही रचा है संसार नया,
तू आती है तो भर देती है ख्वाबों में रंगीनियां,
अपनी मासूम हंसी से इठलाती ममप्रिया,
नजरो से तुम दिल पर देती हो दस्तक,
इतना बताओ ख्वाब हो या हकीकत।
तेरे आंचल की छांव में रहता हूँ सदा,
तेरी खुश्बू से घुली ताजी हवा,
तेेरे केशों सी लगती है बरखा बदलियां
तेरे नयनों सी लगती हैं नादानियां,
रूप हो तुम मैं देखूं जहां तक,
इतना बताओ ख्वाब हो या हकीकत।
जान हो तुम ही जीवन,
तुम्ही प्राण तुम ही स्पंदन,
रूत हो कोई कोई मौसम,
हो रहस्य या कोई भ्रम,
रहोगे हमेशा, रहोगे कब तक,
इतना बताओ ख्वाब हो या हकीकत।
उन दिनों घरों में लैंडलाइन फोन ही हुआ करते थे जिसके जरिये हमारी आपस में बातें शुरू हुई। एक बोलता था और दूसरा हां या ना में ही जवाब देता था। उस फोन के जरिये हम एकदूसरे को जानने लगे। पसंद नापसंद सब कुछ। स्कूल में एक दूसरे को देख मुस्कुराना, स्कूल के बाद उसके घर तक साथ जाना और घर आकर उससे फोन पर बातें करना। एक शांत झील में जैसे नाव धीरे-धीरे आगे बढती है, उसी तरह सब कुछ चल रहा था।
स्कूल में छुट्टियां होने पर, उससे मिलने की बेकरारी हुआ करती थी। तब बातचीत वगैरह सब बंद हो जाया करती थी। लेकिन मैं उसके फोन का इंतजार जरूर करता था। मैं केवल इंतजार ही कर सकता था क्योंकि नियम यही था उसे जब बात करने का मौका मिलेगा तब कॉल वही करेगी। मेरा भी नियम बन गया उस दौरान घर के ज्यादातर फोन मैं ही रिसीव किया करता था। एक दिन ऐसे ही स्कूल का अवकाश था। मैं घर बैठा टीवी देख रहा था कि अचानक फोन बजा। मैंने तुरंत लपक कर रिसीवर उठा लिया। ‘‘हैलो।‘‘
उधर से आवाज आई-’’मैं बोल रही हँू।‘‘
दिल धक से धड़का और मुंह से इतना ही निकला-‘‘कैसी हो।‘‘
जवाब में उसने कहा-‘‘शाम को दशहरा मैदान मिलना। वहां मेला लगा है। मैं इंतजार करूगी।‘‘
उस दिन शाम के ढलते-ढलते मिलने की बेकरारी बढने लगी। शाम को उससे मिलने पहुँचा। मेले के गेट पर ही वह मुझे नजर आ गई। गुलाबी पटियाला सूट, वही घुंघराले बाल खुले हुए, माथे पर छोटी सी गुलाबी बिंदिया। देख कर दिल धड़क उठा। मुझे देख कर उसके चेहरे पर वही हमेशा वाली मुस्कान छा गई। हम साथ मेले में घूमने लगेे। हांलाकि अभी भी हम, एक दूसरे से थोड़ी दूरी बनाकर ही चल रहे थे। फिर उसने धीमे से झूला झूलने की फरमाइश की। झूला एक बडी सी नांव थी, जिसके एक सिरे पर ड्रैगन बना हुआ था। वह आगे-पीछे लहराता आसमान की ओर उड़ता जाता, जो उसमें सवार लोगों की चींखें निकाल रहा था। बड़ा ही मजेदार नजर आ रहा था। लेकिन सच कहूँ, मुझे घबराहट हो रही थी। खासकर तब, जब वह नौका उचाई पर जाती और उसी तेजी से वापस आती। यह बात मैने नीता से नहीं कही।
झूले की दो टिकटें लेकर, हम उसमें सवार हुए। जब तक नौका शांत खड़ी थी तब तक तो सब ठीक था। नांव धीरे-धीरे अपनी स्पीड़ बढ़ा रही थी तब तक भी सब कुछ ठीक ही था। दरअसल नीता ने मुझे अपनी बातों में लगा रखा था। वह अपनी बुआ के बारे में कुछ बता रही थी। लेकिन मेरा पूरा ध्यान उस ड्रैगन वाली नांव पर था। जिसकी स्पीड लगातार बढ रही थी। जैसे ही स्पीड तेज हुई, मेेरे चेहरे की हवाईयां उड़ने लगी। जिसे देख, नीता जोरों से हंस दी और मैं चींखने लगा।
हंसते हुए, उसने पूछा-‘‘तुमने बताया क्यों नहीं, तुम्हंे डर लगता है झूले से।‘‘
पीले पड चुके चेहरे पर खौफ लिये हुए मैंने जवाब दिया- ‘‘नहीं।‘‘
वो बहुत हंसी, और तेज हंसी, और मैं उसी तरह चींखता रहा। एक हाथ से मैंने उस नाव के तख्त को कसकर पकड़ लिया जिस पर मैं बैठा था। और दूसरा हाथ नीता की ओर था। जब भी नौका आसमान में उचाई की ओर जाती, उसकी हंसी कानों में सुनाई पड़ती और मेरी चींख।
फिर अचानक, मुझे मेरी हथेलियां गर्म महसूस हुई। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, अपनी उंगलियां मेरी उंगलियों के बीच फंसा कर। मैंने एक नजर उसकी ओर देखा, वह मुस्कुरा रही थी। उसी के साथ मेरी चींख बंद हो गई।
उसने अपना सवाल दोहराया- ‘‘क्या तुम्हें झूले से डर लगता है।
मेरे चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई और मैंने जवाब दिया ’’अब नहीं लगेगा।’’
उस दिन के बाद मैं कभी ऊंचाई से नहीं डरा। झूले से उतर कर हम थोड़ी देर और मेले में घूमते रहे। वहां एक चूड़ी वाले की स्टॉल पर जाकर मैं ठहर गया और नीता को चूड़ियां दिलाई। फिर एक ठेले पर भेलपूरी खाने के लिए रूके। साइकिल उठा कर, हम घर की ओर रवाना हुए। उसे घर तक पहुँचाने के बाद, मैंने अपनी साईकिल अपने घर की तरफ मोड दी।
एकदूसरे के प्रति जो झिझक थी, अब खुल चुकी थी। मेरी बातों पर वह खिलखिलाकर हंस दिया करती थी और मुझे तो शुरू से ही खुलकर हंसने की आदत थी। उसने