Dharm Se Swadharm Tak
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About this ebook
Remain relaxed in Consciousness. In any situation, do whatever you feel you should do without any regrets about the past, without any complaints in the present, without any expectations for the future, and importantly, without blaming and condemning anyone for anything – neither yourself nor the ‘other’.
This will enable you to live your life, constantly connected to the Source, and will give you happiness through peace of mind: SUKHA-SHANTI.
This will be your personal religion: Sukha-Shanti.
Ramesh S. Balsekar
Ramesh Balsekar, a teacher of pure Advaita, or non-duality, is an unearthly blend of the utterly human and utterly divine manifesting as a brilliant spiritual Master. His crystal-clear and profound teachings are backed by his complete understanding that “Nobody does anything” coupled with his life experience as a top executive of a major Indian bank, as a huband, father and grandfather – all lived knowing that it is all happening as God’s Will.For much of his full life Ramesh, whose Guru was Nisargadatta Maharaj, has been devoted to Ramana Maharshi, in whose spirit Ramesh welcomes seekers and asks “Who is seeking? Leave the seeking to Him who started the seeking.”
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Book preview
Dharm Se Swadharm Tak - Ramesh S. Balsekar
धर्म से स्वधर्म तक
रमेश बल्सेकर
हिंदी में अनुवाद
मंजीत सिंह अचरा
द्वारा
Dharm Se Swadharm Tak
Copyright © 2006 by Ramesh S. Balsekar
First Published in English as
A Personal Religion Of Your Own
First Hindi Edition September 2011
PUBLISHED BY
ZEN PUBLICATIONS
A Division of Maoli Media Private Limited
60, Juhu Supreme Shopping Centre,
Gulmohar Cross Road No. 9, JVPD Scheme,
Juhu, Mumbai 400 049. India.
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न ही कभी उत्पति हुयी, और न ही विनाश ।
खुशहाल जीवन का महामंत्र
"किसी भी स्थिति में, आप को जैसा उचित लगे वैसे करें, बिना बीते हुए कल पर अफ़सोस किये, बिना वर्तमान की शिकायत किये, बिना आने वाले कल पर आशा किये, बिना अपनी या दूसरों की निंदा किये: जो होता है वह किसी के बस में नहीं होता। वह हमेशा से ही परमात्मा की इच्छा/प्रकृति के नियम अनुसार होता है।
इस प्रकार आप अपने तरफ पाप और दोष की भावना और दूसरों की तरफ द्वेष की भावना से मुक्त हो जाओगे। यही लाएगी मन की शांति का परम आनंद...सुख शांति।"
– रमेश बल्सेकर
शब्दकोष ‘धर्म’ को ‘जीने की व्यवस्था और मानसिक स्थिति" बताते हैं।
परिचय
आज का इंसान या किसी पांच हज़ार साल पुराने आदि-मानव के लिए जीने का अर्थ है किसी स्थिति में जैसा उचित लगे वैसा करे। दूसरे शब्दों में - जीवन तब तक नहीं हो सकता जब तक इंसान के पास पूर्ण इच्छा शक्ति न हो।
उसके बाद जो होता है, वह किसी के बस में नहीं होता। इन तीनों में से एक बात होती है:
१. वह जो चाहता है उसे मिलता है
२. वह जो चाहता है उसे नहीं मिलता
३. उसे जो मिलता है वह उसकी अपेक्षा से बिलकुल विपरीत होता है - अच्छा या बुरा
इसके बाद समाज व्यक्ति के उस कर्म को समाज के नियम अनुसार ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ करार देकर उसे पुरस्कार या दंड देता है। पुरस्कार लाता है पल भर की ख़ुशी; और दंड लाता है दुःख।
यही जीवन का अर्थ है। वह शुरू होता है इंसान की इच्छा शक्ति से, लेकिन उसके बाद होती है सिर्फ परमात्मा की इच्छा। गौर से देखा जाये तो इंसान की इच्छा शक्ति दो बातों पर निर्भर करती है - उसके जीन और उसके सामाजिक संस्कार - उस समाज में जहाँ वह व्यक्ति पैदा हुआ। इन दोनों पहलूओं पर इन्सान का कोई बस नहीं। दोनों ही परमात्मा ने बनाये। इससे यह स्पष्ट है कि इंसान जो भी करता है, वही परमात्मा उससे करवाना चाहता हैं; तो वह ‘पाप’ कैसे कर सकता है?
