Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

The red Sari : Sonia Gandhi ki Natakiya Jivani
The red Sari : Sonia Gandhi ki Natakiya Jivani
The red Sari : Sonia Gandhi ki Natakiya Jivani
Ebook1,051 pages9 hours

The red Sari : Sonia Gandhi ki Natakiya Jivani

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

कोई 50 साल पहले 19 वर्षीया इतालवी छात्रा सोनिया माइनो की भेंट एक युवा भारतीय छात्र राजीव गांधी से हुई जब दोनों ही कैम्ब्रिज में अध्ययन कर रहे थे।

सोनिया का जन्म, तूरीन नामक एक छोटे शहर के एक साधारण से परिवार में हुआ, जहां उनके पिता अपनी तीनों पुत्रियों को कड़े अनुशासन में रखते। यह पिता के लिए बहुत ही तकलीफ की बात रही कि उनकी संकोची स्वभाव की मंझली बेटी एक ऐसे पुरुष से प्रेम कर बैठीं, जो भारत के सबसे शक्तिशाली परिवार से संबंध रखता था। इस प्रकार एक ऐसी प्रेम कहानी का जन्म हुआ, जो सबसे अनोखा था। एक बेलौस और जिंदादिल इतालवी लड़की को मजबूरन राजनीति की फ़ीकी और उदास जिंदगी का हिस्सा बनना पड़ा।

यह पुस्तक सोनिया के आत्मीय मित्रों तथा सहकर्मियों से प्राप्त सूचना एवं स्रोतों पर आधारित है जो बताती है कि किस प्रकार सोनिया अपने साहस, ईमानदारी और समर्पण के बल पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में एक नेता के रूप में उभरीं। उनके शांतिपूर्ण बचपन से ले कर आवेगयुक्त प्रेम प्रसंग तक, और एक घरेलू बहू से एकमात्र भारतीय राजनेता बनने की कहानी है। ‘द रेड साड़ी’ एक ऐसी असाधारण महिला की कथा है जिसने प्रधानमंत्री पद को भी ठुकरा दिया हो और उसके घर—परिवार व बेनाम सपनों को नियति ने कुचल कर रख दिया। यह पुस्तक बांग्लादेश युद्ध, आपातकाल, ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार तथा आधुनिक भारतीय इतिहास को नया रूप देने वाली घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रसिद्ध नेहरू—गांधी परिवार के जीवन की जीवनशैली का सजीव चित्रण भी करती हैं।

लेखक जेवियर मोरो ने एक अन्वेषक के रूप में, ऐसी सीधी—साधी नवयुवती की सच्ची कहानी लिखी है, जिसे भारतीय राजनीति के जटिल व खतरनाक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। वे एक ऐसे परिवार की साजिशों से घिरी रहीं, जिसे धिक्कारने के साथ—साथ सराहा भी जाता था। यही कारण है कि यह पुस्तक अपनी रोचकता के साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का आईना भी है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9788128834394
The red Sari : Sonia Gandhi ki Natakiya Jivani

Related to The red Sari

Related ebooks

Reviews for The red Sari

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    The red Sari - Javier Moro ; Rachna Bhola ; B.K Chaturvedi

    द रेड

    साड़ी

    (सोनिया गांधी की नाटकीय जीवन गाथा)
    Icon

    eISBN: 978-81-2883-439-4

    © रोली बुक्स

    प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली-110020

    फोन: 011-40712100, 41611861

    फैक्स: 011-41611866

    ई-मेल: ebooks@dpb.in

    वेबसाइट: www.diamondbook.in

    संस्करण: 2015

    द रेड साड़ी

    लेखक: जेवियर मोरो

    हिंदी अनुवाद :: रचना भोला एवं बी. के. चतुर्वेदी

    द रेड

    साड़ी

    सोनिया अपने साहस, ईमानदारी और समर्पण के बल पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में एक ऐसे नेता के रूप में उभरीं जिनके नेतृत्व में कांग्रेस ने देश की दिशा बदली। उनके शांतिपूर्ण बचपन से लेकर आवेगयुक्त प्रेम प्रसंग तक और एक घरेलू बहू से भारतीय राजनेता बनने की कहानी है, ‘द रेड साड़ी’। यह एक ऐसी असाधारण महिला की कथा है, जिसने प्रधानमंत्री पद को भी ठुकरा दिया और उनके सपनों को नियति ने कुचल कर रख दिया। यह पुस्तक बांग्लादेश युद्ध, आपातकाल, ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार तथा आधुनिक भारतीय इतिहास को नया रूप देने वाली घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रसिद्ध नेहरु-गांधी परिवार की जीवनशैली का सजीव चित्रण भी करती है।

    स्पेनिश लेखक ‘ज़ेवियर मोरो’ ने एक अन्वेषक के रूप में, ऐसी सीधी-साधी नवयुवती की सच्ची कहानी लिखी है, जो अपनी रोचकता के साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी भी है। मोरो, अपनी बेस्टसेलिंग पुस्तकों जैसे ‘पैशन इंडिया’ के लिए जाने जाते हैं, जिसका 17 भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। उनके उपन्यास ‘एल इंपेरियो इरेस’ तु (द एंपायर, इट्स यू) को प्रेमियो प्लेनेटा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

    ओलिविया, इस पुस्तक का और तुम्हारा जन्म एक साथ

    हुआ था, इसलिए मैं इसे तुम्हें समर्पित करता हूं।

    आभार

    चूंकि सोनिया गांधी साक्षात्कार देना पसंद नहीं करतीं और न ही उन्हें मीडिया की सुर्खियां बनना अच्छा लगता है, इसलिए मेरे लिए उनके ऐसे साथियों व सहयोगियों को खोजना आसान नहीं था, जो मेरे साथ उनकी स्मृतियां बांट सके। यही कारण है कि मैं उनमें सबसे अधिक बहादुर व्यक्तियों का आभारी हूं, जिन्होंने श्रीमती गांधी द्वारा लगाई गई इस वर्जना को लांघने का साहस किया। सबसे पहले, मैं पत्रकार जोस्टो मैफियो को धन्यवाद देना चाहूंगा, वे माइनो बहनों के बचपन के मित्र थे, जब वे ऑरबैस्सानो में रहती थीं; ऑरबैस्सानो के ही, स्टीफेनो माइनो के परम मित्र डेनिलो कादरी को भी धन्यवाद देना चाहूंगा, जिन्होंने उसी क़ैफे में, मेरे साथ अपनी यादें बांटीं, जहां वे हर दोपहर सोनिया के पिता के साथ डॉमीनोज़ खेला करते थे। माइनो परिवार के पड़ोसी व मित्र, बार के मालिक पीयर लुईगी सैची का भी बहुत-बहुत धन्यवाद! मैं क्रिस्टियन वॉन स्टीग्लिटज़ का भी आभार प्रकट करता हूं, ये वही सज्जन थे; जिन्होंने कैम्ब्रिज प्रवास के दौरान सोनिया व राजीव की भेंट करवाई। उन्होंने मुझे उनके प्रेम-प्रसंग से जुड़ी कुछ घटनाओं का विवरण दिया। लगभग 20 वर्षों तक इंदिरा गांधी की निजी सहायिका के रूप में कार्यरत उषा भगत का भी धन्यवाद, जिन्होंने वर्षों तक प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्य करने के दौरान हुए अनुभवों, स्मृतियों व घटनाओं को मेरे साथ बांटा, (वे इंदिरा जी नामक पुस्तक की लेखिका भी हैं)। सिस्टर डॉमनिका रोसो तथा सिस्टर जिओवाना नेगरी, जिओवाना बोर्डिंग स्कूल में सोनिया की अध्यापिकाओं को भी धन्यवाद!

    तूरीन विश्वविद्यालय में, आधुनिक व समकालीन एशियाई इतिहास के प्रोफेसर, माइकल गुगलीलमो टोरी को मेरा बहुत-बहुत धन्यवाद। वे एक प्रख्यात विद्वान तथा भारतप्रेमी हैं। उन्होंने अपने परामर्श व उदार सहायता के बल पर मेरे काम को सरल बनाया और मेरे संदेहों का निराकरण करते हुए, पांडुलिपि में यथोचित संशोधन भी किए।

    भारत में, मैं कमल पारिख को विशेष धन्यवाद देना चाहूंगा, जो हमें सितंबर 2007 में छोड़कर चले गए। मैं उनके द्वारा की गई व्याख्या तथा भारतीय परंपराओं के वर्णन को कभी नहीं भुला सकता, जिसे एक पश्चिमवासी के लिए अपने-आप समझ पाना बहुत कठिन था। मैं उनकी मित्रता के आनंद को याद करता रहूंगा।

    मैं अश्विनी कुमार के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूं, जिन्होंने मुझे उस समय के रोचक प्रसंग सुनाए, जब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं। ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के नेशनल सेक्रेट्री मेजर दलबीर सिंह का धन्यवाद। इस प्रक्रिया में राजीव गांधी के पुराने मित्र मणिशंकर अय्यर को कैसे भुलाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जोसफीना यंग, एलेक्स एरलिक, फराह खान तथा नैलो डेल गैटो को उनकी सहायता, मित्रता व मेजबानी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरे संपादक एलीना रमीरेज़ के बिना यह काम और भी कठिन हो सकता था, उनके प्रति हार्दिक आभार!

