दूसरी औरत
By टी सिंह
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ऊपर का आवरण
क्या चाहती थी मैं?
त्रिया चरित्र
राणो के घर
मैं और अमर
गाँव और दिल्ली
सब बदलने लगा
अपनी जमीन पर
टी. सिंह जी के द्वारा लिखे इस उपन्यास "दूसरी औरत" की कहानी एक ऐसी औरत के जीवन के बारे में है जो जीवन के कई वर्ष एक दूसरी औरत का जीवन बिताती है लेकिन कभी भी पहली औरत बनने की कोशिश नहीं करती है।
फिर अचानक ही घटनाक्रम एक ऐसे मोड़ पर आ जाता है जहां उसको अचानक ही पहली औरत का किरदार मिल जाता है।
इस खूबसूरत मन को छू लेने वाली कहानी में आपको बहुत से उतार चढ़ाव मिलेंगे जिनमें से आप भी शायद अपने लिए कुछ खोजकर निकाल लें। हमारी इस कहानी में हमने नायिका को कोई भी नाम नहीं दिया है क्योंकि ये सिर्फ उसकी कहानी नहीं है, दुनिया भर की करोड़ों औरतों की कहानी है।
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दूसरी औरत - टी सिंह
ऊपर का आवरण
अप्रैल के महीने का पहला हफ्ता था। वो शाम उस दिन कुछ ज्यादा ही उदास थी। बहुत गर्मी थी और हवा भी उमस भरी थी।
हम काफी देर से बिना किसी उद्देश्य के सडकों पर भटक रहे थे। काफी देर इधर उधर घूमने के बाद जब हम थक गए तो हमने कुछ समय कनाट प्लेस के एक होटल की लाउन्ज में बैठकर बिताया।
वहाँ बैठकर हमने समय बिताने के लिए बातें करते करते तीन तीन कप कॉफ़ी के पी लिए थे। उन तीन प्यालों को पीते हुए कॉफी के स्वाद और कॉफ़ी की सुगंध में से ना जाने यादों का कितना ज़माना गुजर गया। अतीत की यादों को फिर से याद करने के बाद कॉफ़ी की अंतिम कप के ख़त्म होते ही सिर्फ कड़वाहट ही बची थी।
नाम तो उसका अमरदीप था लेकिन मेरे लिए वो अमर था। ये नाम मुझे ठीक लगता था और मैं उसको इसी नाम से पुकारती थी।
पहला कप तो मैंने वैसे ही पी लिया था जैसा उसने तैयार किया था लेकिन जब वो दूसरे कप को तैयार करने के लिए गरम पानी केतली में से कप में उंडेल रहा था उसने हाथ को रोककर मुझसे पूछा,दूध लोगी?
मैंने हाथ के इशारे से उसको रोकते हुए कहा,नहीं, दूध नहीं।
चीनी भी नहीं लोगी?
हाँ, चीनी भी नहीं लूँगी।
काली कॉफ़ी पियोगी?
हाँ!
रूस के लोगों की तरह? लेकिन पहला कप तो तुमने मेरी मर्जी का पी लिया था?
कहने के साथ ही वो मुस्कुरा दिया।
उसकी उस सुन्दर मुस्कान का जवाब मैं उसको मुस्कान से नहीं दे सकी। मेरे मन की हालत बहुत ही अजीब थी उस समय। मैं जानती थी के मैं अमरदीप की ज़िन्दगी में सिर्फ एक फ़ालतू औरत थी।
लेकिन जब ये एहसास मुझे बहुत दुख देने लगता था तो मेरा मन करता था के कोई ऐसी चुभती हुई बात कह दूँ जिससे अमर का आवरण तार तार हो जाए और उसकी वास्तविकता सामने आ जाए।
मुझे उसपर बहुत गुस्सा आता था क्योंकि वो पूर्ण दिखने का प्रयास करता था और उसकी यही पूर्णता मुझे दुःख देती थी। मेरा मन करता था के कोई ऐसी चीज मिल जाए जिससे मैं उसके आवरण को काट कर सब खोल कर रख दूँ। मैं उसके अंदर की गन्दगी या कचरे को किसी भी हाल में देखना चाहती थी।
मैं अपनी कल्पना में जब उसके आवरण को काटने की कोशिश शुरू करती थी तो उसके चेहरे की तिलमिलाहट को देखकर मुझे अफ़सोस होने लगता था। मैं सोचने लगती थी के मुझे उसको इतनी कड़वी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे अपने कमीनेपन पर बहुत ही गुस्सा आता था।
Chapter 2
क्या चाहती थी मैं?
मैं बहुत अधिक सोच रही थी शायद! आखरी मैं क्या चाहती थी? मैं शायद कोई बहुत ही मामूली सी चीज़ चाहती थी। उदाहरण के लिए मैं मोहब्बत से भरा एक छोटा सा, सुन्दर सा, घर चाहती थी। मैं शायद ऐसा घर चाहती थी जिसके किसी कमरे में मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर पाती।
शायद उस कमरे में मैं अमरदीप की छाती पर सर रखकर सपने बुनना चाहती थी। शायद मैं कुछ किताबें, संगीत, और शायद कुछ और भी चाहती थी, पर मैं निश्चित नहीं कर पा रही थी के आखिर मैं चाहती क्या थी!
मुझे जो चाहिए था वो कहीं भी नहीं था मेरे आस पास पर मुझे वो चाहिए था। अगर वो चीज मेरे पास नहीं थी तो इसके लिए अमर ही जिम्मेवार था ऐसा मैं समझती थी क्योंकि हमारे