AUTOBIOGRAPHY OF PRANAB MUKHERJEE
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AUTOBIOGRAPHY OF PRANAB MUKHERJEE - Pranab Mukherjee
अध्याय - 1
मुक्तियुद्ध: बांग्लादेश का गठन
14-15 अगस्त, 1947 की अर्द्धरात्रि को, भारत का विभाजन दो हिस्सों में कर दिया गया- भारत तथा पाकिस्तान। इसके साथ ही और दो उपमहाद्वीपीय पड़ोसी स्पष्ट रूप से अलग-अलग राजनीतिक वक्र रेखाओं के रूप में सामने आए। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद, राष्ट्र के संचालन का भार पंडित जवाहर लाल नेहरू के कंधों पर आ गया, जो आधुनिक भारत के निर्माता थे। 15 अगस्त, 1947 से 27 मई, 1964 तक, उस शांत व विनीत महापुरुष ने भारत का मार्गदर्शन किया। भारत के भव्य संविधान को लागू करते हुए, देश के आधुनिक प्रजातांत्रिक प्रशासन की नींव रखी। आजादी मिलने के पांच वर्षों के भीतर ही, भारत की जनता को उनके शासक चुनने का अधिकार सौंप दिया गया था और उन्होंने 1952 के आम चुनावों में, इस अधिकार का उपयोग किया, जो कि सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर, बिना किसी पक्षपात के एक स्वतंत्र चुनाव आयोग द्वारा संचालित किए गए थे।
भारत में आधुनिक प्रजातांत्रिक प्रणालियों व संस्थाओं के गठन के बाद, नेहरू ने आधुनिक आर्थिक विकास को भी गति प्रदान की और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के साथ भारत की विदेश नीति की आधारशिला रखी। शीघ्र ही यह उपनिवेशवाद के विरुद्ध एक आंदोलन बन गया, जिसे आजादी के लिए तड़प रहे अनेक एशियाई, अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देशों ने अपना स्वर दिया और इस तरह भारत ने तीसरी दुनिया के नेता के रूप में अपना स्थान पाया।
1964 में नेहरू के निधन के बाद एक राजनीतिक शून्य आ गया, एक करिश्माई नेता के जाने के बाद, ऐसा होना स्वाभाविक ही था। 1967 के आम चुनावों में इंडियन नेशनल कांग्रेस को बहुत हानि हुई; हालांकि लोकसभा में इसे बहुमत मिला, परंतु अनेक राज्यों में इसे हार का सामना करना पड़ा। अनेक राजनीतिक दल, शक्तिशाली प्रांतीय खिलाड़ियों के रूप में सामने आए, जिससे कांग्रेस का आधिपत्य दुर्बल हुआ। नेहरू के निधन के बाद जो संगठनात्मक विरोधाभास उत्पन्न हो गए थे, अंतत: वही 1969 में इंडियन नेशनल कांग्रेस को विभाजन तक ले गए।
और फिर इंदिरा गांधी का सशक्त नेतृत्व सामने आया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने ‘द्रविड़ मुनेत्र कणगम’ (डीएमके) तथा ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ (सीपीआई) जैसे दलों के सहयोग से, 1971 के मध्यावधि आम चुनावों में जीत हासिल की। उसे लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ और 1972 में अनेक राज्य विधानसभाएं भी हाथ आ गईं, जिसे इसने पहले गंवा दिया था।
* * *
जब भारत में ये सब घटनाएं घट रही थीं, तब पूर्वी पाकिस्तान भी भारी बदलाव के दौर से गुज़र रहा था। पाकिस्तान के पहले मुक्त आम चुनावों में, शेख़ मुजीबर रहमान के नेतृत्व में, पूर्वी पाकिस्तान के ‘आवामी लीग’ ने पाकिस्तान नेशनल असेंबली (पीएनए) में स्पष्ट बहुमत के साथ विजय प्राप्त की। इसके साथ ही, 1971 में, उपमहाद्वीप का इतिहास एक उल्लेखनीय मोड़ पर आ खड़ा हुआ।
वह साल पाकिस्तान के लिए बहुत सकारात्मकता के साथ आरंभ हुआ, प्रजातंत्र का उदय हुआ और चुनाव हुए। हालांकि यह सब देश के विभाजन के साथ समाप्त हुआ: पाकिस्तान के भौगोलिक रूप से दो सुदूर भाग-पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान, जो भारतीय क्षेत्र के 16,000 किलोमीटर से आपस में अलग थे- वे पाकिस्तान तथा बांग्लादेश नामक दो देशों के रूप में सामने आए।
हालांकि जब रैडक्लिफ लाइन द्वारा पाकिस्तान का विभाजन किया जा रहा था, तब भी ये आंतरिक विरोधाभास स्पष्ट थे, परंतु नए राष्ट्र की राजनीति के चलते, ये और भी मुखर हो गए। देश की अल्पमत जनसंख्या वाला क्षेत्र होने के बावजूद, पश्चिम पाकिस्तान काफी बड़ी संख्या में राजस्व पाता था, जो औद्योगिक, इंफ्रास्ट्रक्चर विकास तथा कृषि सुधारों के काम आता था। इतना ही नहीं, पश्चिम पाकिस्तान के संभ्रांत पंजाबी व अफगानी ही देश की राजनीति पर अपना वर्चस्व रखते थे, जिनमें पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों का प्रवेश न के बराबर था। हालांकि पूर्वी पाकिस्तान के लिए आर्थिक उपेक्षा तथा राजनीतिक निष्कासन ही प्रमुख मसले नहीं थे। वहां नस्ली तथा भाषा संबंधी भेदभाव के मसले भी थे। इस तरह क्या ये विभाजन, अनिवार्य नहीं था?