    मैं विस्तार के भय से इटली तथा भारत में रह रहे उन सभी लोगों के नाम न ले पाने के कारण क्षमाप्रार्थी हूं, जिन्होंने इस लंबे समय तक चलने वाली खोजबीन में अपना योगदान दिया। मैं आप सबका हार्दिक आभार प्रकट करता हूं; यदि आप सबने मुझे वह जानकारी न दी होती, तो संभवतः मैं इस पुस्तक का लेखन भी न कर पाता।

    -जेवियर मोरो

    मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।

    -वैदिक प्रार्थना

      1  

    नई दिल्ली, 24 मई, 1991

    सोनिया गांधी इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पा रही थीं कि वे जिस व्यक्ति से इतना प्यार करती थीं, वह अब नहीं रहा और अब वे उसके आलिंगन और चुंबनों की गरमाहट को कभी अनुभव नहीं कर सकतीं। अब उस मीठी-सी मुस्कान को कभी नहीं देख सकेंगी, जिसे देखकर वे कभी सब कुछ भुला बैठी थीं। यह सब इतनी जल्दी, इतनी बर्बरता के साथ और अनपेक्षित रूप से हुआ कि उनके लिए इस बात पर विश्वास करना ही कठिन हो रहा था। उनके पति दो दिन पूर्व एक आतंकवादी हमले में मारे गए थे। उनका नाम राजीव गांधी था, वे भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहे थे। यदि आरंभिक मत सही थे, तो वे फिर से प्रधानमंत्री चुने जाने की स्थिति में थे, बशर्ते उनके चुनाव प्रचार अभियान का ऐसा त्रासद अंत न हुआ होता। वे केवल 46 वर्ष के थे।

    भारत की राजधानी, देश के यशस्वी पुत्र के अवशेषों को अंतिम विदा देने की तैयारी कर रही थी। ताबूत को तीन मूर्ति भवन के हॉल में रखा गया, यह वही आवास था, जहां उनका बचपन बीता था, उस समय जवाहर लाल नेहरु भारत के प्रधानमंत्री थे। मूल रूप से इस स्थान को अंग्रेज़ों की सेना के कमांडर-इन-चीफ के लिए बनाया गया था, परंतु भारत के आजाद होने के बाद, यह नए देश के प्रधानमंत्री का आवास बना। नेहरु, अगस्त 1948 में अपनी पुत्री इंदिरा व दौहित्र के साथ इसी स्थान पर रहने आए थे।

    माली, रसोइए और काम करने वाले स्टाफ के अतिरिक्त हजारों भारतीय नागरिक, राजीव को अपनी श्रद्धांजलि देने आए। उनके लिए विश्वास करना कठिन हो रहा था कि वहां पड़ा शव, उसी नन्हें बालक का था, जो उन विशालकाय कमरों में कभी लुका-छिपी का खेल खेलता था, जिनकी छतें लगभग 20 फीट ऊंची थीं। ऐसा लगता था मानो कल की ही बात हो; जब वे लंबे गलियारों में अपने छोटे भाई के पीछे भागते राजीव की हंसी की गूंज सुन सकते थे, जबकि उनके नाना और मां पास के ही किसी कमरे में देश-विदेश से आई हस्तियों से भेंट कर रहे होते।

    केसरिया, सफेद और हरे झंडे में लिपटे ताबूत पर राजीव गांधी की बड़ी-सी तस्वीर रखी गई थी, जिसे सफेद माला पहनाई गई थी। तीन मूर्ति भवन में उमड़ रहे लोग अपने साथ, उनकी भीनी-सी मुस्कान वाली छवि लिए लौट रहे थे। उनका शरीर बम धमाके से इतनी बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया था कि डॉक्टर लाख चाहने पर भी उसे आकार नहीं दे सके। कहते हैं कि उनकी देह के टुकड़ों को जोड़ने के प्रयास में एक डॉक्टर बेसुध हो गया था, इसलिए उन्होंने केवल रूई और पट्टियों के सहारे ही सब कुछ संभाला। इसके साथ ही बहुत सारी बर्फ का प्रयोग किया गया, ताकि अंतिम संस्कार के समय तक शव को संभाला जा सके।

    ‘कृपया ध्यान से, उन्हें चोट न पहुंचाएं’, उनकी विधवा ने विषादयुक्त चेहरे के साथ उस व्यक्ति को कहा, जो बार-बार ताज़ी बर्फ लगाने आ रहा था। बर्फ असहनीय गर्मी के कारण तेजी से पिघल रही थी। यह उत्तर भारत में मई का महीना था, जब तक जुलाई में मानसून नहीं आ जाता, तब तक यह भीषण गर्मी शांत नहीं होती।

    उनके बच्चे उनके साथ बैठे थे। छोटी बिटिया प्रियंका 19 साल की थी, उसने अंतिम संस्कार की तैयारियों का भार ले लिया था। वह एक लंबी, काले बालों वाली लड़की है, जो मजबूत कद-काठी की होने के साथ-साथ सशक्त चरित्र की भी स्वामिनी है। वह अपनी मां का बहुत ख़्याल रख रही थी। उसने मां से बारंबार आग्रह किया कि वे कुछ खा लें, पर खाने के बारे में सोचते ही सोनिया का जी मितला रहा था। उनके पहले दो दिन पानी, कॉफी और नींबू के रस पर ही गुजरे। पुराना रोग ‘दमा’ फिर से उभर आया था, जो बचपन से ही उनका साथी रहा है। दो रात पहले, जब उन्हें सूचित किया गया कि उनके पति एक आत्मघाती बम हमले के दौरान मारे गए, तो उन्हें दमे का ऐसा ज़बरदस्त दौरा पड़ा कि वे लगभग बेसुध हो गईं। प्रियंका ने सही समय पर दवा देकर, उनकी तबीयत संभाली। सोनिया को लग रहा था कि गर्मी और दुःख के कारण उन्हें दमे का एक और दौरा पड़ सकता है।

    उनका बड़ा बेटा राहुल, अभी 21 साल का था। वह भी हॉवर्ड से आ गया था, जहां वह इन दिनों पढ़ाई कर रहा था। उन्हें अपने पुत्र में अपने पति की झलक दिखती हैः वही नाक-नक्श, वही मुस्कान, चेहरे पर वही भलाई की आब। उन्होंने उसे बहुत ही कोमलता से देखा। वह अभी इतना बड़ा भी नहीं हुआ कि पिता की चिता को अग्नि दे सके।

    दोपहर को करीबन एक बजे, तीनों सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों ने आकर अन्य अधिकारियों को संकेत दिया कि राजकीय शवयात्रा आरंभ की जाए। ज्यों ही सैनिक, राहुल व परिवार के अन्य सदस्यों की सहायता से ताबूत उठाने लगे, तो प्रियंका ने आगे आकर पिता को प्यार से स्पर्श किया, मानो उनकी अंतिम यात्रा के लिए अलविदा कहना चाहती हो। उसकी मां बहुत-सी हस्तियों से भेंट कर रही थीं, वे दूर से ही डबडबाई आंखों के साथ यह दृश्य देखती रहीं। उन्होंने आज सफेद साड़ी पहन रखी थी। अपना आधे से अधिक जीवन इस देश में बिताने के बाद, वह स्वयं को भारतीय ही अनुभव करती हैं। तीन माह पूर्व, फरवरी में ही तो उन्होंने अपने पति राजीव के साथ तेहरान में एक डिनर के दौरान अपने विवाह की 23वीं वर्षगांठ मनाई थी। वे एक औपचारिक दौरे पर उनके साथ गई थीं। वे अब भी बहुत आकर्षक दिखती हैं; उतनी ही; जितनी वे 18 की आयु में रही होंगी, जब वे उनसे पहली बार मिलीं। सफेदी के झिलमिलाते तारों वाले काले बाल कसकर एक जूड़े में बंधे थे और उन्हें साड़ी के पल्लू से ढांपा गया था। अगर आंखें दुःख के कारण सूजी न होंतीं तो तराशी गई भवों के साथ काली, बड़ी और ख़ूबसूरत दिखाई देतीं। उनकी नाक सीधी, होंठ भरे हुए, गोरी रंगत और जबड़ा थोड़ा बड़ा है। उनका जन्म व पालन-पोषण इटली में हुआ। विवाह से पहले उनका नाम सोनिया माइनो था, हालांकि अब वे सोनिया गांधी और राजीव की विधवा स्त्री के रूप में जानी जाती हैं।

