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Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता : सरल व्याख्या-गुरु प्रसाद)
Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता : सरल व्याख्या-गुरु प्रसाद)
Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता : सरल व्याख्या-गुरु प्रसाद)
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Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता : सरल व्याख्या-गुरु प्रसाद)

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About this ebook

The Gita is a wonderful, great, mystic and holy voluminous book.
It is the deep sea of knowledge. No other book in the world has gained such a fame and reputation lice the Gita, till date.
It contains the basic elements of all the religious and philosophies of the world.
The Gita explains all about of every kind of people. Lord Krishna has described everything and the ways to search out the truth, in the Gita. That is why the Gita is a complete voluminous book (Granth).
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJul 30, 2020
ISBN9789352782369
Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता : सरल व्याख्या-गुरु प्रसाद)

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    Srimad Bhagwad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता - Brahmleen Shri Swaroopanand Ji Maharaj

    गोपाल

    प्रस्तावना

    संसार का प्रत्येक मनुष्य शाश्वत आनन्द चाहता है, स्थायी सुख चाहता है, दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति चाहता है और इसी सुख, आनन्द की प्राप्ति के लिए, दुःख की निवृत्ति के लिए मनुष्य दिन‒रात भागदौड़ करता है, पुरुषार्थ करता है। वह संसार के बाह्य पदार्थों की प्राप्ति को ही सच्ची खुशी मानकर जीवन पर्यन्त अपने शरीर एवं कुटुम्ब‒परिवार के पालन‒पोषण में, सुख‒सुविधाओं को जुटाने में, धन कमाने में व्यस्त रहता है और समझता है कि जीवन इसी कार्य के लिये मिला है, यही जीवन में करना था, इसी में ही उसके जीवन का दायित्व पूरा हो रहा है। पर क्या ये ही उसके जीवन का वास्तविक लक्ष्य है? यदि ये ही उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य होता, तो फिर इन कार्यों के करने से मनुष्य को सच्चा सुख, आनन्द भी प्राप्त होना चाहिए था। परन्तु होता इसके विपरीत है। देखने में यही आता है कि ज्यों‒ज्यों मनुष्य शारीरिक भोगों और ऐन्द्रिक सुखों की ओर अधिक प्रवृत्त होता है, उतना ही सुख, आनन्द और शान्ति से वंचित होता चला जाता है। दुःख, कष्ट, क्लेश और चिन्ता में वृद्धि होती चली जाती है तथा अशांति बढ़ती जाती है। इससे स्पष्ट है कि वह सुख की खोज गलत जगह पर कर रहा है, गलत मार्ग अपना रहा है। वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भूला हुआ है। मनुष्य को उसके वास्तविक लक्ष्य से अवगत कराकर उसे शाश्वत सुख और आनन्द की प्राप्ति कराने के उद्देश्य से, प्राचीन काल से ही महान मनीषी एवं तत्त्ववेत्ता ऋषि‒मुनिजन ईश्वर तथा जीवात्मा के स्वरूप तथा भक्ति, ज्ञान एवं कर्म आदि गहन विषयों का विवेचन करते आये हैं। इन विषयों पर प्रकाश डालने वाले वेद, शास्त्र व अन्य धर्मग्रन्थ हमारी अमूल्य निधि हैं, पर उनमें श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोपरि माना गया है; क्योंकि गीता सर्वशास्त्रमयी है। गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है। इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिश्योक्ति न होगी। सारे उपनिषदों का निचोड़ गीता के 700 श्लोकों में आ जाता है। गीता का भली‒भाँति ज्ञान हो जाने पर सब उपनिषदों एवं शास्त्रों का ज्ञान अपने आप हो जाता है। लेकिन गीता के लिये इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है। क्यों? सारे शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए और भगवान् श्रीकृष्ण, भगवान् विष्णु का ही पूर्ण अवतार हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और शास्त्रों के बीच में तो बहुत अधिक फासला आ गया, किन्तु गीता तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है। इसलिए गीता को सभी शास्त्रों एवं वेदों से बढ़कर कहा जाता है। गीता को उपनिषद भी कहा गया है। गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में लिखा गया है‒

    इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में.......योग नामक........अध्याय।

    गीता एक अद्भुत, महान, परम रहस्यमय एवं पावन ग्रन्थ है। ज्ञान का अथाह समुद्र है गीता। गीता जैसी ख्याति आज तक विश्व में किसी भी अन्य ग्रन्थ ने हासिल नहीं की। इस ग्रन्थ में विश्व के सभी धर्मों व दर्शन के आधारभूत तत्त्व विद्यमान हैं। गीता में सब तरह के व्यक्तियों के मार्गों की चर्चा की गई है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक सत्य तक पहुँचने के जितने द्वार हैं उन सब का ही वर्णन कर दिया है गीता में, इसलिये गीता एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है। विश्व में गीता एक अकेला ऐसा ग्रन्थ है जिसका जन्मदिन मनाया जाता है ‘गीता‒जयन्ती’ के रूप में। उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है कि आखिर भगवद्गीता है क्या? इसका प्राकट्य कहाँ, क्यों और कैसे हुआ? हजारों वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के मंगल प्रभात के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मोह‒अज्ञान से ग्रस्त अर्जुन को, उसके मोह का नाश करने के लिये ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग आदि विभिन्न साधनों का उपदेश देकर उसे आत्मबोध कराया और कर्त्तव्य के पालन में प्रवृत्त किया यानि धर्मयुद्ध के लिये तैयार किया। अपने परमसखा अर्जुन के मोह का नाश करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से जो ज्ञान‒प्रवाह बहा, वही भगवत्‒गीत यानि भगवद्गीता के नाम से विश्वविख्यात हुआ। भगवद्गीता के संकलनकर्ता श्री व्यास जी हैं।

