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Agni-Daan
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Agni-Daan

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About this ebook

श्री श्यामानंद झा जी ने एक मौलिक लेखक एवं चिन्तक के रूप में अपने सरल, ललित एवं सारगर्भित भाषा द्वारा अपनी कहानी में कतिपय सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, वह बेमिसाल है। समाजिक चेतना को झंकृत करनेवालों में मूर्धन्य लोगों में कुछ नामचीन नाम है – प्रेमचंद्र, निराला, शिवपूजन सहाय आदि। इन्ही लोगों के पद चिन्हों पर चलते हुए श्री झा जी ने जिस मार्मिक ढंग से अपने विचारों को "अग्नि दान।" उपन्यास में लिपिबद्ध किया है – यह सामाजिक चेतना को झकझोरने का इनका सफल प्रयास कहा जा सकता है। मैं इनके मृदु स्वभाव और कहानी लेखन के क्षेत्र में धमाकेदार आगाज के साथ उतरने के लिए कोटिशः बधाई देता हूँ और साथ में इनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मुझे आशा है कि भविष्य में अपने लेखन से समाज को दिशा – निर्देश करते रहेंगे।

 

-- डॉ . एन एन झा

Languageहिन्दी
Release dateNov 24, 2023
ISBN9798223822080
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    Agni-Daan - Shyamanand Jha

    ISBN: 978-8119251476

    Published by:

    Rajmangal Publishers

    Rajmangal Prakashan Building,

    1st Street, Ozone, Quarsi, Ramghat Road

    Aligarh-202001, (UP) INDIA

    Cont. No. +91- 7017993445

    www.rajmangalpublishers.com

    rajmangalpublishers@gmail.com

    sampadak@rajmangalpublishers.in

    ——————————————————————-

    प्रथम संस्करण: अक्टूबर 2023 – पेपरबैक

    प्रकाशक: राजमंगल प्रकाशन

    राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,

    ओजोन, क्वार्सी, रामघाट रोड,

    अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत

    फ़ोन : +91 - 7017993445

    ——————————————————————-

    First Published: Oct. 2023 - Paperback

    eBook by: Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)

    Copyright © श्यामानन्द झा

    यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, पात्र, व्यवसाय, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना के उत्पाद हैं या काल्पनिक तरीके से उपयोग किए जाते हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता विशुद्ध रूप से संयोग है। यह पुस्तक इस शर्त के अधीन बेची जाती है कि इसे प्रकाशक की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी रूप में मुद्रित, प्रसारित-प्रचारित या बिक्रय नहीं किया जा सकेगा। किसी भी परिस्थिति में इस पुस्तक के किसी भी भाग को पुनर्विक्रय के लिए फोटोकॉपी नहीं किया जा सकता है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार के लिए इस पुस्तक के मुद्रक/प्रकाशक/वितरक किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। सभी विवाद मध्यस्थता के अधीन हैं, किसी भी तरह के कानूनी वाद-विवाद की स्थिति में न्यायालय क्षेत्र अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत ही होगा।

    श्री श्यामानंद झा जी ने एक मौलिक लेखक एवं चिन्तक के रूप में अपने सरल, ललित एवं सारगर्भित भाषा द्वारा अपनी कहानी में कतिपय सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, वह बेमिसाल है। समाजिक चेतना को झंकृत करनेवालों में मूर्धन्य लोगों में कुछ नामचीन नाम है – प्रेमचंद्र, निराला, शिवपूजन सहाय आदि। इन्ही लोगों के पद चिन्हों पर चलते हुए श्री झा जी ने जिस मार्मिक ढंग से अपने विचारों को अग्नि दान। उपन्यास में लिपिबद्ध किया है – यह सामाजिक चेतना को झकझोरने का इनका सफल प्रयास कहा जा सकता है।

    मैं इनके मृदु स्वभाव और कहानी लेखन के क्षेत्र में धमाकेदार आगाज के साथ उतरने के लिए कोटिशः बधाई देता हूँ और साथ में इनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मुझे आशा है कि भविष्य में अपने लेखन से समाज को दिशा – निर्देश करते रहेंगे।

    ––––––––

    डॉ . एन एन झा

    (नित्यानंद झा )