    लोग भीषण गर्मी की परवाह न करते हुए, राह से निकल रही शवयात्रा के दर्शन के लिए, हज़ारों की संख्या में उमड़ पड़े। आठ किलोमीटर लंबी यह यात्रा श्मशान भूमि की ओर उन दीवारों के पीछे से निकलने वाली थी, जिन्हें मुगल सम्राटों ने पुरानी दिल्ली की सुरक्षा के लिए बनवाया था और उसके बाद, यमुना के किनारे स्थित भव्य बगीचों से होते हुए आगे बढ़ने वाली थी। 33 सैनिकों की पांच सिपाही टुकड़ियों से घिरे, पहियानुमा मंच को गेंदे के फूलों से सजाया गया था, जिस पर ताबूत रखा था। इसे सेना के एक ट्रक द्वारा खींचा जा रहा था, उस पर भी फूलों से सजावट की गई थी। ट्रक के भीतर तीनों सेना अध्यक्ष उपस्थित थे। परिवार कारों में पीछे चल रहा था। कई लोगों ने देखा कि सोनिया ने अपना बड़ा-सा धूप का चश्मा उतारकर, रूमाल से अपना चेहरा पोंछा और कांपते हाथों से आंसू सुखा लिए। शवयात्रा राजपथ से आगे बढ़ी; जिसके दोनों ओर सुव्यवस्थित बगीचे थे; जहां शहर में रहने वालों की पीढ़ियां, जामुन के पुराने वृक्षों की छांह में टहलती आई हैं। जब अंगरेजों ने दिल्ली को भारत की नई राजधानी बनाने का निर्णय लिया, तो उस समय इसके ताप को घटाने के लिए ही अधिकतर पेड़ रोपे गए। उन्होंने चौड़े राजमार्गों व भव्य दृश्यों के साथ खुशनुमा बागों वाले नगर को बसाया, जो एक राजधानी कहलाने योग्य था। आसपास खड़े लोगों के हाथों में थामे गए फूलों को देख; सोनिया को प्रसन्नतापूर्ण अतीत की याद ताज़ा हो आई; जो इतनी पास होने पर भी, जाने कितनी दूर चली गई थी। ठीक उसी जगह पर, इंडिया गेट के ठीक सामने, उन्होंने गणतंत्र दिवस पर राजीव गांधी के साथ कितनी परेड देखी होंगी। उन्होंने यह सब कितनी बार देखा होगा? संभवतः जितने सालों से वे भारत में हैं। एक पूरा जीवनकाल। एक जीवनकाल, जिसका अब अंत हो चला है।

    अभी मानो इसी त्रासदी के बीच एक और विडंबना शेष थी, उनकी कार अचानक बंद हो गई और चालक के लाख चाहने पर भी चालू नहीं हुई। कार की धीमी गति और भीषण गर्मी के कारण इंजन ने दम तोड़ दिया था। सोनिया और उनके बच्चे कार से निकले तो भीड़ अचानक उनकी ओर लपक पड़ी, मजबूरन ब्लैककैट कमांडो और विशिष्ट सुरक्षाकर्मियों ने उनके आसपास घेरा डाल दिया ताकि वे दूसरी कार तक जा सकें। इसके बाद शवयात्रा अपनी नपी-तुली चाल से गार्ड्स ऑफ ऑनर की तरह आगे बढ़ी। कनॉट प्लेस के पास संकरी सड़कों पर, भीड़ किसी रेले की तरह धावा बोलने को तैयार थी, मानो शवयात्रा को अपने साथ बहा ले जाना चाहती हो। सुरक्षाकर्मियों के लिए उन्हें पीछे रखना कठिन होता जा रहा था। भीड़ के चेहरे क्लांत व पसीने से लथपथ थे और सेना के उन चार ट्रकों को ताक रहे थे, जिनमें सारी दुनिया से आए पत्रकारों को स्थान दिया गया था। स्त्री, पुरुष और बच्चे, शववाहन पर फूलों की वर्षा कर रहे थे और उन सभी के चेहरों पर विषाद व आंखों में अश्रु देखे जा सकते थे।

    शवयात्रा शाम 4:30 बजे; अनुमानित समय से एक घंटे की देरी से, अंतिम संस्कार स्थल पर पहुंची। इतने लोग उपस्थित थे कि फूलों की क्यारियां दिखाई ही नहीं दे रही थीं। बड़े-बड़े वृक्ष ही मानो शाश्वत प्रहरियों की तरह अपार जनसमूह को अपनी स्नेहयुक्त छांह देने के प्रयास में थे। उनमें से अनेक लोग काले कपड़ों में उपस्थित थे; जैसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर, जबकि यासिर अराफात अपनी मिलिट्री वर्दी में थे। आधा टन लकड़ी से चिता तैयार की गई थी। चिता के पीछे, विशेष रूप से बने मंच पर, परिवार के निकटतम सदस्य खड़े थे। उत्तर में करीबन एक हज़ार फीट की दूरी पर, नेहरु व उनकी पुत्री इंदिरा के स्मारक स्थल थे, जो ठीक वहीं बनाए गए हैं, जहां उनके अंतिम संस्कार किए गए थे। ...और अब राजीव के लिए भी कमल के आकार में स्मारक स्थल बना दिया जाएगा। पूरा परिवार मृत्यु के बाद एक हो जाता है।

    सैनिकों ने राजीव के शव को, उत्तर दिशा की ओर मुख करते हुए चिता पर रखा। फिर तीनों सेना प्रमुखों ने बड़े ही आराम से उस तिरंगे को मोड़ा, जिसमें देह को लपेटा गया था। परिवार भी साथ ही खड़ा था। दाढ़ी वाले पुजारी अंतिम संस्कार से जुड़े अनुष्ठान पूरे कर रहे थे। वे एक छोटी-सी प्रार्थना करते हैं--‘मुझे अवास्तविकता से वास्तविकता की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, नश्वरता से अमरत्व की ओर ले चलो।’ फिर उन्होंने राहुल को गंगाजल से भरा छोटा कलश थमा दिया। यह नवयुवक नंगे पांव, काले फ्रेम का चश्मा पहने, सिर झुकाए, अपने ही ख़्यालों में खोया खड़ा था। उसने कलश के साथ पिता की चिता के तीन चक्कर काटते हुए, उन पर गंगाजल छिड़का। इस प्रकार उसने आत्मा की शुद्धि का अनुष्ठान किया। फिर वह मृत देह के पास घुटनों के बल जा बैठा और अंदर-ही-अंदर रोने लगा। उसके आंसू किसी को दिखाई नहीं दे रहे थे। वह अपने उस पिता के लिए रोया, जो हमेशा से सहनशील और करुणामय रहे और अपने बच्चों पर प्राण न्यौछावर करते थे। उसके उस घाव से सूखे आंसू झरते रहे, जो संभवतः कभी नहीं भर सकेगा। उसकी मां और बहन, जिस गरिमा के साथ पेश आ रही थीं, उसे देख सभी उपस्थित जन भावुक हो उठे थे। वे आगे आईं और सावधानी से देह पर चंदन की लकड़ी रखने का संकेत देने लगीं। लोग टी.वी. पर सीधे प्रसारण के माध्यम से यह अंतिम संस्कार देख रहे थे।

    अब विदा देने का समय हो गया था। सोनिया ने राजीव के हृदय स्थल पर सामग्री अर्पित किया। कपूर, इलायची, लौंग व चीनी के साथ आत्मा की अशुद्धियों को दूर करने की प्रार्थना की गई। फिर उन्होंने अपने पति के चरणों का स्पर्श कर, उनके आगे दोनों हाथ जोड़े। सारी दुनिया टी.वी. कैमरों के माध्यम से, इस आत्मसंयमी महिला को देख रही थी। शाम के 5:20 हो रहे थे।

