I.A.S. TODAY (आई. ए. एस. टुडे)
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I.A.S. TODAY (आई. ए. एस. टुडे) - Prof. Vikas Sharma
1
श्रोत्रिय को ओविड़ की कही इस उक्ति पर पूरा भरोसा था - कला से क्या हासिल नहीं हो सकता!
वह अक्सर खुद से पूछता था- "दूसरों से स्नेह और सम्मान क्यों मांगते हो? अपनी शुरुआती जिंदगी की गरीबी का रोना क्यों रोते हो? जब एक मोमबत्ती रोशन की जा सकती है तो अंधियारे को क्यों कोसे? उस अतीत के लिए शोक क्यों जिसने उसके दिल पर गहरे निशान छोड़े हैं? किसी खास लड़की से सिर्फ इसलिए प्यार की गुहार क्यों लगाना, क्या सिर्फ इसलिए कि वह खूबसूरत है? अपने खुद के हुनर पर निर्भर क्यों न रहें, अकलमंदी और समझबूझ से कड़ी मेहनत क्यों न करें?
जीवन के भंवर के हर आघात और उतार-चढ़ाव से निबटने के लिए उसने खुद को तैयार रहने के लिए कहा, क्योंकि जीवन की उथल-पुथल से कोई नहीं बच सकता। उसके सिंभावली कस्बे में, जहां से उसने अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी, बहुत से बेहद गरीब मजदूर और किसान रहते थे। उसके पिता ने जैसे ही उसके लिए गणित की ट्यूशन लगवाई, उसने हाई स्कूल की परीक्षाओं में सफलता हासिल कर ली। यहां तक कि इंटरमीडिएट स्तर पर भी, उसे अंग्रेजी संप्रेक्षण में समस्या थी और उसने बहुत ही कम समय में इसमें दक्षता हासिल कर ली और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। उसके बाद, स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए उसने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उसके पिता ने उसे दो टूक कह दिया कि उसे अपने माता-पिता, तीन बच्चों और पत्नी की भी देखभाल करनी है। इसी कारण से, उसे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए हापुड़ के एसएसवी कॉलेज में दाखिला लेना पड़ा।
उसकी उम्मीदों और महत्त्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं थी। कई बार उसकी यह प्रबल प्रेरणा और महत्त्वाकांक्षा बहुत मजबूत साबित हुई और उसे आसमां के हर तारे की तलाश करने के लिए प्रेरित किया। चूंकि यहां सभी विषयों में सेमिनार होना एक सामान्य बात थी, उसने उनमें भाग लिया और अंग्रेजी व राजनीति विज्ञान की संगोष्ठियों में अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए जिन्होंने जीवन के सकारात्मक पक्ष में उनकी रुचि जागृत की और उनके मार्गदर्शकों और सलाह देने वालों ने उन्हें सिविल सेवाओं की तैयारी करने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन अफसोस! शहर के बाजार में केवल पाठ्यक्रम संबंधी पुस्तकें ही उपलब्ध थीं और वहां से आईएएस के लिए नई किताबें खरीदी नहीं जा सकती थीं। उसी समय, उसने किताबें खरीदने के लिए अपने पिता को पैसे देने के लिए कहा।
उसकी अनभिज्ञता के कारण, उसके पिता ने उसे बताया - ‘आपके शेल्फ पर बहुत सारी किताबें रखी हैं। पहले उन्हें पढ़ो और फिर मुझसे नई किताबों के लिए कहो।"
