Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

तीर्थ स्थलों का महत्व: 1, #1
तीर्थ स्थलों का महत्व: 1, #1
तीर्थ स्थलों का महत्व: 1, #1
Ebook495 pages3 hours

तीर्थ स्थलों का महत्व: 1, #1

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

यह सर्व विदित है कि भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन सनातन संस्कृति है।
इसके विभिन्न तत्वों को आज पूरे विश्व में स्वीकार किया जा रहा है। भारतीय सनातन संस्कृति के अद्वितीय महत्व के कारण ही इसे विश्व पटल पर गुरु की उपाधि से सम्मानित किया गया है। भारतीय सनातन संस्कृति में व्यक्ति के संपूर्ण जीवन में तीर्थयात्रा का विशेष वर्णन है और इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर समय-समय पर अनेक मंदिरों, जलाशयों, घाटों आदि का निर्माण किया गया है।
वैदिक काल, रामायण, महाभारत काल से लेकर पौराणिक काल तक सतयुग , त्रेतायुग और द्वापरयुग था। जिसे अवतार युग भी कहा जाता है। अवतार युग में देवताओं ने अवतार लेकर पृथ्वी पर अनेक अच्छे आदर्श प्रस्तुत किये। इन देवांश  पुरुषों की जन्मस्थली और कर्मस्थली को स्वत: ही तीर्थ कहा गया क्योंकि ऋषि मुनि की तपस्या के फलस्वरूप ये पवित्र हो गये।
कालान्तर में तत्कालीन राजाओं द्वारा देवांश की कर्मभूमि एवं जन्मस्थली पर अनेक मन्दिरों, जलाशयों, कुओं, बावड़ियों, घाटों आदि का निर्माण कराया गया। जिसका एक उद्देश्य भारतीय संस्कृति की रक्षा करना था जिसे विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट करने की पूरी कोशिश की और दूसरा उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाना था। क्योंकि भारत अपने इतिहास और संस्कृति के लिए विश्व पटल पर प्रसिद्ध है, इसलिए समय के साथ भारत दुनिया के अन्य देशों के लिए एक रहस्य बन गया। यहां के तीर्थस्थलों में ऐसी कई कहानियां चित्रित और वर्णित हैं जो आज के वैज्ञानिक युग में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती हैं। इस पुस्तक में भारतीय संस्कृति एवं भारतीय तीर्थों से संबंधित अनेक जिज्ञासाओं का समाधान देने का प्रयास किया गया है।

Languageहिन्दी
Release dateDec 19, 2023
ISBN9798215635155
तीर्थ स्थलों का महत्व: 1, #1
Author

DR. NEETU SHARMA

एम. एड. एम. ए. संस्कृत (सिल्वर मेडल) एम. ए. भूगोल (गोल्ड मेडलिस्ट) एम.एल.एस.यू., उदयपुर  

Related to तीर्थ स्थलों का महत्व

Titles in the series (100)

View More

Related ebooks

Reviews for तीर्थ स्थलों का महत्व

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    तीर्थ स्थलों का महत्व - DR. NEETU SHARMA

    रामायण महाभारत में वर्णित तीर्थ स्थल

    लेखिका - डॉ. नीतू शर्मा

    © NEETU SHARMA 2023

    Kailashi Global Publications Pvt. Ltd., Bharat

    RAMAYAN MAHABHARAT ME VARNIT TIRTHA-ISTHAL

    PUBLISHER: SHANTA SHARMA

    36 VASANT VIHAR

    GOVERDHAN VILAS SECTOR 14, UDAIPUR, RAJ.

    WRITER: Dr. NEETU SHARMA

    SELLER: D2D LLC

    FIRST EDITION: DECEMBER, 2023

    Copyright © December 2023, Dr. NEETU SHARMA

    No part of this publication may be reproduced, stored in a retrieval system, or transmitted, in any form or by any means, without the prior written consent of the Publisher and the license holder.