    राजहाता बिनोदपुर कटिहार

    डी . एस. कॉलेज, कटिहार

    लेखक की ओर से दो शब्द

    यथार्थत: निर्विवाद कथन है कि अतीत किसी का सगा नहीं होता। इस कायनात से अनेक रिश्ते होते हैं किंतु आत्मीय रिश्ता यदि बेवफाई करता है एवं व्यक्ति को उस से जूझना पड़ता है तो जिंदगी टुकड़े टुकड़े में व्यतीत होती है। दिल की भावना आँसू में डूब जाती है टूट जाता है इंसान एवं उसे अपने आप से नफरत हो जाती है।

    अजय अग्नि दान। का मुख्य नायक है, उसकी जिंदगी की हर घटना इसी व्यथा पर आधारित है फ़र्ज़ के समक्ष साक्षी के पवित्र प्यार की आहुति दे देता है। उसके फ़र्ज़ एवं त्याग का शिला मिलता है तिरस्कार और अपमान। उसका जीवन रिक्त का रिक्त ही रह जाता है उसकी आत्मा के प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। उसका जमीर ही उसे धिक्कारता है, उससे सवाल करता है, बता क्या पाया तूने क्या खोया उसकी प्रेमिका साक्षी रिक्त आँखों से पृच्छा करती है। भींगी पलकों से उसे देखते हुए चुप हो जाता है। उसका अज़ीज़ दोस्त सुरेंद्र हर कदम पर उसे संबल देना चाहता है किंतु वह अपना ग़म दिल में ही दफन कर देता है। किसी से कोई गिला नहीं, अपने आप से समझौता कर लेता है। सहनशीलता जब सब्र का बांध तोड़ देती है तो मानव अपना वजूद ही खो देता है, हार जाता है अपने आप से।

    पत्नी पुत्र मोंह की वजह से द्विधा में रहती है, भाई अपनी पत्नी की वजह से नजर अंदाज कर देता है पुत्र अपनी अतृप्त आकांक्षा की वजह से अजय का अपमान हर पल करने का अवसर नहीं गवांता हैं।

    अपने आप से परास्त हो जाता है वह माया मोह को त्याग कर आस्था की शरण में चला जाता है अध्यात्म उसे अपनी शरण में ले लेती है क्योंकि खोने के लिए अब उसके पास कुछ भी अवशेष नहीं रह जाता है। आत्मा उसे धिक्कारते हुए अंतिम हक छीन लेती है। एवं अग्नि दान का हक साक्षी के पुत्र को देने के लिए विवश कर देती है। अग्नि दान स्वयं प्रमाणिक है एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आध्यात्मिक भी जो पुत्र को प्रदत्त है किंतु दग्ध आत्मा हक देने से इंकार कर देती है आप जिसे सगा एवं आत्मीय समझते हैं बहुत पीड़ा होगी जब वह रिश्ता किश्तों में ग़म देगा, भूलवश भी यदि आप उसकी नीजी जिंदगी में दखल देंगे, ठुकरा देगा आपकी भावना को। संयुक्त परिवार मरणासन्न हालात में सिसक रहा है, अभी एकल परिवार की प्राथमिकता है। आपके सिवा सभी को संचित सुख चाहिए जो वह विरासत से पाना चाहता है। इस उपन्यास के सभी पात्र काल्पनिक है। घटना आज के आधुनिक एवं सभ्य समाज का द्योतक है। त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। आपकी संतुष्टि ही मेरे परिश्रम का नायब तोहफा होगा एवं आगामी रचना के लिए मार्गदर्शन करेगा।

    मेरा पता

    एस एन झा

    राज हाता, बिनोदपुर, कटिहार (बिहार)

    (निदान अस्पताल के समीप)