    जीवन एक संग्राम है। मानव‒मन ही कुरुक्षेत्र का युद्ध‒स्थल है, जहाँ शुभ और अशुभ वृत्तियों का युद्ध सदैव चलता रहता है जीवन की अंतिम श्वास तलक। या यूँ कहिये कि मानव जीवन रूपी युद्ध क्षेत्र में तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) का युद्ध निरन्तर चलता रहता है कम या ज्यादा। जिस मनुष्य की जैसी परिस्थिति होती है उसके अनुरूप उसे युद्ध में लगना ही पड़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर गीता‒ज्ञान के द्वारा मानव‒जीवन के कल्याण के लिये कर्त्तव्य विमुख मानव को निर्विघ्न कर्त्तव्य‒पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया है। अर्थात् जीवनोमुख बनाने का प्रयास किया है। कैसे? अज्ञानता वश परिवार, सम्बन्धियों, मित्रों आदि के मोह यानि निज स्वार्थ को हम अपना कर्त्तव्य मान लेते हैं। परन्तु वास्तव में यही सबसे बड़ा अनर्थ का कारण है। अर्जुन एक अप्रतिम योद्धा था, परन्तु मोहग्रस्त होकर अपने धर्म से दूर भाग रहा था, जैसे एक न्यायाधीश के सामने यदि उसका पुत्र अपराधी के रूप में न्यायालय में खड़ा हो और उसे अर्जुन के समान पुत्र-मोह व्याप जाये, तो क्या करेगा वह? पुत्र की ममता या मोह में, पुत्र की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझ कर उसे दण्डित नहीं करेगा। किसी निरपराधी को सजा मिलेगी, न्याय नहीं मिल पायेगा। इससे समाज में अराजकता बढ़ेगी और अधर्म की वृद्धि होगी। इसी प्रकार एक देशभक्त के सामने उसका कोई अपना सम्बन्धी या दोस्त, यदि आतंकी या देशद्रोही के रूप में खड़ा हो और वह उसके मोह से ग्रस्त होकर उसे छोड़ दे। क्या परिणाम होगा? सोचो जरा!

    गीता में अर्जुन के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण ने सबको यही समझाया है कि कर्त्तव्य अर्थात् धर्मपालन के समय हमें मोह से ऊपर उठकर अपना धर्म (कर्त्तव्य) निभाना चाहिये। यानि न्यायाधीश को अपने अपराधी पुत्र को दण्डित करना चाहिये और देशभक्त को, आंतकी को सजा देनी ही चाहिये। यही धर्म है, यही कर्त्तव्य है। इसी प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में धर्मपालन को सर्वोपरि रखना चाहिये।

    भारत के सभी न्यायालयों में गवाही से पहले भगवद्गीता को नैतिक आधार बना ‘भगवद्गीता’ पर हाथ रखवा कर कसम दिलवाना कि ‘मैं जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवा और कुछ नहीं कहूँगा’ साधारण जनमानस में गीता के प्रति आदर और महत्त्व को दर्शाता है। गीता की भूमिका भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भी रही है। महात्मा गाँधी जैसे प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी की मुख्य प्रेरणास्त्रोत गीता ही थी। परन्तु विडम्बना! समाज में गीता‒ग्रन्थ को जितना मान मिलता है, उतना गीता में वर्णित उपदेशों को नहीं मिलता। जैसे संसार में गुरु को मानने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, पर गुरु की बात को मानने वाले बिरले ही होते हैं (‘गुरु को मानना’ मतलब गुरु में श्रद्धा‒विश्वास रखना, गुरु के दर्शन करना, गुरु की पूजा करना इत्यादि और ‘गुरु की बात मानना’ मतलब गुरु के बताये हुए रास्ते पर चलना), उसी प्रकार भगवद्गीता तो अधिकांशतः हर हिन्दू घर में मिल जाती है। लोग गीता का आदर भी करते हैं, गीता में श्रद्धा भी रखते हैं। नित्य गीता का पाठ करने वालों की भी कमी नहीं है, परन्तु अधिकांशतः वो भी गीता का अर्थ समझे बिना ही गीता‒पाठ करते हैं। ग्रन्थ का आदर करना, उसे माथे से लगाना या बिना अर्थ समझे पढ़ना, यह सम्मान उस ग्रन्थ के लिये है, उसमें समाहित ज्ञान के लिए नहीं। यदि अन्दर दिये गये ज्ञान, शिक्षा या संदेश को समझा जाये, उसे जीवन में, व्यवहार में उतारा जाये, तो निश्चित ही (सही रूप से) ग्रन्थ का सम्मान हो। ग्रन्थ में दिये गये उपदेशों को जब तक हम अपने आचरण में प्रतिष्ठित नहीं करेंगे, व्यवहार में नहीं लायेंगे, तब तक आत्मीय आनन्द हमसे दूर रहेगा। जिस प्रकार स्वादिष्ट व्यंजनों से भरे थाल को सिर्फ देखते रहने से या पास में होने से उसके स्वाद का अनुभव नहीं होता, भूख शान्त नहीं होती। स्वाद का आनन्द तभी आता है, तृप्ति तभी होती है, जब उसे ग्रहण किया जाता है। उसी प्रकार गीता‒ग्रन्थ भी अनेक स्वादिष्ट ज्ञान‒भक्ति रूपी व्यंजनों से भरा पड़ा है, आवश्यकता है उसे ग्रहण करने की यानि समझ करके यथासंभव अपने जीवन में उतारने की।

    अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गीता का इतना महत्त्व होते हुए भी, गीता के लिये मन में इतना आदर होते हुए भी भक्तजन गीता पढ़कर उसका लाभ क्यों नहीं उठा पाते? कारण‒ गीता में वर्णित विषयों को समझ पाना हम साधारण मनुष्यों की बुद्धि से परे है। इसलिये गीता के अर्थ को नहीं समझ पाने के कारण भक्तजन गीता का अध्ययन नहीं करते और जो करते भी हैं, वो भी पूरा‒पूरा लाभ नहीं उठा पाते। गीता‒ज्ञान क्या है? इसकी विस्तृत व्याख्या करना अति कठिन है। ज्ञान, भक्ति और कर्म की इस अमूल्य निधि का सभी भक्तजन लाभ उठा सकें, इसी उद्देश्य से ‘पूज्यपाद श्री स्वरूपानन्द जी महाराज (स्वामी जी)’ ने असीम अनुकम्पा करके ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के श्लोकों की सरल व्याख्या कर अपने भक्तों को समझाया। स्वामी जी ने गीता में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों का निरूपण इस प्रकार से किया है कि जनसाधारण भी इन्हें समझ सके और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सके। स्वामीजी के उन्हीं व्याख्यानों को कैसेट में रिकॉर्ड कर लिया गया था। लेकिन स्वामी जी की कुटी खुले स्थान पर, खेतों के बीच में होने के कारण रिकॉर्डिंग में स्वामी जी की वाणी के साथ‒साथ हवा की आवाज खड़‒खड़ (Disturbance) बहुत है। इस कारण से गुरुदेव की वाणी को सुनकर उसका अर्थ समझना बहुत कठिन हो रहा था। स्वामी जी के गीता‒सम्बन्धी विचार सभी तक पहुँच सकें, सभी भक्त गीता‒ज्ञान से लाभ उठा सकें, इसलिये रिकॉर्डिंग को सुनकर उसे शब्दों में लिखकर यह पुस्तक तैयार की गई है। क्योंकि भगवद्गीता के श्लोकों की ये व्याख्या पुस्तक के लिये नहीं वरन् भक्तों को समझाने के लिये कथा में की गई थी, इसलिये बहुत से शब्दों को, वाक्यों को दो या दो से ज्यादा बार भी बोला गया है और किसी‒किसी स्थान पर कोई‒कोई वाक्य अधूरापन भी लिये हुए है; उसे गुरु‒वाणी होने के कारण बिना हटाये ज्यों का त्यों पुस्तक में लिखने का प्रयास किया है। स्वामी जी ने बहुत से स्थानों पर संस्कृत में श्लोक बोलकर (कहीं पूरा, कहीं आधा, कहीं एक‒दो शब्द) फिर उसकी हिन्दी समझाकर उसकी व्याख्या की थी, परन्तु संस्कृत भाषा का अल्पज्ञान होने के कारण अशुद्धि हो जाने के डर से वहाँ पर उन संस्कृत के श्लोकों को न लिखकर हिन्दी में श्लोक लिखने से पहले संस्कृत में श्लोक लिख दिये गये हैं। कथा में गीता का मूल पाठ संस्कृत में और हिन्दी में उसका अर्थ ‘श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्य सहित, गीताप्रेस गोरखपुर (78वाँ संस्करण)’ से किया गया था।

    अब अंतिम परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात! भगवद्गीता का अध्ययन कैसे किया जाये? क्या केवल एक ग्रन्थ की तरह? तो इसका समाधान‒ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य में आता है कि एक बार श्रीलक्ष्मी जी ने भगवान् श्रीहरि को ध्यान में लीन हुए देखकर पूछा‒‘हृषीकेश! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं, आप सर्वसमर्थ हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। यदि आप उस परमतत्त्व से भिन्न हैं, तो मुझे उसका बोध कराइये।’ श्री भगवान् बोले‒‘मैं तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का यानि आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर रहा हूँ। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग‒शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुँज, मन‒वाणी की पहुँच से बाहर, परमानन्दमय और द्वैतरहित है। इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। वही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है। गीता‒शास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है। परमानन्दमय और मन‒वाणी की पहुँच से बाहर होते हुए भी, गीता कैसे उसका बोध कराती है सुनो।

    श्रृणु सुश्रोणि वक्ष्यामि गीतासु स्थितिमात्मनः ।

    वक्त्राणि पञ्च जानीहि पञ्चाध्यायाननुक्रमात् ।।

    दशाध्यायान् भुजांश्चैकमुदरं द्वौ पदाम्बुजे ।

    एवमष्टादशाध्यायी वाङ्मयी मूर्तिरैश्वरी ।।

    (पद्म०, उत्तर० 171 से 27‒28)

    सुन्दरी! सुनो मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ। क्रमशः पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरण कमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की मेरी वाङ्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।

    इसलिए अध्ययन करते हुए ऐसा भाव बनायें कि गीता केवल पुस्तक ही नहीं है, वरन् भगवान् श्रीकृष्ण की वाङ्मयी मूर्ति है। भगवद्-वाणी के रूप में साक्षात भगवान् ही हमारे पास हैं। और क्योंकि भगवान् की वाणी की गहनता को समझना हम अल्पमतियों के लिए संभव नहीं, इसलिये गुरुदेव ने अपनी वाणी में गीता के श्लोकों की व्याख्या करके हम पर कृपा बरसाई है, इस प्रकार गुरु‒वाणी के रूप में गुरुदेव भी हमारे पास हैं। इसलिये इस पुस्तक का पाठ सिर्फ पाठ ही नहीं, वरन् भगवान् व गुरुदेव की पूजा है। ऐसा भाव बनाकर श्रद्धा व विश्वास के साथ अध्ययन करें, तब अन्तःकरण की शुद्धता और विचारों में पवित्रता अपने आप होने लगेगी।

    इस प्रकार यदि सच्ची जिज्ञासु भावना से इस पुस्तक का स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन किया गया, तो यह साधकों (भक्तों) की गीता‒ज्ञान से सम्बन्धित सभी भ्रान्तियों को समूल नष्ट किये बिना नहीं रह सकती। गीता‒प्रेमी भक्तों के लिये शायद यह पुस्तक कल्पतरू के समान सिद्ध हो। विशेषतया साधना में आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले साधक इससे विशेष लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पुस्तक का केवल एक बार पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् इसका बार‒बार अध्ययन अपेक्षित है। आशा है सभी जिज्ञासु, श्रद्धालु, भक्तजन और प्रेमी‒पाठक इस पुस्तक से आशातीत लाभ प्राप्त कर सकेंगे और इसे पढ़‒सुन कर, गीता‒ज्ञान को अपने आचरण में धारण करके (व्यवहार में लाकर के) अपने जीवन को सफल बनायेंगे यानि मोक्ष‒रूप शान्ति (जीवन मुक्ति) को प्राप्त होंगे।

    ॐ नमो नारायणाय

    ऐसे भक्त जो गीता‒ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को चलाते हैं, वे भगवत् कृपा से सहज ही संसार‒सागर को पार कर लेते हैं। अज्ञान‒अन्धकार से निकलकर, आत्मज्ञान से आलोकित हो ईश्वर के रूप में समा जाते हैं। ऐसे भक्त न केवल अपने जीवन को सफल बनाते हैं वरन् न जाने कितने और भक्तों के जीवन को भी सफल बनाते हैं। जिस प्रकार हजारों‒लाखों बुझे हुए दीपक कभी एक दीपक को भी प्रकाशित नहीं कर सकते, परन्तु एक जलता हुआ दीपक लाखों‒करोड़ों बुझे हुये दीपों की ज्योति को प्रकाशित कर सकता है; उसी प्रकार एक सांसारिक व्यक्ति कभी दूसरे किसी सांसारिक व्यक्ति को ज्ञान ज्योति से प्रकाशित नहीं कर सकता, परन्तु एक ऐसा मनुष्य ‘गीता‒ज्ञान’ जिसने अपने जीवन में उतार लिया है, वह अनन्त, अनन्त... भक्तों के हृदय में ज्ञान ज्योति जगाने का माध्यम बन सकता है।

    सोचिए! समझिये! जब कोई एक मनुष्य ऐसा कर सकता है, तो आप क्यों नहीं?