    पांच मिनट बाद, राहुल ने तेजी से चिता की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए, हाथ में थामी हुई जलती मशाल को चंदन की लकड़ियों पर रख दिया। ऐसा करते हुए उसके हाथ नहीं कांपे, पुत्र होने के नाते यह उसका कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने पिता की आत्मा को इस नश्वर शरीर से मुक्ति प्रदान करे ताकि वे स्वर्ग की यात्रा कर सकें। कुछ क्षण के लिए समय मानो थम-सा गया। अभी कोई धुआं या लपटें दिखाई नहीं दे रही थी, केवल भीड़ के बीच वैदिक मंत्रोच्चार के स्वर गूंज रहे थे। सोनिया ने बड़े से धूप के चश्मे के पीछे अपना चेहरा छिपा लिया था, जिससे वह लोगों को रोती हुई दिखाई न दें। उन्हें अपने-आप को शांत रखना ही था, जैसे कि वे अब तक रखती आई हैं, फिर भले ही कोई भी कीमत क्यों न अदा करनी पड़े। उन्हें उतना ही शांत रहना है, जितना राजीव अपनी मां की चिता को मुखाग्नि देते समय शांत रहे थे। जिस तरह इंदिरा स्वयं अपने पिता नेहरु के अंतिम संस्कार के समय; फिर अपने दुलारे पुत्र संजय गांधी; उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी की मृत्यु के समय शांत रहीं, जो 11 वर्ष पूर्व एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे। सोनिया को अपने भीतर से संघर्ष करने की ताकत जुटानी ही होगी, ताकि वहां खड़ी रह सकें। किसी ने उन्हें परामर्श दिया था कि वे इस अंतिम संस्कार में हिस्सा न लें, क्योंकि अक्सर विधवा स्त्रियों के इस तरह साथ जाने का रिवाज नहीं है। उन्होंने ठीक वही किया, जो उनकी सासू मां इंदिरा गांधी करतीं। जब सारा संसार उनके पति के अंतिम संस्कार का साक्षी बन रहा था, तो वे किसी भी परिस्थिति में घर में कैसे रह सकती थीं। उन्होंने अंतिम संस्कार का आयोजन करने वालों से यही कहा।

    पर अब उन्हें यहां खड़े रहने के लिए साहस दिखाना था। न कोई संकोच, न कोई बेहोशी और न ही दिल छोटा करना। बस जिए चले जाना था, जबकि इस समय उनके मन में केवल यही विचार था कि किसी तरह वे भी मर जातीं। जब ऐसे गमगीन वातावरण के बीच अंतिम विदा देने के लिए बिगुल बज रहे हों और वैदिक मंत्रों के साथ क्रिया-कर्म किया जा रहा हो, तो ऐसे में भावों की मार से बचना आसान नहीं होता। जब सारी दुनिया से आई गणमान्य हस्तियां, अपनी वर्दी में लैस सभी सेनाध्यक्ष, भारत सरकार के सभी प्रतिनिधि, अपने पसीने से लथपथ कपड़ों के साथ, भीषण धूप के बीच, शांत व मौन भाव से अडिग खड़े, अंतिम श्रद्धांजलि दे रहे हों; जब यूरोप व अमेरिका से अंतिम विदा देने आए मित्र, अपने आंसू न रोक पा रहे हों। सोनिया ने अचानक उनके बीच क्रिस्टियन को पहचान लिया, जो अपने पुराने मित्र को श्रद्धांजलि देने आए थे। क्रिस्टियन ने ही तो कैम्ब्रिज में उन दोनों की पहली भेंट करवाई थी। आज वे उस दोस्त को विदा देने आए हैं।

    ...और फिर अचानक एक बुदबुदाहट का सा स्वर गूंजा, मानो शहर के किसी सुदूर कोने से उठा हो या संभवतः देश के किसी सुदूर कोने से आ रहा हो। यह एक लंबी व दिल को दहला देने वाली रुलाई थी, जो अनेकानेक कंठों से समवेत स्वर में फूटी, जिन्होंने संभवतः आग की लपटों के अचानक ऊंचा उठते ही, मृत्यु की भयंकर पदचाप व कठोरता को पहचान लिया हो। राहुल एक कदम पीछे हटे; सोनिया लड़खड़ाकर झूल गईं; तभी उनकी बेटी ने झट से बांहों का सहारा देकर; उन्हें तब तक संभाले रखा, जब तक वे थोड़ा सुध में नहीं आ गईं। उन आग की लपटों के भीतर; तीनों उस प्राचीन व दारुण दृश्य के साक्षी बने कि किस प्रकार किसी के प्रियजन को आग की लपटें, कुछ ही क्षणों में जलाकर राख की ढेरी बना देती हैं। मानो यह मृत्यु की ओर से एक संदेश था कि इसकी विभीषिका से कोई नहीं बच सकता। लपटें ऊंची उठने लगीं तो राहुल अंतिम क्रिया-कर्म से जुड़ा एक और कर्त्तव्य पूरा करने के लिए आगे आया। उसने अपने हाथ में दस फीट का लंबा डंडा ले रखा था, उसने अपने पिता की खोपड़ी पर उससे वार किया, जो इस बात का प्रतीक था कि उनकी आत्मा को मुक्ति मिल सके।

    सोनिया के पास अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए शब्द नहीं थे। वे अपने-आप से बोलीं, ‘तुम्हें इस मौत के कारण अपने-आप को कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए।’ वे अच्छी तरह जानती थीं कि जीवन एक संघर्ष है। बच्चों का साथ, उन्हें हौसला दे रहा था। फिर अचानक ही भीतर से विपरीत भाव उमड़ने लगते हैं; वे अपने लिए न्याय चाहती हैं; अपने पति की मौत का बदला चाहती हैं और उनके भीतर एक घृणा उभरती है; जो भी हुआ है, इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। क्या इसे टाला नहीं जा सकता था? वे स्वयं से निरंतर पूछती हैं। उन्होंने रैलियों में अपने पति के निकट आने वाले चेहरों को मन-ही-मन याद करने का प्रयास किया, उन्हें हमेशा से यही लगता आया था कि ऐसा कभी भी, कुछ भी हो सकता था। वे अक्सर अपने पति के निकट जाने वालों के पास छिपे हथियार होने की आशंका से भयभीत रहतीं। जिस दिन उनके पति ने अपनी मां की मौत के बाद सक्रिय रूप से राजनीति में जाने का निर्णय लिया, तब से ही उनके मन में यही भय पलता आ रहा था। तभी तो, आज से दो दिन पहले, जब वे रात को 10:50 के लगभग, सोने की तैयारियों में थी तो फोन की घंटी बज उठी। सोनिया ने घबराकर अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिए, मानो वे पहले से जानती हों कि वह उनके लिए क्या खबर लाने वाला था। उनके जीवन का यह दुःखद समाचार अपेक्षित था। जब से सोनिया को पता चला था कि सरकार ने राजीव की ज़ेड क्लास सुरक्षा हटा ली थी, जो कि एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते उनका अधिकार बनता था, तभी से यह खतरा सिर पर मंडराने लगा था। उन्हें पूरा अधिकार था कि उन्हें विशेष सुरक्षाकर्मी प्रदान किए जाते, उनसे यह क्यों छीना गया? क्या यह प्रमाद था या फिर राजनीतिक बैरियों द्वारा लिया गया एक निर्णय?

    एक तीखा, अवर्णनीय व कठोर स्वर उन्हें वास्तविकता के धरातल पर खींच लाया। कुछ लोगों ने सिर झुका लिए। कुछ ने सिर उठाकर देखा, तो कुछ एकटक भाव से दृश्य को ताकते रहे गए, ताप के दबाव के कारण खोपड़ी फट गई थी। अब मृतक की आत्मा मुक्त हो गई। अनुष्ठान पूरा हुआ।

    सोनिया सुबकियां भरकर रोने लगीं। उनके लिए कोई दिलासा कहां थी? उन्हें किस ईश्वर की शरण लेनी चाहिए? ऐसा कौन-सा ईश्वर होगा, जो चाहेगा कि राजीव जैसे नेक इंसान के शरीर के चिथड़े उड़ा दिए जाएं? वे इस त्रासदी का क्या अर्थ निकाल सकती थीं? उनके बच्चों को चिंता थी कि धुएं, राख और गहन भावों के कारण मां को दमे का दौरा न पड़ जाए, वे दोनों उनके आसपास सहारा देने के लिए खड़े थे और सोनिया भीतर से बुरी तरह टूटने के बाद देख रही थीं कि अपने पति के साथ खुशी-खुशी सालों-साल जीने का ख़्वाब कैसे चकनाचूर हो गया था। विदा साथी, अगले जन्म तक के लिए विदा! भारत उन्हें इसी रूप में याद रखेगा; अडिग; उदासीन, चिल्लाती भीड़ की पुकारों को अनसुना करती हुई; जबकि अग्नि उनके पति को लील रही थी। वे नियंत्रित पीड़ा की जीती-जागती मिसाल बन गई थीं।

