Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)
Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)
Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)
Ebook537 pages5 hours

Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

डॉ. विकास शर्मा, सी.सी.एस. यूनिवर्सिटी, मेरठ (उ.प्र.) में अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं। उनके निर्देशन में लगभग 20 शोधार्थी डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। प्रो. शर्मा ने अकादमिक जगत् की सर्वोच्च उपाधि डी. लिट्, अमेरिकन रचनाकार एमरसन व हेनरी डेविड थोरो के साहित्य पर प्राप्त की है। विभिन्न शोध-पत्रिकाओं में प्रो. शर्मा के लगभग 50 शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। अंग्रेजी साहित्य के अतिरिक्त, हिन्दी साहित्य में अधिकारपूर्वक लिखने वाले प्रो. विकास शर्मा एक श्रेष्ठ कवि भी हैं। उनका यह पहला हिन्दी उपन्यास है। | राह के पत्थर मानवता को जाति-पांति और साम्प्रदायिकता से ऊपर उठाने का प्रयास है। साबिर और चिन्ता एक-दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन समय | को यह स्वीकार नहीं। व्यापार में घाटे के कारण साबिर सायरा से निकाह कर लेता है। सायरा के अब्बु ताहिर हुसैन खंडाला और लोनावाला में जो जमीन खरीदते हैं, वहां साबिर विश्वविद्यालय और मेडिकल कॉलेज खोलने की योजना बनाता है। सायरा अपने बच्चे को जन्म देते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाती है और साबिर अपने प्यार विधवा चिन्ता के पास लौट आता है। अंधेरे | से वह अकेले कैसे संघर्ष करता? नया चिराग जलाना अति आवश्यक हैइसी आशा को उपन्यास में महत्त्व दिया गया है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 7, 2021
ISBN9789354868498
Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)

Read more from Prof. Vikas Sharma

Related to Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)

Related ebooks

Related categories

Reviews for Raah Ke Patthar (राह के पत्थर)

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Raah Ke Patthar (राह के पत्थर) - Prof. Vikas Sharma

    राह के पत्थर

    eISBN: 978-93-5486-849-8

    © लेखकाधीन

    प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली- 110020

    फोन : 011-40712200

    ई-मेल : ebooks@dpb.in

    वेबसाइट : www.diamondbook.in

    संस्करण : 2021

    Raah Ke Patthar (Novel)

    By - Professor Vikas Sharma D. Litt

    कश्मीर से विस्थापित

    पण्डितों को समर्पित

    उपन्यास के पात्र

    मनुष्य को संघर्ष मार सकता है लेकिन वीर पुरुष संघर्षों से हार नहीं मानते हैं। वह सभी कठिन परिस्थितियों में ‘कठोर’ बने रहते हैं। कोई नहीं जानता है कि भाग्य कब कौन-सी करवट बदल ले।

    ... अर्नेस्ट हेमिग्वे

    राह के पत्थर

    देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा लगाने वालों से मैं पूछता हूं कि भारत की इस पुण्य भूमि पर हिन्दुओं और मुसलमानों में आपस में वैमनस्य कब रहा है? मोहम्मद साहब के समय में कुछ मुसलमान भारत में आये और तब से ही भारत में दोनों धर्म के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते चले आ रहे हैं। मैं यह मानता हूं कि औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जुल्म अवश्य ढाये थे लेकिन उसने मुसलमानों को भी अपने गले कब लगाया? कभी नहीं। उसने तो दाराशिकोह के दोस्त सरमद, जो एक मुसलमान सूफी संत था, को भी नहीं बख्शा था। वह सभी से घृणा करता था। इतिहास आज जिसके गुणगान करता है वह है महान सम्राट अकबर, जिसने मुगल होकर भी हिन्दू परिवारों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किये थे, हिन्दू वेशभूषा पहनी थी, राजपूत घरानों की लड़कियों से शादी करके अपना गौरव बढ़ाया था और दीन-ए-इलाही धर्म को जन्म देकर उसने दोनों धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया था।

    आशय स्पष्ट है कि भारत माँ की मिट्टी में यह गुण विद्यमान है जो आपस में प्रेम पैदा करता है, घृणा नहीं। प्रतिदिन देश में हर कोने में हिन्दुओं के कारखानों में मुसलमान कारीगर काम करते हैं। वीर शहीद अब्दुल हमीद ने भारत की रक्षा के लिए पाकिस्तानी सैनिकों से कड़ा मुकाबला किया था। बरेली के चुन्ना मियां ने हिन्दू मन्दिर बनवाया जिसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति ने किया था। मुसलमान डॉक्टरों के यहां कम्पाउन्डर हिन्दू हैं और सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दुओं के मन्दिरों में विराजमान मूर्तियां सब कुशल मुसलमान कारीगरों ने ही बनवाई हैं। मकराना में सैकड़ों मुसलमान कारीगर प्रतिदिन जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनाते हैं, पत्थर में जान डालते हैं और अपनी आजीविका अर्जन करते हैं।