    क्षमा‒प्रार्थना

    सच्चिदानन्द स्वरूप भक्तवत्सल गुरुदेव के चरण‒कमलों में कोटि‒कोटि प्रणाम। आपका ज्ञान सूक्ष्म, गहन एवं अपार है। आपकी वाणी सागर की तरह गहन और गंभीर होते हुए भी बहते हुए झरने के जल के समान मधुर है।

    स्वामी जी आपकी निर्मल वाणी, अमृत रस बरसाये ।

    इक‒इक बूँद मधुर वचनों की, मन की प्यास बुझाये ।।

    स्वामी जी आपके गीता‒ज्ञान के मधुर‒वचनों को सुनकर ही यह पुस्तक (श्रीमद्भगवद्गीता, सरल व्याख्या‒गुरुप्रसाद) बनाई गई है। इसमें वर्णित सभी विचार व भाव आपकी वाणी की रिकॉर्डिंग (Recording) से लिये गये हैं। आपका ही कृपा‒प्रसाद है। मैंने तो आद्याशक्ति माँ जगदम्बिका की असीम अनुकम्पा से, आपकी प्रेरणा से और माता‒पिता के आशीर्वाद से उन्हें सुनकर ज्यों का त्यों शब्दों में उतारा है। यद्यपि मैं इसके लिये सर्वथा अयोग्य हूँ, फिर भी मैंने यह प्रयास किया है। मेरे अल्पज्ञान और अनुभवहीनता के कारण आपके पवित्र वचनों में जहाँ कहीं भी अशुद्धि आ गई हो, उसके लिये मैं क्षमा‒प्रार्थी हूँ। आप अपनी दयालुता से अभिप्रेरित होकर मुझे क्षमा करें।

    आपके दर्शनों की अभिलाषी

    ऊषा बंसल

    ब्रह्मलीन योगी श्री स्वरूपानंद जी महाराज

    (स्वामी जी)

    स्वामी जी‒एक परिचय

    "अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

    तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः’’ ।।

    इस चराचर जगत में व्याप्त जो अखण्डमण्डलाकार परमात्मा है, उस परमात्म‒पद के दर्शन कराने वाले गुरुदेव को हम नमस्कार करते हैं।

    ★ ★ ★

    गुरुदेव का जन्म जिला मथुरा, तहसील भाट, ग्राम लोहई का एक भाग नगला जयसिंह के अग्रवाल परिवार में हुआ था। आपके बचपन का नाम ‘गोपाल’ था। आपके पिताजी लाखाराम जी साधारण व्यापारी थे। आपकी माताजी का देहान्त आपके बाल्यकाल में ही हो गया था। आपने कक्षा आठ तक शिक्षा प्राप्त की थी। आपने छोटी अवस्था में ही गृह‒त्याग कर साधु वेश धारण कर लिया था। ठीक भी है, जिसका जन्म ही एक विशेष उद्देश्य (जीवों को माया से मुक्त कराने) के लिए हुआ हो, जिसे अध्यात्म‒पथ के उच्च शिखर की यात्रा करनी हो, वह कैसे एक परिवार में बँधकर रह सकता है! आपके गुरु जिला बुलन्दशहर, तहसील सिकन्दराबाद, ग्राम भराना के थे। आपका गुरु‒प्रदत्त नाम ‘स्वरूपानन्द’ था। भक्तजन अपने आपको आपका सेवक मानते हुए श्रद्धा से आपको ‘स्वामीजी’ कहकर संबोधित करते थे।

    स्वामी जी ने कहाँ, कैसे और क्या साधना की थी, इसके बारे में किसी को कुछ ज्ञात नहीं है; परन्तु विचारों की गम्भीरता और ज्ञान की गहनता का अनुभव स्वामीजी की वाणी के प्रत्येक शब्द में झलकता था। स्वामी जी अपने भक्तों का जीवन सरल व सफल बनाने के उद्देश्य से उनकी योग्यता के अनुसार ही भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का निरूपण करते थे। प्रसिद्धि से पराङ्गमुख हो स्वामी जी ने अपने नाम ‘स्वरूपानन्द’ को सार्थक बनाते हुए ‘जीवन‒मुक्त’ का जीवन जिया। स्वामी जी महाविरक्त दशा वाले और ब्रह्मनिष्ठ थे, ब्रह्माकार‒वृत्ति में ही सदा मग्न रहते थे। गुरु‒शिष्य सम्बन्ध के बारे में स्वामी जी का मानना था कि ‘‘शिष्य का माना हुआ गुरु होता है, गुरु का माना हुआ शिष्य नहीं’’ इसलिये यदि कोई भक्त उनसे गुरु‒मन्त्र माँगता था, तो वे उसके ईष्टदेव के नाम का ही मन्त्र देकर कहते थे कि हमने तुम्हें भगवान् का नाम (भगवत्‒नाम) दिया है जपने के लिये, इसे गुरु‒मन्त्र तो तुम अपनी श्रद्धा और लगन से बना सकते हो।

