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Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2)
Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2)
Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2)
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Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2)

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मैं अपने सद्गुरु के हाथों ऐसे ही गढ़ा जा रहा हूँ। वे मुझे तैयार कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ इस बात को। तब से आज तक वही तैयारी चल रही है। जब तक गुरु चाहेंगे, यह शरीर टिका रहेगा। जिस क्षण वे देखेंगे कि इस देह का काम पूरा हो गया वे इसमें से निकाल कर पुनः किसी अन्य देह का आलंबन प्रदान कर देंगे। लेकिन तब वह किसी अभाव के कारण उत्पन्न बेचैनी का जीवन नहीं होगा बल्कि उपलब्धि के कारण उत्पन्न करूणा का जीवन होगा। अभी इस देह से मुझे कुछ नहीं करना है जो करना था वह हो चुका है। इसीलिये कहता हूँ अब जो आगे चल रहा है वह मेरा पूर्वजन्म नहीं पुनर्जन्म है। मैं रोज-रोज क्षण-प्रतिक्षण नया और नया हो रहा हूँ। सभी अनुभूतियाँ और सारे अनुभव एक ही लक्ष्य की ओर ले जा रहे हैं कि करूणा की वृत्ति ही एकमात्र आलंबन कैसे बन जाये और सब वृत्तियों का सहयोग एकमात्र करूणा की पुष्टि कैसे बन जाये यही लक्ष्य है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 7, 2021
ISBN9789354863554
Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2)

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    Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता - Santosh Kumar Khandelwal & Arun Kumar Arora

    डायरी संख्या - ५

    श्री हरि

    सद्गुरू श्री रजनीश

    साईं नाथ

    माँ आनन्द मयी

    भगवान एवं भगवती

    परमात्मा

    धर्मेश्वर देव

    पर्श्वनाथ

    सदाशिव:

    आचार्य अभिनव गुप्त

    ज्ञान गंज आश्रम

    माँ सती

    माँ दश महाविद्या

    श्री राम

    श्री कृष्ण

    माँ रजिया

    माँ गंग

    योगी श्रेष्ठ श्री श्री कालीपद गुहाराय के प्रसंग में पढ़ने का अवसर मिला था। विलक्षण प्रतिभा, अति गुह्य व्यक्तित्व के धनी थे वे। विरले ही योगी हुए हैं ऐसे। वे अतुलनीय थे। उन्हीं की सुनायी हुई एक बात है जो उनकी अपनी जीवनी से भी ज्यादा चमत्कारी एवं प्रभावोत्पादक है। यह चर्चा एक दस्तावेज है जो दैवी विधान के हाथों सुरक्षित है।

    श्री कालीपद गुहाराय को किसी दैवी सत्ता का सशरीर साक्षात् होता था। यह उनके जीवन में एक सामान्य घटना की भाँति घटता था। उस दैवी सत्ता के साथ उनकी वार्ताएँ होती थीं। जिनके माध्यम से वे अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति कर लिया करते थे।

    एक दिन सहज ही उन्होंने पूछ लिया कि बंधु (श्री गुहाराय उस शक्ति को इसी शब्द से संबोधित करते थे) यह तो बताएँ कि आज तक किस भक्त से वे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं?

    उत्तर में उस दैवी सत्ता ने कहा कि वरदराजन नटराजन अय्यर नाम का एक भक्त उन्हें सर्वाधिक प्रिय हुआ है।

    इसके पहले गुहाराय जी ने पूछा था कि अतीत काल से लेकर वर्तमान तक के भक्तों के नाम बताने को कहा था। जिसके उत्तर में बंधु ने अनेकानेक ज्ञात्-अज्ञात् नाम लिए। फिर पूछा गया था कि इनमें श्रेष्ठ सौ भक्तों के नाम गिनाएं। फिर से जवाब में सौ नाम सुनाये गए। आश्चर्य इस बात का था कि इन दोनों ही अवसरों पर वह नाम तो आया ही नहीं जो श्रेष्ठतम कहा गया।

    पुनः जिज्ञासा हुई कि जब यह भक्त सबसे प्यारा हुआ तो उनका नाम क्यों नहीं लिया गया? जवाब में कहा गया कि वह विलक्षण था। उसकी किसी से तुलना नहीं। और इस तरह उस भक्त के जीवन की सिर्फ दो-तीन घटनाएँ सुनाई गईं, परिचय के लिए। बाकी गुप्त रख ली गईं। वे तीनों प्रसंग सचमुच रहस्यपूर्ण हैं।

    बंधु ने बताया कि यह भक्त भक्त भी नहीं था, न ज्ञानी, न संन्यासी, न तपस्वी। इसके रोम-रोम में पूर्ण सच्चिदानंद ब्रह्म की अनुभूति समायी हुई थी, जो उसके पल-पल का साथी था। वह अहंकार शून्यता की मूर्ति थे।

    जब वे छ: या सात वर्ष के थे तब एक दिन का प्रसंग है। रात्रि में पिता और वह साथ-साथ सो रहे हैं। कुछ दूरी पर माँ सो रही है। पिता को लगा कि लडका सो नहीं रहा है। बल्कि रो रहा है। पिता की नींद टूट गई। लेटे-लेटे ही पूछा कि वह रो क्यों रहा है? लड़के ने कहा कि आपने पीछे बगीचे के पेड़ से उसके बच्चे काट कर अलग कर दिए हैं, इसलिए वह पेड़ रो रहा है, वह सो नहीं रहा है। इसे देखने से उसे भी रोना आ रहा है। ऐसे में वह कैसे सो सकता है? पिता ने समझ लिया कि लड़का नारियल गाछ के बारे में कह रहा है, जिसके कई फल आज मेहमानों की सेवा के लिए कटवाए थे। पिताजी ने समझाया कि बेटे, उसके और बच्चे आ जाएंगे। लड़के ने जवाब दिया कि पिताजी, लेकिन अभी तो वह रो रहा है। चलिए हम लोग बगीचे में चलकर उसे चुप कराएं। पिताजी ने कहा सो जाओ। सुबह सब ठीक हो जाएगा। ज्यादा बोलोगे तो तुम्हारी माँ जाग जाएगी फिर डाँट खानी पड़ेगी। लेकिन लड़का सो नहीं पाया, रोता ही रहा। अंततः पिताजी को उसे साथ लेकर आधी रात में बगीचे में जाना पड़ा जहाँ जाते ही लड़के ने इशारे से दिखाते हुए कहा और उधर बढ़ चला कि वह रहा वह पेड़ पिताजी, जो रो रहा है। लड़का उस पेड़ के पास जाकर उससे लिपट गया और रो-रोकर कहता रहा कि चुप हो जाओ भाई, चुप हो जाओ-देखो पिताजी कहते हैं कि तुम्हारे और सारे बच्चे आ जाएंगे, उन्हें फिर कभी नहीं लेंगे। तुम चुप हो जाओ। इस तरह लगभग घंटे भर बाद वह लड़का पिता जी के साथ वापस लौटा। पिताजी तो यह देख कर हतप्रभ भी थे और मन-ही-मन बाल सुलभ भी समझ रहे थे।

