एक हवेली नौ अफ़साने
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एक हवेली नौ अफ़साने
अपने रिटायरमेंट के बाद प्राप्त अपनी समस्त पूँजी से उपन्यास की नायिका एक आशियाना खरीदने की इच्छा करती है । इसी प्रयास में उसे एक खूबसूरत इमारत का दीदार होता है जिसे लोग हवेली कहते हैं । हवेली से सम्बंधित सभी प्रवादों तथा अफ़वाहों की उपेक्षा करते हुए वह हवेली खरीदने का निर्णय ले लेती है । तब.... क्या होता है तब ? क्या उसका निर्णय सही था ? क्या उस हवेली से जुड़ी कहानियाँ अफ़वाह मात्र थीं ? क्या हुआ जब उस ने उस इमारत में कुछ दिन रहने का निर्णय लिया ..... ?
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एक हवेली नौ अफ़साने - डॉ. रंजना वर्मा
एक हवेली नौ अफ़साने
BY
डॉ. रंजना वर्मा
pencil-logo
ISBN 9789354581762
© डॉ. रंजना वर्मा 2021
Published in India 2021 by Pencil
A brand of
One Point Six Technologies Pvt. Ltd.
123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
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W www.thepencilapp.com
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DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.
Author biography
लेखिका का परिचय
नाम -
डॉ. रंजना वर्मा
जन्म -
15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।
शिक्षा-
एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)
लेखन एवम् प्रकाशन -
वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।
प्रकाशित कृतियाँ -
एक महाकाव्य, नौ खण्डकाव्य, चौदह ग़ज़ल संग्रह, चार गीतिका संग्रह, छै गीत संग्रह, एक कुण्डलिया संग्रह, तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास । बाल साहित्य तथा अन्य काव्य कृतियाँ ।
सम्पादन -
चार कविता संग्रह, एक गीत संग्रह, एक स्मृति ग्रन्थ, एक हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह।
प्रसारण -
गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।
सम्मान -
श्रीमती राजकिशोरी मिश्र सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान, ग़ज़ल सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक गौरव सम्मान, दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक भूषण सम्मान, दोहा मणि सम्मान।
सम्प्रति -
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।
सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com
Contents
प्रारंभ
प्रारंभ
यों तो सारी उम्र ही थोड़ा-सा समय, थोड़ा-सा अवकाश पाने की आशा में कट रही थी पर रिटायरमेंट मिला तो लगा जैसे अब अवकाश ही अवकाश रहेगा। अब तक के सारे सपने, सारी आकांक्षायें पूरी करने का समय आ गया।
वी.आर.एस. लेने का सबसे बड़ा लाभ तो जैसे अब प्रत्यक्ष हुआ था। अच्छी खासी रकम मिल गयी तो सोचना स्वाभाविक ही था कि एक बंगला बने न्यारा का स्वप्न भी पूर्ण कर ही लिया जाये । जब बंगला लेने का निर्णय लिया तो अपनी अपेक्षायें भी उसमें सम्मिलित कर लीं। बहुत दिनों से इच्छा थी एक घर की । ऐसे घर की जहाँ र्निविघ्न होकर
अपनी लेखनी को संतृप्त किया जा सके । जहाँ चारों और प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा पड़ा हो । जहाँ की सुरम्यता अनायास ही हृदय को अभिभूत कर ले और न चाहने पर भी लेखनी उठाकर कुछ लिखना शुरू किया जा सके।