    स्वामी जी ने जीवन यापन के लिये भिक्षावृत्ति को अपनाया था। उनका पाँच घर का नियम था। यदि भिक्षा प्रथम घर से ही मिल जाती थी कम या ज्यादा, बस उसे स्वीकार कर फिर और घरों में नहीं जाते थे। संयोगवश यदि पाँच में से एक घर में भी भिक्षा नहीं मिलती थी, तो उसे भगवान् की इच्छा समझकर उपवास करते थे। स्वामी जी किसी सवारी का प्रयोग नहीं करते थे। उन्होंने द्वारिका, हरिद्वार....इत्यादि सभी यात्राएँ पैदल ही की थीं। कभी एक स्थान पर ज्यादा समय के लिये नहीं ठहरते थे, केवल चतुर्मास के लिये ही एक स्थान पर रुकते थे। रुकने का स्थान हमेशा गाँव, कस्बों में खेतों के बीच में ही हुआ करता था। मुदाफरा, ऊन, कैरी, बावरी, इदरीशपुर, दोघट, सीकरी, बामरोली, स्याना, श्यामली, पक्की गढ़ी....इत्यादि उनमें से कुछ नाम हैं, जहाँ स्वामी जी ने चतुर्मास किया। लेकिन वक्त के साथ शारीरिक अस्वस्थता के कारण अक्टूबर, सन् 1980 में स्वामी जी गढ़ी पुख्ता (पक्की गढ़ी) आकर वहाँ स्थायी रूप से रहने लगे। वे कुटी पर अकेले ही रहते थे। किसी शिष्य, भक्त या सेवक को अपने पास नहीं रहने देते थे। कुटी पर रुपये या कोई भेंट लेकर जाना वर्जित था, अब भी है। पक्की गढ़ी आने पर भक्तों के अत्याधिक आग्रह और अस्वस्थता के कारण स्वामी जी ने भिक्षावृत्ति का त्याग कर दिया था। गाँव का प्रत्येक परिवार लालायित रहता था कि स्वामी जी के लिये भोजन उनके घर से जाये। स्वामी जी दिन में सिर्फ एक बार (गर्मियों में प्रातःकाल 11 बजे और सर्दियों में 11:30 बजे) भोजन ग्रहण करते थे, विलम्ब होने पर ईश्वर‒इच्छा मानकर उस दिन भोजन नहीं ग्रहण करते थे।

    कुटी पर रविवार को एक घण्टे की कथा होती थी। रामायण, भागवत, गीता आदि ग्रन्थों को पढ़ा जाता था। पण्डित जी ग्रन्थ पढ़ते थे और स्वामी जी उसकी व्याख्या करके भक्तों को समझाते थे। यह पुस्तक भी उस कथा में समझाई गई भगवद्गीता के व्याख्यानों को सुनकर लिखी गई है। स्वामी जी अपने आप प्रवचन नहीं करते थे, केवल भक्तों के आध्यात्मिक प्रश्न करने पर ही उनकी योग्यता के अनुरूप सरल भाषा में उनके प्रश्नों का समाधान कर देते थे। स्वामी जी के व्यवहार की सादगी और सरलता को देखने से वे एक साधारण संन्यासी नजर आते थे; परन्तु जब वे आध्यात्मिक चर्चा या आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान करते थे, तो ऐसा लगता था जैसे सारे वेद‒शास्त्र स्वामी जी के रूप में मूर्तिमान हो उठे हों। अपने व्यक्तित्व को गुप्त रखने के कारण स्वामी जी को ‘गोपा जी महाराज’ कहा जाता था। उनके योग के उच्च कोटि के ज्ञान को देखते हुए उनके समकालीन सन्तों ने उन्हें ‘योगीराज’ की उपाधि से विभूषित किया था। एक बार भक्तों के प्रश्नों का समाधान करते हुए प्रसंगवश स्वामी जी ने कहा था‒

    ईश्वर की कृपा को कौन जानता है कि किस समय, किस प्रकार, किस पर, क्या कृपा हो जाए? श्रीमद्भागवत में कहा है‒

    कोवेन्ती भुमन्, भगवन्, परमात्मन्,

    योगेश स्वरोति भवतस्त्री लोकयान्।

    क्वचा, कथवा, कतिवा, केदति

    विस्तारयन् क्रीडसी योगमायाम्।।

    हे भूमन्, हे भगवन्, हे परमात्मन्, हे योगेश्वर, तीनों लोकों के भीतर इस बात को कौन जानता है कि आप कहाँ, किस प्रकार, कितनी और कब अपनी योगमाया का विस्तार करके क्रिया करते हैं। अर्थात् इस बात को मैं ब्रह्मा भी नहीं जानता, और की तो बात ही क्या है?

    फिर इसका उदाहरण देते हुए स्वामी जी ने कहा कि चलो हम भी तुम्हें अपने जीवन की एक घटना बता दें। बचपन में शरीर में एक बड़ा भयंकर रोग अकस्मात् ही हो गया, लगता था कि अब प्राण बचेंगे नहीं। उस समय अपने आप चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह तो बड़ा अनर्थ हो गया। शरीर तो नष्ट हो गया, हम तो न इधर के रहे न उधर के। अब जो जीवन रह गया तो आगे भगवान् का भजन करेंगे। संकल्प के कुछ दिनों बाद ही ईश्वर की कृपा से स्वास्थ्य में सुधार होने लगा और धीरे‒धीरे रोग पूर्णतः शान्त हो गया। रोग के ठीक होने के बाद अब मन में एक उच्चाटी सी लगी रहती थी। पास ही के गाँव से एक महात्मा कभी‒कभी हमारे गाँव में आते थे। हमने उनसे कहा कि महाराज! हमको कोई ऐसी पुस्तक दो, जिसको पढ़ने से हमारे मन को शान्ति मिले। उन्होंने वेदान्त की एक छोटी-सी ‘आनन्द वर्षिणी’ नाम की पुस्तक हमको दी। उस पुस्तक के पढ़ने से स्वतः ही उसका विषय सब चित्त में खुल गया अर्थात् समझ में आ गया। चित्त की अब एक दूसरी अवस्था बन गई और मन में यह विचार आया कि ओहो! तुम क्या हो? और अपने को क्या समझ रहे हो? तुम्हारा संसार में कौन है? और तुम किसके हो? इस विचार से मन घर से उपराम हो गया। दैवयोग से एक दिन फिर वही महात्मा आ गये और उन्होंने हमारा परिचय एक दूसरे महात्मा से कराया। उनको हमने अपना गुरु बना लिया और थोड़े समय पश्चात् ही घर त्याग दिया। इस प्रकार बीमारी ही भगवद्-कृपा के रूप में हमारे पास आई। इसलिये कभी भी, किसी भी अवस्था में निराश न होकर यह सोचना चाहिये कि ईश्वर का प्रत्येक कार्य हमारी भलाई के लिये होता है।

    स्वामी जी अलौकिक व्यक्तित्व के धनी थे। ज्ञान में वे सूर्य के समान तेजोमय व व्यवहार में वे चन्द्रमा के समान शान्त, सबको शीतलता प्रदान करते थे। सन् 1960 के आसपास जो कोई, जिस भी दुःख‒दर्द को लेकर जाता था उनके पास, उसका निवारण साथ‒साथ कर देते थे। परन्तु कुछ वर्षों बाद वे केवल आध्यात्मिक प्रश्नों का ही उत्तर देते थे, बाकी सब कुछ बताना बन्द कर दिया था। परन्तु भक्तों की ऐसी मान्यता है कि ‘मनोस्थिति ठीक नहीं होने पर स्वामी जी से मिलने के पश्चात् ऐसा लगता था कि हम किसी कुशल मनोचिकित्सक से मिलकर आ रहे हैं, बिना बोले ही समस्या का समाधान हो जाता था’।