    Email- kailashigp@gmail.com

    समर्पण

    नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।

    नास्ति मातृसमं त्राणं, नास्ति मातृसमां प्रियां।

    उन सभी तीर्थों की जिनकी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कृपा से मै उनके बारे में जान पाई, लिख पाई और प्रकाशित कर पाई उन्हें सादर नमन ।

    माता के तुल्य कोई छाया नहीं है। माता के तुल्य कोई सहारा नहीं है।

    माता के सदृश कोई रक्षक नहीं है तथा माता के सदृश कोई प्रिय वस्तु नहीं है।

    - वेदव्यास

    चिरस्मरणीय

    उन माँ को जिन्होने मुझे सृष्टि की दृष्टि दी, अतुलनीय, अमूल्य वात्सल्य से मेरे जीवन वृक्ष को सींचा, पल्लवित एवं पुष्पित किया ऐसी साक्षात् ईश्वरस्वरूपिणी, कृपा सागरी माँ को....

    एवं

    पूज्य पिताजी, बड़ी दीदी, नानीजी की पुण्य स्मृति में

    यह शोध पुष्प

    सादर समर्पित

    प्राक्कथन

    देश, काल, परिस्थिति की यथार्थता में वैयक्तिक तथा सामाजिक विकास के अवरोधों की समाप्ति हेतु अपने श्वांस, समय और शक्ति के सदुपयोग में ही मानव जीवन की सार्थकता है। मनुष्य को परितृप्त, परिशुष्ट एवं संतुष्ट रहने के लिए सीमित ममता में आबद्ध न रहकर अपनी तथा जनसामान्य की सुरक्षा तथा अभिवृद्धि के लिए सद्विचार एवं सद्साहित्य का अवलम्बन करना चाहिये, ताकि वह प्रसुप्त चेतना को जाग्रत कर लोकहित में निरत रह सके। सद्शास्त्र मानव जाति के लिए सदैव प्रेरणा स्रोत रहे हैं। इन्हीं सद्शास्त्रों में रामायण -महाभारत महाकाव्य मानव जीवन के नैतिक आदर्शों का आधार हैं। इन महाकाव्यों में संसार के सभी तत्व (मर्यादित व उत्तम पात्र, उत्तम आदर्श, राजनैतिक-भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक तत्व, तीर्थ आदि) मानव जीवन में कर्तव्यपूर्ण-उत्थान एवं उन्नयन की राह दिखाने में सक्षम है।

    हम भारतीय नागरिक हैं और भारत देश में धर्म, कर्म और क्षमा को प्राथमिकता दी जाती है। भारत एक ऐसा देश है जहां कई पंथ और विचारों को मानने वाले हैं और वे परस्पर सौहार्द्र से रहते हैं।

    भारतीय सभ्यता को विश्व की प्राचीनतम सभ्यता माना जाता है। भारतीय संस्कृति के जो उच्चतम आदर्श और मूल्य हैं, उन्होंने भारत को विश्व के रंगमच पर गुरु की उपाधि से सम्मानित किया है।

    भारतीय ग्रंथ वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, दर्शन, पुराणादि भारतीय संस्कृति के आदर्श प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों में सर्वत्र मानव जीवन को एक यात्रा मानते हुए इसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष को स्वीकारा गया है।

    रामायण और महाभारत चूंकि भारत के पूजनीय व पवित्र ग्रंथ हैं और ये लगभग प्रत्येक घर में मिल जाते हैं, अतः इन पवित्र ग्रंथों में वर्णित तीर्थ-स्थलों को जन सामान्य तक पहुंचाना है। इन महाकाव्यों की भाषा सरल सुहृदयग्राही है। अतः इस दृष्टिकोण से भी इन ग्रंथों का चुनाव किया है। इन ग्रंथों में यह वर्णित है कि किस प्रकार मानव अपने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से किये गये पापों का प्रायश्चित विभिन्न तीर्थों की यात्रा करते हुए अपनी सुगमता का चुनाव करते हुए कर सकता है।