जिन्दगी की आपाधापी में यह छोटा-सा सपना बस यूंही खिसकता जा रहा था। कभी हाथ में इतना धन नहीं जोड़ पायी कि अपने सपनों का महल खरीद सकूं। अब जब हाथ में धन आया तो इसी इच्छा की पूर्ति को प्राथमिकता देते हुये घर ढूंढने का अभियान चला दिया। सभी इष्ट मित्रों, परिचितों रिश्तेदारों से सलाह की गयी। सब ने एकमत से कहा-
‘‘जैसा घर तुम चाहती हो तो वैसा ही घर किसी पर्वतीय स्थल पर घर मिल जाएगा। चलो तुम कहीं पहाड़ पर बस जाओ तो हमें भी कभी-कभार आने का सूझता रहेगा।"
अन्वेषण होता रहा। कभी समाचार-पत्रों के पृष्ठ उल्टे जाते तो कभी वर्करों की बात की जाती। समय धीरे-धीरे खिसकता जा रहा था। इसी धुन में कितने ही घर देख डाले लेकिन बात कही जमीं नहीं। कहीं घर पसन्द नहीं आता तो
कहीं लोकेशन। कहीं सब कुछ जंच जाता तो मूल्य अधिक होता था या फिर उसके आसपास मनचाहा परिदृश्य न मिल पाता । वी.आर.एस. लेते ही जो कार्य बहुत सरल प्रतीत हो रहा था वही अब दुस्तर-दुष्कर लगने लगा। कभी-कभी तो सोचने लगती थी कि शायद ऐसा मनचाहा घर मेरे भाग्य में ही नहीं है । इसी आशा निराशा के बीच मेरे एक परिचित का पत्र आया । उन्होंने घर के सिलसिले में ही मुझे शिमला आने के लिये लिखा था । यों तो निराशा मन मे पाँव पसारने लगी थी फिर भी सोचा - चलो , यह भी देख लेते हैं । और बस , ब्रीफकेस में दो जोड़ी कपड़े डाल कर चल ही दी ।
शिमला पहुंचने से पूर्व ही उस प्राकृतिक सौंदर्य निधान के जादू से अभिभूत हो उठी । इतना सौंदर्य , इतनी अद्भुत दृश्यावलियाँ । स्वर्ग क्या इससे बढ़कर होगा ?
पहाड़ के टेढ़े मेढ़े रास्ते , फूलों से महकती घाटियाँ , देवदार के ऊंचे ऊंचे वृक्ष और निश्छल उन्मुक्त पहाड़ी जन यह सब देख कर ही जैसे ह्रदय आश्वस्त होने लगा । लगता था कि इस बार बात बन ही जाएगी ।
शिमला पहुंचने पर बस से उतरते ही प्रफुल्ल सरकार ने स्वागत किया । वे अपने साथ अपनी कार ले आए थे । आगे का सफर उनकी कार से ही हुआ । वह स्वयं उन दिनों डाक बंगले में ठहरे हुए थे । वहीं उन्होंने मेरे ठहरने की भी व्यवस्था कर दी थी ।
मेरे पहुंचते ही उन्होंने कमरा खुलवा दिया । सारी सुविधाओं से युक्त आरामदेह कमरे में सोफे पर बैठ कर जब गर्म कॉफी की चुस्की ली तो जैसे रास्ते की सारी थकान उड़न छू हो गई । बड़ी राहत मिली । फिर पूछा -
आप अकेले यहां डाक बंगले में कैसे ठहरे हैं ? आपका परिवार तो आपके साथ ही था कलकत्ते में । भाभीजी वगैरह....
प्लीज तरला जी !
उन्होंने बीच में ही बात काट दी ।
आप की उत्सुकता शांत करने के लिए इतना ही बता दूं - बिल्कुल एकाकी हूं मैं । अकेला , निस्संग । कहीं कुछ भी शेष नहीं रहा अब तो ।
प्रफुल्ल सरकार के स्वर में कुछ ऐसी वेदना थी जिसने मुझे मूक कर दिया । मैं तरला चटर्जी , मनोविज्ञान की लेक्चरर जो जब बोलना आरंभ करती थी तो उसे चुप कराना कठिन हो जाता था । वही मैं निशब्द , निर्वाक हो डूब गई थी उनकी उस अथाह वेदना में । सारे शब्द यहीं आकर रुक गए थे । क्या कहूं ? क्या पूछूँ ? कुछ भी तो समझ नहीं पा रही थी । सारी उत्सुकता , सारी उत्कंठा उस व्यथा की वृहदतम शिला के नीचे दबकर दम तोड़ गई । उसी पल निर्णय लिया था अब प्रफुल्ल जी के जीवन , परिवार के विषय में कुछ भी पूछना नहीं होगा । परंतु उनकी पत्नी की वह सौम्य मूर्ति , सुंदरता और सभ्यता का वह अद्भुत संतुलन । उसका क्या ?