यह बिलकुल स्पष्ट है की इंसान से जो हुआ, परमात्मा वही उससे करवाना चाहता है, फिर उस कर्म के परिणाम भी उस व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ता हैं - क्षण भर की ख़ुशी या दुःख। किसी भी क्षण इंसान जिस स्थिति में अपने आप को पाता है, वह उसके भाग्य/परमात्मा की इच्छाप्रकृति के नियम अनुसार होता है।
इंसान सिर्फ एक यंत्र है जिसके द्वारा परमात्मा प्राकृतिक नियम अनुसार कार्य करता है। इस प्राकृतिक नियम का आधार कोई व्यक्ति नहीं जान सकता; वह बहुत विशाल और जटिल है।
इससे यह बात स्पष्ट है कि इंसान कर्म का कर्ता नहीं है - न वह खुद और न ही कोई दूसरा व्यक्ति। जो भी होता है, इंसान को परमात्मा की इच्छा समझ कर स्वीकार करना पड़ता हैं; ज्योंकि वह कर्मों का कर्ता नहीं है; उससे न ही अपने कर्मों का पाप और दोष और न ही दूसरों के कर्मों के द्वेष का भार उठाना पड़ता है। इस बोझ के न होने का मतलब है मन की शांति - वह ‘ख़ुशी’ जो हर इंसान जीवन में ढूँढता है।
रमेश के साथ वार्तालाप
२५ जून २००६
रमेश: वार्तालाप कौन शुरू करना चाहेगा? आपका नाम?
सुहास: मैं हूँ सुहास और ये है कल्पना। मैं यहाँ पहली बार आया हूँ। विपुल ने मुझे आपके बारे में बताया।
रमेश: अच्छा।
सुहास: मेरा सवाल बिलुकुल सरल है। क्या एक व्यक्ति जो खुशहाल और अनुशासित जीवन जीना चाहता है, क्या उसे किसी धर्म को मानना ज़रूरी है?
रमेश: नहीं! धर्म से तुम्हारा क्या मतलब है?
सुहास: यही मेरा दूसरा प्रश्न था। धर्म का क्या मतलब है? अध्यात्म और धर्म की क्या परिभाषा है?
[ धर्म...
हर धर्म का मूल आधार एक ही है।
बाईबल में लिखा है: जैसी परमात्मा की इच्छा होगी वैसा ही होगा। (दाई विल बी डन)
हिन्दू शास्त्रों में लिखा है: त्वमेव कर्ता, त्वमेव भोक्ता। त्वमेव श्रोता, त्वमेव वक्ता
इस्लाम कहता है: ला इल्लाहा इल अल्लाहु
(परमात्मा एकमात्र सत्य है परमात्मा को छोड़ कर और कुछ सत्य नहीं)
फिर भी कई शताब्दियों से धार्मिक युद्ध होते आये हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की जो भी हुआ - प्राकृतिक विपदाएं, महामारी या और कुछ यह परमात्मा की इच्छा के विरूद्ध नहीं हो सकता था। लेकिन धर्मों के बीच संघर्ष का कारण है कि हर धर्म का मूल, जिसे किसी अनुवाद की ज़रुरत नहीं, उसका पीढ़ी दर पीढ़ी इस प्रकार अनुवाद होता आया है (फिर उस अनुवाद करने वाले का नाम या पद जो भी हो) कि किसी एक धर्म के जीवन जीने का मत दूसरे धर्म से मेल नहीं खाता। इन्हीं अनुवादों, या ऐसे कहिये गलत व्याख्याओं की वजह से धर्मों के बीच संघर्ष हैं: उनके रीति रिवाजों को लेकर; क्या करना उचित है