* * *
इस संदर्भ में बंगाल की राजनीति तथा विशेष रूप से मुस्लिम नेताओं व विधायकों की भूमिका बहुत महत्त्व रखती है। इसे बेहतर रूप से समझने के लिए हमें बीते समय में वापिस जाना होगा।
भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधीन, 1937 में संपूर्ण ब्रिटिश भारत में प्रांतीय असेंबली चुनाव होने थे ताकि प्रांतीय सभाओं का नियंत्रण व स्वतंत्रता बनी रहे। कांग्रेस ने पांच प्रांतों में बहुमत पाया- आगरा व अवध के संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत व बरार (अब मध्य प्रदेश), बिहार, उड़ीसा तथा मद्रास प्रेसीडेंसी (जहां सारी सीटों के 74 प्रतिशत के साथ इसने जस्टिस पार्टी को ग्रहण लगा दिया) नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रांत में कांग्रेस अल्पमत दल के सहयोग के साथ मंत्रीमंडल बनाने में सफल रही। इसी तरह, बांबे में, जहां इसने लगभग आधी सीटें पाईं, यह छोटे प्रो.कांग्रेस समूहों के समर्थन से बहुमत पाने में कामयाब रही।
बंगाल, असम व पंजाब ने अनिर्णायक मत पाए, हालांकि कांग्रेस व मुस्लिम लीग बहुत बड़ी संख्या में सीटें पाने में सफल रहे।¹ सिंध में ‘सिंध यूनाइटेड पार्टी’ को स्पष्ट बहुमत मिला।
बंगाल में कांग्रेस को लगभग 52, मुस्लिम लीग को 39, जबकि ए. के. फज़ल उल हक़ की ‘कृषक प्रजा पार्टी’ (केपीपी) को 36 सीटें प्राप्त हुईं।² इस निर्णय के कारण पहले फज़ल उल हक़ ने कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार बनाने की सोची। उसने मुस्लिम लीग की बजाए कांग्रेस तथा दूसरे राष्ट्रवादियों के साथ हाथ मिलाने को वरीयता दी। हालांकि सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई तथा बंगाल के एक प्रमुख कांग्रेसी नेता व असेंबली में कांग्रेस पार्टी के नेता शरतचंद्र बोस उनके साथ हाथ मिलाने को तैयार भी हो गए, परंतु वे किसी संयुक्त कार्यक्रम के लिए सहमति नहीं प्राप्त कर सके। तब फज़ल उल हक़ ने मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिलाने का निर्णय लिया।
इस तरह अनुसूचित जातियों तथा कुछ स्वतंत्र उच्च जातियों के हिंदू विधायकों के समर्थन व कृषक प्रजा पार्टी- मुस्लिम लीग गठबंधन के फलस्वरूप सरकार सत्ता में आई। मुस्लिम लीग ने बंगाल में अपनी सरकार बनने के बाद, अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए मुस्लिम जनता को अपना पूरा सहयोग दिया। इसने हक़ को भी शीघ्र ही अपनी ओर मिला लिया और उसके अनुयायियों को भी अपने साथ करने में कामयाब रही। दरअसल, हक़ अपनी सरकार के समर्थन में प्रत्येक हित को पाने की व्यग्रता में ही, मंत्रीमंडल में अल्पसंख्यक हो गए। उसके अपने चुनावी संकल्पों के टूटने के कारण केपीपी में हलचल मच गई। मार्च 1938 के आरंभ में ही, केपीपी असेंबली पार्टी ने विपक्ष के साथ मिलकर अपना विरोध प्रकट कर दिया। हक़ को एहसास हो गया था कि यदि उसे अपने मंत्रीमंडल को बचाना है तो जिन्ना का समर्थन लेना होगा और दिसंबर 1937 में लखनऊ में हो रहे इसके वार्षिक सत्र में भाग लेना होगा। 1937-40 के दौरान, हक़ मुस्लिम लीग के चक्कर में फंस गए, पर उसने कभी स्वयं को उस ज़मींदारी-वर्चस्व³ वाली पार्टी में सहज नहीं पाया।
हक़ का राजनीतिक कैरियर 1941-46 के दौरान विविध राजनीतिक दलों के बीच फैला रहा। वह 1937 में बंगाल का पहला प्रीमियर बना, परंतु यह सरकार अधिक समय तक नहीं चली और दिसंबर 1941 में समाप्त हो गई। हालांकि उसने 1940 में, मुस्लिम लीग परिषद में प्रसिद्ध लाहौर प्रस्ताव पारित किया (जो बाद में एक स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग के रूप में जाना गया), परंतु उसने 1946 में पाकिस्तान के स्वतंत्र अस्तित्व को अपना समर्थन नहीं दिया और उसकी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी।
