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कफ़न के लुटेरे
कफ़न के लुटेरे
कफ़न के लुटेरे
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कफ़न के लुटेरे

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कफ़न के लुटेरे


यह वर्तमान बांग्ला देश की हरी भरी धरती पर पद्मा नदी के किनारे बसे हुए एक गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखा गया एक काल्पनिक उपन्यास है । इसके सभी पात्र तथा उनके संघर्ष की कहानी कल्पना के आधार पर भले ही लिखी गयी है परंतु उसका उपजीव्य पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला देश बनने की घटना तथा उस समय वहाँ घटने वाली कही सुनी व पढ़ी अत्याचार की कहानियाँ ही हैं । उन्हें ही आधार बना कर प्रस्तुत उपन्यास का ताना बाना बुना गया है जो काल्पनिक होते हुए भी सत्य के निकट है । यह उपन्यास पाठक को देशभक्ति तथा स्वतन्त्रता की प्रेरणा प्रदान करता है ।

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateAug 25, 2021
ISBN9789354584749
कफ़न के लुटेरे

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    कफ़न के लुटेरे - डॉ. रंजना वर्मा

    कफ़न के लुटेरे

    BY

    डॉ. रंजना वर्मा


    pencil-logo

    ISBN 9789354584749

    © Dr.Ranjana Verma 2021

    Published in India 2021 by Pencil

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    नाम - 

    डॉ. रंजना वर्मा

    पति - स्मृतिशेष श्री राजेन्द्र प्रकाश वर्मा , लब्धप्रतिष्ठ हास्य व्यंगकार व पत्रकार ।

    जन्म - 

    15 जनवरी 1952, जौनपुर (उ0 प्र0 ) में ।

    शिक्षा-  

    एम. ए. (संस्कृत, प्राचीन इतिहास ) पी0 एच0 डी0 (संस्कृत)

    लेखन एवम् प्रकाशन - 

    वर्ष 1967 से देश की लब्ध प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में, हिंदी की लगभग सभी विधाओं में । कुछ रचनाएँ उर्दू में भी प्रकाशित ।

    प्रकाशित कृतियाँ - 

    एक महाकाव्य, नौ खण्डकाव्य, चौदह ग़ज़ल संग्रह, चार गीतिका संग्रह, छै गीत संग्रह, एक कुण्डलिया संग्रह, तीन कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास । बाल साहित्य तथा अन्य काव्य कृतियाँ  ।

    सम्पादन - 

    चार कविता संग्रह, एक गीत संग्रह, एक स्मृति ग्रन्थ, एक हास्य व्यंग्य कविताओं का संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह।

    प्रसारण - 

    गीत, वार्ता, तथा कहानियों का आकाशवाणी, फैज़ाबाद से समय समय पर प्रसारण ।

    सम्मान - 

    श्रीमती राजकिशोरी मिश्र  सम्मान, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान स्मृति सम्मान, काव्यालंकार मानद उपाधि, छन्द-श्री सम्मान, कुंडलिनी गौरव सम्मान,  ग़ज़ल-सम्राट सम्मान, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान, मुक्तक-गौरव सम्मान,  दोहा शिरोमणि सम्मान, सिंहावलोकनी मुक्तक-भूषण सम्मान,  दोहा-मणि सम्मान।

    सम्प्रति - 

    सेवा निवृत्त प्रधानाचार्या( रा0 बा0 इ0 कालेज जलालपुर, जिला अम्बेडकरनगर उ0 प्र0) से।

    सम्पर्क सूत्र - ranjana.vermadr@gmail.com

    Contents

    पद्मा के किनारे

    क्रांति का श्रीगणेश

    आत्मोत्सर्ग

    विजय

    पद्मा के किनारे

     पूर्वी बंगाल का वह छोटा सा गांव पद्मा नदी के किनारे पर बसा हुआ था । थोड़े से कच्चे पक्के घर और चारों ओर बिखरे हुए खेत । खेतों की एक ओर फलदार वृक्षों के बाग थे और दूसरी और एक मील की दूरी पर पद्मा नदी की जलधाराएं अठखेलियां किया करती थीं ।

     इस समय वातावरण में नीरवता छाई हुई थी । दूर-दूर तक खामोशी का साम्राज्य था । गांव से दूर नदी के किनारे एक छोटी सी पत्थर की शिला पर बैठी एक सुंदर तरुणी दूर तक फैले जल में उठती चंचल लहरों को देख रही थी । पद्मा अपनी उमंग में इठलाती बह रही थी ।

    थोड़ी थोड़ी देर पर वह तरुणी पीछे की ओर देख लेती जैसे उसे किसी की प्रतीक्षा थी । हँसी खुशी में मस्त उसका गांव चैन के गीत गा रहा था । गृहणियाँ रसोई बना रही थीं और पुरुष अपनी झोपड़ियों के बाहर बैठे इधर-उधर की बातें करते हुए पास खेलते बच्चों के खेल को देख रहे थे ।