    यहां औरंगजेब केवल एक पैदा हुआ है, अकबर सैकड़ों। आज मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि हिन्दुओं को मुसलमानों से और मुसलमानों को हिन्दुओं से कोई खतरा नहीं है। दोनों आपस में घुल मिलकर रहते हैं। हां, यदि झगड़े हैं तो हिन्दुओं के हिन्दुओं से, मुसलमानों के मुसलमानों से। शिया और सुन्नी आपस में लड़ते झगड़ते हैं परन्तु पंजाबी और मुसलमान एक साथ एक ही मोहल्ले में रहते हैं। दोनों को एक-दूसरे से कोई भय नहीं है।

    सब जानते हैं कि साम्प्रदायिक नारेबाजी ही इस देश का वातावरण दूषित करती है जिसका कारण नेताओं के निहित स्वार्थ हैं। राजनेता चुनाव के समय भोली जनता को भड़काते हैं, संकीर्ण विचार फैलाते हैं, हिन्दू-हिन्दू के लिए वोट मांगता है और मुसलमान मुसलमान के लिए। मुसलमानों को कुरान की कसम खाकर कहना पड़ता है कि वे केवल मुसलमान उम्मीदवार को ही वोट देंगे। ‘इस्लाम खतरे में है’, यह नारा लगता है और प्रतिद्वन्दी उम्मीदवार के खिलाफ ‘जिहाद’ बोल दिया जाता है। सबसे मजे की बात यह है कि चुनाव के खत्म होते ही सब फिर एक हो जाते हैं। फिर पहले की तरह ही उठना-बैठना, खाना-पीना, हंसी-मजाक सब शुरू हो जाता है।

    लेकिन सभी लोग इस संकीर्णता के शिकार हो जाते हैं, यह बात नहीं।

    उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध शहर मुरादाबाद पूरे विश्व में अपने सुन्दर बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है। यहां से करोड़ों रुपये के बर्तन प्रतिमाह विदेशों को निर्यात किये जाते हैं। इसी शहर की दास्तान है- रहमत मियां और लाला लक्ष्मी नारायण घनिष्ठ मित्र थे। रहमत मियां शहर से दूर कम्पनी गार्डन के सामने कोठी में रहते थे और लाला लक्ष्मी नारायण गांधीनगर में। दोनों परिवारों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध था। हालात यहां तक थे कि मियां रहमत सपरिवार दीपावली के पर्व पर लाला लक्ष्मी नारायण के यहां लक्ष्मी पूजन में भाग लेते थे, तरह-तरह के पकवान और मिठाई खाते थे और घर पर दीपक जलाते थे। इसी प्रकार लाला लक्ष्मी नारायण सपरिवार रहमत मियां के यहां आते थे, ईद की खुशियां मनाते थे, सबसे गले मिलते थे और मावे व दूध में पकी हुई सिवईयां तथा शाहीटोस्ट आदि पदार्थ बड़े स्वाद से खाते थे। इन दोनों परिवारों के सम्बन्धों की पूरे शहर में चर्चा थी। सब जानते थे कि दोनों परिवार हिन्दू-मुसलमान एकता के प्रतीक हैं।

    रहमत मियां के दो बच्चे थे - साबिर और फरीदा। साबिर ने हिन्दू कॉलेज से एम.एस.सी. पास किया था और वह अपने अब्बा के साथ बर्तनों के निर्यात का काम संभालता था। फरीदा अभी गोकुलदास गर्ल्स कॉलेज में एम.ए. (द्वितीय) अंग्रेजी में पढ़ती थी। फरीदा की आयु बीस वर्ष थी और वह साबिर से तीन वर्ष छोटी थी। उसके शरीर में कसाव आ चुका था परन्तु वह यौवन के आनन्द से अनभिज्ञ थी। अध्ययन में अभिरुचि थी। नाचने, गाने का भी उसे मामूली शौक था। संगीत पढ़ाने के लिए एक अध्यापक घर आता था।