    अतः इन आर्ष महाकाव्यों में वर्णित तीर्थ संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने की दिशा में मेरा भी एक छोटा सा प्रयास है। यद्यपि आर्ष महाकाव्यों के महासागर में तीर्थों से संबंधित विवेचन के अनन्त मोती हैं, लेकिन ऐसे महासागर में गहरे पैठ करना मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए अत्यन्त दुष्कर है, फिर भी तट पर बैठकर कुछ ऐसा खोजने की चाहत है जो वर्तमान में भटके मनुष्य को सन्मार्ग का पथिक बनाने हेतु प्रेरित कर सके। अंत: इसी उद्देश्य पूर्ति कि दिशा यह में कार्य प्रस्तुत है।

    आभार

    वांछित उद्देश्य की प्राप्ति में स्वयं के सकारात्मक प्रयत्नों के साथ प्रकृति व अनेकानेक तत्त्वों का प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग रहता ही है। शिक्षा के क्षेत्र में उचित मार्गदर्शन के बिना सफलता नहीं मिल पाती है। प्रस्तुत प्रकाशन कार्य को पूरा करने के लिए मैं उन सभी का धन्वाद करती हूँ जिनका प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग रहा है इस क्रम परम्परा मैं परम आदरणीया डॉ. भावना आचार्य, परम आदरणीय प्रो. नीरज शर्मा, आदरणीय श्री यदुगोपाल जी शर्मा का धन्यवाद् करती हूँ  जिन्होंने विषय-विश्लेषण व विवेचना को तार्किक व विद्वतापूर्ण ढंग से समझाया।

    परिवार मनुष्य की प्रथम पाठशाला मानी जाती है। कोई भी प्राणी अपनी जन्मदात्री के ऋण से आजीवन उऋण नहीं हो सकता है तो वह अपने बच्चों को जन्म से लेकर एक सभ्य इंसान बनाने तक अनेक कष्टों को सहने के बावजूद भी उनसे हमेशा निश्छल प्रेम करती है। अत: वही मानव जीवन की सबसे बड़ी व पहली प्रेरणास्रोत और गुरु होती है। अतः मेरी भी सर्वप्रथम गुरु मेरी करुणामयी माता श्रीमती निर्मला देवी (सेवानिवृत्त अध्यापिका) का जितना भी धन्यवाद करूं, उतना कम है क्योंकि जीवन के अनेक संघर्षों का सामना करते हुए भी उन्होंने हमेशा मुझे आगे बढ़ने और आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने की सीख दी है।

    एक स्त्री के दो जन्म कहे जाते हैं, प्रथम जब वह इस संसार में कदम रखती है और दूसरा जब वह विवाह करके दूसरी दुनिया में कदम रखती है, जहां वह जिम्मेदारियों के साथ दुनिया से सामंजस्य बैठाना सीखती है। अतः एक स्त्री की दो माँ होती है, एक जन्मदात्री माँ व दूसरी सासू माँ।

    मैं अपनी सासू माँ श्रीमती शान्ता शर्मा (सेवानिवृत्त अध्यापिका) का हृदय से धन्यवाद करती हूँ जिनका प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहयोग हमेशा मेरे साथ रहा है और मेरे कार्य को निरन्तर बनाये रखने की प्रेरणा दी है। इन्हीं के साथ मैं अपने श्वसुर श्री भैरूलाल जी शर्मा का भी हृदय से धन्यवाद करती हूँ  जिनका प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से दिया गया प्रोत्साहन विकट परिस्थितियों में मेरे लिए प्रेरणादायी बना और मुझे अपने कार्य में लगे रहने की प्रेरणा प्रदान की।

    इन्हीं के साथ परिवार के उन समस्त सहयोगियों का आभार प्रकट करती हूँ जिनका प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग मुझे मिलता रहा है।