     गाँव में एक घर सबसे बड़ा और कुछ आधुनिक ढंग का बना हुआ था । उसकी दीवारें मजबूत पत्थरों की बनी थीं । गाँव वाले उसे हवेली कहते थे । यह हवेली थी महाशय अविरल विश्वास की जो पुराने समय के जागीरदार के वंशज और वर्तमान गाँव के मुख्य प्रबंधक थे । एक प्रकार से राजा थे वे गाँव के । उनकी मृत्यु निसंतान रहते हुए ही हो गई थी और तब यह हवेली शेख़ आबिद शरीफ़ को सौंप दी गई थी । तब से वह और उनका परिवार इस हवेली में रहता आ रहा था । शेख़ आबिद शरीफ़ की एक ही पुत्री थी - शबनम ।

     वही शबनम उस दिन पद्मा नदी के किनारे बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी । उस गाँव के अधिकांश निवासी मुसलमान थे । कुल मिला कर पांच घर हिंदुओं के थे । शेष उन्नीस घर मुसलमानों के थे परंतु उनके परस्पर प्रेम पूर्ण व्यवहार को देख कर कोई भी उनके विजातीय होने का अनुमान नहीं लगा सकता था ।

     गाँव में ईद, दिवाली, दशहरा, शबे बरात, होली - सभी त्योहार मिलजुल कर एक ही समान खुशी से मनाए जाते थे । 

    होली पर सब एक-दूसरे पर गुलाल डालते और फिर मिलजुल कर पापड़ गुझिया खाई जाती । विजयादशमी निकट आती तो सब मिलजुल कर चौपाल पर रामलीला खेलते । अशरफ़ को रावण बनना अच्छा लगता था तो आमिर को हनुमान । राम, लक्ष्मण और सीता ब्राह्मण परिवार के शर्मा जी के परिवार के सदस्य बनते और ऐसा शेख़ साहब के कहने पर ही किया गया था । शेख़ साहब का कहना था कि हिंदू जिसे भगवान मानते हैं वह तो उनके ब्राह्मण परिवार का ही होना चाहिए ।

    ईद का त्यौहार आता तो सब के मुँह में सिवइयों का स्वाद घुल जाता । सबके घरों में सिवइयां पकतीं और शेख़ आबिद शरीफ़ की हवेली के विशाल अहाते में नमाज़ पढ़ने के बाद सभी हिंदू मुसलमान गले मिलते और एक साथ मिल कर त्यौहार मनाते । उनका परस्पर एक दूसरे के घर आना-जाना था ।

     एक विशाल परिवार की तरह वह मिल जुल कर रहते थे । कभी कभार छोटे-मोटे झगड़े भी उठ खड़े होते लेकिन वे झगड़े आपस में बातचीत करके सुलझा लिए जाते ।

    गाँव में उत्तर की दिशा में मीठे पानी का कुआं और उसके पास एक छोटा सा काली माता का मंदिर था । हर त्यौहार पर उस मंदिर को सजाया जाता और वहां दिए जलाये जाते ।

    शबनम उस दिन कुछ उदास थी । वह गांव की सबसे चंचल युवती थी । हर समय हँसते रहना उसकी आदत में शुमार था । पद्मा के तीर पर आकर भी वह वैसी ही प्रसन्न और मस्त थी लेकिन समय बीतने के साथ-साथ उसकी उदासी और झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी । उसे लग रहा था जैसे इंतजार की घड़ियां बीतेंगी ही नहीं । 

     प्रतीक्षा की घड़ियां तो यूं ही जानलेवा होती हैं और फिर किसी स्वजन की प्रतीक्षा ।

    शबनम ने आकाश की ओर देखा । अब तारे आकाश की काली चादर पर बिखर कर जगमगाने लगे थे । वृक्षों पर चहचहाती चिड़ियों का कलरव शांत हो गया था और वे अपने घोंसलों में सो गयी थीं ।

    शबनम की आशा भी निराशा में बदलने लगी थी । उसने अंतिम बार अपनी निराश दृष्टि गाँव की ओर जाती पगडंडी पर डाली और दूसरे ही क्षण उसके होठों पर मुस्कान फैल गई । एक साया पद्मा की ओर तेज गति से बढ़ता आ रहा था ।

    शबनम ने दृष्टि गड़ा कर एक बार ध्यान से उसकी ओर देखा और फिर उसकी आंखों में शरारत नाच गई । पत्थर की शिला से उतर कर व उसकी आड़ में नदी की ओर मुख करके पृथ्वी की ओर झुक कर बैठ गई । अब एक दृष्टि में उसे वहाँ देखना संभव नहीं था ।

     कदमों की आहट निकट आती जा रही थी । पदचाप अब स्पष्ट सुनाई देने लगे थे । आगंतुक निकट आ गया । 

     वहाँ किसी को न पाकर वह दुख भरे स्वर में बड़बड़ाया -

    ओह, वह चली गई । मैंने ही बहुत देर कर दी आने में । वह बेचारी भी कितनी देर प्रतीक्षा करती  ...