    यही बच्चा जब नौ या दस वर्ष का था तब एक दिन गाँव में एक पागल कुत्ते ने उसके साथ पढ़ने-खेलने वाले एक मित्र को काट लिया जिसके जहर से वह बालक मर गया। इससे उस बालक की माँ विक्षिप्त सी हो गई। वह कहने लगी कि मैं इसे किसी भी तरह जिला के रहूंगी। और वह कहीं और न जाकर सीधे उस विचित्र बच्चे के पास गई। जिसके साथ कुछ ही समय पूर्व गाँव में एक अद्भुत घटना घटी थी। आठ-दस वृद्ध एवं तपे हुए संन्यासी महात्मा लोग गाँव में अचानक प्रकट हुए और वे सीधे उस बच्चे के घर के सामने ही जाकर रुक गए। उनके आगमन से सम्पूर्ण गाँव में हल-चल पैदा हो गई थी। अनेक लोग उनके पीछे-पीछे हो लिए थे। जब उनके आगमन का संदेश घर पर विद्यमान लोगों को मिला तो वे तुरंत दरवाजा खोलकर बाहर निकले । उनके बाहर आने पर तुरंत सभी महात्माओं के द्वारा उस बालक को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम किया गया एवं वे लोग कुछ देर तक उस बालक के चारों ओर नृत्य भी किए थे जो बहुत दिव्य था। इस घटना से गाँव में उस बालक के बारे में सम्मान पैदा हो जाना स्वाभाविक था। सो वह महिला सीधे इस विलक्षण बालक के पास ही पहुँची एवं बोली कि तुम्हारा साथी आज मर गया है, तुम्हें पता होगा, तुम ही उसे जिन्दा कर सकते हो, मुझे पूर्ण विश्वास है। तुम जल्दी चलो और उसे जिन्दा कर दो। यह सुनकर बालक पेशो-पेश में पड़ गया। वह कहने लगा- माँ, मैं तो स्वयं उसी के जैसा ही एक बच्चा हूँ, मुझे यदि मरना होता तो मैं भी मर जाता। मैं तो खुद ही मर जाने वाला हूँ तो उसे मैं कैसे जिन्दा कर सकूँगा।

    लेकिन वह माँ वहाँ से टली नहीं। और अंततः उस बालक को जाना पड़ा। वह वहाँ पहुँच कर अपने दोस्त के बगल में खड़ा हो गया और झुक कर यह कहते हुए कि, यार, तुम अच्छा सो रहे हो, और तुम्हारी माँ का रो-रो के बुरा हाल हो गया है, उठो, उसने उस मृत बालक के एक हाथ को पकड़ कर झटका देते हुए खड़ा कर दिया और आश्चर्य कि वह जिन्दा हो गया था, वह चलकर तुरंत अपनी माँ से लिपट गया। इस घटना के तुरंत बाद वह बच्चा भागकर अपने घर में आकर छुपकर बैठ गया। उसे अपनी स्तुति कतई पसंद नहीं थी। वह किसी चीज से बचता था तो एक इसी चीज से – अपनी स्तुति से। वह ऐसी जगह से तुंरत भाग खड़ा होता था। सो बहुत ज्यादा लोगों में नाम होते देखकर एक दिन वह बालक अपना घर, परिवार, गाँव सब छोड़कर अन्यत्र कहीं चला गया। जिसके पश्चात् की कथा अलिखित ही है। हाँ, चालीस वर्ष की उम्र में मद्रास में एक चाय काफी नाश्ता के एक होटल मालिक के रूप में हम उन्हें पाते हैं। यह किस्सा भी मनोरंजक एवं विस्मयकारी है।

    श्री वरदराजन् उस समय में मद्रास नगर में एक होटल के मालिक थे। होटल बहुत छोटा था। यह बात साठ-सत्तर वर्ष पहले की है। होटल में चाय, कॉफी, नाश्ता आदि की व्यवस्था थी। साधारण तबके के लोग ही ज्यादा आते थे वहाँ तभी तो कभी-कभार पैसे को लेकर कहा-सुनी भी हो जाया करती थी। श्री वरदराजन् एकदम होटल मालिक ही हो गए थे। किसी को जरा भी ख्याल पैदा नहीं होता था कि वे कोई योगी हैं। उस होटल में चार–पाँच लडके काम करते थे। उनमें एक लडका सबका मुखिया था और वह वरदराजन् जी के करीब भी ज्यादा रहता था।

    श्री वरदराजन् के योगी होने का प्रथम साक्षी वहाँ वही लड़का था। वह जानता था कि मालिक दुकान बंद होने के बाद रात दस बजे कहाँ जाते हैं। बाकी दुनिया को यही मालूम था कि वे घर चले जाते हैं।

    हुआ यह कि एक दिन दुकान के लड़कों के बीच रूपये-पैसे को लेकर कुछ झगड़ा हो गया। तब उस झगड़े को निपटाना जरूरी था, नहीं तो मारपीट की नौबत आ खड़ी थी। तय हुआ कि मालिक के पास चला जाए। लेकिन मालिक के घर का पता सिर्फ उसी एक लड़के को पता था और वह नहीं चाहता था कि इस समय ये लडके वहाँ जाएं | क्योंकि इनकी समस्या को वहाँ जाने पर कुछ नहीं होने वाला था। बल्कि कुछ और हो जाने की संभावना थी। अतः वह ना-नुकुर करता रहा। लेकिन आखिर में बलात् उसे जाना पड़ा। सब लड़कों को लेकर वह समुद्र तट की ओर ले गया। फिर समुद्र तट पर पहुँच कर एक जगह छिप गए। वहाँ से उस लड़के ने संकेत से दिखलाया कि उधर देखो। सभी लड़कों की आँखे उधर ही उठ गईं और जो एक बार उठ गई तो उठी ही रह गईं।

    श्री वरदराजन सिर्फ धोती पहने समुद्र तट पर पानी में खड़े हैं। समुद्र की ओर मुँह किए हुए हैं। इतने में ही एक बड़ी लहर आई और चली गई। योगी राज के मुँह से निकला कि अरे-मेरा कमंडल, मेरा कौपीन? और वे समुद्र की ओर हाथ फैला कर देखने लगे। देखते ही देखते एक स्तंभ पानी का उठा समुद्र तल से और झुक कर श्री वरद राजन के चरणों में गिर गया। फिर वरदराजन जी की वाणी गूंजी और उन लड़कों ने देखा कि कमंडल वापस आ गया। लेकिन कौपीन? पुनः एक बार वैसा ही स्तंभ उठा और इस बार कौपीन भी वापस आ गया था। यह सब दश्य देखकर लडके लोग घबरा गए तथा अपने मालिक के प्रति अगाध श्रद्धा हो गई। वे जान गए थे कि उनके मालिक तो छुपे हुए महायोगी हैं, जिनका आदेश प्रकृति भी मानती है।