    द्वार तुम्हारे पर स्वामी जी, जो भी इक बार आ जाता है ।

    तुम्हारी कृपा के भरे भण्डारे, झोली भरकर ले जाता है ।।

    तुम्हें देते नहीं देखा किसी ने, पर झोली सबकी भरी देखी ।

    तुम्हारे देने का ढंग अजब, जो नजर किसी को न आता है ।।

    स्वामी जी की कृपानुभूति बिना कुछ कहे‒सुने भक्तों के जीवन में किस प्रकार होती थी, उससे सम्बन्धित दो घटनाएँ‒

    एक बार तीन‒चार भक्त गुरु दर्शन के लिये आये थे। वापसी के समय स्वामी जी ने उनसे पूछा, क्या अभी जाओगे? गुरु‒वचनों की गम्भीरता की समझ न होने के कारण उनमें से एक भक्त ने कहा कि रास्ते में ट्रैफिक बहुत होता है, हम अभी जायेंगे। वहाँ से चलने पर गाड़ी में बैठने के बाद वह भक्त जिस तरफ भी देखे, ऐसा लगे कि स्वामी जी अपने तख्त पर बैठे हुए उनके साथ‒साथ आ रहे हैं (जैसे सूर्य हमारे साथ‒साथ चलता है)। शामली आने पर अचानक दो छोटे बच्चे (अनुमानतः 3 और 6 साल के) उनकी गाड़ी के सामने आ गये। बहुत तेजी से ब्रेक लगाने पर गाड़ी रुकी। बच्चे आधी सड़क पार करके गाड़ी की दूसरी तरफ चले गये, दो मिनट बाद गाड़ी चली, परन्तु दूसरी दिशा से ट्रक आ रहा था, बच्चों को कुछ नहीं सूझा और फिर वो पलटकर पहली पटरी पर ही भागे और भक्तों की चलती गाड़ी से टकराकर गिर पड़े। भीड़ इकट्ठी हो गई, लेकिन तभी बच्चे उठे, उन्हें एक खरोंच तक नहीं आई थी। सब कुछ सामान्य हो गया। परन्तु उसके बाद उस भक्त ने देखा कि स्वामी जी अब उनके साथ‒साथ नहीं चल रहे हैं। तब समझ में आया उसे कि किस तरह स्वामी जी ने उनकी रक्षा की। तब अनुभव हुआ गुरु‒वचनों की गम्भीरता का!

    दूसरी घटना‒ स्वामी जी ने भक्तों के आग्रह पर अपनी केवल एक फोटो खिंचवाई थी, जो भक्तों के लिए गाँव के फोटोग्राफर के पास उपलब्ध थी। उसके बाद स्वामी जी अपने फोटो नहीं खींचने देते थे। स्वामी जी का एक भक्त जो प्रथम बार आया था, उसके अत्याधिक आग्रह पर कृपावश स्वामी जी ने उसे अपनी फोटो खींचने दी। फिर तो वह भक्त हर बार ही कैमरा लेकर आने लगा, इसी आशा से शायद स्वामी जी फोटो खिंचवा लें। पता चलने पर स्वामी जी ने उस भक्त को कैमरा लाने के लिये मना कर दिया। लेकिन उसी दिन संयोगवश कथा के समय बारिश होने पर कुछ भक्तों की इच्छा हुई, उन पलों को फोटो में उतारने की। उन्होंने उस भक्त से कैमरा लेकर स्वामी जी की पाँच‒छः फोटो खींच लीं, स्वामी जी से अनुमति लिये बिना। उस भक्त ने भी विरोध नहीं किया, वरन् वह भी खुश था कि चलो कैमरा लाना सफल हुआ। तभी स्वामी जी ने उस भक्त को बुलाकर उससे अपने आप कहकर अपनी एक फोटो खिंचवाई। जब रील धुलवाई गई तो रील की बाकी सारी फोटो ठीक आई थीं, जो स्वामी जी ने कहकर खिंचवाई थी वह भी, परन्तु वो पाँचों फोटो खाली थीं। उन खाली फोटों को देखकर अनायास ही उस भक्त का गुरु‒चरणों में शीश झुक गया। गुरुदेव के प्रति उसकी आस्था और अटूट हो गई। उसे शब्द नहीं मिल पा रहे थे गुरु‒महिमा का बखान करने के लिये। सही भी है, ससीम यानि वाणी की ऐसी योग्यता ही कहाँ, जो असीम यानि गुरु‒महिमा का बखान कर सके।

    इन्सां के मुख लाख हों, मुख में लाख जुबां ।

    गुरु‒महिमा फिर भी कभी, हो न सके बयां ।।

    गुरु‒महिमा के ऐसे चमत्कारिक प्रसंग नित्य प्रति ही भक्तों के जीवन में आते रहते थे। लेकिन हमारा उद्देश्य यहाँ पर ये चमत्कारिक घटनाएँ बताना नहीं, वरन् इन घटनाओं के माध्यम से भक्तों को ये बताना है कि गुरु द्वारा बोला हुआ एक शब्द भी व्यर्थ नहीं होता, इसलिये गुरु द्वारा कही गई प्रत्येक बात को गंभीरता से सुन कर उस पर अमल करना चाहिये और ये बताना है कि गुरु के मना करने पर या उनकी अनुमति के बिना कुछ भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने पर असफलता ही हाथ लगती है। ‘गुरु’ को तो मानना ही चाहिये, परन्तु जीवन को सफल बनाने के लिये ‘गुरु की बात’ को भी मानना चाहिये। गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश हैं, जो हम सबका मार्गदर्शन करते हैं। गुरु उस थोड़े से समय में, जो उनके सान्निध्य में बीतता है, भक्तों को इतना कुछ दे जाते हैं जो बाकी सारा जीवन जीने का आधार बन जाता है। शर्त सिर्फ इतनी है उन्नति की ओर अग्रसर होने के लिये, मोक्ष‒रूप शान्ति को प्राप्त करने के लिये, हमें उनके बताये हुए मार्ग पर चलना होगा।