हक़ ने अपने शासन के दौरान बंगाल के किसानों के लिए बहुत कुछ किया, उन्हें महाजनों के चंगुल से छुड़वाया। डेब्ट रिकवरी सेेटलमेंट बोर्ड के गठन से, कर्जे के बोझ तले दबे किसानों को राहत मिली। हक़ ने ही एक शक्तिशाली मध्यम वर्ग का उदय किया, जो आने वाले सालों में बंगाल की राजनीति की आधारशिला बना।
1946 का जूरी निर्णय स्पष्ट रूप से हुसैन शाहिद सुहरावर्दी के सुयोग्य नेतृत्व तथा मुस्लिम लीग के जनरल सेक्रेट्री अबुल हाशिम की संगठनात्मक योग्यता का प्रदर्शन करता है। इन चुनावों से पहले सुहरावर्दी हक़ के सामने एक प्रस्ताव रख चुके थे कि यदि वे मुस्लिम लीग के अधीन आ जाएं तो उन्हें 40 मुस्लिम निर्वाचन-क्षेत्र दिए जा सकते हैं, परंतु हक़ ने हामी नहीं भरी। नतीजन मुस्लिम लीग ने 121 मुस्लिम सीटों पर से 115 पर जीत हासिल की, जबकि नेशनलिस्ट मुस्लिम तथा हक़ की पार्टी का सफाया हो गया। कांग्रेस का भी यही हाल था, पर कांग्रेस आम सीटों में कामयाब रही। उसने 90 में से 87 सीटें हासिल कीं।⁴ तभी पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी भी मैदान में उतरी और तीन सीटें पाईं : ज्योति बासु, रतनलाल ब्राह्मण तथा रूपनारायण राव चुने गए।
अधिदेश के बावजूद, सुहरावर्दी ने तत्काल सरकार नहीं बनाई। यह देखा गया कि ऐसी सरकार में बहुत बड़ी जनसंख्या का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा, इसलिए उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहा। दोनों दलों के वरिष्ठ नेताओं ने सब कुछ व्यवस्थित करने का प्रयास किया, परंतु उनके प्रयास असफल रहे। नतीजन, सुहरावर्दी ने 23 अप्रैल, 1946 को ‘मुस्लिम लीग’ के अन्य सात सदस्यों तथा ‘अनुसूचित जाति फेडरेशन’ के नेता जोगेंद्र नाथ मंडल के साथ मिलकर अपना मंत्रीमंडल तैयार किया, जोगेंद्र मंत्रीमंडल के एकमात्र हिंदू मंत्री थे। ढाका नवाब के परिवार को इस मंत्रीमंडल में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। हालांकि बोगरा नवाब मुहम्मद अली को एक पद दिया गया। अधिकतर मंत्री उच्च मध्यम वर्ग से थे।
कुछ ही माह बाद इस सरकार को संकट का सामना करना पड़ा। मुस्लिम लीग 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन दिवस’ के रूप में घोषित कर चुकी थी, ताकि अपनी पाकिस्तान वाली मांग को बल दे सके। हालांकि यह अपेक्षा की गई थी कि यह अंग्रेज़ों के विरुद्ध होगा, पर कलकत्ता में यह हिंदुओं व मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगों के रूप में फैल गया। हिंदू व सिक्खों को यह मानकर निशाने पर रखा गया कि वे पाकिस्तान के बनने का विरोध कर रहे थे। हालांकि इस समय के अनेक प्रकाशित दस्तावेज़ मिलते हैं, परंतु तत्कालीन मुस्लिम लीग के छात्र विंग के नेता तथा बांग्लादेश के निर्माता शेख़ मुजीबर रहमान ने अपनी पुस्तक ‘द अनफिनिश्ड मेमोयर्स’⁵ में इसका बहुत अच्छा वर्णन किया है। इसके साथ ही तपन राय चौधरी के ‘बंगालनामा’⁶ का नाम भी लिया जा सकता है।
हालांकि यह सब कलकत्ता में ही समाप्त नहीं हुआ। बंगाल में नोआखली तक दंगे फैल गए और बिहार तथा पंजाब भी चपेट में आ गए। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव जाने कहां चला गया और कुछ समय के लिए जैसे सब अपनी बुद्धि गंवा बैठे हों। यह उस उल्लेखनीय हिंदू-मुस्लिम एकता के बिलकुल विपरीत था, जिसका प्रदर्शन नवंबर 1945 में तब किया गया था, जब हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिलकर कलकत्ता की सड़कों पर अंग्रेज़ों की फूट डालो व राज करो की नीति का विरोध किया था। उस दिन के बाद से सुरक्षा के मायने ही बदल गए। कलकत्ता की जो सड़कें हिंदू और मुसलमानों के लिए सुरक्षित मानी जाती थीं, वे रातों रात अपने मायने बदलते हुए उनके लिए असुरक्षित हो गईं।