    अपने पति श्री लोकेश शर्मा का भी धन्यवाद करती हूँ, जिनके सहयोग के बिना इस कार्य के लिए एक कदम बढ़ाना संभव नहीं था। मेरे पति ने जिस तरह से सामाजिक  आर्थिक एवं नैतिक सहयोग मुझे अपनी पुस्तक प्रकाशन के लिए  दिया है उसके लिए मैं सह्रदय धन्वाद करती हूँ।

    इस पुस्तक प्रकाशन के कार्य को सफलतापूर्वक पूर्ण करने में जितने भी मित्रों का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप् से सहयोग रहा है उन समस्त मित्रों का धन्यवाद। स्वच्छ टंकण के लिए रूद्रांश ई-सर्विसेज की श्रीमती सुनीता माहेश्वरी तथा श्री कौशल मून्दड़ा का भी धन्यवाद जिन्होंने मुझे अपना समय देकर पूर्ण सहयोग प्रदान किया।

    मैं सभी ऋषियों, महर्षियों और विद्वानों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिनकी रचनाओं से शोध प्रबन्ध पूर्ण करने में सहयोग लिया।

    मैं सर्वशक्तिमान् परमपिता परमेश्वर के प्रति नतमस्तक हूँ जिनकी असीम कृपा से अपना यह प्रयास इस निवेदन के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ कि इसका श्रेष्ठ पक्ष विद्वतजनों का है और निर्बल पक्ष के लिए मेरी अल्पबुद्धि उत्तरदायी है।

    डॉ. नीतू शर्मा

    विषय सूची

    रामायण का परिचय

    प्रस्तावना

    रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।

    रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम्। सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः।।

    वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना।।  [1]

    वेद जिस परमतत्व का वर्णन करते है, वहीं तत्व श्रीमद् रामायण में श्री राम रूप से निरूपित है। वेदवेद्य पुरुषोत्तम के दशरथनन्दन श्री राम के रूप में अवत्तीर्ण होने पर साक्षाद् वेद ही श्री वाल्मीकि के मुख से श्रीरामायण रूप  में प्रकट हुए, ऐसी आस्तिकों की चिरकाल से मान्यता है। इसलिए श्रीमद्वाल्मीकिय रामायण की वेदतुल्य ही प्रतिष्ठा है। यों भी महर्षि वाल्मीकि आदिकवि है, अतः विश्व के समस्त कवियों के गुरु है। उनका ‘आदिकाव्य’ श्रीमद्वाल्मीकिय रामायण भूतल का प्रथम महाकाव्य है। यह सभी के लिए पूज्य वस्तु है। भारत के लिए तो परम गौकी वस्तु है और देश की सच्ची बहुमूल्य राष्ट्रीय निधि है। इस नाते भी वह सबके लिए संग्रह, पठन, मनन एवं श्रवण करने की वस्तु है। इसका एक-एक अक्षर महापाप का नाश करने वाला है।

    एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्

    यह समस्त काव्यों का बीज है- ‘काव्यबींज सनातनम्’  [2]

    श्री वेदव्यासदेवादि सभी कवियों ने उपजीव्य महाकाव्य का अध्ययन कर पुराण, महाभारत आदि का निर्माण किया है। ‘बृहद्धर्मपुराण’ में यह बात विस्तार से प्रतिपादित है। श्री व्यास ने अनेक पुराणों में रामायण का महात्म्य गाया है। स्कन्दपुराण का रामायण महात्म्य तो इस ग्रंथ के आरम्भ में दिया ही है, कई छूट-पूट महात्म्य अलग भी वर्णित है। यह भी प्रसिद्ध है कि व्यास जी ने युधिष्ठिर के अनुरोध से एक व्याख्या वाल्मीकि रामायण पर लिखी थी और उसकी एक हस्तलिखित प्रति अब भी प्राप्य है। जो नाम रामायण तात्पर्य दीपिका से विख्यात है। इसका उल्लेख दीवान बहादूर रामशास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘स्टडीज इन रामायण’ के द्वितीय खण्ड में किया है।