    लाला लक्ष्मी नारायण जरी गोटे का कार्य करते थे। उनके पांच बच्चे थे - तीन बेटियां और दो बेटे। उनकी सबसे बड़ी लड़की की उम्र थी लगभग तेईस वर्ष। उसका नाम था चिन्ता। उसका एकदम फूल सा खिला ताजा चेहरा था। उसके चेहरे पर दो बड़ी-बड़ी चमकती हुई आंखें थीं। उसका शरीर खूबसूरत गोलाईयों से युक्त था। यौवन ने उसके सौन्दर्य में चार चांद लगा दिये थे। वह एक चुम्बक थी। दर्शकों को प्रतिपल अपनी ओर खींच लेती थी। गुलाब की पंखुड़ी से छोटे-छोटे उसके दोनों होंठ देखने वालों को ऐसा आभास कराते थे जैसे कि वे शबनम की ओढ़नी ओढ़ कर बाग में फूलों के साथ सोयी किसी स्वप्न सुन्दरी को देख रहे हों। उसने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. और फिर बी.एड. की थी। उसकी सहेलियां उसके शबाब के गीत गाया करती थीं।

    चिन्ता की दोनों बहनें आयु में छोटी थीं। वैशाली की उम्र थी लगभग सत्रह वर्ष और सविता सोलह वर्ष की थी। चिन्ता के दोनों भाई देखने में बराबर के लगते थे। बड़ा था लगभग पच्चीस साल का और उससे छोटा था बीस साल का। पीयूष का शरीर हृष्ट-पुष्ट था इसलिए वह पारूल से दो साल छोटा होने पर भी उससे बड़ा ही लगता था। पारूल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में चतुर्थ वर्ष का इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था और पीयूष ने मुरादाबाद में ही एम.ए. के बाद बी.एड. किया था। कारोबार की देखभाल लाला जी स्वयं किया करते थे। उनकी इच्छा पीयूष को दुकान सौंपने की थी। लेकिन वह शुरू से ही लापरवाह था। दुकान के कामकाज में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। अभी लाला जी ने बच्चों के विशय में अन्तिम फैसला नहीं किया था।

    लेकिन चिन्ता और साबिर एक-दूसरे से मोहब्बत करते हैं, इसका किसी को पता नहीं था। दोनों बचपन से साथ-साथ खेलते कूदते आये थे, संग ही संग इण्टरमीडिएट तक स्कूल में पढ़े थे। दोनों में प्यार हो जाना एक स्वाभाविक सी बात थी। दोनों ने धर्म की दीवार का अपने बीच कभी एहसास भी नहीं किया था। दोनों यही सोचते थे कि समय आने पर वे अवश्य ही पवित्र बन्धन में बंध जायेंगे। पाणिग्रहण संस्कार के द्वारा दोनों हिन्दू-मुस्लिम एकता की जड़ें मजबूत करना चाहते थे। लेकिन अहमदाबाद में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने उन्हें झकझोर दिया था।

    जिन होंठों से साधु लोग प्रार्थना करते हैं, चिन्ता के उन्हीं होंठों का साबिर ने न जाने कितनी ही बार रसपान किया था।

    चिन्ता ने निश्चय कर लिया था कि यदि उसकी शादी साबिर के साथ नहीं होगी तो वह किसी अन्य से शादी करने के बजाय मृत्यु की गोद में सो जाना पसन्द करेगी।

    सविता ने उससे पूछा -

    ‘तुम भूल रही हो चिन्ता कि साबिर एक मुसलमान है। एक हिन्दू लड़की को मुसलमान तो बना सकते हैं लेकिन हिन्दुओं को...’

    ‘मुझे मुसलमानों से कुछ लेना-देना नहीं। भगवान ने आदमी बनाया है और आदमी ने धर्म-कर्म और फिर मेरा साबिर इन सब बातों से ऊपर है। वह मेरे लिए हिन्दू है और मैं उसके लिए मुसलमान हूं। जब हम दोनों एक होना चाहते हैं तो पापा हम दोनों की शादी क्यों न होने देंगे?’ उत्सुकता से उसने पूछा।

    ‘साबिर एक सुन्दर पुरुष है, मैं मानती हूं।’ सविता ने उत्तर दिया।

    ‘लेकिन धर्म की दीवार को लांघना इतना आसान नहीं है, जितना तू समझ रही है।’

    ‘सविता, तू कायर है। मेरे प्यार का जन्म ही घृणा की दीवार पर नहीं खड़ा है। हिंदू-मुसलमान एकता का उद्देश्य लेकर मैं चली हूं। जब अकबर राजपूत घराने में शादी कर सका तो फिर मैं एक मुस्लिम से शादी क्यों नहीं कर सकती? मेरा प्यार साधारण नहीं है। मैं साबिर को अपनाकर ही सांस लूंगी। मैं उसे बचपन से जानती हूं। ऐसा वर और कहां मिल सकता है जो सब संकीर्णताओं से परे हो।’