पर वह बात अभी रहने ही दें। अभी तो शिमला में मुझे अपने उद्देश्य की पूर्ति का प्रयास करना था। यहाँ तो वार्तालाप ही समाप्त हो गया था। वातावरण की उस गहन गंभीरता और अस्वाभाविकता का अनुभव करके ही शायद प्रफुल्ल बोल उठे-
‘‘आप तो सफर में खूब थक गयी होगी। थोड़ी देर बाद नाश्ता लेते हैं। पांच तो बजने ही वाले हैं। फिर रात नौ बजे तक डिनर लेकर आज की रात विश्राम करें। कल....।"
‘‘कुछ ऐसी विशेष थकान तो...." मैंने कुछ कहना चाहा।
‘‘नहीं नहीं, अब स्वयं पर इतना अत्याचार तो नहीं ही करने दूंगा मैं आपको। नाश्ता लेकर कुछ देर यही आसपास टहल लेंगे, कुछ बातें भी होगी। बाकी का कार्यक्रम तो कल पर ही छोड़ना होगा।" प्रफुल्ल व्यस्त होकर बोल उठे।
नाश्ता निबटाते छः बज गये। लेकिन पूर्व कार्यक्रम के अनुसार बाहर निकलना फिर भी नहीं हो सका। कमरा बन्द करके शाम के भोजन का आदेश देकर जब डाक बंगले से बाहर निकले, शाम उतर आयी थी। आकाश में घने बादल छाये हुये थे। हवा ठण्डी और सुखद थी। परन्तु हम डाक बंगले की
बाहरी सीढि़याँ उतर ही पाये थे कि बूंदा-बांदी शुरू हो गयी और फिर देखते ही देखते वर्षा इतनी तेज हो गयी कि हमें तुरन्त ही वापस डाक बंगले में ही लौट आना पड़ा।
प्रफुल्ल जी जिस कमरे में थे वह मेरे कमरे से सटा हुआ ही था। खाने तक हमने वहीं बैठने का निश्चय किया। छोटा-सा कमरा जिसमें वे पिछले एक सप्ताह से रह रहे थे , सुरूचिपूर्ण ढंग से सजा था। सामान तो वैसा ही था जैसा
मैं अपने कमरे में देख आयी थी । एक पंलग, एक गद्देदार सोफा, दो कुर्सियाँ और एक रायटिंग टेबल जिस पर कुछ पत्रिकाएँ और उसी दिन का समाचार पत्र पड़ा था। सोफा के सेंटर टेबल पर उन्होंने स्वयं ही फूलों का गुलदस्ता बनाकर
कांच के गिलास में सजा रखा था और इतने परिवर्तन से ही कमरा सुन्दर और सुखद लगने लगा था।
प्रफुल्ल सरकार से मेरा बहुत पुराना परिचय था। तब हम कलकत्ता में पड़ोसी हुआ करते थे। उनकी पत्नी तन्वंगी देवी और एक प्यारा-सा नन्हा-सा बेटा था सुकुमार । सोचते ही उनकी पान फूल सी प्रेयसी पत्नी और गोल-मटोल पुत्र का रूप आँखों के आगे साकार हो उठा। कितने बरस बीत गये-शायद बीस या बाइस वर्ष फिर भी लगता है जैसे कल की ही बात है। मैं अपनी नई-नई नौकरी पर जाने के लिये तैयार हो रही थी। अचानक तन्वंगी ने आकर मेरे गले में बाहें डाल दी। ‘
‘ओए मां ! इतनी जल्दी-जल्दी कहाँ चली ? चलो, आज मैंने
बैंगन बनाये हैं - बेसन वाले - बिना खाये न जाने पाओगी।"
‘‘लेकिन भाभी...."
‘‘भाभी नहीं , तनु बोल.... तनु ! देख, भाभी तो सभी कहते हैं मुझे ! तू मेरी सखी बनी रह।"
तन्वंगी ने आग्रह किया तो जैसे पलभर के लिये ठहर-सी गयी थी मैं।
इतना प्यार, इतनी ममता।
‘‘आप इतना प्यार क्यों करती हैं मुझसे?"