    द्रोणपर्व के 143/66-69 श्लोकों में महर्षि वाल्मीकि के युद्धकाण्ड को नामोल्लेखपूर्वक श्लोकों का हवाला दिया है।

    ‘अपि चायं पूरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि।

    पीडाकरममित्राणां यत्स्यात् कर्तव्यमेव तत्।।

    अग्निपुराण के 5-13 तक के अध्यायों में ‘वाल्मीकि’ के नामोल्लेखपूर्वक रामायणसार का वर्णन है। गरुड़पुराण के पूर्वखण्ड के 143 वें अध्याय में भी रामायणसार कथन है। इसी क्रम में हरिवंशपुराण में भी यदुवंशियों द्वारा वाल्मीकि रामायण के नाटक खेलने का उल्लेख प्राप्त होता है।

    ‘रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम्’

    श्रीवेदव्यास जी ने वाल्मीकि की जीवनी का भी बड़ी श्रद्धा से ‘स्कन्दपुराण’ वैष्णवखण्ड, वैशाखमहात्म्य के 17-20 अध्यायों तक तथा अध्यात्म रामायण के अयोध्या काण्ड में वर्णन किया है।

    इसी प्रकार कवि कुलतिलक कालिदास ने रघुवंश में आदिकवि को दो बार स्मरण किया है।

    कविः कुशेध्माहरणाय यातः।

    निषाद विद्वाण्डजदर्शनोत्थः।

    श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः।। [3]

    रामायण महाकाव्य एक अत्यन्त पवित्र महाकाव्य है जिसकी प्रत्येक घर में पूजा की जाती है। यह महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित 24000 श्लोकों का अनुपम ग्रंथ है जो कि 7 काण्ड़ों में विभक्त है। ब्रह्माजी स्वयं इसका आदर करते है, ऐसा रामायण के उत्तरकाण्ड में निर्दिष्ट है।

    यह महाकाव्य विष्णुभगवान के अवतार श्री राम के चरित्र पर आधारित है। उन भगवान के पावन चरित्र पर आधारित होने के कारण देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि सदा प्रसन्नतापूर्वक देवलोक और मृत्युलोक में इस रामायणकाव्य का श्रवण करते है।

    "ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।

    नित्यं श्रृण्वन्ति सहायष्यः काव्यं रामायणं दिवि"  [4]

    रामायण एक प्रम्बध काव्य की श्रेणी में आता है। इसकी समानता वेद से की गई है अर्थात्त जिस प्रकार हिन्दू धर्म में वेदों को ईश्वरवाणि मानकर उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है जिस कारण वेद अपोरुषेय व परम पवित्र कहे गये उसी प्रकार रामायण भी एक पवित्र ग्रंथ है अतः इसका श्रवण और मनन आयु और सौभाग्य को बढ़ाने वाला है और पापों का नाश करता है।

    रामायण पाठ से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्ति और धनहीन को धन प्राप्ती होती है। जो मनुष्य जाने अनजाने किसी भी तरह का पाप करता है या उससे हो जाये तब भी यदि वह नित्य रूपेण रामायण के एक-एक श्लोक का भी पाठ करे तो वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है।

    गलतियाँ करना मानव का स्वभाव है इसलिए कई बार ना चाहते हुए भी अनजाने में पाप हो जाते है तो रामायण के श्रवण व पठन तथा मनन से मनुष्य के अप्रत्यक्ष पाप भी दूर हो जाते है। रामायण की कथा सुनने व सुनाने वालों दोनों को अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है। रामायणकथा सुनाने वाले वाचक को वस्त्र, गौ, सुवर्ण की दक्षिणा देना चाहिए, ऐसा रामायण के उत्तरकाण्ड में निर्दिष्ट है-