    पिन कोड :- 854105  मो. नो. :- 9631981948

    अग्नि–दान

    एस .एन.झा

    वह निर्मिमेष निगाहों से शून्य की ओर निहार रही थी, ऐसा प्रतीत होता था की मानो उसका कोई वजूद ही नही हो, रिक्त निगाहों में सिर्फ अनुत्तरित प्रश्न थे। फिज़ा खामोश थी पर कायनात में वही शोर था। जिंदगी एक छलावे की तरह है, न जाने इन्सान क्यों इतने बेदर्द ज़माने के आगे झुक जाता है, क्या इंसान को मानव की रिक्तता का दर्द उसे महसूस नही होता है ? चाहे जो भी हो वह अपना ग़म अपने ही ह्रदय मे संजो कर रखना चाहती थी, अतीत को सहेज कर आत्मसात करना चाहती थी, शायद इसलिए कि यही तो एक मात्र उनकी पूंजी थी। क्या खोया क्या पाया का आत्म मंथन उसके ह्रदय में प्रवाहित हो रखा था किन्तु अश्रुपूरित निगाहे उसका उत्तर देने में विवश थी। ना जाने कितने आये कितने चले गए किन्तु निस्तेज आँखों से एक पल देख लेती फिर वही सूनापन, वही रिक्तता, वही अनुत्तरित प्रश्न। इन्सान की चाहत ने मनुष्य को किस कदर लाचार, बेबस एवं संवेदन हीन बना दिया, इसे उसने न केवल महसूस किया बल्कि इस प्रज्वलित आग मे स्वयं जल भी रही थी। अतीत कितना बेवफा है कि उसे बर्बादी की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया, किसे कहे, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा कि उसके हृदय मे यादों की आग प्रजवलित हो रही है, जो सिर्फ और सिर्फ उसका था उसका न हो सका चाहे उनके समक्ष जो भी हालात थे, एक बार तो दिल से उसके करीब आते कुछ कहते कुछ सुनते, शायद वह इसी याद के सहारे जी लेती किन्तु सारी अनसुलझी बाते तो अनुत्तरित रह गयी वह चाहत की दहलीज पर खड़ी रही पर वे इसे पार न कर सके उसकी आँखों से आंसू छलक पड़े किन्तु अपने दामन मे ही उसने समेट लिया मानो इस निधी को भी कोई चुरा न ले। वह अतीत मे डूबती चली गयी ऐसा प्रतीत होता था कि अस्तित्वहीन हो चलचित्र की तरह उसके ह्रदय मे एक – एक घटना जागृत हो गई। यादे अतीत को दुहराने लगी, पलके बन्द कर बीते कल की यादों मे खो गई। अब बचा ही क्या था सब कुछ गवाँकर बनारस वापस आ रही थी। चल- चित्र की तरह उसके ह्रदय मे घटना जागृत हो गई,

    अरे आप कहाँ से आ रहे है ? थके-थके से लग रहे है, रुकिए तो सही।

    साक्षी उसे देखते ही अचानक चौक उठी एवं आवाज दी, क्यों प्रभु बार-बार उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देते है जहां की राह अबेध्यमय है, अजय मन ही मन बुदबुदा उठा प्रत्यक्ष होते ही उसने कहा,

    मंदिर जा रहा हूँ।

    यह कहकर सीधे मंदिर मे प्रवेश कर गया साक्षी अपलक निहारती रही एवं प्रतीक्षारत रही

    अभी तक आप गई नहीं है ?

    अजय उसे देखते हुए पूछ बैठा

    नहीं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी, उसने जवाब दिया।

    साक्षी जिस राह पर नहीं जाना है उसकी दूरी मापने से क्या फायदा ? लौट जाइये कही प्रतीक्षा ‘ प्रतीक्षा ’ ही न रह जाये।

    यह तो मुझे नहीं पता किन्तु मै तब तक प्रतीक्षा करुँगी, जब तक आप मुझे समझ नहीं पाएंगे, चाहे वह राह अभेद्यमय क्यों न हो।

    एकाएक उसे स्मरण हुआ कि घर लौटने से पूर्व उसे काफी कार्य है, उसने अकस्मात साक्षी से कहा,

    मै जा रहा हूँ आवश्यक कार्य है।

    बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वह चला गया।

    साक्षी सोचने लगी कि कैसा पत्थर दिल इंन्सान है ये, मेरी एक झलक पाने के लिए घर से कॉलेज तक कितने छात्र बेताब रहते है पर ये मेरी उपेक्षा कर चले गए। जितना ही वह नज़र अन्दाज करता था वो उतनी ही तीव्रता से उसके करीब आना चाहती थी, ऐसा महसूस करती थी कि या तो यह सामान्य मनुष्य है ही नहीं, या तपस्यारत ब्रती जिसकी भावना स्पन्दन्हीन हो चुकी है। कालेज के प्रांगण की ओर वह मुड़ ही रहा था कि साक्षी सामने आ गई एवं अपने बातों से उलझाने लगी,

    क्या प्रो. सुमन ने कर्ण के उपेक्षित जीवन के बारे मे उसकी पौर्षार्थ के बारे मे अतिश्योक्ति तथ्य नही रखा।

    " नहीं ! कर्ण का जीवन स्वयं दर्शन है उसकी पौरुषता अनुपम है उसकी दानशीलता कल्पनातीत है, उसके हृदय की पीड़ा ही उसका परिचय है किन्तु धर्मं के ठीकेदारों ने उनकी महानता की उपेक्षा कर धर्मांध शब्दो से पिरोकर उनकी त्याग, तपस्या, दोस्ती एवं कुशलता को तिमिर के गर्त मे धकेल दिया इसलिए तो रश्मिरथी मे रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां हुंकार उठी,

    " मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का बीरो का धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है, रणधीरो का

    पाते है सम्मान, तपोबल से भूतल पर शूद्र जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर और क्रूर।"

    विधाता जिसकी वीरता का सामना करने इस मही पर उतर आये, इससे अधिक कर्ण की परीक्षा क्या होती क्या होगा उनका परिचय। विधाता ने दुनिया की रचना करते वक़्त यह कभी नहीं सोचा होगा कि मानवीय भूल से उत्पन्न इस क्रूर जाति बंधन की वजह से दूसरा मानव सिसकता रहेगा उन्हें कठोर यातना का सामना करना पढ़ेगा। चंदधर्मांध व्यक्ति ने जाति की रचना कर मानव जाति पर इतना कठोर कुठोराघात किया है कि सवर्प्रथम निम्न एवं आज उच्चजाति के लोग अपने पूर्वज द्वारा दिए गए उपहार को इस प्रकार भोग रहे है मानो उच्च जाति मे जन्म लेकर उसने बहुत बड़ा पाप किया हो, कितनी कठोर सौगात उन्हें धर्म के ठीकेदार से मिली है, दोष किसी का और सजा कोई और भोगे जो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त तक प्रताड़ना की जिंदगी जी रहे है, यह कैसा इंसाफ है भगवान ......

    यह कहकर अजय मुड़ा और साक्षी को तनहाँ छोड़कर कॉलेज से बाहर चला गया। यह बात नहीं थी कि सिर्फ उसे ही अजय के प्रति सम्मान था, सभी छात्र- छात्राए यहाँ तक कि कॉलेज के प्राध्यापक भी अजय के व्यक्तित्व को आदर की निगाह से देखते थे। क्यों नहीं देखते, कॉलेज मे वह विरले स्व्भाव का छात्र था जिसे न किसी से गिला एवं न किसी से आकर्षण, कठिन से कठिन समस्याओ के सम्मुख होने पर भी अजय ‘अजय’ रहता था। साक्षी हर हमेशा सोचते रहती कि इनका स्वभाव इतना रुखा क्यों है, क्या वह इस लायक नहीं कि अजय कुछ क्षण उसे दे, उसके ह्रदय की आवाज को सुने, ऎसी भी बात नहीं थी कि वह वाचाल थी, घमण्डी थी या अपने पिता के पद का गुरुर था किन्तु वह जितना ही करीब आना चाह रही थी, अजय तटस्थ भाव से उतना ही दूर चला जाता था, ऐसी भी बात नही थी की वह उसकी उपेक्षा करता था पर न जाने क्यों वह हमेशा उससे दूरी बनाए रख़ता था, यही बात उसके ह्रदय को झकझोर देती थी। कही दूर से गाने की आवाज आ रही थी,

    " क्या पता प्यार की शमा जले न जले ’’

    साक्षी उसके ह्रदय को कुरेदना चाहती थी अजय कुछ कहें पर वह उसके ह्रदय की भावना को ही कुचल कर आगे बढ़ जाता था पता नहीं कौन सी ज्वाला दैदीप्यमान था। नारी का प्राकृतिक एवं स्वभाविक गुण है कि वह जिसे चाहती है टूट टूट कर चाहती है और इसके विपरित जिससे नफरत करती है वह भी विनाश की सीमा के पार। इसलिए तो इश्वर ने नारी को ममता की देवी कहा है एवं विभिन्न रूप से अलंकृत किया है यथा, माँ, बहन, पत्नी एवं बेटी। साक्षी अपने माँ बाप की एकलौती बेटी थी पिता के उच्चस्त पद पर रहने की वजह से किसी भी प्रकार की कमी नहीं थी किन्तु माँ बाप का यह सौभाग्य ही था कि साक्षी ने कभी भी अपने माँ बाप के स्नेह का दुरूपयोग नहीं किया, उसे ज्ञात था कि मर्यादा की सीमा क्या है, यही कारण था कि उसे दोनों से अति स्नेह मिलता रहा एक हसी खुसी जिंदगी की वह हक़दार थी जिसे सुलभता से प्राप्त थी। संक्षिप्त चाहत ही उसके मन मै सदैव रहती थी, वैसे वह हँसमुख एवं अति सुन्दर थी। उसके पिता उच्च पद पर रहते हुए भी बहुत शालीन थे, इमानदार हसमुख एवं मिलनसार थे यही सबब था कि साक्षी का परिवार समाज मे काफी सम्मानित था, आदर की दृष्टि से समाज उन्हें देखती थी। घर मे किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी। बंग्लानुमा मकान संक्षिप्त परिवार सिमित सेवक एवं बाई ही मात्र घर पे रहते थे। साक्षी की माँ धार्मिक महिला थी, इश्वर के प्रति असीम श्रद्धा थी, वह हमेशा दूसरों के प्रति सदयता दिखाती थी, समाज को उसकी अपेक्षा रहती थी जिसे वह फ़र्ज़ मानकर निभाती थी शायद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि समाज उसके परिवार को उपासना की दृष्टि से देखते थे, चाहे उस समाज में किसी भी प्रकार के मानव क्यों न हो।