    इस घटना के पश्चात् वे पुनः गायब हो गए। फिर मद्रास में कभी नहीं दिखलाई पड़े।

    इन प्रसंगों को सुना कर बंधु ने कहा कि इसीलिए मुझे वह होटल वाला मुझे अत्यंत प्रिय रहा। उसके अंदर कहीं भी कोई चाहना थी ही नहीं। वह सही अर्थों में सहज था, स्वामाविक था।

    श्री कालीपद गुहाराय की जीवनी में इस प्रसंग का आना महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।

    मुझे यह बहुत प्रीतिकर रहा इसीलिए तुमलोगों से कहे बिना रह नहीं सका।

    मैं सच कहता हूँ कि बोध सर्वोच्च अनुभूति है और बोध अंतिम दशा है। आत्मरति के सिवा जहाँ कुछ नहीं। एक बार जहाँ यह घटना हो गई तो सनातन हो जाता है जीवन । बोध सबसे बडा श्रेयस है. सबसे बड़ी सम्पदा है।

    संयोग है कि श्री कालीपद गुहाराय जैसे योगी भी होते हैं जो न संन्यासी हैं, न प्रकट कोई साधु ही। योगी होने का तो प्रश्न ही नहीं-सिगरेट पीते हैं, माँस-मछली खाते हैं।

    लेकिन भाग्य के धनी होते हैं कुछ लोग कि प्रभु अपनी कृपा से, सद्गुरु अपनी कृपा से उनका जीवन सँवार देते हैं। मैं नहीं समझता कि मैं स्वयं इस श्रेणी में आता हूँ या नहीं। लेकिन इतना तो सच है कि एक तृप्ति (Contentment), एक सार्थकता तो है ही जीवन में और एक रहस्यमय अनुभव भी जो पल-पल का साथी है।

    मैं अभी एक लेख पढ़ रहा था। आधुनिक नक्षत्र विज्ञानियों की एक धारणा का वर्णन है उसमें | धारणा है कि इस सृष्टि का कोई आदि स्रोत होना चाहिए और कोई ऐसा अंत भी होना चाहिए जहाँ अंत में समूची सृष्टि समा सके। ऐसा अवकाश हो-ऐसी कोई चीज, कोई सत्ता होनी चाहिए-विराट।

    लेख ब्लैक होल के बारे में था। Black hole एक धारणा है। ब्लैक होल विराट है। उसका मुख ही इतना विराट है कि ऐसी-ऐसी अनेक सृष्टियाँ एक ही कौर में उदरस्थ हो जाएं। और उसके पेट की क्षुधा ऐसी है कि उसके समक्ष से हर गुजरती चीज, चाहे वह पृथ्वी हो या उससे 13 लाख गुणा बड़ा सूरज या यह समूची आकाश गंगा ही क्यों न हो और तो और प्रकाश जैसा अमूर्त तत्व भी यह चट ही चट कर जाता है अपने मुख में। अपनी जगह से रंच मात्र भी बिना हिले-डुले खींच लेता है। ब्लैक होल की महत्ता का वर्णन आदमी नहीं कर सकता है। हो सकता है हम किसी ऐसे ही ब्लैक होल के भीतर उदर में ही हों। क्योंकि उसके पेट में सारी चीजें हैं-पंच तत्व मौजूद हैं। हो सकता है हम एक ब्लैक होल में ही जी रहे हों। ऐसा ख्याल उस लेखक ने उठाया है। मैं यह पढ़ कर प्रसन्न हुआ कि उस बलैक होल की तुलना बैकुण्ठ से की गई है और गीता के एक श्लोक का विवरण देकर प्रमाणित किया है। इसकी तुलना स्वयं ईश्वर के साथ की है। यह विचित्र बात हुई। यह प्रयास ठीक दिशा में है। हाँ, एक बात और है ब्लैक होल में एक बार कोई चीज चली जाए तो उसमें ही रह जाना होता है अनंत अनंत काल के लिए, उसमें से निकलने का कोई मार्ग नहीं। यह भी विचित्र बात है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरा वास वहाँ है जहाँ एक बार प्रवेश होने पर फिर पुनः वापसी नहीं होती। क्या वे ब्लैक होल की बात कर रहे हैं? यह शंका लेखक ने उठायी है। ब्लैक होल, पूर्णता, विराटता, स्थिरता, स्वयंभयता और शन्यता (Vaccum) जैसे गणों से यक्त है। ये सब ही तो समाधि की अनुभूति में भी होता है। इसे ही तो ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, भगवान, भगवती आदि कहा है-मोक्ष कहा है, निर्वाण कहा है। ब्लैक होल की महिमा बखान की क्षमता से परे है। हाँ, एक फर्क है। जहाँ परमेश्वर उपनिषदों में अवर्णीयान अणुः, महतो महीयान् है तो ब्लैक होल सिर्फ विराट् है। वह अणु नहीं है। न वह अणु में विराट् है। वह सिर्फ विराट है। इसलिए कि वह एक वैज्ञानिक धारणा है, वह भौतिक है, अभौतिक नहीं, यह मेरा कहना है। यही फर्क है। जहाँ परमात्मा में एक गुण और है वह है उसकी परम स्वतंत्रता एवं निरंकुशता। वह ब्लैक होल में नहीं है। वह एक महान सत्ता है, उसमें जीवन लीला भी चल रही है – फिर भी वह परमात्मा की भाँत्ति एक अखंड चैतन्य नहीं है - वह निश्चय ही परमात्मा की लीला का एक अणु मात्र है। और जो निश्चय ही मनुष्य की इंद्रिय जनित या अनुभव जनित दृश्य-अदृश्य जगत् की तुलना में अति विचित्र, अति विराट् प्रतीत होता हो – किंतु ईश्वर उससे बहुत महान् हैं – क्योंकि गुणात्मक भेद है। आकार प्रकार का यहाँ सवाल नहीं है।

    ब्लैक होल एक वैज्ञानिक धारणा है। ईश्वर कोई अनुभव नहीं है-वह सब अनुभवों का एकमात्र साक्षी है। जो महाकाल है स्वंतत्र है सब कुछ वही है। एकमात्र वही है।

    निश्चय ही ब्लैक होल में भी वही है लेकिन वह उसी में सीमित नहीं है। उसे कभी कोई नहीं जान सकेगा वह सर्वदा अज्ञेय है।

