श्रीमद्भगवद्गीता: चौपाई (कविता) में
By अरविंद कुमार
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About this ebook
श्रीमद्भगवत गीता हिंदुओं के सबसे पवित्र ग्रंथों में से एक है। इसमें निहित ज्ञान और विज्ञान कालजयी है। इस कालजयी ग्रंथ का महत्व इसी बात से जाना जा सकता है कि महाकाव्य महाभारत का एक हिस्सा होने के बावजूद इसे उपनिषद का दर्जा दिया गया है। यह पवित्र पुस्तक आध्यात्मिक ज्ञान का खजाना है। आनंदमय जीवन कैसे जियें? जीवन में किसी भी प्रकार की दुविधा से कैसे बाहर निकलें? इसकी पूरी व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग के माध्यम से पाई जा सकती है। इसे पढ़कर, समझकर और अपने जीवन में उतारकर जीवन को और अधिक सार्थक बनाया जा सकता है। मूल रूप से संस्कृत में लिखे गए इस पवित्र ग्रंथ में सात सौ श्लोक हैं। आजकल लोगों को संस्कृत भाषा समझने में कठिनाई होती है, इसलिए इस पुस्तक के माध्यम से अरविंद कुमार ने इसे चौपाई के रूप में सरल हिंदी में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है
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श्रीमद्भगवद्गीता - अरविंद कुमार
श्रीमद् भगवद् गीता
श्रीमद्भगवद्गीता भगवान की वाणी है। इसमें दिया गया उपदेश अत्यंत पुरातन योग है जिसे सबसे पहले भगवान् ने सूर्यदेव को दिया था। कालांतर यह ज्ञान शनैः शनैः पृथ्वी से लुप्तप्राय हो गया। इसे पुनः महाभारत युद्ध के प्रारम्भ में,जब अर्जुन रणभूमि में अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर और युद्ध के परिणाम को समझकर मोहग्रस्त हो गये थे, अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को धर्म और कर्म का सच्चा ज्ञान प्रदान किया।
भारतीय परंपरा में गीता का वही स्थान है जो उपनिषद और धर्मसूत्रों का है। सभी उपनिषदों को गाय एवं गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। अर्थात गीता उपनिषदों का सार है। गीता का सन्देश मानव को दिव्यता की ओर ले जानेवाला एवं धर्म और काल निरपेक्ष है। वर्तमान युग में,बदलते सामाजिक परिदृश्यों में गीता आज भी उतनी ही महत्ता बनाये हुए है जितना महाभारत में समाविष्ट होते समय थी।
गीता में जीवन का सार है एवं आधार है। मैं कौन हूँ और कैसे इस संघर्षमय जीवन में सुखी और शांत रह सकता हूँ? मेरा जो या देह है, वह क्या है? क्या इसी देह के साथ मेरा आदि और अंत है? देह त्यागने के बाद मेरा अस्तित्व क्या होगा और किस रूप में होगा? इस जगत में मेरे आने का कारण क्या है? ये जो सार्वभौमिक प्रश्न हैं इसका उत्तर देती है।
गीता का प्रारंभ 'धर्म' शब्द से होता है और अंत 'मम' अर्थात मेरा शब्द से। मेरा धर्म क्या है? इसी बात का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए धर्ममय संबाद के माध्यम से दिया गया है। धर्म,जिसे धारण कर मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त कर सकता है और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकता है।
गीता सात सौ मन्त्र-स्वरुप श्लोकों का संकलन है। यह एक गीतों भरी कहानी है जो कर्तव्यपथ से च्युत मोहग्रस्त अर्जुन को सुनाया गया है। अर्जुन पूर्णरूप से शरणागत होकर भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु मान लेता है। गुरु और शिष्य का प्रश्नोत्तर तबतक चलता रहता है जबतक शिष्य के तरफ से प्रश्नों का उठना बंद नहीं हो जाता है। अर्थात शिष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और वह कर्तव्यपथ पर वापस लौट आता है।