    —-

    कमसिन अवस्था मे ही अजय पित्रिविहीन हो गया था, विधाता ने उसके पिता को आकस्मिक मौत दे दी थी अल्हड़पन की दहलीज पर उसके अश्रुपूरित आँखों से आंसू टपक गए, कभी अपनी असहाय माँ को देख़ता तो कभी अपने भाई एवं बहन की कारुणिक निगाह। वह अपने आप को नि:सहाय महसूस करता दुनिया समाज को कौन कहे, उसके अपने निज सम्बन्धी भी दो बूंद आंसूओं का अर्घ्य अजय के पिता के शव पर अर्पित नहीं कर सका। किंकर्तव्य विमूढ़ अजय कभी अपने पिता की लाश को देख़ता तो कभी अश्रु की गंगा मे डूबी हुई माँ, बहन एवं भाई को। यह क्रूर समाज सिर्फ दौलतमन्द को ही इज्ज़त एवं पनाह देती है चाहे उस दौलतमन्द का चरित्र विवादास्पद ही क्यों न हो। अजय के आदर्श पिता के पास न तो दौलत ही था एवं न ही वे बाहुबली थे। खुद्दारी एवं आत्मसम्मान ही उसकी अमानत थी। यही कारण था की अजय अपने पिता की शव को निर्मिमेष निहार रहा था एकाएक समाज के ठेकेदार ने कर्कस आवाज से उसे कर्त्तव्य का बोध कराया। अजय ने पिता को कंधा दिया एवं गिने –चुने व्यक्ति के साथ छोटे भाई का हाथ पकड़कर श्मसान की ओर प्रस्थान कर गया। उसके प्रस्थान के पश्चात उसके चाचा को आत्मबोध हुआ एवं वे भी साथ हो लिए। चतुर्दिक दिशाए चीत्कार कर रही थी आस रो रहा था पर नियति चुप थी। कायनात में वही शोर था पर प्रकृति अपना काम कर रही थी। उसके पिता की लाश धू-धू कर जल रही थी, आग छिटक-छिटक कर अजय को रौशनी देते हुए जीवन का पथ प्रदर्शन कर रही थी। मार्गदर्शन करते हुए आवाज गूंज रही थी कि,

    "कायर मत बनो, मेरे अपूर्ण कार्य को पूरा करो अग्नि-दान के अतिरिक्त भी पुत्र का और भी धर्म है उसे भी तुम्हे पूरा करना है, बेटा ! हिम्मत रखते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना। ’’