मैंने पूछा, तो वह मुस्कराई।
‘‘इतना भी नहीं जानती। हम एक ही राशि के हैं न इसी से।"
और खिलखिला उठी वह। वह हँसी, वह उन्मुक्त खिलखिलाहट जैसे अब भी मेरे चारों ओर गूंज रही थी।
‘‘अरे कहाँ खो गयी आप ?"
प्रफुल्ल जी के टोकने पर मैं यथार्थ में लौट आयी।
‘‘कहीं नहीं, बस यूं ही। पुराने दिन याद आ गये थे।"
मैंने अचकचा कर उत्तर दिया।
‘‘पुराने दिन.... लेकिन उन्हें याद करने से अब क्या होगा? भूल जाना होता है सब कुछ। यादों के सहारे जिया नहीं जा सकता तरला जी। समय और परिस्थितियाँ अपना अधिकार मांगती है तब यादें बड़ा अकिंचन बना देती है। अकिंचन होकर तो कुछ भी नहीं किया जा सकता न। सपनों की तरह ही सब कुछ भूलना पड़ता है। कुछ भी तो साथ नहीं रहता।"
न जाने किस लोक से प्रफुल्ल सरकार की आवाज आ रही थी जैसे। क्या हो गया उन्हें ? कैसी रहस्यमयी बातें कर रहे हैं ? किस दुनिया में रहने लगे हैं वे ?
कितने ही प्रश्न मेरे मानस को मथने लगे। उस छोटे से कमरे में निवास करने वाले प्रफुल्ल सरकार तो जैसे कोई और ही व्यक्ति हो गये। वो उस समय ऐसे प्रतीत हो रहे थे जिससे मेरा कोई परिचय ही नहीं था। पहले भी उन्हें कितना जानती थी मैं? मेरा परिचय तो उनकी पत्नी और बेटे से ही था। जो मुझ अनाथिनी, एकाकिनी के एकान्त पलों के साथी थे। उनके रहते मैंने स्वयं को कभी अकेली नहीं अनुभव किया। सुकुमार तो जब तक सो न जाता मेरे ही पास बना रहता था। प्रफुल्ल
सरकार से बस दुआ सलाम भर का ही रिश्ता था। कभी-कभी उनकी पत्नी कहीं घूमने का या पिकनिक का प्रोग्राम बनाती तो मैं उनके साथ सम्मिलित नहीं होती थी। हमारा स्नेह क्षेत्र मेरा या उनका घर था। बस आगे नहीं। तब भी प्रफुल्ल सरकार बस परिचित भर थे और अब तो जैसे न जाने कितने रहस्यों ने लपेट रखा है, उन्हें स्वयं में।
डिनर तक हम हल्की-फुल्की बातें करते रहे कभी मौसम की तो कभी राजनीति की। और फिर मैं एक पत्रिका उनसे लेकर अपने कमरे में सोने चली गयी। यात्रा की थकान में पत्रिका के पृष्ठ पलटते पलटते कब मैं सो गयी यह मैं
स्वयं ही नहीं जान सकी।
प्रातः उठने पर मैं स्वयं को तरोताजा अनुभव कर रही थी। दस बजे हम नाश्ता करके और कुछ स्नैक्स साथ में रख कर साथ ही चल पड़े अपनी मंजिल की ओर। रास्ते भर प्रफुल्ल जी चुपचाप कार चलाते रहे और मैं अपने चारों ओर बिखरे अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य का पान करती रही।
लगभग तीन घंटे टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों और कच्चे रास्ता का सफर तय करके हम एक छोटी-सी बस्ती में पहुँचे जहाँ मुश्किल से पन्द्रह घर बने हुए थे। उन्हीं में एक घर के सामने प्रफुल्ल ने कार रोकी की तो मैं उनका मुंह देखने लगी-
‘‘यहाँ कहाँ?"
‘‘आइये तो। यहीं, वह व्यक्ति मिलेगा जिसने उस सम्पति के विषय में बताया था। अब वही हमारा मार्गदर्शन करेगा।’’ प्रफुल्ल बोले।
‘‘तो क्या आपने वह स्थान नहीं देखा है?’’