मूलतः संस्कृत में लिखित श्रीमद्भगवद्गीता को बहुत से विद्वानों ने हिंदी या अन्य भाषाओं में अनुवाद द्वारा सरल बनाकर लोगों के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसको और सरल बनाने के क्रम में मैंने अपनी पहली पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता (सरल हिंदी कविता में)
के माध्यम से प्रस्तुत किया। आगे और अध्ययन करने के बाद लगा कि इसे और सरल तरीके से हिंदी कविता (चौपाई) के माध्यम से, छोटे-छोटे वाक्यों में, प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे समझने में और आसानी हो जायगी। मैंने प्रयास सम्पूर्ण किया और मेरी दूसरी पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता, चौपाई (कविता) में)
आपलोगों के सम्मुख प्रस्तुत है। इसे पढें अवश्य और अपनी राय बतायें।
अरविन्द कुमार
प्रेरणास्रोत
सर्वप्रथम जनवरी 2015 में अबूधाबी (संयुक्त अरब अमीरात)में गीता परिवार अबूधाबी
के संपर्क में अपने मित्रों के माध्यम से आया था जो प्रत्येक सप्ताहांत में सत्संग आयोजित करते थे जिसमें गीता-पाठ के साथ-साथ गीता में अन्तर्निहित ज्ञानों पर विचार-विमर्श किया करते थे। सत्संग संचालक श्रीमान जगदीश नौडियाल जी, जिन्हें गीता ज्ञान के ऊपर काफी अच्छी पकड़ हैं, का गीता ज्ञान सम्बंधित प्रवचन काफी प्रेरणादायक होता था। यहीं से गीता के प्रति मेरा लगाव बढ़ा जो लगातार बढ़ता गया। जैसे-जैसे गीता का अध्ययन मनन करता, लगता कि इससे तो बहुत पहले ही जुड़ जाना चाहिए था। गीता में अन्तर्निहित ज्ञान निश्चित तौर पर जीवनपथ के गहन तम को काटकर प्रकाशमय कर देता है। कर्तव्यपथ में आनेवाले शूल भी फूल के सम हो जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के पठन-पाठन में रूचि निरंतर बढ़ती गयी। सेवा-निवृति के बाद जनवरी 2018 में स्वदेश लौटने पर भी इस क्रम में विखराव नहीं हुआ। कोरोना-काल के विकट वक्त में भी ऑनलाइन सत्संग के माध्यम'से जुड़ाव बना रहा। सत्संग संचालक एवं अन्य ज्ञानियों के प्रेरक प्रवचन प्रेरणा के स्रोत बने जिसके फलस्वरूप मैंने गीता को सरल हिंदी कविता में लिखने का प्रयास किया। प्रयास सफल रहा और मार्च 2022 में एक पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता (सरल हिंदी कविता में)
के रूप में आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत हुआ। पुस्तक के प्रकाशन में मेरी पुत्री अदिति एवं दामाद श्री ऐश्वर्य प्रताप सिंह का विशेष सहयोग रहा। यह मेरी पहली पुस्तक थी।
गीता में मेरी अभिरुचि निरंतर बनी रही। लग रहा था इसे और सरल तरीके से कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है। छोटे-छोटे सरल वाक्यों के माध्यम से चौपाई के रूप में प्रस्तुत करने का विचार आया। परिवार के सभी सदस्यों पत्नी,पुत्री-दामाद एवं बेटे-बहु से विचार-विमर्श किया। समवेत स्वर में लिखने को प्रोत्साहित किया। मार्च 2022 में प्रारम्भ किया और मार्च 2023 में कार्य संपन्न हुआ। लगभग एक वर्ष से कुछ जायदा समय अनुवाद और टंकण करने में लग गया। और अब यह आपलोगों के समक्ष एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है।