    गगनभेदी आवाज अजय के कानो मे गूंज उठी। उच्च समाज के लोगो ने गंगा स्नान करने के पश्चात नियमानुसार गंगा घाट पर प्रचिलित प्रथा की रस्म निभाई एवं अजय सब कुछ लुटाकर अपनी माँ के चरण मे आ गिरा, जी भर कर रोया अजय, जी भर कर रोई बहन एवं मासूम भाई। माँ काठ की मूर्ति की तरह बैठी रही, एक शब्द भी व्यक्त नहीं की सिर्फ अजय के चेहरे को निहारती रही। अजय उस ममता की मूर्ति को निहारते रहा, उसकी आँखों को झांकते रहा। रिक्तता के अलावे उसे कुछ नहीं मिला। ममता निराश थी अपने फ़र्ज़ को कर्ज़ के रूप में मानते हुए अजय ने अपने मन को दृढ़ किया एवं साहसिक निर्णय के साथ उठ खड़ा हुआ। एक मात्र दोस्त राज उसके साथ था। दुनिया उसे ही पूजती है जिसकी पूजा मे वाह्य आडम्बर हो, विधाता उसे ही अपने दर पर आने देता है जिसे अर्पण करने की पर्याप्त सामर्थ हो, इस दृढ इच्छा शक्ति को मान्यता देते हुए अजय ने अपने आपको सामान्य किया नियति कितनी क्रूर है कि अजय की चपलता अल्हड़ पन एवं शोखी ग़म की दरिया में डूबती गई किंतु सहारा देने के लिए कोई भी आगे नहीं आया वह नितांत अकेला हो गया किंतु अपनी दीनता को उसने कभी भी स्वीकार नहीं किया गांव समाज में वह जिंदादिल माना जाता था उसकी शोखी एवं अल्हड़पन उसकी प्रतिभा के लिए बाधक नहीं था अपनी पढ़ाई के प्रति भी उतनी ही जवाबदेही निभाता था जितना खेल के प्रति किंतु अब वह बिल्कुल तन्हा हो गया नितांत अकेलापन में कभी-कभी इतना मग्न हो जाता था मानो कोई तपस्वी हो वह अपने आप से संघर्ष कर रहा था संभवत उसे अपने हालात का एहसास हो चुका था इसलिए तो अपने आप से संघर्ष कर रहा था। कुछ समय के लिए यह समझना बहुत ही दुरूह हो जाता था कि इस अल्पवय में वह विरक्त क्यों हो गया या हालात का परिणाम था या उपेक्षित समाज की तपस थी अब तो उसका परिणाम भावी समय ही बताएगा चूकि अजय पिता की तरह खुद्दार भी था। कमजोर कंधों पर अजय के ऊपर कल्पनातीत दायित्व आ गया उसने हालात का सामना करने के लिए अपने आप को दृढ़ संकल्प किया घर से विदा होने के पूर्व कभी अपनी माँ की निश्तेज आँखों को निहारता तो कभी अपनी मासूम बहन एवं भाई की असहाय चेहरे को किंतु उसके अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं था। दुमका ऐसे छोटे शहर में आकर उसने पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन भी जारी रखा ताकि घर के साथ-साथ भविष्य की भी दायित्व का निर्वाह हो सके अपने दूर के रिश्तेदार की प्रेरणा से वह दुमका इस शर्त पर आया था कि उसे नैतिक समर्थन मिल सके ना कि आर्थिक। अजय के लिए पूरी कायनात रिक्त थी उसका शरीर थक कर चूर हो जाता था किंतु दो बूंद पानी भी अपने आप से ही मयस्सर होती थी मस्जिद से आवाज आई अल्लाहु अकबर अजय ने सजदा के लिए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए एवं ईश्वर को प्रणाम कर रूम से बाहर आ गया दैनिक कर्म क्रिया के उपरांत उसने नाश्ता एवं भोजन बनाया था ट्यूशन के लिए निकल गया चुकी प्रातः ९:०० बजे के पश्चात उसे कॉलेज के लिए प्रस्थान करना पड़ता था क्योंकि उसके निवास स्थान से दूर था। कॉलेज की पढ़ाई के पश्चात पुनः उसे दैनिक संध्याकालीन ट्यूशन पर जाना निर्धारित था यही कारण था कि रात्रि में पढ़ाई के पश्चात निढाल हो जाता था कभी-कभी कुछ भी खा कर सो जाता था, हाँ एक बात अवश्य ससमय पूरी करता तथा अपने परिवार के दायित्व के निर्वाह करने में एक् क्षण भी देरी नहीं करता, सच ही कहा गया है कि,

    समय और लहर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।

    अजय पूर्ण जवाबदेही से अपनी जिंदगी को अपने परिवार के साथ खींचता चला गया शायद यही उसकी किस्मत थी। साक्षी इस कठोर हकीकत को कैसे जान पाती क्योंकि अजय ने अपने कर्म की लक्ष्मण रेखा अपने हृदय तक ही खींच रखी थी साक्षी कभी उसे गलत समझती तो कभी सनकीपन किंतु हकीकत से वो कोसों दूर थी अजय चाह कर भी उसके करीब नहीं आ सकता था। क्योंकि हालात ने उसके पैर और हाथ को पूर्णरूपेण जकड़ लिया था, एवं सत्य का उसे ज्ञान था। वह समझ नहीं पाती अजय उसे समझा नहीं पाता। साक्षी के हृदय में श्रद्धा के साथ साथ उसके प्यार की धीमी धीमी लौ जल रही थी। वैसे भी साक्षी को जाति बंधन स्वीकार नहीं था। संयोग ही कहिए दोनों एक ही जाति के थे समान जाति के होने से यह बंधन भी टूटा हुआ था आकर्षण का संभवतः यह भी एक सबब रहा होगा साक्षी समझदार थी अतः भावी जिंदगी को सुरक्षित हाथों में सौंपना चाह रही थी। वह अपने आप से विवश होकर धीमे धीमे कदम बढ़ाती गई किंतु अजय विवशता-वश कदम खींचता गया,