    इधर चिन्ता के होंठों की मुस्कान के जाल में साबिर हमेशा फंसा रहना चाहता था। दोनों परिवारों के आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण दोनों मिलते रहते थे और प्यार की सीढ़ी पर वह दोनों काफी ऊंचे चढ़ चुके थे।

    2

    चिन्ता का प्यार समुद्र से भी अधिक गहरा था। वह अत्यन्त उदार थी और वह जितना अधिक साबिर से प्यार करती थी, उतना ही अधिक उसका प्यार बढ़ता जाता था। इसी प्रकार साबिर भी चिन्ता को इस धरती का सूरज समझता था, वही सूरज जो कि रात के अंधकार को पूरब में उगते ही पल में दूर कर देता है और जग में रोशनी से प्रकाश कर देता है। चांद क्या है? विरह से पीला पड़ा हुआ ग्रह और उसकी चिन्ता चांद से कितनी ही अधिक सुन्दर। उसका खयाल था कि चिन्ता की आंखें ही इस संसार को रात्रि में रोशनी दे सकती हैं। जिस प्रकार दिन में जलने वाले मर्करी के बल्ब का सूरज की रोशनी के कारण कोई महत्व नहीं है उसी प्रकार रात्रि में चमकने वाले सितारे चिन्ता के चेहरे की सुन्दरता के सामने कुछ नहीं थे।

    चिन्ता जब अपने हाथ पर अपना दांया गाल रख कर बैठती थी तो साबिर उसके हाथ का दस्ताना बन जाना चाहता था, ताकि वह उसके सुन्दर गालों का स्पर्ष कर सके।

    शरद पूर्णिमा का दिन था। सर्दी हल्की-हल्की पड़ने लगी थी। सात बजते ही बाजार थोड़ा सुनसान होने लगा था। साबिर ऑफिस में बैठा दिन भर का हिसाब कर रहा था। आज उसे दिन भर चिन्ता की याद आती रही थी। एक्सपोर्ट किये जाने वाले माल की पैकिंग में लगा होने के कारण वह आज वहां चाहते हुए भी नहीं जा सका था। हिसाब-किताब में उसका मन नहीं लग रहा था। बार-बार वह गलती कर रहा था और सात-आठ गलतियां हो चुकी थीं। शाम के साढ़े सात बज चुके थे और यह उसकी नौंवीं गलती थी तो फिर क्रोध में आकर उसने कम्प्यूटर बन्द कर दिया।

    तभी चिन्ता का फोन आया। उसके चेहरे पर कमल खिल गया। चिन्ता ने उसे अपने घर बुलाया था। घर पर वह सविता के साथ अकेली थी। बाकी सब पिक्चर देखने गये हुए थे।

    साबिर ने अलमारी की चाबी अपने अब्बाजान को देकर कार स्टार्ट की और गांधीनगर की राह ली। वह चिन्ता से शादी की बातचीत करेगा। उन दोनों को एक-दूसरे से कोई शिकायत नहीं है। दोनों एक-दूसरे को भली भांति समझ गये हैं। अब क्या चाहिए? कुछ नहीं। अब शादी हो ही जानी चाहिए। जाति-पांति की उन दोनों को कोई परवाह नहीं है। वह केवल जन्म से ही मुसलमान है। वह सच्चे दिल से चिन्ता को प्यार करता है। वह अपने अब्बाजान से कह सकता है... ‘मुझे मुस्लिम परिवार में जन्म लेने पर कोई गर्व नहीं है...। मैं अपने नाम से जैदी शब्द काट सकता हूं...। मैं आज से जैदी नहीं... आज से जैदी नहीं...। मैं केवल चिन्ता का प्रेमी साबिर हूं... चिन्ता मेरी है और मैं चिन्ता का हूं और यदि धर्म के कारण वह मेरी नहीं हो सकती है तो मैं हिन्दू बन जाऊंगा। कोई हिन्दू नाम रख लूंगा। हाथ, पैर, आंख का धर्म नहीं होता है। गुलाब फूल का नाम है, सुगन्ध का नहीं, गुलाब को गुलाब न कहें लेकिन वह सुगन्ध तो देगा ही... मुझे अपना नाम नहीं चाहिए... नाम की खातिर मैं चिन्ता को नहीं छोड़ सकता’ यह सब बातें सोचता हुआ वह चला जा रहा था। उसने फैसला कर लिया था - उसे चिन्ता पसन्द थी।

    चिन्ता ने साबिर के आने की खुशी में काली स्लैक्स पर काला कुर्ता पहना था। उसके कुर्ते पर गुलाबी फूल कढ़े हुए थे। जिसने उसकी खूबसूरती पर चार चांद लगा दिये थे। उसके रूखे बाल सामने वक्षस्थल पर पड़े थे। वह दरवाजे पर खड़ी होकर साबिर का इन्तजार कर रही थी। उसे देखते ही उसने कहा-

    ‘आदाब, डियर।’

    ‘आदाब।’

    ’यहां किस लिए खड़ी थीं?’