प्रोत्साहन का श्रेय गीता परिवार अबूधाबी
एवं परिवार के सभी सदस्यों को जाता है। इसके लिए उनसबों का मैं आजीवन आभारी रहूँगा।
अरविन्द कुमार
गणपति वंदन
लेकर जिनके नाम सभी, करते प्रारम्भ सब काज,
कोटि-कोटि नमन उनको, सादर गणपति महराज ।
महादेव सुत, गौरीनन्दन,
रिद्धि-सिद्धि पिय पगवंदन ।
विघ्न विनाशक,सिद्धि विनायक,
गजबदन, गणपति, गणनायक ।
हे सर्वव्यापी, सर्वोच्च चेतना,
हरें मेरी क्लेश, कष्ट, वेदना ।
मन चाहता लिखना कुछ अच्छा,
निहित ज्ञान, विवेक अति कच्चा ।
मनोरथ करता छूने को अम्बर,
करें प्रशस्त पथ, ज्ञान के सागर ।
भगवदगीता जो ज्ञान का सागर,
जीवन का पथ करत उजागर ।
संविधान जो मानव जीवन का,
दिखलाता पथ प्रभु शरण का ।
लिखने की उसे चौपाई में इच्छा,
समर्थ करें प्रभु, दे शुभ शिक्षा ।
हे गणपति, कृपा करें, दे सकूँ जीवन को अर्थ,
भाषा, लेखनी, ज्ञान दें, लिखने में होऊं समर्थ ।
श्रीकृष्ण की जीवन यात्रा
(संक्षिप्त)
अवनि पर था जब तम घोर, अराजकता फैली चहुँ ओर ।
अधर्म का था जाल विकराल, धर्म को मानो निगला काल ।
दुराचारी थे हर ओर प्रसन्न, सदाचारी सर्व दुःख सम्पन्न ।
लोलुपता अपने चरम पर, स्वार्थपरायणता भी परम पर । 01
प्रजा हो रही थी सर्वत्र त्रस्त, रक्षक, भक्षक बनकर मस्त ।
त्रास को करने को तब अंत, शायद सोंचे मन में अनंत ।
धरा पर लिए पुनः अवतरण, बनकर प्रिय देवकीनन्दन ।
स्थान, कंस - कारा मथुरा, भाद्र कृष्ण - अष्टमी धरा । 02
थे माता - पिता बेड़ी से युक्त, अवतरण संग हुये वे मुक्त ।
वसुदेव लेकर बालक नवजात, गोकुल पहुँचे नन्द के पास ।
यशोदा-नन्द बने माता - पिता, वहीं पले बढे बचपन बिता ।
बड़ा विलक्षण बालक रूप, कार्य किये उसीके अनुरूप । 03
बड़ों के वास्ते जो था दुष्कर, सहज दिखाया उसको कर ।
पूतना को कंस बना यमदूत, मरने को भेजा देवकी सुत ।
नन्दलाल किये पूतना संहार, गंगाचार्य किये नाम संस्कार ।
यमलार्जुन का परित्राण किया, वृन्दावन को प्रस्थान किया । 04
वत्सासुर, बकासुर और अघासुर, वधकर भेज दिया नरकापुर ।
ब्रह्मा जी का गर्व भग्न किया, कालिया का मानमर्दन किया ।
वंशी धरकर बने वंशीधर, तान से मन को लेते हर ।
राधा जो थी ब्रजभान कुमारी, बन गयी थी कृष्ण की प्यारी । 05
दोनों के बीच प्रेम अनूठा, केवल सत्य,नहीं कुछ झूठा ।
राधा मुरली – स्वर दीवानी, खोती सुध बुध सुनकर रानी ।
यमुना किनारे गोपियों संग, बाल लीला देख, होते दंग ।
गोपियों के वस्त्र का हरण, कहे, मर्यादा का करें वरण । 06
ब्रजवासियों को दिया रक्षण, ऊँगली पर गोवर्धन धरण ।
इन्द्र का मद मर्दन किया, नाम उनका गोविन्द दिया ।
की गोपियों संग रासलीला, अद्भुत विलक्षण बाललीला ।
शंखचूड़ को स्वर्ग पिठाये, केशी मार, केशव कहलाये । 07
अरिष्टासुर का किये संहार, मथुरा से आयी कंस पुकार ।
तब गए मथुरा होकर तैयार, चाणूर, कंस का किये संहार ।
कंस वध से रिक्त सिंहासन, उग्रसेन संभाले उसका शासन ।
उम्र ग्यारह में गए गुरुकुल, पायी जहाँ पर शिक्षा मूल । 08
महर्षि सांदीपनि, गुरु महान, दिया चौंसठ कलाओं का ज्ञान ।
वहीँ बने, घने मित्र सुदामा, जिनकी मित्रता का अति नामा ।
मिले वहीँ, परशुराम महान, सुदर्शनचक्र किया उन्हें प्रदान ।
पंचजन्य दैत्यका प्राण लिया, पांचजन्य शंख धारण किया । 09