    इस सृष्टि में मानव-जन्म प्रभु का सर्वोत्तम वरदान है। प्रभु ने मनुष्य को अपनी विशेष विभूति‒ विवेकशक्ति प्रदान करके, उसे सत् और असत् को समझने की क्षमता प्रदान करके इस योग्य बनाया है कि इस जीवन में वह अपना उद्धार कर सके, संसार‒बन्धन अर्थात् आवागमन के दुःखद क्रम से मुक्त हो सके। मनुष्य का इस पृथ्वी पर जन्म लेने का यही उद्देश्य है। मनुष्य के इस उद्देश्य को जनाने हेतु और संसार‒बंधन से मुक्त कराने हेतु ही भगवान् ‘गुरु’ के रूप में अपनी एक विशिष्ट शक्ति को भेज देते हैं। ‘गुरु मनुष्य और भगवान् के बीच सेतु का कार्य करते हैं।’ गुरु इस धरा पर जब भी जन्म धारण करते हैं; वे धन, संपदा और यश के लिये कभी नहीं जीते, उनका जन्म तो धर्म और मानव‒मात्र के कल्याण के लिये होता है। वे तो सहज आते हैं और अपना योगदान देकर तिरोहित हो जाते हैं।

    स्वामी जी ने अपनी दिव्य दृष्टि के द्वारा भगवद्गीता के गूढ़ ज्ञान को समझकर अपने आचरण में प्रतिष्ठित किया था। उनको देखकर ऐसा लगता था मानो गीता का जीवन्त स्वरूप हों। उन्होंने अपने विचारों और कर्म के माध्यम से गीता‒ज्ञान को तीनों (आध्यात्मिक, दैविक, भौतिक) तापों के निवारण का अमोघ महामन्त्र बताया, जिससे मानव के व्यक्तित्व व जीवन से समस्त दुःखों का विनाश हो उसकी विषादग्रस्त अवस्था दिव्य प्रसन्नता में परिवर्तित हो जाये और वह अपने आनन्द रूप में स्थित हो सके। गीता‒ज्ञान रूपी अमूल्य निधि देकर स्वामी जी "आषाढ़ शुक्ल पक्ष देवशयनी एकादशी¹ (7 जुलाई, 2006) को, आँखों को दिखाई देने वाला आकार, कानों को सुनाई देने वाले वो मधुर स्वर, पँचतत्त्व के विसर्जन का ये कौतुक दिखाकर" भौतिक रूप से इस संसार से तिरोहित हो गये। वैसे तो ‘विश्व को अपने में और अपने को विश्व में देखना और अनुभव करना’ जिनके जीवन की सहज साधना थी, उनका आना कैसा? और जाना कैसा? वे एक दिव्य आत्मा थे और अपने विचारों की धरोहर ‘श्रीमद्भगवद्गीता (सरल व्याख्या‒गुरु प्रसाद)’ के माध्यम से भक्तों को सतत् प्रेरणा देते रहेंगे। गढ़ी पुख्ता में ‘कुटी’ पर ही स्वामी जी की समाधि बनी हुई है। आज भी उनके समाधि‒स्थल पर जाते ही एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। ऐसे परम् आराध्य, पूज्यपाद ब्रह्मलीन गुरुदेव (स्वामी जी महाराज) को हमारा शत‒शत प्रणाम।

    1देवशयनी एकादशी - कहा जाता है कि भगवान् श्री हरि इस दिन शयन हेतु जाते हैं।

    एकादश्या तु शुक्लायामाषाढे़ भगवान् हरिए भुजंग शयने शेते क्षीरार्णवजले सदा।।

    अर्थात् आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान् श्री हरि क्षीर सागर वेफ अगाध् जल में शेषशयी वेफ रूप में शयन करते हैं। पिफर चार महीने पश्चात् कार्तिक शुक्ल एकादशी यदेवउठनी एकादशीद्ध को जागृत होते हैं। श्री हरि की यह निद्रा सामान्य नहीं हैए योग निद्रा है। योग निद्रा माने आध्यात्मिक नींदए जिसमें सोते हुए चेतना और बोध् अध्कि जागृत हो जाता है। योगी इस निद्रा वेफ द्वारा संसार से विलग होकर अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने भीतर समेट लेते हैं और इस प्रकार ब्रह्मरूपी ऊर्जा से जुड़ जाते हैं।

    हे गुरुदेव तुम्हें प्रणाम

    हे सर्वेश तुम्हें प्रणाम

    हे गुरुदेव.....

    सुख सागर सब दुःख हरण, आनन्दकन्द सुखधाम।

    कर्णधार भव सिन्धु के, भक्तों के तुम प्राण।।

    हे गुरुदेव.....

    भगवद्गीता के मूर्त रूप थे, भक्ति‒ज्ञान के दृढ़ स्वरूप थे।

    सांख्ययोगी थे तुम निष्काम।।

    हे गुरुदेव.....

    स्वरूप अपने में पाकर आनन्द, नाम रखाया स्वरूपानन्द।

    दिखाये अपने में चारों धाम।।

    हे गुरुदेव.....

    प्रेरणा दी अपने में जागो, गीता पढ़ो‒मोहनिद्रा त्यागो।

    करो अभ्यास आठों याम।।

    हे गुरुदेव.....

    [आषाढ़ शुक्ल पक्ष, देवशयनी एकादशी, साकार गुरुवर बन गये निराकार]

    कैसी थी वो कठिन घड़ी, खबर जब ये कानों में पड़ी।

    भक्तों की खुशियों को लगा विराम।।

    हे गुरुदेव.....

    हे ज्योतिर्मय, हे तेजपुँज, जनहित में किया जीवन आहुत।

    बनाये भक्तों के बिगड़े काम।।

    हे गुरुदेव.....

    पक्की गढ़ी का हर कण निहार रहा, हर भक्त है यही पुकार रहा।

    आओ फिर से सुनाओ गीता‒ज्ञान।।

    हे गुरुदेव.....

    माना कि कण‒कण में तुम बसे यहीं, पर अंखियाँ तो ‘स्वामी जी’ को ढूँढ रहीं।

    दर्शन देते रहना अविरल‒अविराम।।

    हे गुरुदेव.....

