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महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन)
महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन)
महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन)
Ebook220 pages1 hour

महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन)

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About this ebook

यह मेरा पाँचवाँ व्यंग्य-संकलन है। इसके साथ कहानी और व्यंग्य के संकलनों की संख्या बराबर हो गयी। कहानी और व्यंग्य समान गति से लिखने और प्रकाशित होने के बावजूद दूसरा व्यंग्य-संग्रह बहुत विलंब से प्रकाशित हुआ और इस प्रकार असन्तुलन उत्पन्न हुआ। 'वर्जिन साहित्यपीठ' के संचालक श्री ललित मिश्र ने तीन संग्रह प्रकाशित कर इस अन्तर को पाटने में सहयोग दिया है। वे सुलझे हुए, साफ-सुथरे व्यक्ति हैं। उनका बहुत आभारी हूँ।

लिखना, न लिखना लेखक के हाथ में नहीं होता। लिखना लेखक की मजबूरी होती है। अब साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हुई है। लेखक के लिए स्थितियाँ चुनौतीपूर्ण और मायूस करने वाली हैं। लेकिन इस कुहासे के बावजूद भरोसा है कि अच्छे साहित्य का मूल्य और महत्व रहेगा। तब तक 'हम हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए।'

Languageहिन्दी
Release dateApr 17, 2022
ISBN9781005947347
महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन)

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    महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या (व्यंग्य संकलन) - Virgin sahityapeeth

    महाकवि ‘उन्मत्त’

    की शिष्या

    (व्यंग्य संकलन)

    कुन्दन सिंह परिहार

    प्रकाशक

    वर्जिन साहित्यपीठ

    virginsahityapeeth@gmail.com / 9971275250

    सर्वाधिकार सुरक्षित

    प्रथम संस्करण- अप्रैल, 2022

    ISBN:

    कॉपीराइट © 2022 लेखक

    कॉपीराइट

    इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक- पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक लेखक द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता। सामग्री के संदर्भ में किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ज़िम्मेदारी लेखक की रहेगी।

    जो अलग होकर भी कभी अलग नहीं होंगे,

    प्रकृति और मनुष्यता के उपासक

    श्री अमृतलाल वेगड़

    की स्मृति को

    सादर समर्पित

    अपनी बात

    यह मेरा पाँचवाँ व्यंग्य-संकलन है। इसके साथ कहानी और व्यंग्य के संकलनों की संख्या बराबर हो गयी। कहानी और व्यंग्य समान गति से लिखने और प्रकाशित होने के बावजूद दूसरा व्यंग्य-संग्रह बहुत विलंब से प्रकाशित हुआ और इस प्रकार असन्तुलन उत्पन्न हुआ। 'वर्जिन साहित्यपीठ' के संचालक श्री ललित मिश्र ने तीन संग्रह प्रकाशित कर इस अन्तर को पाटने में सहयोग दिया है। वे सुलझे हुए, साफ-सुथरे व्यक्ति हैं। उनका बहुत आभारी हूँ।

    लिखना, न लिखना लेखक के हाथ में नहीं होता। लिखना लेखक की मजबूरी होती है। अब साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हुई है। लेखक के लिए स्थितियाँ चुनौतीपूर्ण और मायूस करने वाली हैं। लेकिन इस कुहासे के बावजूद भरोसा है कि अच्छे साहित्य का मूल्य और महत्व रहेगा। तब तक 'हम हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए।'

    कुन्दन सिंह परिहार

    सनकी बाबूलाल - दो प्रसंग

    प्रसंग एक

    बाबूलाल का दफ्तर में करीब पाँच सौ का बिल पड़ा है। तीन चार महीने गुज़र गये हैं लेकिन बिल का अता-पता नहीं है। जब भी बाबूलाल दफ्तर जाता है, बिल पास करने वाला बाबू उसकी नाक के सामने अपना रजिस्टर रख देता है। कहता है, 'यह देखो, हमने तो पास करके भेज दिया है। कैशियर के पास होना चाहिए। हमने अपना काम चौकस कर दिया।'

    बाबूलाल गर्दन लम्बी करके रजिस्टर में झाँकता है, पूछता है, 'किसने रिसीव किया है?'

    बाबू कहता है, 'अरे यह गुचुर पुचुर कर दिया है। पता ही नहीं चलता किसके दस्कत हैं।'

    बाबूलाल कहता है, 'थोड़ा रजिस्टर देते तो मैं कैश में दिखाऊँ।'

    बाबू बित्ता भर की जीभ निकालता है, कहता है, 'अरे बाप रे! आफिशियल डाकुमेंट दफ्तर से बाहर कैसे जाएगा? अनर्थ हो जाएगा।'

    कैश वाला बाबू सुँघनी चढ़ाता हुआ अपना रजिस्टर दिखाता है, कहता है, 'हमारे रजिस्टर में कहीं एन्ट्री नहीं है। बिल होता तो कहीं एन्ट्री होती।' फिर बगल में बैठी महिला से कहता है, 'देखो, इनका कोई चेक बना है क्या?'

