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Transgender (ट्रांसजेंडर)
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Transgender (ट्रांसजेंडर)
Ebook175 pages58 minutes

Transgender (ट्रांसजेंडर)

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About this ebook

लघुकथा के बारे में कहा जाता है कि यह गागर में सागर भर देती है। यह जमाना 'शॉर्टकट' का भी है। यही कारण है कि फास्ट फूड संस्कृति फिर विकसित हुई है। लघुकथा को हम साहित्य की फास्ट फूड संस्कृति का एक हिस्सा कह सकते हैं। चंद शब्दों में जीवन के विविध आयामों को मुखरित कर देने वाली विधा का नाम है लघुकथा। ‘लघुता' ही लघुकथा की पहली शर्त है। यही कारण है कि लघुकथा-संग्रह 'ट्रांसजेंडर' की तमाम लघुकथाएँ अपने कलेवर में लघुता के मानदंडों पर खरी उतरती हैं। संग्रह की तमाम लघुकथाओं में व्यंग्य भी है, बोध भी है और प्रखर सम्वेदनाएँ भी। ये समस्त लघु रचनाएँ पाखण्ड से ग्रस्त मानवीय प्रवृत्ति पर संक्षिप्त शब्दों में जो कथाएँ कहती हैं, उनका फलक काफी विस्तृत होता है। सुधी पाठक लेखक की विभिन्न लघुकथाओं के पाठ से गुजरते हुए महसूस करेंगे कि लेखक ने जिन सच्चाइयों को कथारूप में पिरोया है, वे सब उनके आसपास सहज ही दृष्टव्य हो जाती हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390504381
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    Transgender (ट्रांसजेंडर) - Girish Pankaj

    ट्रांसजेंडर

    1. चिड़िया और हँसी

    हँसी उसकी कॉलोनी से उदास होकर लौट रही थी।

    चिड़िया ने पूछा, कहाँ चली बहन? आओ न! तुम रहती हो, तो मुझे भी चहकने में बड़ा अच्छा लगता है। तुम चली जाओगी, तो मैं गूंगी हो जाऊँगी।

    हँसी की आँखों में आँसू थे। वह बोली, अब यहाँ मेरा क्या काम? यहाँ के लोगों को मुझसे नफरत है। ये लोग तो मुझ से बचना चाहते हैं। कहते हैं, हँसना शालीनता के खिलाफ है। फूहड़ता है। मनहूस चेहरों की संख्या बढ़ रही है। नए दौर का यही चलन है।

    लेकिन तुम जा कहाँ रही हो? चिड़िया ने पूछा।

    हँसी ने कहा, ये शिष्ट लोग जिसे गंदी बस्ती कहते हैं न, वहीं।

    हँसी की आँखों में यकायक चमक आ गई। चिड़िया कुछ देर तक तो सोचती रही। फिर वह भी हँसी के पीछे हो ली।

    2. पत्थर, फूल और हँसी

    मंदिर के पत्थर ने कहा, मैं अभिशप्त जीवन जी रहा हूँ। मंदिर का पत्थर हूँ इसलिए मेरे चाहने वालों की संख्या सीमित है। मैं पूरी दुनिया का न हो सका।

    मस्जिद का पत्थर बोला, "मेरा दर्द भी यही है भाई जान।

    गिरजाघर के चमकदार पत्थर की भी यही व्यथा थी। तीनों दुखी होकर बतिया रहे थे। तभी वहाँ से एक फूल गुजरा। उसके साथ हँसी भी थी। पत्थरों की बातें सुनकर दोनों मुस्कुरा पड़े।

    फूल ने कहा, मैं तो सबका हूँ। मेरी खुशबू-सुगंध ही मेरा धर्म है। मैं सबको भाता हूँ।

    हँसी बोली, मैंने आज तक यह नहीं देखा कि जिन होठों पर मैं बैठी हूँ, वे किस धर्म के हैं।

    पत्थर बेचारे जड़ थे। क्या बोलते। खुद को ही कोसते रहे।

    3. देर हो चुकी थी

    आदमी ने धरती के हरे-भरे बालों को नोचना शुरू किया, तो सूरज चीखा, ये क्या कर रहे हो? बर्बाद हो जाओगे।

    आदमी हँसा, तुम्हें बर्बादी की पड़ी है? हमें प्रगति की चिंता है। हरियाली कटेगी, तभी विकास लहरायेगा।

    देखते-ही-देखते हरियाली साफ हो गयी। बड़ी-बड़ी चिमनियों ने धुआँ उगलना शुरू किया। बहुमंजिली इमारतें भी तन गयीं। पास की नदी कराहने लगी। इमारतों और कारखानों का जहरीला पानी नदी में समाने लगा।

    सूरज फिर चीखा, सँभल जाओ! वरना, सबको जला कर राख कर दूंगा। हरियाली खत्म होने के कारण ओजोन परत में छेद होने लगा है।

    मनुष्य हँसा, हमारे पास छतरी है।

    ….और एक दिन।

    सबके होंठ सूख कर पपड़ी हो चले थे। सब चीख रहे थे, पानी-पानी-पानी।

    सामने जहरीली नदी थी। हरियाली का नामोनिशान नहीं था। सूरज आग बरसा रहा था।

    एक ने कहा, "यह क्या हो गया?

    दूसरा, हम ही अपराधी हैं। अब क्या करें, कहाँ से लाएँ हरियाली और वो मीठी नदी? क्या फिर से पेड़ लगाएँ?

    पहला, कैसे लगाएँ। अब तो बहुत देर हो चुकी है। यह धरती तो बाँझ हो गयी है।"

    4. बलिदानी पुल

    नदी पर पुल बन चुका था, मंत्रीजी उद्घाटन करने वाले थे। मगर बेचारा पुल शर्मसार हुआ जा रहा था। निर्माण में भयंकर बेईमानी हुई थी। पुल को डर था कि कल लोग उसके ऊपर से आना-जाना करेंगे, लेकिन वह कभी भी धसक सकता है, तब अनेक लोग

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