जब भी उसने सामान्य ज्ञान, निबंध लेखन और सामान्य अंग्रेजी की पुस्तकों का नवीनतम संस्करण खरीदना चाहा तब-तब उसकी बात को अनदेखा कर दिया गया। जब उसने अपने शिक्षकों के समक्ष अपनी इन समस्याओं को जाहिर किया, तो उन्होंने कहा कि वह सामान्य अंग्रेजी की किताबों के बारे में चिंता न करें क्योंकि व्याकरण के प्रत्येक विषय पर कॉलेज की लाइब्रेरी में कई किताबें थीं। कुछ हद तक तो उसकी समस्या हल हो गई। सौभाग्य से, उसने समाचारपत्रों में समकालीन सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक घटनाओं पर प्रकाशित लेखों की एक जेरोक्स प्रति करवा ली और उन्हें ‘सामाजिक मुद्दे, आर्थिक समस्याएं, राजनीतिक परिवर्तन’ -शीर्षक वाली तीन अलग-अलग फाइलों में लगाकर रख दिया। और इस प्रयास से मौजूदा राष्ट्रीय मुद्दों पर डेटा रखने की उसकी समस्या हल हो गई। इतिहास का छात्र होने के नाते, उसने 1857 के बाद यूरोपीय इतिहास, भारतीय मध्ययुगीन इतिहास, भारतीय मुस्लिम शासकों के इतिहास और भारत के इतिहास पर अपने नोट्स तैयार किए। फिर जब भी उसे कोई भ्रम हुआ तो उसे पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘विश्व का इतिहास’ देखने की सलाह दी गई।
बेशक, उसके लिए समय नहीं रुका और अपनी पढ़ाई के तनाव के कारण वह अकसर सिरदर्द महसूस करता था। तब टेनिस कोच ने उसे हर सुबह सड़क किनारे दौड़ने और पांच मिनट तक गहरी सांस लेने की सलाह दी। जिसने उसकी तनाव की समस्या हल कर दी और उसने अपने जीवन के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना जारी रखा। जीवन के जिन बुनियादी सिद्धांतों पर वह चलता था वे इस प्रकार थे:
1. जीवन का लक्ष्य सावधानीपूर्वक चुनें।
2. यदि आप मुख्य लक्ष्य प्राप्त करने में विफल रहते हैं तो एक विकल्प पास रखे।
3. हर सप्ताह अपने-आप से पूछे – ‘अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आप प्रतिदिन क्या कर रहे हैं?’
4. अपने-आप से पूछे – ‘आपके पथ की क्या समस्याएं हैं? आप उन्हें दूर करने के लिए प्रतिदिन क्या कर रहे हैं?’
उसने स्वामी विवेकानंद, रवींद्र नाथ टैगोर, एच.डी. थोरौ, आर. डब्ल्यू. एमर्सन, नेपोलियन बोनापार्ट, जे. जे. रूसो, अब्राहम लिंकन, एस. राधाकृष्णन, पं. जवाहर लाल नेहरू और मोहनदास कर्मचंद गांधी की जीवनियों का सारांश पढ़ा। हिटलर और सर विंस्टन चर्चिल की जीवनी ने उसे प्रभावित किया क्योंकि इन दोनों नेताओं ने बीस वर्षों से अधिक समय तक राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना किया था। स्वाभाविक रूप से, वह हिटलर के नाजीवाद की प्रशंसा नहीं कर सका क्योंकि वह रूस, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस से बदला लेना चाहता था जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी को पराजित किया था और उसके बाद जर्मन के लोगों का अपमान किया तथा विश्व युद्ध में हुए नुकसान की भरपाई के लिए जर्मनी के लोगों पर कर भी लगा दिए थे। लेकिन वह यह बात समझ नहीं पाया कि यदि यूरोपीय शक्तियां राजनीतिक मुद्दों को सौहार्दपूर्ण तरीके से हल करना चाहती थीं तो उन्होंने जर्मनी को लीग ऑफ नेशंस में शामिल होने के लिए क्यों नहीं आमंत्रित किया वह यह जानकर चौंक गया था कि पेरिस में आयोजित बैठक में लीग ऑफ नेशंस का प्रस्ताव रखने के बाद जब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन वापिस संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचे थे तो अमेरिकी सीनेटरों द्वारा उनका अपमान किया गया था। बहरहाल, जीवन भक्षण और सजा (eating and beating) से भरा है और उसने स्वीकार किया कि जब बड़ी हस्तियों को गलत समझा जाता है तब मित्रों और शत्रुओं द्वारा उनका बराबर अपमान किया जाता है।
हिरोशिमा और नागासाकी (अगस्त 1, 1945) पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद जब हिटलर ने आत्महत्या की और इसके परिणामस्वरूप जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया तो रोमेश ने इसे एक दिव्य न्याय के रूप में माना। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक नागरिकों से प्रशंसा पाने में विफल रहा और बम तैयार करने वाले वैज्ञानिक मानव जाति के दुश्मन कहलाए।