    महिला, उबासी लेतीफाइल में रखे चेकों को खँगालती है, फिर सिर हिलाकर घोषणा करती है कि नहीं है।

    बाबूलाल पन्द्रह बीस दिन में पाँव घसीटता पहुँच जाता है। हर बार उसे दोनों रजिस्टर सुँघाये जाते हैं और हर बार चेक वाली महिला सिर हिला देती है।

    एक दिन बाबूलाल भिन्ना जाता है। बिल पास करने वाले से कहता है, 'तुम्हारे रजिस्टर को देखकर क्या करें? हर बार नाक पर रजिस्टर टिका देते हो।' गुस्से में अफसर के पास जाकर शिकायत करता है तो वे कहते हैं, 'डुप्लीकेट बिल बनाकर ले आओ।'

    बाबूलाल दुबारा बिल बना देता है। पास करने वाले बाबू के पास जाता है तो वह बिल पर चिड़िया बनाकर कहता है, 'कैश से लिखवाना पड़ेगा कि भुगतान नहीं हुआ।'

    बाबूलाल सुँघनी वाले बाबू के पास पहुँचता है। बाबू बिल देखकर महिला की तरफ बढ़ा देता है। महिला देखकर सोच में डूब जाती है, बुदबुदाती है, 'कैशबुक देखनी पड़ेगी।' फिर भारी दुख से बाबूलाल की तरफ देखकर कहती है, 'सोमवार को आ जाओ। हम देख लेंगे।'

    सोमवार को बाबूलाल पहुँचता है तो कैश वाला बाबू चुटकी से नसवार का लम्बा सड़ाका लगाता है, फिर कहता है, 'तुम्हारा पुराना बिल मिल गया।'

    बाबूलाल चौंकता है, पूछता है, 'बिल मिल गया? '

    बाबू नाक के निचले गन्दे हिस्से को गन्दी तौलिया से पोंछते हुए कहता है, 'हाँ,कागजों में दब गया था। ढूँढ़ा तो मिल गया। कल आकर चेक ले लो।'

    बाबूलाल के जाने के बाद बाबू तौलिया झाड़ता हुआ महिला से शिकायती लहजे में कहता है, 'पाँच सौ रुपल्ली के बिल के पीछे दिमाग खा गया। कुछ लोग बड़े सनकी होते हैं।'

    प्रसंग दो

    बाबूलाल को रिश्वत लेते हुए रँगे हाथ धर लिया गया है। अब बाबूलाल धीरज की मूर्ति बना, मौन,थाने में बैठा है। आसपास पुलिस वाले घूम रहे हैं।

    सामने वाली कुर्सी पर बैठा दरोगा कहता है, 'अब तो तुम गये काम से। जेल जाना पक्का है।'

    बाबूलाल सहमति में सिर हिलाता है।

    दरोगा पूछता है, 'तुम्हें डर नहीं लगता?'

    बाबूलाल ज्ञानी की नाईं कहता है, 'डरने से क्या होने वाला है? जैसा किया है वैसा भोगेंगे।'

    दरोगा कुछ मायूस हो जाता है। थोड़ी देर मौन रहने के बाद जाँघ पर हाथ पटक कर जोर जोर से हँसने लगता है। बाबूलाल आश्चर्य से उसे देखता है।

    हँसी रुकने पर दरोगा कहता है, 'कुच्छ नहीं होगा। बेफिकर रहो। तुम दूध के धुले साबित होगे।'

    बाबूलाल मुँह बाये उसकी तरफ देखता है।

    दरोगा कहता है, 'सब परमान-सबूत तो हमारे पास ही हैं न। हम बड़े बड़े केसों का खात्मा अपने लेविल पर कर देते हैं। हम कहेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं।' वह फिर ताली पीट कर हँसने लगता है।

    बाबूलाल पूछता है, 'यह कैसे होगा? '

    दरोगा जवाब देता है, 'रोज होता है। कुछ पैसे का त्याग करोगे तो तुम्हारे केस में भी हो जाएगा।'

    बाबूलाल थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है, 'लेकिन यह ठीक नईं होगा।'

    अब दरोगा अचरज में है। पूछता है, 'क्यों ठीक नहीं होगा?'

    बाबूलाल कहता है, 'हम जीवन भर ईमानदार रहे। सिर्फ इसी बार हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। हम भ्रष्ट तो हो गये, लेकिन अब हम झूठे और बेईमान नईं होना चाहते। हम अपने किये की सजा भुगतेंगे।'

    दरोगा अपने बाल नोंचने लगता है,कहता है, 'तुम पागल हो। हमारी बात मानोगे तो तुम बच जाओगे और हमें भी अपने पेट के लिए तुमसे दो पैसे मिल जाएँगे।'

    बाबूलाल असहमति मेंं सिर हिलाता है, कहता है, 'नईं दरोगा जी,हमसे एक पाप हो गया, दूसरा नईं करेंगे। आप अपना काम करो। हम सजा के लिए तैयार हैं। झूठ नईं बोलेंगे।'