    "वाच्यकाय च दातव्यं वस्त्रं धेनुहिरण्यकम्।

    वाचकें परितुष्टे तु तुष्य स्युः सर्वदेवताः।"  [5]

    रामायण महाकाव्य के महात्म्य के प्रसंग में एक स्थान पर उतरकाण्ड में लिखा गया हैः-

    प्रयागादीनि तीर्थानि गङ्गाद्या: सरितस्तथा।

    नैमिषादीन्यरण्यानि कुरूक्षेत्रादिकान्यपि। [6]

    गतानि तेन लोकेऽस्मिन् येन रामायणं श्रुतम्।

    अर्थात् जिसनें इस लोक में रामायण की कथा सुन ली, उसने मानो प्रयाग आदि तीर्थो, गंगा आदि पवित्र नदियों, नैमिषारण्य आदि वनों और कुरूक्षेत्र आदि पुण्यक्षेत्रों की यात्रा पूरी कर ली।

    महाभारत का परिचय

    महाभारत परिचय

    संस्कृत साहित्य के इतिहास को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है।

    वैदिक संस्कृत साहित्य - लौकिक संस्कृत साहित्य

    इन दोनों साहित्यों के मध्यवर्गी युग में दो ऐसे महान् ग्रंथ लिखे गए, जो वस्तुतः इन दोनों युगों को स्पष्ट रूप से पृथक् कर देतें है। ये ग्रंथ रामायण एवं महाभारत के नाम से प्रसिद्ध है। ये दोनों ही ग्रंथ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के समुज्जवल दीप स्तम्भ है। इन ग्रंथ-रत्नों में भारतीय संस्कृति का जितना भव्य और सजीव चित्र उपलब्ध होता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।संग्रामें प्रयोजनं योद्धृभ्यः। [7]

    उपरोक्त पाणिनि सूत्र के अनुसार यौद्धाओं के नाम से युद्ध का नाम रखा जाता है। कौरव एवं पाण्डव दोनों भारतवंशी थे, इसलिए वे भारत नाम से अभिहित हुए और भरतवंश के वीरों के युद्ध की संज्ञा भारत हुई। अतः महाभारत का अर्थ होता है- भारत के लोगों के युद्ध का महान् आख्यान् स्वयं महाभारत में एक स्थान पर महाभारत युद्ध शब्द का प्रयोग हुआ है। आदिपर्व में ‘‘भारतताख्या नम्" शब्द का प्रयोग हुआ, जिसका तात्पर्य है- भरतों के महान् संग्राम की महती गाथा। महाभारत का यही तात्पर्य विण्टर नित्ज आदि विद्वानों को भी अभिमत है।अपने लौकिक तथा साहित्यिक गौरव तथा विशाल कलेवर के कारण यह ग्रंथ महाभारत कहा गया। महाभारत नाम के स्पष्टीकरण के संबंध में निम्नांकित श्लोक भी उल्लिखित है, जिसमें वह कहा गया है कि भरतवंशी राजाओं के महान् जन्म की कहानी संगुफित होने से यह ग्रंथ महाभारत कहलाया।

    प्राचीन काल में सब देवताओं ने एकत्रित होकर तराजू के एक पलड़े पर चारों वेदों को तथा दूसरे पलड़ें पर महाभारत को रखा, तब महाभारत चारों वेदों से अधिक भारी निकला, तभी से यह महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

    "पुराः किले सुरैः सर्वे: समेत्य तुलया धृतम्।

    चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा।।" [8]

    भरतवंशियों के महान् जन्मकर्म के वर्णन के कारण भी इसका नाम महाभारत पड़ा।

    भरतानां महज्जन्म तस्माद् भारतमुच्यते। [9]