    14 जनवरी, 1986

    मकर संक्रांति, गिरिडीह

    आज अचानक मैं बचपन में लौट गया। रायपुर का साहित्यिक वातावरण और उसमें होने वाले अनवरत कवि गोष्ठियाँ तथा कवि सम्मेलन आदि सब याद आने लगे।

    जब बहुत बच्चे थे। मिडिल स्कूल में पढ़ते थे तब एक कवि थे नगर में। उन्होंने एक वीर रस की किताब लिखी थी। नाम था ‘हल्दी घाटी’ । महाराणा प्रताप का हल्दी घाटी वाले युद्ध का वर्णन था उसमें । कैसे वीर लोग मैदान में लड़े, कैसे चेतक राणा को लेकर भागा। कैसे राणा अपनी वीरता की रक्षा करते रहे, यह सब है उसमें । अनुप्रास अलंकार का खूब प्रयोग किया गया है, उसमें गति (Futurism) को पैदा करने के लिए। वे कवि महोदय हमारे लिए आदरणीय एवं सयाने थे। नगर के ही थे। गंज पारा में बाँस के व्यापारी थे। उस जमाने में लोगों को कवि होने की एक सनक सी पैदा हो गई थी। ये वो लोग थे जो स्वतंत्रता संग्राम और गाँधी जी के आंदोलनों के समय पैदा हुए थे, अतः जोश-खरोश के वातावरण में बड़े होने के कारण ये लोग कुछ लिखा करते थे। बहुत सारे कवि लेखक पैदा हुए थे उस समय । निश्चित ही उनमें अनेक बहुत मंजे हुए एवं संवेदनशील भी थे। माखन लाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, निराला, पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि-आदि रत्न उसी काल की देन हैं। हिन्दी में खूब लिखा जाने लगा था। पहले ब्रजभाषा में कविता लिखने का प्रचलन था, फिर खड़ी बोली चलने लगी। जो हमारे समय तक आते-आते तो इतनी आधुनिक हो गई कि नई कविता से और आगे बढ़कर अकविता, नकविता और क्या-क्या हो गई। सब विचित्र हो गया। लेकिन फिर भी हर समय सृजनशील लोगों का प्रादुर्भाव होता ही रहा और वे अपना विशिष्ट स्थान बनाते ही गए जैसे अज्ञेय, और तार सप्तक के सभी कवि गजानन माधव मुक्ति बोध, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अमृता प्रीतम, जगदीश गुप्ता, दुष्यंत और श्रीकांत वर्मा आदि-आदि कवि गणों के नाम अभी याद आ रहे हैं।

    हमारे शहर के वे कवि महोदय जहाँ भी जाते हल्दी घाटी ही सुनाते। एक तो बाघ की मुद्रा में बैठ जाते, फिर आवाज को कड़ा करते और फिर दहाड़ कर कहते कि यह एक महाकाव्य है। फिर समझाते कि काव्य क्या है, खंडकाव्य क्या है, और उनका यह महाकाव्य क्या है? फिर सुनाना शुरू करते कि वे हरिऔंध जी के शिष्य हैं और सिंह है- फिर शुरू होता उनका हल्दी घाटी । उनका नाम इस समय याद नहीं आ रहा है। लेकिन एक और कवि याद आ रहे हैं- रूप नारायण वर्मा।

    श्री रूप नारायण वर्मा सारे शहर में कविराज के नाम से जाने जाते थे। उनका मेरा संपर्क आठ दस वर्षों तक रहा। वे सदैव विपन्नावस्था में ही दिखते रहे। थे तो कायस्थ घर के लेकिन सरस्वती वंदना में जो लगे तो वहीं के हो गए। कविराज विशेषण लगने के साथ-साथ उनके ऊपर आजीवन शनि लग गए। शहर भर में घमते रहते थे। दिनभर कभी कहीं तो कभी कहीं। कहीं चाय हो गया, तो कहीं नाश्ता। लेकिन यह नहीं कि माँगते फिरते हों। वे बाकायदा हुनरमंद आदमी थे। और हुनर क्या था टेलर मास्टरों के यहाँ पैंट कमीज में काज बटन करना। सिलाई-विलाई नहीं। सिर्फ काज बनाना और बटन लगाना। सो दिन में कभी बारह आने का काम होता था, तो कभी रुपये का। कभी-कभी रुपये की सीमा तोड़कर सवा रुपये, डेढ़ रुपये भी हो जाते थे- जब उनका सीजन चलता था तब । कविराज इतने में ही अपना और अपनी वृद्धा बुआ का खर्च चला लेते थे। मैं बहुत मसखरी किया करता था उनके साथ। कहा करता था कि इस बुढ़िया का झंझट क्यों ले रखा है। इसे अंधेरे-अंधेरे में एक दिन धक्का दे दो, गिर जाएगी तो मर जाएगी। तुम्हें छुट्टी हो जाएगी। तो वह हँसता। मैं भी हँसता। उसे अपनी बुआ से बहुत प्यार था। कविराज के माँ-बाप तो बचपन में ही गुजर गए थे। संयोग से यह बुआ विधवा होकर इनके घर में ही रहती थी। सो उसी ने पाल पोस कर कविराज को बड़ा किया था। इसलिए कविराज बुआ को माँ के समान मानते थे। दोनों एक-दूसरे का पूरा ख्याल रखते थे। कविराज का कमरा क्या था बस चार फीट चौड़ी और दस फीट लंबी खोली थी। उसी में सारा सामान एवं वे दोनों जन समय काट लेते थे। बुढ़िया उसमें रहती। कविराज तो सुबह होते ही निकल पड़ते बाहर, तो भोजन के समय ही लौटते। फिर दोपहर निकल पड़ते तो देर रात लौटते । रात बुआ के पास ही रहते। यही दिनचर्या थी उनकी । आगे सुनो।

    मैं बातें कर रहा था रायपुर के छठवें दशक की साहित्यिक गतिविधि की। तब रायपुर में अनेक नए उदीयमान कवि नजर आ रहे थे। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश और समूचा हिंदी जगत् एक नए लहर से लहरा रहा था। पाँचवे दशक तक पुरानी शैली के कवि-गीतकारों का चलन रहा फिर छठवें दशक से नए किस्म के लोग आने लगे। कविता कहानी सब जगह। और एक बात हुई। साहित्य में व्यावसायिकता भी आने लगी। प्रकाशन भी खूब होने लगा। छठवें दशक से तो पूरा एक आंदोलन ही चल पड़ा साहित्याकाश में। आलोचना प्रखर एवं प्रमुख हो गई। नाटकों का मंचन बढ़ने लगा। यहाँ तक कि सातवें दशक में नुक्कड़ नाटक भी रचे जाने लगे। यह सब रायपुर में हो रहा था। देश के सभी छोटे-बड़े इस किस्म के पुराने सांस्कृतिक शहरों में यह हो रहा था।

    दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गई थी लेकिन हमारे कविराज महोदय जहाँ के तहाँ ही रहे। जैसे कबीर की चदरिया जस की तस रही। एक ही वेशभूषा, एक ही जीवन का ढर्रा । चार फुट के थे। ठिगने थे, ऊपर से घुटनों से भी नीचे वाली साहित्यकारों वाली कमीज पहनते थे। नीचे धोती और बिवाई फटे पैरों की शोभा बढ़ाते थे, अति जर्जर हो चुके चप्पलों की एक लाचार जोड़ी। ऊपर गले में यदि कवि है तो एक गलाबंद होना जरूरी है जो न कवियों कि गले के ईद-गिर्द वैसे ही लिपटा रहता है जैसे शिवजी के गले पर साँप। यह बारह मासी गलाबंद भी बहुत पुराना होता। इसके बाद नंबर आता है सिर की टोपी का । जो अक्सर सफेद ही होता था। फिर कवि होने के कारण सामने के जेब में एक मोटा पेन भी रखते थे साथ में जिसमें से स्याही अक्सर रिसता रहता था और कविराज के हाथों के अलावा उसके जेब वाले हिस्से को भी नीलिमा प्रदान करता था। कविराज के हाथ में एक छोटा सा झोला न हो वह घर से बाहर ही न निकले। तो एक झोला भी होता था जिसमें उनकी सद्यः रचित रचनाएँ होतीं। कुछ पुरानी चीजें होती, एक पुरानी पड़ गई डायरी होती, जिसके पन्ने-पन्ने अपनी खैरियत मना रहे होते। कविराज को लिखने के लिए अच्छे पन्ने भी नहीं मिलते थे। बहुत पुराने एवं गंदे कागजों पर लिखते थे या कि उनके हाथों पड़कर कागजों की यह गति हो जाती थी, कह नहीं सकता। कविराज को अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ने का भी शौक था। अक्सर हम जैसे मित्रों से माँग कर पढ़ा करते थे। लेकिन उनका मुख्य रस लिखने में ज्यादा था पढ़ने-वढ़ने में नहीं।

    कविराज की उम्र मुझसे कम से कम तीस वर्ष तो ज्यादा थी ही। वे सयाने थे। फिर भी ठिगने कद के होने से और खूब पैदल चला करने से स्वस्थ रहते थे। उन्हें टेलर मास्टर लोग अपने यहाँ काम देने से कतराते थे। वह काम करते-करते अपने साथी कर्मचारियों के साथ बाणभट्ट एवं राजा भतृहरि की कथा या समुद्र गुप्त की राज्य प्रणाली पर प्रवचन शुरू कर देते थे। जिससे काम में व्यवधान होता था। लेकिन थे इतने सीधेसाधे कि कोई न कोई काम पर रख ही लेता था। नौकरी तो थी नहीं। किसी दिन मजूरी किए, किसी दिन नहीं किए और काम भी रोज नहीं मिलता था। फिर साहित्य गोष्ठियों में भी तो आना-जाना होता था। चाहे कोई बुलाए या न बुलाए । हाँ, वे इसी किस्म के कवि थे। गरीब थे इसलिए नहीं, वे थे भी इसी किस्म के कि हर सभा में नहीं बुलाए जाते थे। फिर भी पहुँचना उनका नैतिक दायित्व होता था। ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में दुर्ग गए हुए थे। वहाँ की घटना सुनाते हुए वे जो बयान करने लगे तो मेरा तो हँसते-हँसते हाल ही बेहाल हो गया। अब पहले ही बयान कर दिया है कि कविराज की जेब में कभी भी लक्ष्मी का वास नहीं रहा। सो उन्हें जब पता चला कि पी. आर. ओ. ऑफिस से एक जीप जा रही है, कुछ लोग जा रहे हैं दुर्ग उस सम्मेलन के लिए ही तो लपक कर पहुँच गए एवं निवेदन कर साथ हो लिए | अब जब दुर्ग में कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ तो अंत होने को भी आ गया। कविराज को छोड़कर सभी स्थानीय एवं बाहर से आमंत्रित कवियों ने एक के बाद अपना दूसरा राउंड भी समाप्त कर लिया। लेकिन कविराज का नाम नहीं लिया गया। वे मंच पर अपने नाम की पुकार सुनने को आतुर बैठे रहे। इसी बीच मंच से उनके साथ आए रायपुर के जीप वाले मित्र नीचे उतर गए एवं थोड़ी ही दूरी पर खड़ी अपनी जीप में जाकर वे लोग बैठ गए एवं गाडी स्टार्ट कर दी। इधर कविराज मंच पर अपने नाम की प्रतीक्षा में मरे जा रहे थे उधर वाहन के छूट जाने का भय हो उठा। वे बड़े असमंजस में थे कि यदि वे रुक जाते हैं तो उनके पास पैसे भी नहीं हैं कि बस का किराया दे सकें, और जीप तैयार होकर गुरगुरा रही है- ‘क्या करूँ? ‘क्या न करूँ’ वाली स्थिति में पड़ गए। इसी पेशोपेश में अचानक उन्हें निष्ठुर कवि सम्मेलन का परित्याग करना पड़ा एवं दौड़े जीप की ओर और इसके पहले कि जीप रवाना हो जाए वे लपक कर पहुँच गए एवं चढ़ बैठे। गाड़ी रवाना होने के मूड में आई ही थी कि कविराज सुनते हैं कि मंच से आवाज आ रही है "अब आपके सामने रायपुर से श्री... ।

    कविराज का मन बैठ गया। लेकिन जीप पर वे जो बैठ चुके थे अतः न वे उतरने का साहस जुटा सके, न कविराज उस सम्मेलन के श्रोताओं को कृतार्थ कर पाए। गाड़ी में बैठे-बैठे अपना नाम सुनते रहे। कविता की डायरी हाथ में पड़ी रही।

    ऐसे थे हमारे कविराज । एक कवि गोष्ठी में हरि ठाकुर नामक एक युवा कवि ने मजाक में उनका नाम लूप नारायण वर्मा कह कर पुकारा तो वे बड़े सटपटा गए। सीधे-साधे थे। लोग कभी-कभार उनसे छेड़खानी किया करते थे। वे किसी का बुरा नहीं मानते। लोग उन्हें प्रेम भी करते थे। सारे शहर से उनका परिचय था।

    कविराज की कविता की एक लाइन है- ‘तू अमृत पीले मृदुभाषिनी, मैं गरल पी जाऊँगा।’ बस, अब तुम ही समझ लो कि वे किस किस्म के कवि थे। कविराज की कोई-कोई चीज कभी-कभी स्थानीय और कभी बाहर की किसी पत्र-पत्रिकाओं में छपती थी तो वे बहुत ही प्रसन्न होते थे तथा उसका संकलन रखते थे।