    सेना के एक हेलीकॉप्टर के स्वर ने भीड़ के कोलाहल को दबा दिया। लोगों ने आकाश की ओर देखा, आकाश से चिता पर हेलीकॉप्टर से गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा की जा रही थी। जब चिता जलकर बुझ गई तो परिवार मंच से नीचे उतर आया। उन्होंने विषादग्रस्त मुख और संकोची कदमों के साथ, भारत के राष्ट्रपति आर- वेंकटरमन की शोक-संवेदना के कुछ शब्द ग्रहण किए। कुछ अन्य हस्तियां भी सोनिया से मिलना चाहती थीं । अमरीका के उपराष्ट्रपति, भूटान के राजा, नेपाल, बांग्लादेश व पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ, सोवियत यूनियन व चीन के उपराष्ट्रपति एवं बेनज़ीर भुट्टो आदि। परंतु अचानक ही कोलाहल होने लगा। भीड़ की पहली पंक्ति में; राजीव के दल के नेता व सदस्य शामिल थे, जो अपने मृत नेता के निकट जाना चाहते थे। वे उनसे भी संबंध रखते थे। जो वहां मौजूद थे, वे कांग्रेस पार्टी के चालीस मिलियन सदस्यों का अंश मात्र थे, जो संसार के विशालतम प्रजातांत्रिक राजनीतिक संगठनों में से है। इसका जन्म 1885 में राजनीतिक दलों के सहयोग से हुआ ताकि अंग्रेज़ों से, भारतीय नागरिकों के लिए समान अधिकारों की मांग की जा सके। महात्मा गांधी ने इसे एक सक्रिय राजनीतिक दल में बदल दिया, जो अहिंसा के माध्यम से आजादी के लक्ष्य को पाना चाहती थी। मोतीलाल नेहरु इसके अध्यक्ष बने और फिर उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी और अब राजीव ने भी यह पद संभाला। भीषण गर्मी के बावजूद कांग्रेस के सदस्य, राजीव के अंतिम संस्कार के साक्षी बनना चाहते थे। उन्होंने तारों की घेराबंदी तोड़ दी और नारे लगाते हुए, चिता की ओर बढ़े- ‘राजीव गांधी अमर रहें!’ मजबूरन ब्लैककैट कर्मियों को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने परिवार के आसपास सुरक्षा घेरा डाल दिया। सोनिया और उनका परिवार तेजी से कदम बढ़ाते हुए लोगों के उस रुदन व कोलाहल के बीच, अपनी कारों तक सुरक्षापूर्वक पहुंच गए।

    आने वाले दिनों में, स्तब्ध सोनिया ने अपने ही भीतर आश्रय ग्रहण किया। वे राजीव की स्मृतियों में खोई रहतीं और जब भी तंद्रा भंग होती, तो पति की अनुपस्थिति की कठोर वास्तविकता का सामना करते ही सुबकियां भरने लगतीं। वे अपने पति से जुड़ी यादों के रेले को शांत नहीं कर पा रही थीं, मानो उनकी यादों को आने से मना करने पर, वे एक मौत और मर जाएंगे। वह स्वयं को उन दो पात्रों से भी अलग नहीं करना चाह रही थीं; जिनमें राजीव की अस्थियां भरी गई थीं, परंतु अंतिम संस्कार पूरा करने के लिए उन अस्थियों का विसर्जन करना आवश्यक था।

    अंत्येष्टि संस्कार के चार दिन बाद अस्थि विसर्जन के लिए 28 मई, 1991 को सोनिया अपने बच्चों के साथ रेलगाड़ी से इलाहाबाद गईं, जो नेहरु परिवार का पुश्तैनी नगर रहा है। राजीव की सुंदर-सी मुस्कान वाला चित्र, फ्रेम में लगा था। अस्थिपात्रों को उनके निकट ही गाड़ी की सीट पर रखा गया; सोनिया, प्रियंका और राहुल ने फर्श पर स्थान ग्रहण किया। गाड़ी कई स्टेशनों पर रुकी, जहां लोग अपने नेता की स्मृति को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने आए थे। इन भावों की गहनता ने सोनिया को क्लांत कर दिया; परंतु उन्होंने उन शुभचिंतकों को देखकर; हाथ हिलाने का हरसंभव प्रयास किया, जो उन्हें दिलासा देने के लिए उन्हें देखकर मुस्करा रहे थे। भारत के लोगों की मुस्कानें अपने-आप में किसी अनमोल उपहार से कम नहीं, जो दिल में बस जाती हैं। जवाहर लाल नेहरु, उनकी सासू मां और पति यही कहते थे : लोगों का भरोसा, जनता का अपनापन और उनके द्वारा दिखाया गया स्नेह व आदर-मान, सारे बलिदानों की पूर्ति कर देता है। यह किसी राजनेता का सच्चा पोषण है, उनके सभी कष्टों का स्पष्टीकरण, जो उनके जीवन तथा कार्य को एक नया अर्थ प्रदान करता है। उस गाड़ी ने इलाहाबाद जाने में 24 घंटे का समय लिया, जिसे प्रेस ने हार्टब्रेक एक्सप्रेस का नाम दिया। सोनिया अपने श्वसुर परिवार के लिए, लोगों के हार्दिक भावों का अनुमान लगा सकती हैं। एक ऐसा परिवार, जिसने चार दशक से भी अधिक समय तक भारत का शासन चलाया, परंतु पिछले चार वर्षों से सत्ता से बाहर था। सोनिया ने अपने पुत्र राहुल को देखा, जो स्टेशनों के बीच थोड़ी नींद ले लेता। इस उम्मीद के साथ कि किसी भी तरह परिवार फिर से सत्ता में नहीं आएगा। प्रियंका क्लांत भाव से एकटक ताक रहीं थीं। दुःख ने मानो उसे कुछ ही दिन में परिपक्व कर दिया हो। वह काफी हद तक इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं, वही गठन, वही आब, वही बुद्धि से दिपदिपाती आंखें!

    इलाहाबाद में अस्थियों को नेहरु के पैतृक घर ‘आनंद भवन’ में रखा गया; जिसे इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद, एक सार्वजनिक संग्रहालय में बदल दिया था। मूल आनंद भवन (स्वराज भवन) में मूर शैली में बना चौक और फव्वारा; उसके पहले मालिक, सर सैयद अहमद ख़ान की याद दिलाते हैं; जो एक मुस्लिम नेता व शिक्षाविद् थे। 1900 में उन्होंने यह विशाल भवन राजीव के परनाना मोतीलाल नेहरु के हाथों बेच दिया था, जो एक नामी वकील थे। जिनके बारे में कहा जाता था कि उनके कपड़े ड्राईक्लीनिंग होने के लिए, जहाज से लंदन भेजे जाते थे। बड़ी-बड़ी मूंछों और भारी देह वाले मोतीलाल सदा आलीशान पोशाकें धारण करते। वे बहुत ही ज़िंदादिल व उदार किस्म के लोगों में थे और अपने इकलौते पुत्र जवाहर पर जान छिड़कते थे। मोतीलाल अपने पुत्र को किसी भी कीमत पर प्रतिभाशाली बनाने के लिए यथासंभव शिक्षा प्रदान करना चाहते थे, फिर चाहे इसके लिए उन्हें पुत्र को अपने से अलग ही क्यों न करना पड़े। ‘मैंने तो सोचा तक नहीं था कि जब मुझे तुम्हें पहली बार, इंग्लैंड के बोर्डिंग स्कूल में अकेले छोड़ना होगा, तो उसके बाद मुझे तुम्हारी इतनी याद आएगी।’ वे स्वयं को इस पीड़ा से मुक्त नहीं कर पा रहे थे कि 16 साल के पुत्र को, अपने घर से इतनी दूर छोड़ आए थे। मोतीलाल की एक साल की कमाई; उनके बेटे के लिए अपना व्यवसाय खोलने और अपना कैरियर बनाने के लिए पर्याप्त थी; परंतु पिता के लिए यह सब उनके मान का प्रश्न थाः ‘मैं बिना किसी घमंड के यह मानता हूं कि मैं नेहरु परिवार की संपदा व मान का संस्थापक रहा हूं। मेरे प्यारे बेटे, मैं तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखना चाहता हूं, जो एक दिन मेरे हाथों बनी बुनियाद पर ऐसे नेक काम करेगा, जो उसे आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाएंगे।’ यह भला काज, आगे चलकर भारत का स्वतंत्रता संग्राम बना और पिता-पुत्र, दोनों ही इसके प्रमुख खिलाड़ियों की तरह मैदान में आ डटे।

    जब जवाहरलाल नेहरु के पिता ने उनका परिचय, दक्षिण अफ्रीका से लौटे एक वकील से करवाया तो नेहरु परिवार का जीवन ही बदल गया। वे वकील महोदय औपनिवेशी शक्तियों के विरुद्ध विरोध को संगठित कर रहे थे। अपने शिष्यों द्वारा संत व महात्मा कहलाए जाने के बावजूद, वे कुशल राजनेता थे। उनकी सादगी, भारत की आत्मा को छू लेने की ताकत रखती थी। युवा नेहरु को वे एक जीनियस जान पड़े।