    महाभारत एक विश्वकोशात्मक ग्रंथ है। ये वाल्मीकि रामायण से चारगुणा होमररचित इलियाड से एवं ओडिसी की संयुक्त काया से आठगुणा बड़ा है। वर्तमान महाभारत में एक लाख अनुष्टुप छंद सहित श्लोक है, इसी कारण इसका नाम शतसाहस्त्री संहिता है। गुप्त काल से 197 संवत (502 वि.) के एक शिलालेख में महाभारत के इस शतसाहस्त्री संहिता उल्लेख मिलता है।

    भारतीय तीर्थ परम्परा - स्वरूप एवं महत्व

    . प्रस्तावना

    भारत एक हिन्दू धर्म प्रधान देश है। संविधान में भी भारत को लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष देश घोषित किया गया है। भारत में हिन्दू धर्म की प्रधानता के साथ मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि धर्मों को मान्यता प्राप्त है। प्रत्येक धर्म में अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को ही स्वीकार किया गया है। भारत एक ऐसा हिन्दू धर्म प्रधान देश है, जिसमें ईश्वर के विविध स्वरुपों की मान्यता को स्वीकार किया गया है क्योंकि भारत देश में धर्म का, आस्था का, आस्तिक होने का प्रमाण वेदों को माना है और वेदों में विविध देवों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। उसी परम्परा में प्रकृति को ईश्वरीय स्वरूप मानकर इसके प्रत्येक तत्व में देवत्व की विद्यमानता स्वीकार की गई है। दृष्टान्त हेतु नदियों के सरंक्षण के लिए जल में वरुण देव का निवास, इन्द्र को वर्षा का नियामक, सूर्य देव, चन्द्र देव आदि का अस्तित्व माना गया है।इस प्रकार विभिन्न तत्वों (पंच महाभूत-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश) में देवत्व स्वीकार कर इन्हें तीर्थों की संज्ञा दी है।

    सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में भारतवर्ष ही ऐसा पवित्र देश है। जहाँ की नदियाँ, वन, तालाब, समुद्र, पर्वत, वृक्ष, चबूतरें, मंदिर आदि अपनी पवित्रता, गुण गरिमा के कारण विश्व के समस्त प्राणियों को परम सिद्धि प्रदान करने में समर्थ है।

    तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न शब्द कोशों के अनुसार

    तीर्थांक के अनुसार ‘‘यह सर्वविदित है कि विश्व में भारत एक हिन्दू धर्ममान्य देश के रूप में जाना जाता है। यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहाँ विविध धर्मानुयायी निवास करते है फिर भी भारत एक हिन्दू धर्म प्रधान देश के रूप में जाना जाता है, क्योंकि सभी धर्मों में भी हिन्दू धर्मानुयायियों का यहाँ बाहुल्य है और शायद इसी कारण भारत देश में ‘तीर्थ’ को लेकर एक अलग ही व्यापक विचारधारा समाविष्ट है। क्योंकि तीर्थयात्रा का हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू-धर्म में प्रधान स्थान है। प्रत्येक हिन्दू इसलिए लालायित रहता है कि किसी प्रकार एक बार भारत के सम्पूर्ण तीर्थों का दर्शन-अवगाहन करके अपने जीवन को कृतार्थ करे। एतदर्थ वह कभी-कभी तो अपनी सारी सम्पत्ति को एक ही बार में न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर तीर्थों में ऐसा क्या है, ऐसा कौनसा तत्व है, जिसके लिये यह बलिदान-त्याग की परम्परा निरन्तर चालू हैं।"

    "इसका समाधान है कि भगवत् प्राप्ति के मार्ग में तीर्थ बडे सहायक है। तीर्थ स्वयं भी बहुत बड़े देवता हैं। गंगादि दिव्य नदियाँ साक्षात् देवता होने के साथ-साथ भगवान् से भी सम्बधित है। इनके तीरों पर भगवत्-प्राप्त संतजन भी निवास करते है। उनके सम्पर्क से भगवत्-प्राप्ति, जिसके बिना इस लोक से प्रयाण उपनिषदों में शौच्य कहा है, सहज हो जाती है, अतऐव तीर्थों का महत्व अनन्त है।’’[10]