* * *
दूसरे विश्व युद्ध के बाद की अवधि भी भारत में भारी राजनीतिक बदलाव लाई। इस दौरान कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे मंत्रीमंडलों ने आगरा व अवध के संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांतों, बिहार व उड़ीसा, एनडब्ल्यूएफपी, बांबे तथा मद्रास से अपना त्यागपत्र दे दिया था, क्योंकि वह अंग्रेज़ सरकार के उस निर्णय का विरोध कर रही थी। उसने भारतीय जनता की राय लिए बिना ही, उसे जर्मनी के नेतृत्व वाले एक्सिस बलों के विरुद्ध खड़ा कर दिया था और ब्रिटेन के नेतृत्व में चल रहे मित्र राष्ट्रों के साथ मिल गई थी।
इस संकट को सुलझाने व राजनीतिक समाधान निकालने के लिए, सर स्टफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक सशक्त मंत्रीमंडलीय मिशन भेजा गया ताकि दस भारतीय नेताओं के साथ बातचीत कर, उन्हें अंग्रेज़ सरकार के युद्ध प्रयासों में योगदान के लिए राजी किया जा सके। हालांकि मिशन असफल रहा, क्योंकि कांग्रेसी नेताओं ने उनके रवैए के लिए सहमति नहीं दी। 8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ आरंभ कर दिया।
नतीजन, कांग्रेसी नेता बंदी बना लिए गए और पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हालांकि महात्मा गांधी का संदेश देश के कोने-कोने तक जा पहुंचा और लोग भारी संख्या में अंग्रेजों के खिलाफ़ खड़े होने लगे। सुभाष चंद्र बोस भारत से निकल गए, वे जर्मनी के रास्ते जापान जा पहुंचे, वहां उन्होंने ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का नेतृत्व संभाल लिया। 1944 तक, नेता जी जापान के सहयोग से अंडमान-निकोबार को आजाद करवा चुके थे।⁷ जर्मनी, इटली व जापान के समर्पण के साथ ही, 1945 में दूसरा विश्व-युद्ध समाप्त हो गया, जिससे राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया। कांग्रेस पर लगी पाबंदी हटाई गई। नेताओं को जेल से रिहा किया गया और अंग्रेज़ सरकार व उनके बीच वार्तालाप पुन: आरंभ हुआ।
2 सितंबर, 1946 को भारत में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ। गवर्नर जनरल लॉर्ड आर्कीबाल्ड वेवल को कार्यकारी परिषद का अध्यक्ष तथा जवाहर लाल नेहरू को उपाध्यक्ष चुना गया। अन्य सदस्यों में सर क्लॉड ऑचिनलैक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आसफ अली, सी. राजगोपालाचारी, शरतचंद्र बोस, डॉ. जॉन मथाई, सरदार बलदेव सिंह, सर शाफ़त अहमद खान, जगजीवन राम, सैयद अली ज़हीर और सी. एच. भाभा शामिल थे। पांच सीटें मुस्लिम लीग को भी दी गईं, जिनके लिए उन्होंने प्रारंभ में मना कर दिया; हालांकि 15 अक्टूबर, 1946 को उन्होंने हामी भरी और लियाकत अली खान, इब्राहिम इस्माइली चुंदरीगर (दोनों ही बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पदों पर रहे), अब्दुर राब निश्तर, राजा गाजनफ़र अली तथा जोगेंद्रनाथ मंडल सरकार में शामिल हुए। (जिन्ना ने मंडल को चुनकर, कांग्रेस के मुस्लिम कार्ड का सामना करना चाहा) अन्य मुस्लिम लीग सदस्यों में से, कोई भी बंगाल से नहीं था।