मैंने पूछा।
‘‘नहीं । मैंने सोचा कि आप भी आ जायें तभी चलते हैं । वैसे उसका दावा है कि वह स्थान आपको अवश्य पसन्द आयेगा।’’
मैं कार से उतर पड़ी।
वास्तव में वह व्यक्ति वहाँ भी नहीं रहता था। उस घर के मालिक ने हमारी अच्छी आवभगत की। भोजन का समय हो गया था इसलिये हमने उसके आग्रह का सम्मान करते हुये भोजन कर लिया। खाने में रोटियाँ थी और कोई सूखी
सब्जी जो देखने में सुन्दर न होते हुये भी स्वादिष्ट थी।
जब तक हम भोजन से निवृत्त हुए, हमारा मार्गदर्शक भी आ गया। उसका नाम धीरज था। वह उस बस्ती से नीचे ढलान के पीछे वाली बस्ती में रहता था जहाँ कार से नहीं जाया जा सकता था। इसीलिये संभवतः प्रफुल्ल जी ने यह बीच का मार्ग अपनाया था।
तीन बजे हम अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े। रास्ता लंबा और ऊबड़-खाबड़ था इसलिये बहुत संभल संभल कर कार चलानी पड़ रही थी।
लगभग दो घंटे का सफर तय करने के बाद धीरज ने कार रोकने के लिये कहा। कार रोक कर हम बाहर निकले। सामने निगाह डाली तो हम जैसे स्तब्ध रह गये।
ठीक सामने एक बड़ा-सा फाटक और उसके पास लगभग पचास गज का रास्ता जो एक सुन्दर इमारत पर जाकर समाप्त होता था। इमारत क्या थी जैसे जादू से बनाया हुआ कोई अद्भुत शिल्प था। सफेद संगमरमर लगा सामने छोटा-सा
बरामदा और उसके पीछे इमारत का मुख्यद्वार जिस पर बहुत सुन्दर नक्काशी की गयी थी। इमारत की दीवारों पर भी सफेद रंग की चमकदार पालिश की गयी थी जो पुरानी होने पर भी आबदार थी। यद्यपि इमारत पुरानी और उपेक्षित सी थी फिर भी उसकी सुन्दरता में कोई कमी नहीं आयी थी। जिसने भी उसे बनवाया था वह निश्चय ही अत्यन्त सुरूचिपूर्ण व्यक्ति था। इमारत के सामने और अगल-बगल में कच्ची जमीन छुटी हुई थी जो संभवतः पीछे तक चली गयी थी। देखरेख के अभाव में अनेक प्रकार की कटीली झाडि़यों ने इमारत को
घेर रखा था फिर भी वह कीचड़ में खिले कमल के समान अपनी ही आभा से दीप्त हो रही थी। इमारत के ऊपर सुन्दर जालीदार मुंडेर थी और ऊपर बीच में शायद एक या दो कमरे और दालान भी बना हुआ था जिसकी झलक इतनी दूर
से भी मिल रही थी। मुग्ध होकर प्रफुल्ल सरकार और मैं उस खूबसूरत इमारत को देखते रह गये। सचमुच वह मेरे सुनहरे स्वप्नों की ताबीर थी। इसी की तो तलाश थी मुझे। उसकी प्रशंसा में बस एक ही शब्द कह सकी मैं-
‘‘वंडरफुल।’’
‘‘वाह, क्या चीज हैं!" प्रफुल्ल कह उठे।
सचमुच असाधारण ही थी वह इमारत।
धीरज बड़े धैर्य से हमारे चेहरे पर अंकित भावों को परख रहा था। कुछ देर बाद वह बोला-
‘‘मैंने पहले ही कहा था बाबू जी कि इमारत आपको जरूर पसन्द आयेगी। मेम साहब को भी पसन्द आ ही गयी वह हवेली।’’
‘‘हवेली?" मैंने चकित होकर पूछा।
‘‘हाँ मेम साहब, यह हवेली ही है। पहले यहाँ के जमींदार हुआ करते थे ठाकुर अमरेन्द्र बहादुर। उन्होंने ही बड़े शौक से बनवायी थी यह हवेली। मेरे दादा जी बताते थे कि कई बरस काम चला था तब जाकर यह हवेली बन पायी थी। ठाकुर साहब को अगर कहीं कुछ भी कमी नजर आ जाती थी तो फिर से वह हिस्सा अपने सामने बनवाते थे। कई-कई बार तो