    कविराज एक बार किसी मित्र की शादी में बराती होकर गए थे रामगढ़। ठंड के दिन थे, अच्छी ठंडी पड़ रही थी। वहाँ जाकर जो लड्डू खाने के लिए मुँह खोला तो मुँह खुला का खुला रह गया। कविराज अजीब मुसीबत में फंसे। खाना-पीना बंद और डॉक्टर के शरण जाना पड़ा। फिर रायपुर आए तो यहाँ भी हफ्तों इलाज चलता रहा। कविराज की बुआ का जब देहांत हो गया तब शायद उस वृद्धा की सेवा के फलस्वरूप उसके आशीष से कविराज को शासन से 150 रु. का वजीफा मिलना प्रारंभ हो गया। जिसके लिए वे दस-बारह वर्षों से लिख-पढ़ रहे थे, और जो हो नहीं रहा था-वह अचानक हो गया। इधर बुढ़िया की झंझट से मुक्ति और इधर 150 रु. महीने मिल जाने से कविराज को अब सिर्फ घूमना-फिरना एवं कवि कर्म करना होता था। लेकिन जीवन का ढर्रा वही का वही रहा। फिर मैं रायपुर छोड़ कर 1971 में बंबई चला आया भगवान के पास। संन्यासी हो गया मैं । इसके बाद कविराज से यदा-कदा रायपुर जाने पर भेंट होती रही जो पिछले अनेक वर्षों से नहीं हो पायी है।

    जनवरी, 1987

    पिछले दिनों 31 जुलाई से दिसंबर तक भगवान श्री रजनीश जी बंबई में जूहू पर स्थित सुमीला नामक भवन में निवास करते रहे। वहीं शिष्यों का समागम हो जाता रहा। देशी-विदेशी सभी विद्यमान होते थे। फिर भगवान को शिष्यगण पूना ले गए। पूना में पहले से ही कार्यरत आश्रम था ही–जहाँ पहले भगवान रह चुके थे जो सन् 74 से सन् 80 तक रजनीश फाउंडेशन का प्रधान आश्रम था। लेकिन वहाँ पहुँचाने के तुरंत बाद वहाँ के आग्रहवादी समुदायों के द्वारा उनके वहाँ रहने पर आपत्ति की गई। जिससे पुलिस कमिश्नर को उनको शहर छोड़ देने का आदेश जारी करना पड़ा। मामला हाईकोर्ट बंबई में गया। वहाँ से भी आदेश की पुष्टि हो गई। जिससे स्थिति चिंताजनक हो गई। पूना आश्रम से आनंद मैत्रेय जी का एक तार प्राप्त हुआ जिसमें यह सारा संवाद दिया गया था। यह भी कहा गया था कि प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री के नाम एक तार भेजा जाए जिसमें भगवान को सारी नागरिक सुविधाएँ दी जाए एवं सम्मान के साथ रहने दिया जाए। उस तार में आनंद मैत्रेय जी ने अंत में विशेष लिखा था कि यह भी हम बताएं कि भगवान ही गौतम बुद्ध हैं। यह संवाद थोड़ा अटपटा लगा मुझे। लेकिन जैसा कहा गया था वैसा ही तार कर दिया गया। मैंने उसे इन शब्दों में कहा He is the living Buddha of the day. मैं समझता हूँ यह एक विशुद्ध अभिव्यक्ति है। साफ बात है।

    भगवान को विश्व के अधिकांश देशों ने अपने यहाँ उतरने से मना कर दिया है। भारत उनकी जन्मभूमि है। यहाँ के वे नागरिक हैं। यहाँ उनका पूरा अधिकार है। लेकिन शासन के इस व्यवहार से एक प्रश्न खड़ा हो गया है। जिसे शायद कोर्ट ही तय करेगा। लेकिन इतना तो तय है कि उन्हें किसी भी शर्त पर उनकी नागरिकता से वंचित नहीं किया जा सकता और न ही एक नागरिक को मिलने वाली सुविधाओं से, चाहे उन पर कितने भी आरोप हों। सब आरोपों के जवाब हैं।

    भगवान के प्रति यह बर्ताव भारत के लिए एक शर्मनाक एवं चेतावनी प्रदायक घटना है। शासन और समाज को चाहिए, समूचे राष्ट्र को चाहिए कि उनकी उपस्थिति का लाभ उठाएं। भगवान वैसे तो समची मानवता की एक सम्पदा हैं लेकिन भारत का विशेष हक बनता है बशर्ते उस हक को भारत हासिल कर सके।

    भगवान के प्रति उपेक्षा या कड़ाई का रुख तुरंत त्याग कर संवेदनशील होना पड़ेगा-उन्हें ठीक से सुनना-समझना होगा। वे प्रज्ञा, प्रतिभा, प्रेम की मूर्ति हैं। वे दुर्लभ हैं-अति दुर्लभ हैं।

    20 जनवरी, 1987

    एक कहानी याद आ रही है। एक बस यात्री को साथी सहयात्री एक महिला को अभद्रता पूर्वक चलती बस में एक थप्पड़ जमा देने के अरोप में अदालत के द्वारा यह पूछने पर कि उसने उस महिला को थप्पड़ क्यों मारा, उस यात्री ने जो जवाब दिया वह अद्भुत् था। सुनकर तो वह मजिस्ट्रेट भी सकते में आ गया था।

    उस व्यक्ति ने कहा- जब मैं बस में चढ़ा और जगह नहीं होने से खड़ा रहा तभी कंडक्टर ने टिकटों के लिए आवाज लगाई एवं लोगों से टिकट के पैसे लेने लगे। तब मैंने देखा कि यह महिला जो बैठी थी, उसने अपने पैसे देने के लिए पहले अपना बड़ा बटुआ खोला फिर उसमें से छोटा बटुआ निकाला, फिर बड़ा बटुआ बंद किया। फिर छोटा बटुआ खोला और उसमें से एक रुपया निकाला। फिर छोटा बटुआ बंद किया। फिर बड़ा बटुआ खोला। फिर छोटा बटुआ बड़े बटुए में रखा। फिर बड़ा बटुआ बंद कर दिया। इसी बीच कंडक्टर ने पास आने पर महिला के हाथ में रुपया देखकर कहा कि चिल्हर नहीं है-आठ आने दीजिए। और वह आगे बढ़ गया। फिर उस महिला ने बड़ा बटुआ खोला फिर उसमें से छोटा बटुआ निकाला और बड़ा बटुआ बंद किया। छोटा बटुआ खोला। उसने वह रुपया छोटे बटुए में रखा और फिर छोटा बटुआ बंद किया। फिर, बड़ा बटुआ खोला। छोटे बटुए को बड़े बटुए में डाला और फिर बड़ा बटुआ बंद किया। फिर जब कंडक्टर लौटा तो फिर उसने बड़ा बटुआ खोला उसमें से छोटा बटुआ... । इतना सुनते-सुनते मजिस्ट्रेट ने चिल्ला कर कहा-क्या बकवास लगा रखे हो-बड़ा बटुआ, छोटा बटुआ, बड़ा बटुआ, छोटा बटुआ, यह सब क्या है?