3 जून, 1947 को अंग्रेज़ सरकार द्वारा घोषित योजना के अनुसार, पंजाब व बंगाल के विभाजन होने वाले इलाकों में शैडो मंत्रीमंडलों का गठन होना था ताकि सारे हितों की देखरेख हो सके। पूर्वी पंजाब का शैडो कैबिनेट प्रमुख डॉ. गोपीचंद भार्गव को बनाया गया, जबकि पश्चिमी पंजाब में ममदोत नवाब इफ्तिकार हुसैन को प्रमुख बनाया गया; पश्चिम बंगाल मंत्रीमंडल का नेतृत्व डॉ. पी. सी. घोष को दिया गया, जो कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य थे। मुस्लिम बहुल जिलों व गैर-मुस्लिम जिलों के विधायकों को अलग से मिलकर आपस में तय करना था कि वे भारत या पाकिस्तान में से, किसके साथ रहना चाहेंगे।
इस दौरान, सर सिरिल रैडक्लिफ के नेतृत्व में पंजाब व बंगाल के लिए सीमा कमीशन की स्थापना की गई।
जब 17 अगस्त, 1947 को रैडक्लिफ की सोलह पृष्ठों वाली रिपोर्ट सामने आई तो उसमें से नौ पृष्ठ बंगाल के लिए थे, वह अनेक आश्चर्यों से भरपूर थी। खुलना व चटगांव के पहाड़ी जिले, जहां दो दिन पूर्व ही भारतीय राष्ट्रीय तिरंगा फहराया गया था, वे पाकिस्तान के अंग बन गए थे। मुर्शिदाबाद व मालदा जिले ने दो दिन पूर्व पाकिस्तान का झंडा फहराया था, उन्हें भारत को सौंप दिया गया। जलपाईगुड़ी, मालदा व नदिया जिले भारत में ही रहे, परंतु उन्होंने पाकिस्तान के हाथों अपने महत्त्वपूर्ण इलाके गंवा दिए। वहीं दूसरी ओर, हालांकि जैसोर और दिनाजपुर पाकिस्तान को दिए गए थे, दोनों जिलों में से प्रत्येक का उपविभाग भारत को दिया गया (जैसोर का बनगांव तथा दिनाजपुर का बालुरघाट)। रैडक्लिफ की कैंची चलने के बाद पश्चिम बंगाल का जो राज्य उभरा, वह भी कुछ ऐसा ही था मानो उसे कीड़ों ने खाया हो। दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी के जिलों को भौतिक रूप से पश्चिम बंगाल की प्रमुख भूमि से अलग कर दिया गया था। मुस्लिम यह देखकर उदास थे कि कलकत्ता पश्चिम बंगाल के पास चला गया था और साथ ही मुर्शिदाबाद का मुस्लिम जिला भी उसे ही दे दिया गया था। भारत को मुर्शिदाबाद देने के पीछे रैडक्लिफ की मंशा यही थी कि पाकिस्तान को जो खुलना दिया गया था, उसकी क्षतिपूर्ति की जा सके। वह चाहता था कि हुगली नदी, जहां से गंगा से आरंभ होती है, वह सारा हिस्सा भारत में ही रहे ताकि कलकत्ता बंदरगाह की कार्रवाई में बाधा न हो। हिंदुओं को दु:ख था कि चटगांव के पहाड़ी बौद्ध जिले पाकिस्तान को दे दिए गए थे। इसके बाहरी जगत से सभी सामान्य संप्रेषण मार्ग वहीं से होकर जाते थे और यह साफ था कि रैडक्लिफ ने यह देखकर ही ऐसा निर्णय लिया था, हालांकि वह जल्दबाज़ी में यह नहीं देख पाया कि चटगांव के पहाड़ी रास्तों की, भारत के असम प्रांत की लुशाई पहाड़ियों से एक लंबी सीमा लगती थी। जैसे कि सभी दलों ने यह आश्वासन दिया था कि बिना किसी आपत्ति के रैडक्लिफ के पुरस्कार को स्वीकार करेंगे तो उन्हें चुपचाप उसे स्वीकार करना पड़ा, जो किन्हीं दो देशों के इतिहास में सर्वाधिक विचित्र, अतार्किक तथा मनमाने ढंग से खींची गई सीमा रेखा थी।⁸
हालांकि जिन्ना और कांग्रेस को इस बात का एहसास हो गया था कि उनमें से कोई भी देश पूरी तरह से पंजाब, बंगाल या असम पर अपना दावा नहीं कर सकता था, इसलिए वे विभाजन की योजना से मिलने वाले हर क्षेत्र को स्वीकार करने के लिए उत्सुक थे। हालांकि, बंगाल के कुछ नेताओं ने अविभाजित बंगाल का उपाय भी सुझाया - मौलाना अकरम खान और एच.