    दरोगा माथा पीट कर कहता है, 'ससुरा सनकी कहीं का।' फिर सिपाहियों की तरफ देखकर कहता है, 'कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरे का नुकसान करने के लिए अपना सिर कटवा दें। खुद मरें और दूसरे को भी नरक में ढकेलते जाएँ।'

    इश्क की दुश्वारियाँ

    कुछ दिन पहले भोपाल के दो मुख़्तलिफ़ धर्मों के लड़के-लड़की ने शादी कर ली और शहर में भूचाल आ गया। 'पकड़ो, पकड़ो,जाने न पाये' शुरू हो गया और प्रेमी जोड़ा अपनी जान लेकर वैसे ही भागने लगा जैसे जंगल में हाँका होने पर जानवर जान बचाते भागते हैं। इत्ता बड़ा मुल्क होने पर भी प्रेमियों को बचने का ठौर ढू्ँढ़ना मुश्किल हो जाता है क्योंकि धर्म और बिरादरी के हाथ कानून के हाथों से भी ज़्यादा लंबे होते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने इश्क को 'आग का दरया' बतलाया था जिसमें से डूब कर जाना होता है। भोपाल के इस प्रेमी जोड़े की दुर्गति देखकर लगता है कि मिर्ज़ा साहब ने बिलकुल दुरुस्त फरमाया था।

    हम भले ही लैला-मजनूँ, हीर-राँझा या सोहनी-महिवाल के गीत झूम झूम कर गाते हों,लेकिन जब आज के ज़माने में कोई हीर- राँझा पैदा हो जाते हैं तो ज़माना लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़ जाता है। हीर-राँझा और सोहनी-महिवाल कहानियों और गीतों में ही भले। अच्छा ही हुआ कि ये महान प्रेमी जोड़े आज के ज़माने में पैदा नहीं हुए,वर्ना फजीहत को प्राप्त होते।

    बाबा बुल्लेशाह की वाणी भी बड़ी सुहानी लगती है---'बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो,पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो।' लेकिन होता यह है कि मन्दिर-मस्जिद को महफूज़ रखने के लिए प्यार भरे दिल ही नहीं, प्रेमियों के सर भी तोड़े जा रहे हैं।

    दरअसल झगड़े की जड़ यह है कि ऊपर वाले ने विवाह, बिरादरी, जाति, धर्म का कंट्रोल तो मनुष्य के हाथ में सौंप दिया, लेकिन इश्क की चाबी अपने पास रख ली। इसीलिए कहा जाता है कि इश्क किया नहीं जाता, हो जाता है। इश्क इसलिए हो जाता है कि आदमी पर जाति, धर्म का ठप्पा धरती पर पैदा होने के बाद ही लगता है, ऊपर से वह सिर्फ इंसान के रूप में आता है। जब ऊपर वाले ने कोई फर्क नहीं किया तो इंसान कोई बैरियर क्यों लगाये? इश्क के रेले में सब बाँध बह जाते हैं।

    अगर इश्क का कंट्रोल भी ऊपर से ट्रांसफर होकर बिरादरी के हाथ में आ जाए तो सारी खटखट ख़त्म हो जाएगी। फिर लड़की बिरादरी वालों से परमीशन माँगेगी---'भाई जी, मुझे एक दूसरे धरम वाला लड़का अच्छा लगता है। आप परमीशन दें तो उससे प्यार कर लूँ।' बिरादरी सिर हिलाकर कहेगी, 'ना सोणिए, परमीशन नहीं मिलेगी। तू दूसरे धरम वाले से प्यार करेगी तो पूरी बिरादरी की नाक कट जाएगी। इस इश्क की अब्भी गर्दन मरोड़ दे।' और लड़की एक आदर्श कन्या की तरह,मन में अँखुआ रहे प्रेम को उखाड़ फेंकेगी। जब लड़का मिलेगा तो उससे कहेगी, 'सॉरी डियर, बिरादरी से परमीशन नहीं मिली। मुझे भूल जाओ और इश्क के लिए कोई बिरादरी की लड़की ढूँढ़ लो।'

    एक दलित लेखक को एक ऐसी ही समझदार कन्या मिली थी। वह उनको उच्च जाति का समझ कर उनसे प्यार करने लगी थी, लेकिन जब लेखक ने उसे अपनी जाति बतायी तो उसका प्रेम-प्रवाह अवरुद्ध हो गया। वह काफी रोयी धोयी, लेकिन प्रेम को आगे बढ़ाने की नासमझी नहीं की। जाति की दीवार से टकराकर प्रेम का कचूमर निकल गया। ऐसी ही समझदार और आज्ञाकारी लड़कियों और ऐसे ही लड़कों के बूते बिरादरी की नाक सलामत रहती है।

    यही हाल रहा तो एक दिन कोई लड़की लड़के से कहेगी, 'मेरे दिल में तुम्हें देखकर प्यार के वलवले उठ रहे हैं। काश तुम मेरी बिरादरी के होते।' ऐसे

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