    ‘हुजूर का इन्तजार कर रही थी। बड़ी देर कर दी।’

    ‘हां, कार को मैं हवा में उड़ाना चाहता था लेकिन यह कम्बख्त उड़ी ही नहीं...।’ मुस्कुरा कर उसने उत्तर दिया।

    ‘चलो अन्दर।’

    ‘चलो।’

    चिन्ता का दायां हाथ अपने हाथ में लिए साबिर अन्दर आया और सविता से हाथ जोड़ कर नमस्ते करके बोला - ‘क्या बहन जी, आप एक कप चाय पिलवाने का कष्ट करेंगी?’

    ‘क्यों नहीं भैया।’ उसने सहर्श उत्तर दिया और वह चाय बनाने रसोई की ओर चली गयी।

    उसके पास बैठते हुए चिन्ता ने कहा - ‘बड़े चालाक हो।’

    ‘तुम्हीं ने तो चालाक बना दिया है।’ उसके हाथ को अपने होंठों तक ले जाते हुए साबिर ने उत्तर दिया।

    ‘आज सुबह से तुम्हें बहुत याद कर रही थी। लेकिन बातचीत नहीं कर सकी। मम्मी ने फिल्म चलने के लिए बहुत कहा, पर मैं नहीं गयी। सोचा कि यह सब जब फिल्म चले जायेंगे तो तुम्हें फोन करूंगी।’

    ‘शुक्रिया, शुक्रिया।’

    ‘तुम्हें एक बात बताऊं?’

    ‘क्या?’

    ‘मेरी सहेली है न सरला?’

    ‘वही जो तुम्हारे पड़ोस में रहती है?’

    ‘हां, वही। मुझसे कह रही थी कि पापा हम दोनों को शादी के लिए इजाजत नहीं देंगे।’

    ‘क्यों?’

    ‘वह कह रही थी कि समाज से टक्कर लेना आसान नहीं।’

    ‘तुम चिन्ता न करो। मैं तुम्हारे पापा से अब शादी के लिए पूछने ही वाला हूं। तुम्हारे प्यार की रोशनी ही मुझे तुम्हारे दरवाजे तक लाती है। किनारा बहुत दूर होता है लेकिन साहस करने पर ही मिलता है। आज शरद पूर्णिमा है, मैं चांद की कसम खाकर कहता हूं...।’

    ‘तुम चांद की कसम मत खाओ, साबिर।’ उसकी बात काटते हुए चिन्ता बोली। ‘चांद घटता बढ़ता रहता है और अब वह समय नहीं रहा। चांद पर वैज्ञानिकों को धूल-मिट्टी मिली है।’ हंसते हुए वह बोली।

    ‘तो तुम्हारे प्यार की सौगन्ध, चिन्ता तुम’...।

    ‘तुम कोई कसम मत खाओ मैं बस इतना जानती हूं कि मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। मैं तुम्हें देखकर ही खुश रहती हूं। तुम अपने नाम से जैदी शब्द काट दो और बस वही नाम रखो जो प्यार के रास्ते में रुकावट पैदा न करता हो।’

    ‘तुम जानती हो, चिन्ता, कि मुझे धर्म-कर्म में कतई विश्वास नहीं है। मैं अल्लाह और ईश्वर को एक ही मानता हूं। मेरे प्यार का उद्देश्य मैरिज है और मैं कल सुबह ही अब्बाजान से भी बातचीत करने जा रहा हूं। तुम मैरिज के लिए कोई डेट सोच लो और फिर हम दोनों एक हो जायेंगे। मैं चाहता हूं कि हमारे प्यार की कली शरद पूर्णिमा के आशीर्वाद से कल सुबह तक एक सुन्दर फूल बन जाये।’

    ‘मुझे तुम्हारी बात पसन्द है। तुम पहले अपने अब्बा से बात कर लो।’

    चिन्ता का दांया हाथ उसके हाथों में था। वह धीरे-धीरे उसके हाथ को सहला रहा था और दोनों के शरीर में सनसनी दौड़ रही थी। उन्हें आनन्द मिल रहा था। उसका न हाथ वापस लेने को मन करता था। न हाथ सहलवाने को। इसी उधेड़-बुन में वह दोनों पास-पास बैठे रहे।