    अजय जी मैं घर जा रही हूं आ जाइए साथ ही चलेंगे।

    साक्षी कॉलेज गेट के सम्मुख खड़ी होकर ज़ोर से बोली, अजय नपे-तुले कदमों से आगे बढ़ता गया

    फिर कभी !।

    कहकर वह तेजी से ओझल हो गया साक्षी बुत बनकर खड़ी रह गई, बुदबुदा कर बोली,

    कैसा इंसान है जितनी जवाबदेही से कॉलेज कक्ष में बातें करता है उतनी ही सीमित संबंध में प्रांगणण से बाहर निभाता है।

    यह कह कर नैराश्य भाव से रिक्शा से आगे बढ़ गई।

    चाहत की दुनिया अजीब भी है जिसे हम चाहते हैं वह अदृश्य रहता है जिसके प्रति विकर्षण की भावना रहती है वह करीब आना चाहता है। साक्षी की सहपाठिन साक्षी को न समझते हुए भी उपदेश देना चाहती और साक्षी अनसुनी कर देती क्योंकि अजय उसके अंतः स्थल तक विराजमान हो चुका था अजय के बिना जी नहीं सकती थी। उसकी जिंदगी का पहला एवं आखरी प्यार था। ब्रह्मा की प्रेरणा से मनु एवं ईरा ने, सृष्टि की रचना की। प्रकृति ने उसे संवारा प्रतिपाल किया, जिंदगी दी एवं जीने की प्रेरणा दी। मानव उत्तरोत्तर विकास की सीढ़ी पर बढ़ता गया किंतु अपनी कुत्सित भावना से विनाश को भी आमंत्रण देता गया एवं सृष्टि का अस्तित्व ही दाव पर लग गया आज की घटित दुर्घटना इसीका परिणाम है, अति आकांक्षाआ ही विनाश का सूचक है। आए दिन मनुष्य काल कब लित हो जाते हैं। ममत्व का दफन हो जाता है शैशवास्था से लेकर वृद्धावस्था इसके शिकार हो जाते हैं, जिंदगी अस्तित्वहीन हो जाती है। यह नैसर्गिक प्रकृति के विरुद्ध जैसा कुकृत्य है एवं अंत में विधाता का फैसला मानकर अपने भाग्य को कोसता है।

    जज साहब आराम से अपनी गाड़ी से घर आ रहे थे उसी वक्त एक तेज रफ्तार में आ रही ट्रक ने धक्का मार दिया गाड़ी असंतुलित होकर पलट गई। स्टेरिंग से सिर टकरा गया वह बेसुध हो गए, बड़ी मुश्किल से उन्हें गाड़ी से बाहर निकाला गया, वे करीब करीब मृतप्राय हो गए थे सिर्फ सांसे चल रही थी जबकि सिर से खून अविरल प्रवाहित हो रहा था। जंगल में आग की तरह यह बात शहर में फैल गई क्योंकि दुमका एक छोटा शहर है। आनन-फानन में पुलिस की सहायता से उन्हें नीजी अस्पताल में लाया गया। चिकित्सक ने आईसीयू में उनकी जांच की, पूरी तत्परता एवं इमानदारी पूर्वक इलाज होने लगा किंतु खून ही इतना प्रवाहित हो चुका थी कि स्थिति बिगड़ती गई। अजय को भी इस घटना की जानकारी मिली दौड़ते हुए अस्पताल पहुंचा। दुर्भाग्य ही कहिए उनके ग्रुप का खून उपलब्ध अब नहीं था। अजय ने अनुनय विनय करके अपने खून का जांच कराया जो संयोग से ओ पॉजिटिव ही था। डॉक्टर ने उसके शरीर से खून निकाल कर चढ़ाया किंतु विधाता के फैसले को कौन टाल सका है देखते-देखते साक्षी की ममता लुट गई एवं उसकी माँ के माथे से चमकता सिंदूर धुल गया।