    शबनम ने पत्थर के पीछे से सिर उठा कर उस युवक की ओर देखा और खिलखिला कर हँस पड़ी ।

    कौन ? शबनम ?

    आगंतुक ने चौंक कर पूछा ।

    हाँ, शबनम ही हूँ । लेकिन जनाब !  इतनी देर कैसे हो गई आपको ? आप तो शाम ढलते ही आने वाले थे और अब ....

     शबनम ने शिकायत भरे स्वर में पूछा ।

    क्या कहूँ ? न चाहते हुए भी देर हो गई । कुछ बाबा का जरूरी काम आ गया था और फिर चावल भी रखने थे ।

    आगंतुक ने अपनी सफाई दी ।

    तो बाबा का काम कल सुबह कर लेते ।

    और बाबा से क्या कहता ?

    कह देते कि....  कि ...

     कहते कहते चुप हो गई वह ।

    कि शबनम से मिलने जाना है .... क्यों ?

    युवक ने मुस्कुरा कर पूछा ।

    मैंने तो नहीं बुलाया तुम्हें ।

    शबनम ने कहा ।

    तुम्हारी कशिश खींच लाई ।

    युवक कह कर हँस पड़ा ।

    शबनम ने दृष्टि उठा कर देखा उसकी ओर । उस धुंधलके में भी उसे उसके पुष्ट शरीर और सुंदर मुख का स्पष्ट आभास मिल रहा था । उसके घुंघराले बाल हवा के साथ उड़ कर बार-बार उसके माथे पर आ जाते जिन्हें वह हल्के से सिर झटक कर हटा देता । कितना सुंदर है सुधीर । गाँव के एक साधारण माली हैसियत वाले हिंदू परिवार का इकलौता कुलदीपक ।

    क्या सोचने लगी ?

    सुधीर ने उसे देर से चुप देख कर पूछा ।

    कुछ नहीं ।

    कुछ तो ?

    कुछ खास नहीं । आओ, उधर रेेत पर बैठ कर बातें करें ।

    शबनम ने सुधीर का हाथ पकड़ कर नदी के किनारे की ओर संकेत करते हुए कहा ।

    दोनों जाकर निर्दिष्ट स्थान पर रेत पर बैठ गए ।

    सुधीर !

     कुछ देर बाद गंभीर स्वर में पुकारा शबनम ने ।

    हाँ, कहो ।

    हम कब तक ऐसे ही छुप छुप कर मिलते रहेंगे ?

    उसने सुधीर का हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा ।

    तकदीर जाने या फिर ईश्वर ।

    क्यों ? हम क्यों न जानें ?

    मैं अब क्या कहूँ शबनम ? तुम बाबा को तो जानती ही हो । घर में माँ बाबा और बिट्टू के अलावा मैं ही हूँ । ऐसे में बाबा को या माँ को कैसे तैयार करूं जब तक कि बिट्टू का विवाह न हो जाए । और मान लो मैं बाबा को किसी तरह मना भी लूँ तो तुम्हारे अब्बा ? वह ...

    सुधीर ! मुझे भी उन्हीं का डर है । अब्बा हमें कभी शादी की इजाजत नहीं देंगे । हम एक साथ रहते हैं । खाते पीते हैं । मिलजुल कर सारे तीज त्यौहार मनाते हैं फिर भी हम आपस में शादी नहीं कर सकते क्योंकि मैं मुसलमान हूँ और तुम हिंदू । जाति की यह जंजीर क्यों है सुधीर ?

    शबनम !

    हाँ सुधीर ! बताओ, हमारे चारों ओर ये मज़हब और समाज की जंजीरें हमें क्यों इस तरह जकड़े हुए हैं ? हम इन्हें तोड़ दें तो ?

    तो दुनिया बदल जाएगी शबनम ! तब यही धरती स्वर्ग बन जाएगी क्योंकि तब हम हिंदू या मुसलमान न होकर सिर्फ इंसान होंगे ।

    सुधीर ने कहा । 

    सच कहते हो ?

    हाँ शबनम ! बिल्कुल सच ।

    तो क्यों न हम धरती पर स्वर्ग लाने की कोशिश करें ? इस धरती को ही स्वर्ग बनाएं ।

    शबनम बोली ।

    हम यही करेंगे शबनम ! मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता । अगर तुम मुझे न मिली तो मैं किसी से भी विवाह न कर सकूँगा । जीवन भर अविवाहित रहूँगा ।

    मैं भी तुम्हारे अलावा किसी और की नहीं बन सकूँगी सुधीर !

    वादा करती हो ?

     सुधीर ने पूछा ।

    अगर तुम्हें न पा सकी तो पद्मा की धारा मुझे सहारा देगी । तुम्हारी कसम ।

     दृढ़ निश्चय के आलोक से शबनम का चेहरा जगमगा उठा । 

    तुम .... तुम कितनी अच्छी हो शबनम !

    सुधीर ने उसे अपनी

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