    विश्व के रंगमंच पर भारत की पहचान ‘विश्वगुरु’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह पहचान भारत की संस्कृति का मुख्य आधार वेद है। भारत एक धर्मप्राण देश है। भारत का धर्म, समाज, शिक्षा, सभ्यता, आचारनुष्ठान सभी कुछ ऋषियों द्वारा उपलब्ध सत्य की नींव पर खड़े है। वैदिक संस्कृति को पूरे विश्व ने सर्वप्राचीन स्वीकृत किया है। और इसकी जन्मभूमि होने का गौरव भारत को प्राप्त हुआ है। इसी कारण भारत का विश्वगुरु की उपाधि से नवाजा गया है।

    भारत को देवभूमि माना गया है। यह उन ऋषियों की तपोस्थली है जिनका भगवान से साक्षात्कार हुआ है। यह भाव का आवेग नही हैं, ना हि काल्पनिक बाते! इतिहासकार भी रामायण महाभारत, वेदों, उपनिषदों, वेदांग आदि सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की ऐतिहासिकता को नकार नहीं सकते इस कारण वैदिक संस्कृति के समय में ऋषियों ने जहाँ-जहाँ अपना निवास स्थान बनाया वे सभी स्थान आगे चलकर ‌‌‌पवित्र स्थल कहलाए और उन्हें तीर्थ की पहचान मिली।

    आचार्य श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार

    संसार में ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसने तीर्थ की सार्थकता को अस्वीकार किया हो। वास्तव में तीर्थ हर धर्म का नाभिस्थल है, श्रद्धा केन्द्र है, वह मनुष्य धन्य है जिसके शीर्ष पर किसी तीर्थ की माटी का तिलक हुआ है।[11]

    भारतीय संस्कृति में व्यक्ति के जीवन के चार पुरुषार्थ कहे गये है- धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। इन चारों ही पुरुषार्थों में तीर्थ की उपलब्धता प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से सर्वत्र रही है। क्योंकि भारत में तीर्थों का अनेक रुपों में उल्लेख किया गया है, यथा मानस तीर्थ, सत्य तीर्थ, क्षमा तीर्थ, दया तीर्थ, दान तीर्थ, ज्ञान तीर्थ, धैर्य तीर्थ, तप तीर्थ आदि आदि। कहने का तात्पर्य है कि जिन -जिन कार्यों से मन की शुद्धि होती है वे सभी तीर्थ कहे गये है।

    हिन्दू मान्यतानुसार तीर्थों का दर्शन मनुष्यों की पाप राशि जला डालने के लिए अग्नि का काम करता है। इसलिए जो लोग संसार बन्धन से छूटना चाहते हैं, उनको पवित्र जलवाले तीर्थ, अन्य तीर्थ देवस्थल कहे गये हैं, जो सदा साधु-महात्माओं के सहवास से सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिए।

    भारत पावन तीर्थों का देश है। यहाँ तीर्थों का महत्व बहुत प्राचीनकाल से रहा है। ऋग्वेद, अथर्ववेद आदि वैदिक  साहित्य में तीर्थ शब्द का प्रयोग पवित्र स्थान के संदर्भ में हुआ है। भारत वर्ष के प्रत्येक प्रदेश, नगर और ग्राम तक में तीर्थ विद्यमान है। वेदान्त की दृष्टि से तो भारत का रेणु-अणु तक तीर्थस्वरूप है। यहाँ ऐसा कोई प्रान्त या क्षेत्र नहीं है जहाँ कोई पुनीत नदी, पवित्र सरोवर आदि ना हो।

    भारतीय संस्कृति के पांच सशक्त आधार स्तम्भों के माध्यम

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1