    महात्मा गांधी ने नेहरु परिवार को विशेष रूप से प्रभावित किया। मोतीलाल ने सादगी को अपनाते हुए सारा अपव्यय त्याग दिया। वे फलालेन के सूटों व टोपों के स्थान पर गांधी की तरह सूती धोती पहनने लगे। उन्होंने अपना घर आजादी की लड़ाई के नाम कर दिया और आनंद भवन के विशाल लिविंग रूम, कांग्रेस पार्टी के सभा कक्ष बन गए। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे फाइब्रोसिस व कैंसर के शिकार हो गए। उन्होंने वह समय, अपने पुत्र के साथ नैनीताल जेल की कोठरी में बिताया, जिन्होंने पिता की यथासंभव सेवा की। वे अपने देश की आजादी या अपने पुत्र को पहले प्रधानमंत्री के पद पर आसीन देखने से पूर्व ही, इस संसार से चल बसे। उनकी मृत्यु 6 फरवरी, 1931 को लखनऊ में हुई, उस समय उनकी पत्नी सिरहाने बैठी थीं और पुत्र ने अपनी गोद में उनका सिर रखा हुआ था।

    आसमानी नीले व दूधिया रंगों से रंगे आनंद भवन के कमरों में; आज भी परिवार के सदस्यों तथा उनके सहयोगियों का कुछ सामान, फर्नीचर, पुस्तकें व सामान आदि ज्यों-का-त्यों धरा है। महात्मा गांधी के कक्ष में, ज़मीन पर चटाई बिछी है। उसमें दराजों वाली अलमारी और एक चरखा भी रखा है। नेहरु के कमरे में एक सादा लकड़ी का पलंग, एक कंबल, बहुत-सी किताबें और तीन सयाने बंदरों की छोटी-सी छवि देखी जा सकती है, जो तीन सद्गुणों के परिचायक रहे हैं : बुरा मत देखो; बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो।

    सोनिया को आज भी याद है, जब वे पहली बार आनंद भवन आई थीं। उनकी सासू मां इंदिरा गांधी ने उन्हें सारा घर दिखाया था। इस दौरान वे इस घर की अहमियत को सही मायनों में नहीं समझ सकी थीं; हालांकि इंदिरा ने तब उन्हें वह खुफ़िया कक्ष भी दिखाया था, जिसमें नेहरु व उनके साथी अंग्रेजों के छापों से बचने के लिए, छिपकर सभा किया करते थे। अब जबकि वे अपने पति की अस्थियों के साथ लौटी हैं, तो वे इस घर को एक नई ही रोशनी के बीच देख सकती हैं। आनंद भवन किसी गहन पारिवारिक जीवन का ढांचा नहीं है; इसकी दीवारें आजादी के लिए हुए संग्राम के कष्टों, सपनों, आशाओं व दुःखों के किस्से सुनाती हैं। इसकी दीवारें, आधुनिक भारत हैं।

    दोपहर को सोनिया, उनके बच्चे और कुछ लोग संगम की ओर रवाना हुए, जहां यमुना व गंगा के जल का सरस्वती से संगम होता है। वे रेत के विशाल टीले की ओर आए; जो नदी के किनारे की ओर ले जाता है; जहां एक प्राचीन दुर्ग देखा जा सकता है; जिसकी दीवारें हाथी दांत से मढ़ी थीं और यहीं सैकड़ों साल पुराना, बंगाल फिग का वृक्ष भी है। किंवदंती के अनुसार; जो भी व्यक्ति इसकी टहनियों से छलांग लगा देता है, वह जन्म और मरण के चक्र से छूट सकता है। उसी जगह पर; हर तीन साल बाद कुंभ मेले का आयोजन होता है, जिसमें पूरे भारत से लाखों तीर्थयात्री हिस्सा लेते हैं। वे अपने पाप धोने आते हैं और इस प्रकार कुंभ मेला, संसार का सबसे विशाल धार्मिक मेला बन जाता है। आज भी यहां अनेक लोग उपस्थित हैं, परंतु स्थान इतना विशाल है कि सूना दिख रहा है। नदी के पास बने चबूतरे पर खड़े पंडित चुन्नी लाल नदी में सामग्री अर्पित करने के बाद, बुदबुदाते शब्दों में प्रार्थना करते हैं और घंटियों व शंखों के स्वरों के बीच राहुल को तांबे का अस्थिपात्र थमा देते हैं। नवयुवक राहुल चुपचाप नदी के पास जाकर पात्र को उलट देता है ताकि सूरज की किरणों से झिलमिला रहे जल के बीच अस्थियां विसर्जित हो जाएं। यह वही जल है, जिसने मोतीलाल नेहरु, महात्मा गांधी व जवाहर लाल नेहरु की अस्थियों को भी आश्रय दिया था। कुछ ही दूरी पर खड़ी सोनिया व प्रियंका यह दृश्य देख रही थी, उनके चेहरे तनावग्रस्त थे। वे राहुल के पास आकर जल को अंजुलि में भरने के लिए झुकती हैं। राजीव के सचिव इस दृश्य के साक्षी हैं, वे पानी के किनारे खड़े उन तीनों की इस छवि को हमेशा के लिए अपने साथ ले जाएंगे। राहुल मां के एक कंधे पर सिर रखे सुबक रहा है और प्रियंका दूसरे कंधे पर सिर टिकाए खड़ी है। सोनिया के लिए किसी के पास सांत्वना के कोई शब्द नहीं; वे अपने अश्रुस्नात नेत्रों से; जीवन की महान नदी, गंगा को एकटक ताक रही हैं।

      2  

    ‘मैडम, मिलान की उड़ान के लिए समय हो रहा है।’ सोनिया को याद नहीं आया कि उन्होंने राजीव के निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज से यह जानकारी कब मांगी थी। संभवतः उन्होंने कुछ दिन पहले की मानसिक अवस्था और भ्रम के बीच; अपने इस घने दुःख के बीच, तसल्ली पाने को यूं ही पूछ लिया हो। जब उन्होंने तूरीन के ठीक बाहर; ऑरबैस्सानो के छोटे से शहर की सुरक्षा के बीच, अपने परिवार से दिलासा और अपनापन पाने के बारे में सोचा होगा। उन्हें याद है कि जब उन्होंने मद्रास से राजीव का क्षत-विक्षत शव आने के बाद, अपने परिवार से इटली में बात की थी तो उनकी पूरी देह कैसे कांप रही थी। उनकी बड़ी बहन अनुष्का ने उन्हें बताया कि दुनिया भर से पत्रकार उनसे फोन करके पूछ रहे थे कि वास्तव में क्या हुआ था, पर वे कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं थे। सोनिया ने बताया, ‘हम अब भी कुछ नहीं जानते, ये कोई सिख, कट्टर हिंदू या कश्मीर से कोई मुस्लिम आतंकवादी भी हो सकते हैं ...कौन जाने! वे कम-से-कम एक दर्जन आतंकवादी संगठनों की हिटलिस्ट में थे।’ और अब सोनिया को बेहद अफसोस हो रहा था कि उन्होंने राजीव पर दबाव क्यों नहीं डाला कि वे सरकार से बेहतर सुरक्षा सुविधाओं की मांग करें। दरअसल राजीव इन बातों में विश्वास ही नहीं रखते थे। वे कहते, ‘अगर वे तुम्हें मारना चाहते हैं, तो कहीं भी मार देंगे।’

    जब सोनिया अपनी मां से बात करने लगीं तो बुरी तरह से बिखर गईं। मां ने कहा, ‘शायद तुम्हें इटली लौट आना चाहिए।’