    सविता चाय बना कर ले आयी।

    तीनों ने चाय पी। चाय पीने के बाद चिन्ता ने सविता से कहा - ‘अब तुम सो जाओ।’

    ‘नहीं, दीदी। मैं अभी नहीं सोऊंगी। इतने दिनों बाद तो साबिर भैया घर आये हैं। आज भी तुम मुझे सोने के लिए कह रही हो। आज तो हम कैरम खेलेंगे। क्यों भैया, हमसे कैरम खेलोगे?’ भीख सी मांगती हुई सविता ने प्रस्ताव रखा।

    मजबूर होकर साबिर को कहना पड़ा - ‘हां, हां, क्यों नहीं खेलेंगे। तुम्हारे साथ कैरमबोर्ड खेलने में बड़ा मजा आता है।’

    चिन्ता बोर हो गयी। हड्डी गले में अटक गयी थी।

    खेल शुरू हुआ। साबिर के बांयी ओर सविता बैठी और दांयी ओर बैठी चिन्ता। साबिर कैरमबोर्ड का कॉलेज में चैम्पियन रह चुका था। लेकिन वह सविता के साथ खेलते हुए हमेशा हार जाता था। उसका ध्यान ही जो खेल में नहीं रहता था और सविता उसे हरा कर इतनी खुश होती थी जैसे कि उसने सारा संसार ही जीत लिया हो।

    सविता पूरी रुचि के साथ खेल रही थी। उसे बार-बार साबिर को यह याद दिलाना पड़ता था कि अब उसकी बारी है। साबिर की आंखें बार-बार सविता की आंखोें में झांकती थीं और उसका दांया हाथ चिन्ता की कमर पर मौज ले रहा था। वह कभी उसके नितम्बों पर चुटकी भर लेता था और कभी उसके बालों को सहलाने लगता था। सविता अबोध बालिका थी। उसका ध्यान कैरमबोर्ड में था।

    सविता लगातार दो खेल जीतकर संतुष्ट हो गयी थी। उसकी आंखों में नींद सवार होने लगी और वह वहां से उन दोनों को अकेला छोड़ कर अपने कमरे में चली गयी। चिन्ता के गले की हड्डी बाहर निकल आयी और सविता के जाते ही साबिर ने चिन्ता के गालों पर चुम्बनों की बौछार कर डाली। उसके दिल की गति तेज हो गयी और उसने अपने आपको उसके हवाले कर दिया।

    लाला लक्ष्मी नारायण के लौटने के समय तक दोनों प्रेमी एक-दूसरे के बाहुपाश में बंधे रहे। कॉलबेल की आवाज सुनते ही दोनों को होश आया। साबिर कैरमबोर्ड के निकट फिर बैठ गया और चिन्ता दरवाजा खोल कर कैरमबोर्ड के पास आकर इस तरह बैठ गयी जैसे कि खेल चालू था।

    लाला जी के पीछे-पीछे सभी सदस्य घर में घुस गये। उन्होंने साबिर को देखते ही प्रश्न किया -

    ‘तुम कब आये, बेटा?’

    ‘दुकान से लौटते समय सोचा कि आपके ही दर्शन कर लूं। कितने ही दिनों से इधर आ नहीं सका था।’ क्वीन पर स्ट्राईकर मारते हुए साबिर ने उत्तर दिया।

    ‘यह तो तुमने बड़ा अच्छा किया।’

    ‘पापा, साबिर के यहां होने से मुझे घर में डर भी नहीं लगा। यह तो जा रहे थे मैंने ही इन्हें रोक लिया। सविता तो कभी की पड़ी सो रही है।’ चिन्ता ने कहा।

    ‘मैंने तो तुझसे पिक्चर चलने के लिए कहा था लेकिन तुझे पता नहीं आज क्या जिद्द सवार हुई कि तू चली ही नहीं।’ साबिर की ओर देखते हुए बोले - ‘इन्हें चाय-वाय भी पिलाई या नहीं?’

    ‘हां, पिलवा दी थी, पापा।’

    कोट उतारते हुए लाला लक्ष्मी नारायण बोले - ‘कहो बेटा, कल क्या प्रोग्राम है?’

    ‘जो आप कहें, अंकल जी।’

    ‘कल बाजार बन्द है। मेरा खयाल है कि कल पिकनिक का प्रोग्राम बनाया जाये।’

    ‘पिकनिक, पापा?’