    तब उस व्यक्ति ने हँसते हुए कहा कि-बस! हुजूर इतना सिर्फ सुनकर आपको गुस्सा आ गया। मैं तो इस सब को देख रहा था। तो क्या करता-आप ही बताएँ, इसी गुस्से में मैंने एक थप्पड़ जमा दी और क्या करता-जरा आप ही बताएँ।

    वह मजिस्ट्रेट चुप रह गया। मामला था ही कुछ ऐसा।

    कर्म तो जीवन का धर्म है। जो जीवंत है वह क्रियामय है। समस्त दैहिक या जागतिक व्यवहार कर्म का ही विस्तार है। और परिवर्तन होता रहता है इस तरह। जो चल रहा है-वह कहीं से प्रांरभ हुआ होगा और साथ ही कहीं उसका अंत भी होगा। कर्म से ही जन्म, आयुभोग एवं विश्रांति–मुत्यु होते हैं।

    लेकिन स्थिरता भी जीवन का धर्म है। जो गतिमान है वह अंत की ओर गतिमान है। इसलिए जो अंत आने पर रुक जाए और न सिर्फ रुक जाए बल्कि अपने वर्तमान रूप को भी विसर्जित करने को बाध्य होने से यह परिवर्तन आता ही आता है। यह परिवर्तन एक बार नहीं अनंत अनंत बार आता है। हर बार उठती है एक लहर आगे बढ़ती है, और फिर नीचे गिरकर जल में घुलमिल जाती है। यह क्रम सनातन है। जब तक जल है, तब तक लहरों का पैदा होना एवं बिखरना होता ही रहेगा।

    ऐसा ही है जीवन । अखण्ड जीवन खण्ड-खण्ड रूपों में उठता है, टिकता है और बिखर जाता है। शेष रह जाता है अथाह सागर। जो समस्त लहरों में होकर सिर्फ लहरें ही नहीं है। वह एक अमाप, रहस्यमय, स्थिर, अकर्ता होकर निष्क्रिय है। जो न उठता है, न गिरता है।

    जीवन से कर्म का उतना ही संबंध है, जितनी स्थिरता का। एक ओर वह चारों ओर प्रतिपल रूपांतरित होता हुआ लीला रूप भासता है तो दूसरी ओर परम शांति, आप्तकाम, शून्य समाधि है। जीवन की रहस्यमयता को मनुष्यों में शायद ही किसी ने समझा हो। यह असंभव है।

    कर्म और शून्यता को ठीक अनुपात में मिला पाना अति दुरूह चेष्टा है। कर्म और शून्यता के अनुपात को पकड़ना बिरले ही पुरुषार्थियों से संभव हुआ है। वे ही लीलाधर कहलाये-वे ही तीर्थंकर कहलाये-वे ही बुद्ध कहलाये।

    ऐसे व्यक्ति कर्म को सच में अपनी शून्यता की भीत्ति पर टिका कर करते हैं। इसी से ये कर्म अति स्वादमय-लीला तत्त्व कहलाये। ये कर्मानुष्ठान ही यज्ञ है। ये कर्म, कर्म नहीं, अपितु खेल है। जीवन खेल है-सिर्फ इस कर्म और शून्य के अनुपात को जानने वालों के लिए।

    जब भी कभी ऐसा जीवन प्रकट हुआ पृथ्वी पर तो वहाँ एक परम सौंदर्य का भी दर्शन होता रहा। वह मनोहारि, मनो मुग्धकारी, आनंदमयी, विमुक्तिदायी, चरम शांति प्रदायिनी घटना भी हो जाती रही।

    ऐसे अवसर पृथ्वी पर मनुष्य के ज्ञात इतिहास में कभी-कभी ही आए ।

    श्री कृष्ण एवं श्री राम अद्भुत उदाहरण हैं इस घटना के। फिर अनेक शरीर प्रकट हुए जिनकी आभा देखने लायक थी लेकिन उस स्पष्टता तथा इतनी विविधता के साथ देखने में नहीं आती।

    कर्म की गति और वह भी शून्य समाधि युक्त कर्म की गति को कोई नहीं माप सकता वह स्वयं ही रहस्यों का रहस्य है। यही जीवन है। जो न स्थिरता है न गतिशीलता। वह सिर्फ बोध है। एक ऐसा होना-जो सिर्फ होना है-शायद वह देखना है। साक्षीत्त्व है परम संतुलन। साक्षी ही जीवन है। साक्षी-सबका साक्षी।

    साक्षी का अर्थ होता है-प्रतिक्रिया शून्य लेकिन निर्जीव नहीं। साक्षी का अर्थ होगा जागे-जागे प्रतिक्रिया शून्य होना।

    आँखें खुली हों, प्रत्येक इंद्रिय सचेतन हो, मन सामान्य मन की भाँति गतिमान हो, हृदय में भावनाएँ और वृत्तियाँ तथा संवेदना सब भाँति जागी हुई हो और इन सबसे बनने वाली क्षण-प्रतिक्षण की घटना को जीना, उसे आत्मसात् करना- चलना-फिरना, उठना-बैठना, हँसना-रोना, पाना-खोना, कीर्ति-अपकीर्ति, सोते-जागते यही तो साक्षी होने का अर्थ है। लेकिन प्रतिक्रिया पैदा ही नहीं होती, यह एक परम आश्चर्य की घटना हो जाती है। साक्षी का अर्थ ही होता है द्वैतों से अलग-पारअद्वैत तत्व है वह। लेकिन वह साक्षी है तो किसी अन्य का नहीं। स्वयं ही को जानता जीता है वह। यही आत्मरति है। अद्वैत नहीं है वह। वह एक रति है। यह क्रीड़ा है।