    सोनिया ने कोई उत्तर नहीं दिया।

    जाने कितने सवाल! जिन्हें छोड़कर जाने का अर्थ होगा, अपने ही एक हिस्से की अपने हाथों हत्या कर देना। परंतु यह भी सच था कि वे भारत आईं; यहां के रीति-रिवाजों को कबूल किया और राजीव को प्यार करने के कारण ही, उनके लोगों को भी चाहने लगीं। पर अब यहां रहने का प्रयोजन ही क्या था? वे अंगरक्षकों के घेरे के बीच रहते-रहते थक गई थीं, जो उनके जीवन की सबसे बदतर घड़ियों में कुछ नहीं कर सके। इटली वापिस आने के बारे में मां के सुझाव ने सोनिया के मर्म को छू लिया। सोनिया ऐसी दुविधा के बीच थीं, जिसका कोई हल नहीं दिख रहा था। एक ओर उनकी सबसे बड़ी चिंता थी - उनके बच्चों की सुरक्षा, जिसके लिए यही उचित था कि वे इटली के सुरक्षित वातावरण के बीच लौट जाएं। अपने पति की विरासत को छोड़कर एक नई जीवनशैली अपना लें और वहीं दूसरी ओर भारत में बीते इतने सालों की स्मृतियां, नेहरु व गांधी के नाम का दायित्व, उसी घर में उन यादों के प्रहरी बनते हुए अपने वफादार दोस्तों और अनेक व्यक्तियों के स्नेह के संरक्षण में जीना। वे जानती थीं कि भारतीय राजनीति के जाल से निकलना कितना कठिन था। कुल मिलाकर; उन्हें सुरक्षा से भरे अज्ञात जीवन या लाइमलाइट का चुनाव करना था; जो एक दिन उनके किसी एक बच्चे को प्रधानमंत्री पद तक ले जा सकती थी और संभवतः फिर हत्या का भी अवसर पैदा कर सकती थी, जैसे इंदिरा और राजीव के साथ हुआ। हो सकता है कि उनके लिए अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने में ही भलाई हो, उस राजनीति को भुलाने में ही भलाई हो, जिससे वे घृणा करती आई थीं और उस सत्ता से दूर जाने में ही सुख छिपा हो, जिसे वे सदा परित्यक्त करती आईं।

    परंतु-... क्या आप नियति से भाग सकते हैं? वे अपने-आपको भारतीय ही अनुभव करती हैं। उन्होंने इस देश के लोगों को अपना प्यार देना सीखा है और वे उनके प्यार को भी महसूस कर सकती हैं। वे उस संपर्क को कैसे तोड़ सकती हैं, जो दोस्तों, साथियों और भारतीय जनता के स्नेह के साथ, उनके पति की यादों से संबंध रखता है? मानो वे अपना दिल यहीं छोड़ जाएंगीं। उनके निकटतम परिवार के अतिरिक्त ऑरबैस्सानो में उनके लिए कैसा जीवन प्रतीक्षारत होगा? उनके सभी मित्र व संगी-साथी यहां हैं, उनकी सारी दुनिया यहां है, उनके सुखद वैवाहिक जीवन के 23 वर्ष यहां हैं। इसके अलावा, अब उनके बच्चे भी तो छोटे नहीं रहे-... क्या वे किसी ऐसी जगह जाकर रहना चाहेंगे, जहां वे केवल अवकाश बिताने के लिए जाते रहे हों? भारत के दो प्रधानमंत्रियों के घर में पालन-पोषण पाने के बाद, क्या वे एक प्रांतीय इतालवी शहर की बाहरी सीमा पर अज्ञात जीवन बिता सकेंगे? यह सच है कि वे आधे इतालवी मूल के हैं और धाराप्रवाह इतालवी बोल लेते हैं, परंतु वे स्वयं को पूरी तरह से भारतीय अनुभव करते हैं। उनका पालन भारत में ही हुआ और उन्होंने अपने पिता से इस विशाल, कठिन व आकर्षक देश से लगाव रखना सीखा है। वे अपने पड़नाना नेहरु के मूल्यों के बीच पले हैं, जो स्वतंत्रता संग्राम के एक नायक होने के अतिरिक्त आधुनिक भारत के निर्माता भी रहे- वे मूल्य, जो अखंडता, सहिष्णुता, धन के लिए तिरस्कार तथा दूसरों के प्रति सेवा और विशेष तौर पर ज़रूरतमंदों की सेवा से संबंधित थे। वे अपनी दादी इंदिरा के घर पले-बढ़े, जहां वे अक्सर देश-विदेश की महान हस्तियों से मुलाकातों के बीच भी आकर उन्हें स्नेह से आलिंगन दे जातीं या किचन टेबल पर उनके गृहकार्य में मदद करतीं। क्या उनके बच्चे समृद्धि व आरामतलबी के बीच रहते हुए, उन सभी मूल्यों व संस्कारों से दूर जा सकेंगे, जो उन्हें बचपन से ही सिखाए गए हैं? और क्या उनके लिए भी उस शहर में वापिस लौटना, एक हार नहीं होगी, जिसे वे विवाह के बाद पीछे छोड़ आई थीं?

    ‘मुझे लगता है कि मेरा जीवन यहीं है, मम्मा...।’ सोनिया ने सुध आते ही मां की बात का जवाब दिया।

    ‘मैडम! आपसे कोई मिलने आए हैं।’

    दरवाजे पर खड़े सुरक्षा अधिकारी ने सोनिया की तंद्रा को भंग करते हुए कहा। सोनिया ने संकेत किया कि वे अभी आ रही हैं। उन्होंने उठकर साड़ी की भांजें संवारीं और राजीव के ऑफिस की ओर चल दीं; यह उस विला का एक कक्ष था, जिसमें वे प्रधानमंत्री आवास छोड़ने के बाद से रह रहे थे। उनकी सारी वस्तुओं - उनके कैमरे, किताबें, पत्रिकाएं, कागज़, रेडियो आदि को यथास्थान देखकर, ऐसा लगा मानो वे अभी जीवित हैं और किसी दौरे से घर वापसी होने ही वाली है। परंतु वे जो देख रही हैं, वह किसी बुरे सपने से कम नहीं है। यहां तो मुस्कराते हुए; क्लांत और हमेशा गलबांही देने को तैयार राजीव नहीं थे; बल्कि दरवाजे से कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता भीतर आते दिखे, जिनके चेहरों पर बिख़रे हुए पराजय के भाव देखे जा सकते थे। राजीव की मौत ने कांग्रेस से उसका नेता छीन लिया था। अगला नेता कौन होगा? जब से उन्होंने राजीव की हत्या के बारे में सुना था, सबके दिमागों में इस प्रश्न ने ही उथल-पुथल मचा रखी थी।

    ‘सोनिया जी!’ कमेटी के प्रवक्ता ने कहा, ‘मैं आपको बताना चाहता हूं कि नरसिम्हा राव जी के नेतृत्व में, कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने आपको पार्टी अध्यक्ष चुना है। यह चुनाव सर्वसम्मति से हुआ है। आपको बधाई हो!’

    सोनिया निश्चेष्ट भाव से उन्हें ताकती रहीं, एक दर्जन से अधिक वरिष्ठ नेता, उन्हें इस पद के लिए राजी करने आए थे। क्या विषाद पवित्र और शुद्ध नहीं होता? उन्होंने उनके चेहरे से, पति की मौत पर बहाए जा रहे आंसुओं तक को सूखने नहीं दिया। मुस्कराने में असमर्थ सोनिया में इतनी ताकत या शक्ति भी नहीं बची थी कि वे यह दिखावा कर सकतीं कि उन्हें पार्टी के निर्णय से बहुत मान का अनुभव हो रहा है।

    ‘मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकती। राजनीति मेरी दुनिया नहीं है, आप सब पहले से ही जानते हैं। मैं इस पद को स्वीकार नहीं करना चाहती।’

    ‘सोनिया जी! मैं नहीं जानता कि आप कमेटी के इस प्रस्ताव को समझ पा रही हैं या नहीं? यह आपको विश्व के विशालतम प्रजातांत्रिक संगठनों में से एक पर, पूर्ण शक्ति का अधिकार प्रदान कर रही है। यह आपको इस महान देश के नेतृत्व का अवसर प्रदान कर रही है। इनके अतिरिक्त, यह आपको अवसर प्रदान कर रही है कि आप अपने पति की विरासत को आगे ले जा सकें ताकि उनका बलिदान व्यर्थ न जाए।’

    ‘मुझे नहीं लगता कि यह ऐसी बातें करने के लिए उपयुक्त समय है।’

    ‘कमेटी ने घंटों के सोच-विचार के बाद आपके सामने यह प्रस्ताव रखा है। मैं आपको यकीन दिला सकता हूं कि हमने इस बारे में गहराई से विचार कर लिया है। आपको पूरी स्वतंत्रता और हम सबका सहयोग प्राप्त होगा। हम आपसे पारिवारिक परंपरा को बनाए रखने का आग्रह करते हैं। भारत की अच्छी बेटी होने के नाते यह आपका कर्त्तव्य बनता है।’

    ‘केवल आप ही उस शून्य को भर सकती हैं, जो राजीव जी के जाने के बाद पैदा हो गया है।’ दूसरे ने कहा।

    सोनिया ने कहा, ‘भारत एक बड़ा देश है। इतने करोड़ों लोगों में अकेली मैं ही तो नहीं हो सकती।’

    ‘पर आप एकमात्र गांधी हैं।’

    सोनिया ने ऊपर देखा, मानो वे उस बहस की अपेक्षा कर रही थीं।

    ‘बेशक इसमें आपके बच्चों को शामिल नहीं कर सकते।’

    ‘मेरे बच्चे अभी छोटे हैं और न ही वे राजनीति में रुचि रखते हैं।’

    ‘भारत में नाम के साथ गांधी शब्द का जुड़ना कोई छोटी बात नहीं है।’

    ‘मैं जानती हूं कि आप क्या कहना चाहते हैं, यह नाम बहुत प्रभावशाली है, परंतु अभिशापित भी तो है। आपने देखा नहीं कि क्या हुआ?’