    ‘हां।’

    ‘हां, यह तो बहुत ही बेहतर रहेगा। साबिर, तुम भी आंटी-अंकल से कह देना। कल पिकनिक पर चलेंगे।’ चेहरे पर उल्लास लाकर चिन्ता ने कहा।

    अगले दिन सुबह आठ बजे पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम निश्चित हो गया। घड़ी में देखते हुए साबिर ने कहा - ‘अच्छा, अंकल, अब मैं चलता हूं। इजाजत हो।’

    ‘बैठो, बेटा।’

    ‘नहीं, अंकल। अब काफी समय हो गया है।’ और वह उठ खड़ा हुआ।

    दरवाजा बन्द करने के लिए चिन्ता संग-संग आई। गैलरी में अंधेरा था। रोशनी होने से पहले ही साबिर ने उसे एक बार फिर बाहुपाश में बांध लिया और उसके गाल पर चुम्बन कर लिया। उसे बाहों में ऐसा जकड़ा कि उसके दोनों अंगूर दब गये।

    उसने गैलरी की लाईट ऑन की और साबिर को विदाई देते हुए कहा - ‘गुड बाई, गुड नाईट।’

    ‘यहां से जाने को दिल नहीं चाहता। मैं सुबह तक तुम्हें गुड नाईट ही कहता रहूंगा।’

    इतना कह कर उसने उससे विदा ली।

    3

    साबिर को पिकनिक का प्रोग्राम बड़ा पसन्द आया। उसने घर पर पहुंचते ही पिकनिक की सूचना फरीदा को दी। रहमत मियां और उनकी पत्नी शकीला भी इस प्रोग्राम में भाग लेना चाहती थीं। इसलिए अगले दिन कार में सबको बैठा कर सपरिवार साबिर चिन्ता के घर आ पहुंचा।

    लाला जी पिकनिक पर जाने के लिए तैयार बैठे थे। वह बहुत ही खुश थे। रात ही उनका बेटा पारूल भी अलीगढ़ से आ गया था।

    पारूल और साबिर बचपन के दोस्त जरूर थे लेकिन साबिर पारूल को अलीगढ़ से आया देख कर सकपका गया। जिस स्वतंत्रता की उसने आज कल्पना की थी और जो आज सदैव के लिए बन्धन में परिवर्तित हो जानी स्वाभाविक थी। परन्तु पारूल जो इंजीनियरिंग का छात्र था, उसके सामने वह अपने प्यार का प्रदर्शन कैसे कर सकता था? उसने पारूल की ओर मुखातिब होते हुए उससे पूछा - ‘पारूल साहब, आप कब आये अलीगढ़ से?’

    ‘अभी, थोड़ी देर पहले ही।’

    ‘रात ही तो मैं यहां से गया हूं। तब तक तो तुम्हारे आने की कोई सूचना नहीं थी।’ फीकी सी मुस्कान लाकर साबिर ने कहा।

    ‘हां, बस यहां आने का कोई प्रोग्राम तो था नहीं। कल सुबह बैठा-बैठा हॉस्टिल में बोर हो रहा था और फिर घर आये भी बहुत दिन हो गये थे। सोचा एक दो दिन के लिए घर ही हो आऊं।’

    ‘यह तो तुमने बहुत अच्छा किया।’ उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा ‘और सुनाओ तुम्हारे क्या हाल है?’

    ‘बस कृपा है प्रभु की।

    ‘पिकनिक पर तो चल रहे हो न कल?’

    ‘तुम अगर ले चलोगे तो जरूर चला चलूंगा। वैसे कोई प्रोग्राम तो है नहीं मेरा।’

    ‘हां, हां, क्यों नहीं। जरूर चलो डियर। बड़ा मजा आएगा तुम्हारे साथ।’

    साबिर को हाथी का पांव अपनी छाती पर रखना ही पड़ा। बात असल में यह थी कि वह पारूल को अपने साथ पिकनिक पर नहीं ले जाना चाहता था।

    साबिर की माँ शकीला का चिन्ता के प्रति अगाध स्नेह था। वह उसे फरीदा के समान ही प्यार करती थी। यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था कि चिन्ता उसकी पुत्रवधु बन सकती है। परन्तु यदि चिन्ता मुस्लिम घराने की कन्या होती तो शायद वह उसे अपनी पुत्रवधु बनाने के लिए जिद करती। इतने में लाला जी का कार ड्राईवर गैरेज से कार निकाल कर बाहर लाया।