    ना जाने यह कैसा न्याय है कि जिस पिता ने साक्षी को डोली पर बिठाने का वादा किया था, आज वे ही मृत शय्या पर आँखें मूंदकर सोए हुए थे। अजय की आँखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े पर उसने उसे ज़मीन पर नहीं गिरने दिया क्योंकि कायरता से उसे नफरत थी।

    कुछ क्षण तो अजय किंकर्तव्यविमूढ़ रहा, किंतु साक्षी की निःसहाय निगाहों से उसे देख रही थी संभवतः अपना कहने वाला वहां कोई मौजूद नहीं था, या तो वे दर्शक थे या उनके सहकर्मी। अजय ने डॉक्टर से बात की एवं एंबुलेंस द्वारा घर भेजने का आग्रह किया। जज साहब की लाश घर आ गई आंगन में उन्हें लेटाकर, अजय बिना किसी को कुछ कहे बाजार चला गया, वहां पर मौजूद जज साहब के दूर के रिश्तेदार को लेकर बाजार में दाह-कर्म का सामान खरीद कर वापस आया। अर्थी तैयार हो गयी, ट्रक का भी इन्तेजाम हो गया। ऐसा प्रतीत होता था कि अजय ने अपने पिता को खो दिया हो।अजय ने स्वयं चिता सजाई एवं निष्ठुरता पूर्वक साक्षी और उसकी माँ को जज साहब के शव से अलग किया मौजूदा व्यक्ति के साथ अर्थी उठा कर मुख्य सड़क पर ट्रक में चढ़ाया। श्मशान घाट में अर्थी को पुनः उतार कर ज़मीन पर रखा गया। चिता की लकड़ियां सजा दी गई। जज साहब को पुत्र नहीं था, अतः आग्रह कर के उनके दूर के रिश्तेदार से उन्हें मुखाग्नि दी गई। चिता धू-धू कर जल रही थी, अजय निर्निमेष निगाहों से चिता को निहार रहा था, मन में अनेक तरह की बातें आ रही थी कि क्या यही इंसाफ है उस विधाता का जिसकी उपासना लोग किया करते हैं। जज साहब जनमानस को ना सिर्फ न्याय देते थे, अपितु हर हमेशा मदद भी किया करते थे चुकी कि वे धार्मिक व्यक्ति थे।

    वाह रे भगवान अच्छा इंसाफ किया तूने उनकी शराफत का हकीकत तो प्रत्यक्ष था इसे कौन झूठला सकता है। जज साहब इस संसार को अलविदा कर तड़पने के लिए अपनी पत्नी एवं बेटी को जग के हवाले कर दिया। बिलखती पत्नी एवं मासूम पुत्री को इस संसार में तन्हा छोड़ कर सदा सदा के लिए इस जहां से चले गए, ना जाने इन अबला का क्या भविष्य होगा। क्योंकि दुनिया निर्दयी है वह देवता नहीं था, देवता बनना भी नहीं चाहता था क्योंकि इस जहां में मानवता प्रेम एवं विश्वास का अस्तित्व ही दांव पर लगा हुआ है, अपनी झूठी शान को दिखाने की होड़ सी लग गई है, हैवानियत इस कदर हावी हो गई है कि इंसानियत सिसकती रहती है देवता तो इन सारे वाक्य एवं दृश्य देखकर अंतर्ध्यान हो जाते हैं, वह जाएगा भी तो कहाँ, उसे जो भी काया विधाता ने दी है वही पर्याप्त है।

    अजय अंतिम फ़र्ज़ को निभाने के लिए कृत संकल्पित हो गया ताकि पूर्णरूपेण ना सही आंशिक रूप से भी इस परिवार को मदद मिल सके। साक्षी का अपना कहने वाला कोई नहीं था सिर्फ एक मामा थे जो दाह संस्कार के बाद आए थे एवं श्राद्ध कर्म में आने का आश्वासन देकर चले गए। कुछ व्यक्ति साहब के सहकर्मी थे एवं स्थानीय तौर पर आस पड़ोस के चुने हुए ही व्यक्ति थे जो इस परिवार के कृतज्ञ थे। गाँव एवं शहर में यही फर्क होता है। अजय साक्षी की के विनीत भाव के समक्ष नतमस्तक हो गया। अजय का एक सहपाठी सुरेंद्र था जो घटित घटना के समय सपरिवार गांव गया था। उसके आ जाने से उसे बहुत ही संबल मिला। सारी बातों की जानकारी होने पर सुरेंद्र को काफी दुख हुआ सिर्फ यह कह कर चुप हो गया की होनी को

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