एस. सुहरावर्दी, प्रांत के विभाजन के विपक्ष में थे - और कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेता अनेक अवसरों पर आपस में मिले ताकि इसकी उपेक्षा का कोई उपाय कर सकें। मुजीबर अपनी पुस्तक ‘द अनफिनिश्ड मेमोयर्स’ में सुहरावर्दी के खिलाफ़ की गई एक साजिश के बारे में लिखते हैं, जो विभाजन योजना को अंतिम रूप देते हुए की गई थी। उनका दावा था कि बंगाल के मुस्लिम लीग नेतृत्व का बंगाल विभाजन के बारे में अंधेरे में रखा गया था, इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि सुहरावर्दी की स्थिति बिलकुल स्पष्ट थी और वे अविभाजित बंगाल के लिए अपना योगदान दे रहे थे। बंगाल में आपसी बातचीत के बाद एक फार्मूला निकाला गया, जिसका एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह था कि बंगाल के लोगों द्वारा एक निर्वाचक सभा चुनी जाएगी और उसके सदस्य स्वयं तय करेंगे कि भारत में रहेंगे, पाकिस्तान में रहेंगे या स्वतंत्र रहना चाहेंगे। प्रांतीय मुस्लिम लीग परिषद ने भी इसकी पुष्टि की थी। जब शरतचंद्र बोस (जो अंतरिम सरकार से निकाले जाने के बाद सुहरावर्दी से हाथ मिला चुके थे), किरण शंकर रॉय तथा अन्य मुस्लिम लीग नेताओं ने यह फार्मूला निकाला, तो कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने इसे नकार दिया। शरतचंद्र बोस के वक्तव्य के अनुसार, महात्मा गांधी व नेहरू ने बोस को सरदार वल्लभ भाई पटेल से बात करने को कहा, जिन्होंने दो टूक शब्दों में उत्तर दिया, ‘हास्यास्पद रूप से पेश न आएं। हमें कलकत्ता को भारत में रखना चाहिए।’ इस तरह वे निराश होकर घर लौट गए।
ठोस वास्तविकताओं ने भी अविभाजित बंगाल के कार्य को कठिन बना दिया। कलकत्ता व नोआखली के दंगों के बाद हिंदू चिंतित थे और वे मुस्लिम बहुमत वाले प्रांत में रहने से सकुचा रहे थे, जो कि अविभाजित बंगाल में होता। ऑल इंडिया हिंदू महासभा के अध्यक्ष तथा बंगाल के एक प्रमुख नेता डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी विभाजित बंगाल के सशक्त समर्थकों में से थे और वे धीरे-धीरे जनता का रुख़ अपनी ओर करने में सफल रहे। उस समय, वे बंगाली हिंदुओं के एक अविवादित नेता के रूप में उभरे। इस परिदृश्य में, गवर्नर जनरल ने किसी भी तरह की योजना पर विचार करने से मना कर दिया था, जब तक कि उस पर कांग्रेस व मुस्लिम लीग दोनों की सहमति न होती।
इस दौरान, सुहरावर्दी की लोकप्रियता में तेज़ी से कमी आई, क्योंकि वे संयुक्त बंगाल को अपना समर्थन दे रहे थे और बंगाल में सांप्रदायिक दंगे जारी थे। वे पश्चिम बंगाल में आने वाले निर्वाचन क्षेत्र से बंगाल असेंबली के लिए चुने गए थे, इसी बहाने से उन्होंने पूर्वी बंगाल असेंबली में मुस्लिम लीग के नेता का पद ढाका के नवाब सर ख्वाजा नजीमुद्दीन के हाथों गंवा दिया, जिन्होंने घोषणा कर दी कि ढाका पूर्वी बंगाल की राजधानी होगी। मुजीबर अपनी जीवनी में दावा करते हैं कि ऐसा करके पूरी तरह से वे मार्ग बंद कर दिए, जिनके द्वारा कलकत्ता को पाकिस्तान की राजधानी बनाया जा सकता था। उनके अनुसार, यदि कलकत्ता पूर्वी बंगाल का हिस्सा होता तो उसे निश्चित रूप से पाकिस्तान की राजधानी बनाया जाता। उन्होंने यह दावा भी किया कि बंगाल की मुस्लिम जनता के बीच सुहरावर्दी की लोकप्रियता उन्हें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी ले जा सकती थी।
बांग्लादेश का जन्म मुस्लिम लीग तथा अनेक प्रमुख नेताओं जैसे एच. एस. सुहरावर्दी, फ़जल उल हक़ तथा अब्दुल हाशिम की बढ़ती प्रभावहीनता के कलह के बीच हुआ। विभाजन के बाद, बंगाल की मुस्लिम लीग पर ज़मींदारों व भू-स्वामियों का वर्चस्व रहा। मुजीबर रहमान लिखते हैं कि सुहरावर्दी द्वारा ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने की मुहिम भी, पूर्वी बंगाल के मुस्लिम लीग के नेतृत्व के लिए हुए चुनावों में हार के प्रमुख कारणों में से थी, क्योंकि भारी संख्या में विधायक जमींदार थे। यहां तक कि जब मुजीबर ने नव-नियुक्त सिलहट विधायक को सुहरावर्दी को समर्थन देने को कहा तो वे असफल रहे। कहा जाता है कि जब वे नेतृत्व के लिए चुनावों में हिस्सा लेने आए तो उन्होंने सुहरावर्दी से तीन मंत्रालय संबंधी सीटों की मांग की और यह वचन भी मांगा कि ज़मींदारी प्रथा को समाप्त नहीं किया जाएगा। सुहरावर्दी ने किसी भी तरह का वादा करने से इंकार कर दिया और उन्होंने उनके खिलाफ़ वोट दिया।