    लाला जी की कार गैरेज से बाहर आते ही सबसे पहले जल्दी से फरीदा अपने पांव उठा कर कार की आगे वाली सीट पर जा बैठी। फरीदा को कार में बैठा देखते ही वैशाली भी फरीदा की बगल में जा बैठी और फट्ट से कार का दरवाजा बन्द कर लिया। जब पारूल ने फरीदा को कार में बैठते देखा तो वह भी फरीदा से कुछ बातें करना चाहता था। वास्तव में फूल के खिलने का उसे पूरा आभास हो गया था। आज वह कार ड्राईव कर स्वयं ले जाना चाहता था। इसलिए उसने ड्राईवर को सौ रुपये का नोट देकर कहा - ‘अरे भाई, आज तुम छुट्टी मनाओ। आज कार मैं ड्राईव करूंगा।’

    गाड़ी की पिछली सीट पर कमला और शकीला बैठ गये। दूसरी कार में लाला लक्ष्मी नारायण और रहमत मियां बैठ गये और बातों में लग गये। इधर उनके साथ पीयूष भी बैठ गया। आगे की सीट पर साबिर के साथ चिन्ता और सविता बैठ गयीं।

    पारूल का दूसरी कार में बैठना साबिर के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उसने यही सोचा - ‘जान बची तो लाखों पाये।’ चिन्ता उसके बराबर में बैठी ही थी। उसे इससे अधिक और क्या चाहिए था? अंधे को दो आंखें।

    पीयूष ने कार स्टार्ट होते ही पत्रिका पढ़नी शुरू कर दी। वह ‘सारिका’ की कहानियों में ऐसा मस्त हुआ कि उसे कुछ होश ही नहीं रहा। सविता कार के विंडस्क्रीन से बाहर के दृश्य देखने में मस्त हो गयी। इस प्रकार सभी अपने-अपने कार्यों में मस्त थे और साबिर ने अपने आपको पूरी तरह से सुरक्षित समझा। उसने एक हाथ से कार चलाई और दूसरा हाथ चिन्ता की जांघ पर रख दिया। जब वह बार-बार उसकी ही ओर देखता रहा तो चिन्ता ने मुस्करा कर कहा - ‘ड्राईवर महोदय, कार ठीक तरह से चलाइये। ऐसा न हो कि कहीं...।’

    ‘मेरी जान, जब तुम मेरे साथ हो तो ऐसे में एक्सीडेंट नहीं हो सकता और यदि एक्सीडेंट हो भी गया तो मैं तुम्हारे ऊपर ही गिरूंगा।’ धीरे से उसने उत्तर दिया।

    ‘ऊपर-नीचे गिरने की तो कोई बात नहीं। ऐसा न हो कि हमारे चक्कर में पीछे वाले पिस जाएं। मुझे डर लग रहा है। आप कार ठीक तरह चलाइये।’

    ‘तुम्हें डर लग रहा है?’ हंसते हुए उसने पूछा।

    ‘हां, तुम्हारे साथ जो पहली बार कार में बैठी हूं।’

    ‘तो हमारे साथ कार में बैठने में तुम्हें डर लगता है?’

    ‘जब तक हम दोनों एक-दूसरे के नहीं हो जाते तब तक डर तो पूरा है। आपके अब्बा ने क्या कहा?’

    ‘माफ करना, मैं रात को उनसे इस विशय में बात नहीं कर सका। जब मैं घर पहुंचा तो वह सो चुके थे।’ गंभीर होकर उसने उत्तर दिया।

    ‘तो उनसे कब बात करोगे?’

    ‘तुम फिक्र न करो। मैं जल्दी ही उनसे बात कर लूंगा। वैसे यह सब फार्मेलिटी के लिए है।’ उसे विश्वास दिलाते हुए साबिर ने उत्तर दिया।

    दोनों रास्ते भर बातें करते जा रहे थे। सविता यदि उन दोनों से कुछ पूछती तो उसे ‘हां’ ‘हूं’ में उत्तर दे दिया जाता। साबिर जब चिन्ता के हाथ, पांव या जांघ पर चुटकी भरता तो वह कहती - ‘क्या कर रहे हो? पीछेे पापा, चाचू और भैया भी बैठे हुए हैं। थोड़ी तो शर्म करो।’

    दोनों कारें गढ़मुक्तेश्वर पहुंच गयी थीं। रास्ते भर पारूल निकट बैठी फरीदा का सुन्दर चेहरा कार के शीशे में देखता रहा था। उसने जब भी बात करने की कोशिश की तो उसे उससे नीरस उत्तर मिला।

    प्रातःकाल मधुर और सुहावना लग रहा था। धूप काफी फैल चुकी थी। धूप की गर्मी ने रात में पड़ी ओस की

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1