    ‘देखिए, आप इस तस्वीर की उत्तराधिकारी हैं।’

    उनमें से एक ने मेज पर रखी तस्वीर की ओर संकेत किया। चांदी के फ्रेम में मढ़ी तस्वीर में बालिका इंदिरा को, महात्मा जी के साथ बैठा दिखाया गया था।

    ‘आप सबका बहुत-बहुत धन्यवाद! आप लोगों ने इस पद के लिए मेरा चयन किया। यह मेरे लिए सम्मान की बात है, परंतु मैं इसकी अधिकारी नहीं। आप जानते हैं कि मुझे प्रसिद्धि पसंद नहीं है। इसके अलावा, मैं इस परिवार से प्रत्यक्ष संबंध नहीं रखती। मैं इस घर की पुत्रवधू हूं।’

    ‘आपने एक भारतीय से विवाह किया है और विवाह करते ही, यहां बहू अपने पति के परिवार का एक हिस्सा बन जाती है। आपने सदा हमारे रीति-रिवाजों का पालन किया है। आप भी किसी अन्य भारतीय की तरह भारतीय हैं। इस तस्वीर को देखें... यह वही साड़ी है न, जो आपने अपने विवाह के दिन पहनी थी। इसे नेहरु जी ने अपने जेल-प्रवास के दौरान बुना था।’

    ‘जी हां, परंतु इस तथ्य को तो नकारा नहीं जा सकता कि मैं एक विदेशी हूं।’

    ‘लोगों को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि आपका जन्म कहां हुआ। आप पहली महिला नहीं होंगी, जो विदेशी मूल की होने के बावजूद, कांग्रेस की अध्यक्षता करेंगी।’ तीसरे व्यक्ति ने टोका। ‘आपको एनी बेसेंट की याद होगी, वे भी पार्टी के अग्रणी नेताओं में से थीं और कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व देने वाली, आइरिश मूल की महिला थीं। यह विचार इतना अनूठा भी नहीं है।’

    ‘वह समय अलग था। मैं इस पद को संभालने की स्थिति में नहीं हूं। क्या आप विपक्ष की ओर से होने वाले हमलों के बारे में कल्पना कर सकते हैं? वे लोगों को मेरे ख़िलाफ़ इस्तेमाल करेंगे और यह सबके लिए हंगामा बन जाएगा।’

    ‘सोनिया जी! हम आपके सामने बिना किसी शर्त के, यह प्रस्ताव रख रहे हैं।’ एक और दक्ष राजनेता ने अपनी बात रखी, जो जोड़-तोड़ के मामले में महारत रखते थे, कौन जाने वे अपनी झोली से कौन-सा जादुई मंत्र निकालने वाले थे। ‘संभवतः आपके लिए सबसे अहम बात यह भी होगी कि आपको पहले की तरह उच्चस्तरीय सुरक्षा मिलेगी, जैसी राजीव जी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में मिलती थी।’

    ‘क्षमा करें, आपने गलत दरवाज़ा खटखटाया है। मुझे सत्ता की कोई भूख नहीं है। मुझे वह दुनिया कभी नहीं भायी, मैं उसमें अपने-आपको असहज पाती थी और मुझे आकर्षण का केंद्र बनने से घृणा थी। राजीव को भी यह पसंद नहीं था। यदि वे राजनीति में आए तो यह उनकी मां इंदिरा गांधी के कारण था। अन्यथा वे आज भी इंडियन एयरलाइंस के एक पायलट होते। संभवतः वे आज भी जीवित होते और हम बहुत प्रसन्न होते। माफ़ करें, पर आप मुझसे कोई उम्मीद न रखें।’

    ‘केवल आप ही हैं, जो इस पार्टी को बिख़रने से बचा सकती हैं। अगर यह दल टूट गया तो मानो सारा देश ही टुकड़ों में बंट जाएगा। आजादी के बाद से आज तक भारत की एकता को किसने बनाए रखा? हमारे दल ने। विभिन्न समुदाय शांति के साथ जी सकेंगे, यह आश्वासन कौन देता है? कांग्रेस पार्टी। चूंकि हम अभी सत्ता से बाहर हैं, इसलिए देखिए कि पुराने राक्षसों ने एक बार फिर से सिर उठा लिया है । सांप्रदायिक व धार्मिक घृणा, अनेक राज्यों की अलगाववादी महत्त्वाकांक्षाएं... सारा देश चूर-चूर होकर बिखर रहा है, और केवल आप ही इसे बचाने में हमारी मदद कर सकती हैं। आपके पास प्रतिष्ठा है और लोग आपसे स्नेह रखते हैं। तभी हम आपसे व्यक्तिगत रूप से भेंट करने आए हैं... ताकि आपसे उत्तरदायित्व को संभालने की अपील कर सकें।’

    ‘उत्तरदायित्व? ऐसा क्यों है कि इस परिवार को अपने सदस्यों के रक्त से निरंतर देश को श्रद्धांजलि अर्पित करते रहना होगा? क्या इंदिरा जी व राजीव के साथ जो हुआ, वह पर्याप्त नहीं है? क्या आप इससे भी अधिक चाहते हैं?’

    ‘मैडम! इस बारे में गौर करें। नेहरु जी, इंदिरा जी और राजीव जी के बारे में सोचें : आपका परिवार भारत के उतना ही निकट है, जिस प्रकार किसी पेड़ पर कोई लता लिपटी होती है। आपके परिवार के बिना, हम कुछ नहीं हैं। आपके बिना, इस विशाल दल का कोई अस्तित्व नहीं है। हम आपके पास यही संदेश लेकर आए हैं। हम जानते हैं कि समय बड़ा ही कठिन है और हम आपके दुःख में बाधा देने के लिए क्षमा चाहते हैं, परंतु इस तरह हमारा परित्याग न करें। इस संघर्ष व बलिदान को व्यर्थ न जाने दें। आपके हाथों में नेहरु-गांधी परिवार की मशाल है। इसे बुझने न दें।’

    शब्द, शब्द और बहुत सारे शब्द... राजनेता हमेशा से ही अपनी रुचि के क्षेत्र-सत्ता के बारे में जाने कितने तर्क और मत देते आए हैं; क्योंकि सोनिया ने अपने जीवन के बहुत से साल; दो प्रधानमंत्रियों के बीच बिताए हैं, इसलिए वे इन सब बातों को अच्छी तरह समझती हैं। वे चुनाव में खड़े होने जा रहे प्रत्याशियों की मायूसी को अनुभव कर सकती हैं, जो आज एक नेता के अभाव में दुविधा में पड़ गए थे। उनके पति की हत्या ने केवल उनके परिवार के नहीं, बल्कि बहुत से लोगों के सपनों को तोड़ा। वे उन सभी लोगों के छल-छंदों, चालाकियों और कारगुज़ारियों से वाकिफ़ हैं, जो राजीव का स्थान लेना चाहते थे। बहुत कुछ दांव पर लगा था और यही कारण था कि एक भी क्षण गंवाए बिना, दल की बड़ी मछलियां भी उनके आगे माथा टेकने आ गई थीं। वे किसी शोकाकुल को सांत्वना देने नहीं आए थे, यहां तक कि सोनिया के दुःख की घड़ी में भी, वे उनके लिए सत्ता की बागडोर संभालने वाले से अधिक नहीं थीं। पद को तो रिक्त नहीं रखा जा सकता था और यह पार्टी में उपयुक्त पदों पर खिलाड़ियों को नियुक्त करने के क्षण थे।

    सोनिया ने राजीव और इंदिरा से सीखा था कि वे राजनेताओं को अपने से दूर ही रखें ताकि वे उनका अनुचित लाभ न उठा सकें। परंतु वे होशियार थे और उन्हें लगा कि सोनिया उनकी बातों में आ जाएंगीं; हो सकता है कि वे अपने लिए न सही; अपने बच्चों के नाम पर या परिवार का नाम बनाए रखने के लिए हामी भर दें; क्योंकि सत्ता एक ऐसी चुंबक थी, जिसके असर से अछूता रहना इतना आसान नहीं था। क्या वेदों में नहीं लिखा कि देवता भी चाटुकारिता के प्रभाव से बच नहीं पाते?

    अगले दिन, सोनिया ने पार्टी को एक पत्र भेजाः ‘आप लोगों ने मुझ पर

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1