राष्ट्रीय राजनीति में आए महत्त्वपूर्ण बदलावों ने भी, पूर्वी बंगाल के राजनेताओं के पार्श्वीकरण को और भी बढ़ा दिया। 1949 में जिन्ना की मृत्यु हो गई और ख्वाजा नजीमुद्दीन पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने और फिर 1951 में लियाकत अली की हत्या के बाद उन्हें प्रधानमंत्री पद सौंपा गया। नजीमुद्दीन के प्रधानमंत्री बनने के बाद (हालांकि बोगरा के मुहम्मद अली ने दो साल बाद ही उनका स्थान ले लिया था) एक सिविल सेवक गुलाम मुहम्मद पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बने। गुलाम मुहम्मद की नियुक्ति से पाकिस्तान की राजनीति में नौकरशाही का उदय हुआ। दरअसल, पाकिस्तान के असली शासक सिविल सर्वेंट, सेना तथा वे कुलीन ज़मींदार ही थे, जो कुछ निश्चित औद्योगिक समूहों के साथ सारा नियंत्रण रखते थे। केंद्रीय मुस्लिम लीग नेतृत्व ने कुछ पूर्वी पाकिस्तानी नेताओं जैसे नजीमुद्दीन तथा बोगरा के मुहम्मद अली आदि को आगे रखकर यह जताना चाहा कि पूर्वी बंगाल के नेता भी पाकिस्तानी स्थापना में हिस्सेदार थे, परंतु उन्हें असली शासकों के हितों की रक्षा के लिए कठपुतलियों की तरह प्रयोग में लाया गया।
पूर्वी बंगाल में सरकार की स्थापना के बाद, पूर्वी बंगाल से बहुत बड़ी संख्या में कांग्रेस नेता पश्चिम बंगाल आ गए; ठीक इसी तरह अनेक महत्त्वपूर्ण मुस्लिम लीग नेता पश्चिम बंगाल से पूर्वी बंगाल आ गए। इस तरह, सरकार व मुस्लिम लीग के नेतृत्व में, 1930 के दशक में उभरे मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का पार्श्वीकरण किया गया, जिसके लिए मुस्लिम लीग को पूर्वी बंगाल के विधानसभा चुनावों में भारी कीमत अदा करनी पड़ी।
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इस दौरान, राष्ट्रभाषा आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। जिन्ना सहित मुस्लिम लीग के नेता इस बात पर अड़े थे कि उर्दू को ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा होना चाहिए। पाकिस्तान निर्वाचन सभा ने फरवरी 1948 में इस मसले पर चर्चा की और तकरीबन सभी मुस्लिम लीग सदस्यों ने इसे समर्थन दिया। सभा के कांग्रेसी सदस्य बाबू धीरेंद्रनाथ दत्त ने मांग की कि बांग्ला भाषा को भी दूसरी राष्ट्रीय भाषा के रूप में दर्जा दिया जाए, क्योंकि वह देश की बहुसंख्यक जनसंख्या की मातृभाषा थी। मुस्लिम लीग सदस्यों ने इस मांग की कड़ी भर्त्सना की और प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने दत्त को एक भारतीय एजेंट कहा और उन पर आरोप लगाया कि वे पाकिस्तान को नष्ट करना चाहते थे। इस आलोचना के बावजूद, बंगाल में इसकी प्रतिक्रिया पूरी तरह से स्पष्ट थी। पूर्वी बंगाल मुस्लिम छात्र लीग तथा ‘तमद्दुन मजलिस’ (एक सांस्कृतिक संगठन) ने केवल उर्दू को ही राजभाषा का दर्जा दिया जाने का विरोध करते हुए दत्त की मांग को दोहराया। मुजीबर रहमान, शम्स उल हक़ तथा कमरुद्दीन अहमद जैसे वरिष्ठ मुस्लिम लीग नेताओं के सहयोग से उन्होंने राष्ट्रभाषा बांग्ला संग्राम परिषद (बंगाली स्टेट लैंग्वेज एजीटेशन कौंसिल) की स्थापना की। उन्होंने 11 मार्च, 1948 को बांग्ला भाषा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