    यही क्रीड़ा, कर्म और शून्यता के उचित संतुलन का परिणाम है। लेकिन मैं देखता हूँ कि लोग एक दूसरे के गाल पर थप्पड़ मार रहे हैं। कारण भी स्पष्ट होता है कछ किया नहीं जा सकता। कोई निर्णय नहीं कर पाता कि क्या ठीक है, क्या गलत है। सब हैरान हैं। लोग दिग्भ्रांत हैं। वे असंतुलित हैं। वे सम्यकत्व से दूर हैं। वे दूर हैं इस अर्थ में क्योंकि वे इतने अभ्यस्त हो गए हैं अपने असंतुलित दशा के साथ कि वे चाह कर भी इस अद्भुत् क्रीड़ा के स्वाद से दूर हैं। वे ध्यान ही नहीं दे पाते कि ऐसा भी एक जीवन होता है और वह इस पृथ्वी पर यद्यपि अभी तक कुछ एक शरीरों के द्वारा ही जिया गया है तथापि यदि साहस किया जाए–प्यास हो आत्मा में तो व्यक्ति के कदम उस ओर उठ सकते हैं।

    उस जीवन में कर्म तो हैं। जो भी जरूरी है सब है-पूरा जीवन है वहाँ लेकिन कोई द्वन्द्व नहीं होगा। पूरा मनुष्य समुदाय होगा वहाँ लेकिन कोई टकराव नहीं होगा। और वे लोग अपनी अद्भुत दशा के कारण कोई यंत्र मानव से नहीं हो जाएंगे बल्कि इसके ठीक उल्टे वे नए सिरे से एक नई संवेदना को वे जानेंगे जिसे अभी तक नहीं जाना है। वे पूर्ण रूप से जागरूक लोग होंगे। इसका कारण होगा उनके हृदयाकाश में विराजमान शून्य समाधि।

    कबीर ऐसे ही फकीर थे। नानक ऐसे ही संत हुए। रस से सराबोर । जीवन की जीवंत प्रतिमा।

    काश! कि मैं जो कह रहा हूँ उसे कभी सामूहिक स्तर पर जिया जाए। यह कोई यूटोपिया नहीं है। यह मेरी अपनी ही कहानी है। मैं साक्षी हूँ। साक्षी हूँ जीवन का। साक्षी हूँ स्वयं का। साक्षी हूँ थप्पड़ों का जो मैंने खाये हैं, और जो मैंने मारे हैं। साक्षी हूँ उन क्षणों का, उन क्षणों के साक्षी का भी साक्षी हूँ मैं । मैं सबका साक्षी हूँ। साक्षी होना ही मेरा स्वभाव है। साक्षी होना ही मेरा कर्म है, समाधि है।

    मैंने उम्र के अट्ठाइस बरस तो घर पर रहकर रायपुर में ही काटे । मैं घर में अपनी पीढी के सबसे पहले बालक होने के नाते न केवल अपने घर में, बल्कि आस-पड़ोस के घरों में भी बहुत प्यार पाता था। वैसे भी पारा हो गया था जो पौंता नाम के एक गाँव के नाम पर पड़ा था। यह गाँव रायपुर से अमनपुर के रास्ते में 09 मील की दूरी पर है। तो अट्टाइस वर्ष यूँ ही बीत गए। न कोई जिम्मेदारी, न कोई श्रम। घर पर कभी किसी भी बात पर टोका टोकी नहीं हुई। पूर्ण स्वतंत्र रहा। जरूरत से ज्यादा स्वंतत्र। जो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और अंत में गृहत्याग के रूप में परिणत हुई।

    उनतीस वर्ष के बाद का जीवन संन्यासी के रूप में चल रहा है। इस दरम्यान शुरू के कुछ माह भगवान के साथ रहने का सौभाग्य मिला। उसके पश्चात् उनके आदेश से यत्र-तत्र घूमने लगा। लगभग माह भर एक कीर्तन मंडली में भी रहा। यह दस-बारह संन्यासियों की एक टोली थी जो समूचे उत्तर भारत में भ्रमण कर रही थी। भगवान की इच्छा से मैं उसमें रहा। फिर मंडली वालों की अनिच्छा के कारण भगवान ने उस ओर से विरत कर दिया।

    संन्यासोपरांत दो-तीन वर्ष का समय गुजरात, बंबई, आबू और रायपुर आदि स्थानों में भ्रमण करते-करते कट गया जो कभी भी कष्टकर या चिंताप्रद नहीं रहा। यूँ ही समय कट गया। लोगों का खूब स्नेह मिला। लोग मुझे देखकर बहुत सम्मान करते थे तथा अपने घरों में निमंत्रित करते थे। माया इस बीच कभी संग में तो कभी अलग रहती थी। माया इस बीच कुछ माह बंबई के जगधर स्ट्रीट में जगशी भाई के यहाँ रही। वे लोग संन्यासी थे। कुछ माह अंधेरी में मिश्रीलाल जी शर्मा के घर भी रही जो ठीक जैन स्थानक के सामने है। फिर तो 1974 से 1983 तक कलकत्ता में रहने का समय बीता। इस बीच मैं इतने सुविधा में रहा कि कर्म जैसी चीज ही गायब हो गई। असल में इसके पूर्व ही, अनेक वर्षों पूर्व मुझे वैसे भी कर्म की निरर्थकता, कर्म संन्यास की गंध लग चुकी थी। उस पर यह अवसर और माया जी की सेवा ने मुझे एकदम अलाल बना दिया।

    भगवान एक दिन माया से हमारे विवाह के पूर्व पूछ रहे कि वह मेरे साथ रहना पसंद करती है लेकिन वह जान ले कि कमलेश एकदम अलाल है। वह कुछ नहीं करेगा और ऊपर से तुम्हें उसकी सेवा करनी पड़ेगी। बोल, क्या अभी भी तेरी मर्जी उसके साथ रहने की है?

    तब माया जी के द्वारा हाँ कहने पर पुनः पुनः दो-तीन बार भगवान ने कहा कि वह एकदम अलाल है।

    माया उस समय इस शब्द को पहली बार सुन रही थी अतः कुछ अर्थ नहीं समझ पा रही थी। लेकिन अंदाज जरूर लगा रही थी। फिर बाद में मुझसे मिलने पर जब बताया तब मैंने कहा कि ठीक कह रहे थे। एकदम ठीक कह रहे थे। आलसी तो हूँ ही मैं । अब उन्होंने मुहर लगा दी।

    सो कलकत्ता में करेला पर नीम भी चढ़ गया। पहले तो नहीं चढ़ा था लेकिन कुछ मित्र ऐसे आए जिन्होंने मुझे सोते से जगा दिया और मैं अब एकदम निरंकुश हो गया। अब कर्म की कहाँ जरूरत । श्रम नहीं के बराबर होता गया।

    इसके बाद 1983 के पश्चात् से गिरिडीह निवास चलता रहा। यहाँ आने पर एक अच्छा सा मकान ही बनवा कर रहने लगा। साथ ही कलकत्ता से साथ आए बागेश्वर, देवेंन्दर सिंह और तरूणा भी रहने लगे। उनके लिए भी कमरे बनवा दिए गए। पूरा कैम्पस सात-आठ एकड़ का जो दस फुट ऊँची दिवाल से घिरा हुआ है।

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