जब बारहके हुए कृष्ण कुमार, हुआ उनका उपनयन संस्कार ।
सोलह बर्षों तक मथुरा वास, नहीं रहा बहुत भरा मिठास ।
जरासंध सेना लेकर बार-बार, चढ़ आता वह मथुरा के द्वार ।
हर बार मिली कृष्ण को जीत, सत्रह बार किये उसे पराजित । 10
अठारवी बार हजारों ब्राह्मण, सेनागे रखा वो सम्मुख रण ।
सोंचकर ब्रह्म-हत्या का पाप, वे नहीं लिए उसका सन्ताप ।
रण को दिये वहीँ पर छोड़, कहलाये कृष्ण तभी, रणछोड़ ।
मथुरा छोड़, आये रत्नाकर, द्वारिका बना, तट सिन्धुसागर । 11
कालयवन वीर योद्धा अजेय, उसके वध का रखकर ध्येय ।
उसे द्वन्द युद्ध को ललकारा, सुनकर दौड़ा, मद का मारा ।
श्रीकृष्ण वहाँ से निकले भाग, पीछे दौड़ा कालयवन अभाग ।
श्रीकृष्ण भाग कंदरा में आये, मुचुकुन्द जहाँ निद्रामें समाये । 12
समझ मुचुकुन्द को वह कृष्ण, लात मार, उठाया वह निम्न ।
मुचुकुन्द की दृष्टि पड़ी उसपर, भष्म हुआ वह,वहीँ जलकर ।
पाकर वयोवृद्धों का आशीष, श्रीकृष्ण बन गये द्वारकाधीश ।
रुक्मिणी का पाकर सन्देश, हरण कर लाये द्वारका देश । 13
कृष्ण संग रुक्मिणी विवाह, बाद कृष्ण-जामवंती विवाह ।
फिर सत्यभामा संग विवाह, और हुए कई अन्य विवाह ।
नरकासुर का किया संहार, हजारों कन्याओं का उद्धार ।
करके कन्याओंका परित्राण, अदितिको किया कुण्डल प्रदान । 14
इन्द्रका अहं तत्व मर्दन कर, पारिजात लाये द्वारका शहर ।
वाणासुर से हुआ फिर युद्ध, मिले वहां उषा और अनिरुद्ध ।
पौंड्रक,जो रूषदेश का राजा, मानता स्वयंको कृष्ण अभागा ।
बासुदेव को युद्धको ललकारा, गया अभागा वो रण में मारा । 15
जरासंध को दे रण में साथ, काशीराज लिया दुश्मनी हाथ ।
कृष्ण इससे थे बहुत कुपित, रण में मारकर साझा हित ।
पिता वध से था पुत्र परेशान, बदला लेने को ली वो ठान ।
शिव का किया तपस्या घोर, और हुए शिव प्रसन्न विभोर । 16
पाया शिवसे अचूक वरदान, द्वारका पर किया कृत्या संघान ।
कृत्या चली द्वारका की ओर, जहाँ पर था श्रीकृष्ण का ठौर ।
कृत्याको आता देख श्रीकृष्ण, सुदर्शन का किया वे प्रक्षेपण ।
हुआ कृत्या का वहां हनन, काशीनगरी का भी हुआ दहन । 17
द्रौपदी स्वयंबर पहुँचे पांचाल, पांडवों का रखा वहां ख्याल ।
कौरव पांडव जब हुए अलग, पांडव पाये खांडवप्रस्थ सलग ।
श्रीकृष्ण ने उनकी की मदद, वसायी नगरी वहां इन्द्रप्रस्थ ।
सुभद्रा ने किया अर्जुन वरण, अर्जुन ने किये सुभद्रा हरण । 18
श्रीकृष्ण का इसमें साथ था, अर्जुन पर उनका हाथ था ।
अर्जुन किये खांडव वन दाह, श्रीकृष्ण ने थी दिखायी राह ।
मय दानव से लेकर मदद, बनाये सभागार किस्म अलग ।
इन्द्रप्रस्थ का दृश्य विहंगम, वास्तु,कला का अद्भुत संगम । 19
राजा युधिष्ठिर ने बनाया मन, राजसूय यज्ञ करने का प्रण ।
विधिवत श्रीकृष्ण को आमंत्रण, इन्द्रप्रस्थ में उनका आगमन ।
राजसूय यज्ञ की बाधाओं पर, किये चिंतन सतर्क होकर ।
जरासंध मार्ग में भीषण बाधा, निशाना पहले उसपर साधा । 20
मगध आ द्वन्द को ललकारा, भीम ने जरासंध को मारा ।
योजना कृष्ण की सफल हुयी, बाधा, विघ्नें सब दूर हुयी ।
राजसूय यज्ञ की हुयी तैयारी, राजे आने लगे बारी-बारी ।
लिए सब अपने अपने स्थान, आरंभ हुए फिर विधिविधान । 21
उठा सभा में तभी शिशुपाल, लगा मचाने भीषण भूचाल ।
कह रहा कृष्ण को अपशब्द, उपस्थित सभी थे निःशब्द ।
बहुत समझाये श्रीकृष्ण उसे, सठ, पर समझा नहीं उसे ।
अंतिम बार उसे पुनः