छात्रों ने विशाल स्तर पर विरोध प्रकट किया तो उसे निर्दयता से दबाने के लिए पुलिस व प्रशासन आगे आ गए। उन्हें बेरहमी से पीटा गया व कइयों को बंदी बना लिया गया। पूर्वी बंगाल असेंबली के सत्र में फज़ल उल हक़, बोगरा के मुहम्मद अली, तोफज्ज़ल अली, खैरात हुसैन तथा अनवरा खातून ने मुस्लिम लीग व सरकार की कड़ी आलोचना की। सरकारी दबाव के चलते, लोग इस काम के लिए एकजुट हो गए थे, नतीजन आंदोलन के नेताओं से बात करने के लिए स्वीकृति देनी पड़ी। हालांकि, ठीक इसके बाद, 16 मार्च को यह आंदोलन वापिस ले लिया गया, क्योंकि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना ढाका आ रहे थे और उनका स्वागत किया जाना था।
24 मार्च को जिन्ना ने रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए दोहराया कि उर्दू ही पाकिस्तान की एकमात्र सरकारी भाषा होगी।⁹ उन्होंने ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में भी इसी बात को दोहराया। दोनों ही स्थानों पर छात्रों ने स्पष्ट रूप से अपना विरोध जताया और खिलाफत में नारे लगाए: ‘नहीं, हम इसे स्वीकार नहीं करते।’
जिन्ना की ढाका घोषणा से आंदोलन को और भी बल मिला और इसने फरवरी 1952 में दंगों का भयंकर रूप ले लिया। भारी संख्या में छात्रों को पीटा गया व जेल की सलाखों में डाल दिया गया और कइयों को तो जान से भी हाथ धोना पड़ा। भाषा आंदोलन के प्रभाव तथा केंद्रीय मुस्लिम लीग नेतृत्व द्वारा इसे अनुचित रूप से लिए जाने के कारण एक सक्रिय बंगाली उप-राष्ट्रवाद का उदय हुआ।
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जब भाषा का आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा था तो मुस्लिम लीग के भीतर भारी उथल-पुथल मची थी। नजीमुद्दीन ने 1947 के मंत्रीमंडल में सुहरावर्दी के एक भी सदस्य को शमिल नहीं किया था। इस कारण सुहरावर्दी के समर्थकों, जैसे बोगरा के मुहम्मद अली, डॉ. अब्दुल मलिक, तोफज्जल अली तथा कई मुस्लिम लीग विधायकों ने मिलकर एक दबाव गुट बना लिया और जब यह असंतोष पनप रहा था तो मौलाना अकरम खान ने कुछ पुराने मुस्लिम लीग परिषद सदस्यों को पार्टी से बाहर कर दिया। जिन्हें इस तरह निकाला गया था, उन्होंने पार्टी अध्यक्ष से इस बारे में शिकायत दर्ज की। चौधरी खालिक उज्जमान अध्यक्ष थे, उन्होंने दो टूक शब्दों में उत्तर दिया कि उन्हें ख्वाजा नजीमुद्दीन के अधीन ही काम करना होगा और अकरम खान यह तय करेंगे कि किसे लीग का सदस्य होना चाहिए अथवा किसे नहीं होना चाहिए।
इन सभी बातों के कारण ‘ऑल पाकिस्तान अवामी मुस्लिम लीग’ का जन्म हुआ। 1949 में, सुहरावर्दी के अनुयायी इसकी स्थापना में सबसे आगे रहे। पूर्वी पाकिस्तान के एक प्रमुख मुस्लिम लीग नेता अब्दुल हमीद खान भाषानी इसके संस्थापक-अध्यक्ष बने और 1957 तक इसी पद पर रहे। इसके बाद वे नेशनल अवामी पार्टी से जुड़ गए। मुजीबर रहमान आरंभ से ही इस पार्टी से जुड़े थे और उन्होंने इसकी स्थापना व पूर्वी बंगाल में इसके प्रचार-प्रसार के लिए कड़ी मेहनत की। मुस्लिम लीग के बाहर प्रमुख बंगाली मुस्लिम नेताओं का गहरा प्रभाव रहा। अवामी लीग आने वाले सालों में सशक्त होती गई और मुजीबर रहमान, आने वाले समय में इसके शक्तिशाली व अविवादित नेता के रूप में उभरे।
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1954 में पूर्वी बंगाल विधानसभा के चुनावों की घोषणा हुई। बंगाल के तीन प्रमुख मुस्लिम नेताओं- सुहरावर्दी, फज़ल उल हक़ तथा मौलाना भाषानी की पहल पर एक संयुक्त मोर्चा स्थापित किया गया। इसमें अवामी लीग, कृषक प्रजा पार्टी तथा निजाम-ए-इस्लाम व अन्य कुछ व्यक्ति