    ‘सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराय।

    सात समुन्द्र की मसि करूँ, गुरु‒गुण लिखा न जाये।।

    गुरु की महिमा अमित है, को कर सके बखान।

    शेष शारदा भी थके, करत गुरु‒गुणगान।।’

    ॐ नमो नारायणाय

    श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि

    श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत रूपी महासागर का एक अमूल्य रत्न है। धृतराष्ट्र और पाण्डु दो भाई थे। उनका जन्म कुरूवंश में हुआ था। बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन था, इसलिये छोटे भाई पाण्डु को राजसिंहासन मिला। पाण्डु की मृत्यु के समय उसके पुत्र (पाण्डव) छोटे थे, इसलिये राज्यभार कुछ समय के लिये धृतराष्ट्र को दे दिया गया। राजा बनने पर धृतराष्ट्र के मन में लोभ आ गया और वह अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बनाने की इच्छा रखने लगा। उसके पुत्र कौरवों ने पाण्डवों को मारने के लिए बहुत से प्रयत्न किये, पर वो सफल नहीं हो पाये। अंत में एक बार द्यूत‒क्रीड़ा (जुए) में दुर्योधन के छल प्रयोग से पाण्डव हार गये और शर्तानुसार उन्हें 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। वापस आने पर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य माँगा, किन्तु उसने देने से इन्कार कर दिया। उसके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं संधिदूत बनकर दुर्योधन के पास गये और दुर्योधन से पाण्डवों का राज्य लौटा देने का निवेदन किया। दुर्योधन के मना करने पर केवल पाँच गाँव की माँग रखी, परन्तु दुर्योधन ने कहा‒‘युद्ध के बिना मैं सुईं की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा।’ युद्ध अनिवार्य हो गया। धृतराष्ट्र और पाण्डु राजा भरत के वंशज थे, इसलिये इस युद्ध का नाम ‘महाभारत’ पड़ा। अर्जुन और दुर्योधन दोनों सहायता माँगने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण के पास गये। भगवान् निद्रा में थे। दुर्योधन पहले पहुँचा, परन्तु अहंकारवश वह भगवान् के सिरहाने की तरफ बैठा और अर्जुन बैठा चरणों की तरफ। आँख खुलने पर भगवान् की दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी। भगवान् ने अर्जुन से कहा‒ मैंने पहले तुमको देखा है, इसलिये पहले तुम माँगो। एक पक्ष में मैं रहूँगा निःशस्त्र, युद्ध नहीं करूँगा और दूसरे पक्ष में मेरी नारायणी सेना होगी। अर्जुन ने माँग की‒ मुझे तो आप (भगवान्) चाहिये, केवल आप। अर्जुन की इच्छानुसार समूचे त्रैलोक्य की बागडोर संभालने वाले भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और दुर्योधन को नारायणी सेना मिली। महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ।

    श्रीमद्भगवदगीता

    ॐ वसुदेव सुतम् देवम्, कंस चाणूर मर्दनम्। देवकी परमानन्दम् कृष्णम् वन्दे जगत गुरुम्।।

    ॐ वन्दे बोधमयम् नित्यम् गुरुम् शंकर रूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रःसर्वत्र वन्द्यते।।

    ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्चयते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते।।

    ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः!

    ★ ★ ★

    ॐ श्री परमात्मने नमः

    पहला अध्याय

    स्वामी जी–

    भगवद्गीता का प्रारंभ धृतराष्ट्र उवाच से होता है। धृतराष्ट्र की संगति लगाने के लिये पहले ये समझना चाहिये कि जिस समय महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ तो उस समय में व्यास जी ने आकर धृतराष्ट्र से कहा कि यदि तुम्हारी इच्छा युद्ध देखने की हो तो मैं तुमको नेत्र दे दूँ। धृतराष्ट्र ने कहा कि मेरी युद्ध देखने की इच्छा तो नहीं है, अपने नेत्रों से कुल का नाश देखना नहीं चाहता, परन्तु युद्ध की जो बातें हैं, वह सुनने की इच्छा है। व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि दीन्ही। कहा कि संजय मेरा शिष्य है, मैं इसको दिव्य दृष्टि देता हूँ। युद्ध में जो कुछ भी गुप्त रूप से या प्रकट रूप से, दिन में या रात में, किसी के मन में भी जो कोई भाव आवेंगे, उन सबको जो है संजय देख लेगा और तुमको सुना देगा। तो यह कहकर व्यास जी तो चले गये। युद्ध आरम्भ हुआ। नौ दिन युद्ध होने पर जब 10वें दिन भीष्म पितामह का शरीर गिर गया, तब संजय ने आकर धृतराष्ट्र से कहा कि भीष्म पितामह जो हैं, वो गिर गये। तो संजय की इस बात को सुन करके धृतराष्ट्र जो है संजय से पूछते हैं। तो इसके लिये ये कहते हैं‒

    धृतराष्ट्र उवाच

    धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।

    मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।1।।

    धृतराष्ट्र बोले‒ हे संजय! धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? ।।1।।

    संजय उवाच

    दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

    आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।2।।

    इस पर संजय बोले‒ ‘उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ।।2।।

    पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।

    व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।।3।।

    हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए ।।3।।

    अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।

    युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।।4।।

    इस सेना में बड़े‒बड़े धनुषों वाले युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं, जैसे सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद ।।4।।

    धृष्टकेतुंश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।

    पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः ।।5।।

    और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरूजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य ।।5।।

    युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।

    सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।।6।।

    और पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र ये सभी महारथी हैं ।।6।।

    अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।

    नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।।7।।

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारे पक्ष में भी जो‒जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये, आपके जानने के लिये मेरी सेना के जो‒जो सेनापति हैं, उनको कहता हूँ ।।7।।

    भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।

    अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।।8।।

    एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा ।।8।।

    अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।

    नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।।9।।

    तथा और भी बहुत‒से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र‒अस्त्रों से युक्त मेरे लिये जीवन की आशा को त्यागने वाले सब के सब युद्ध में चतुर हैं ।।9।।

    अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।

    पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।10।।

    भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है ।।10।।

    अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।

    भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ।।11।।

    इसलिये सब मोर्चों पर अपनी‒अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब ही निःसन्देह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें ।।11।।

    तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।

    सिंहनादं विनद्योच्चैः शं दध्मौ प्रतापवान् ।।12।।

    इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की नाद के समान गरजकर शँख बजाया ।।12।।

    ततः शाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।

    सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।।13।।

    उसके उपरान्त शँख, नगारे, ढोल, मृदंग और नृसिंहादि बाजे एक साथ ही बजे, उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ।।13।।

    ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।

    माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शौ प्रदध्मतुः ।।14।।

    उसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी

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