रोमेश ने सर विंस्टन चर्चिल की जीवनी का भी अध्ययन किया हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के इस नायक के लिए उसके मन में कोई सम्मान नहीं था। उसने विंस्टन चर्चिल की किताबों; जैसे द वर्ल्ड क्राइसिस (विश्व संकट), द ऐज ऑफ रिवोल्यूशन ( क्रांति की उम्र), माई अर्ली लाइफ (मेरा प्रारंभिक जीवन), द रिवर वार (नदी युद्ध) और द गैदरिंग स्टोर्म (घुमड़ता तूफान) का अध्ययन किया, हालांकि अपनी आई ए एस की तैयारी में, उसे इन पुस्तकों से किसी भी प्रकार की मदद की उम्मीद नहीं की थी। लेकिन फिर उसके लिए यह ध्यान देने योग्य आश्चर्यजनक बात थी कि इस ब्रिटिश विद्वान् को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और जूरी के सदस्यों ने उनकी व्याख्यान कला और नैतिक मूल्यों की रक्षा करने की प्रशंसा की थी। रोमेश महात्मा गांधी के साथ चर्चिल की बैठक के बारे में जानता था जिन्होंने ब्रिटिश प्रधान मंत्री के रूप में निजी चर्चा के लिए इस भारतीय संत गांधी को आमंत्रित किया था। दरअसल, चर्चिल ने ब्रिटिश पत्रकारों से पूछा था - ‘भारत में राष्ट्रवाद फैलाने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीयों को भड़काने के लिए मुख्य रूप से कौन जिम्मेदार है?’ उन्होंने उन्हें एम के गांधी का नाम बताया और इसलिए, अन्य भारतीय नेताओं के साथ गांधी की आवाज को दबाने के लिए चर्चिल ने उन्हें आमंत्रित किया था।
बहुत शुरू में ही, सर विंस्टन चर्चिल ने अपना धैर्य खो दिया और गांधी को सीधे तौर, स्पष्ट रूप से कहा- क्या आपको लगता है कि आप जैसे दुबले-पतले नेताओं के कारण ब्रिटिश सरकार भारत को छोड़ देगी? श्रीमान गांधी याद रखिए कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य कभी भी अस्त नहीं होता है और ना ही कभी अस्त होगा। आप समझे। आप खुद को बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं बोलते?
किंतु गांधी जी ने विनम्रता से जवाब दिया- सर, मैंने सोचा कि मैं आपका अतिथि था।
यह कथन उस अशिष्ट प्रधानमंत्री के चेहरे पर एक कड़ा प्रहार था क्योंकि ब्रिटिश शिष्टाचार की आम नागरिकों द्वारा प्रशंसा की जाती है। इसी तरह, अमेरिकी अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहुत प्रशंसा करते हैं।
इतिहास की किताबें ऐसे अनेक प्रकरणों से भरी पड़ी हैं। तब रोमेश ने प्लेटो की पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में उल्लिखित सिद्धांत को स्वीकार किया कि विचार पहले आता है। सभी तकनीकी संरचनाएं वैज्ञानिकों के दिमाग में पहले-पहल सरल विचारों के रूप में ही आई थी। प्रत्येक गगनचुंबी इमारत उसी विचार का फल है जो एक वास्तुकार के दिमाग में आया था। मूर्तिकार अपने हथौड़े और छैनी के साथ अपना विचार विकसित करता है और एक पत्थर को एक पूजनीय मूर्ति में बदल देता है। प्रत्येक साहित्यिक कलाकार अपनी पुस्तक में एक विचार विकसित करता है और एक शानदार प्रभाव उत्पन्न करने के लिए उसके विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करता है। इसने रोमेश को सिखाया कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों में से हर एक पर अपने प्रत्येक निबंध को कैसे विकसित किया जाए।
उसके बीए अंतिम वर्ष में, बरेली से आए एक छात्र टिन्नी ने अपनी बी ए अंतिम वर्ष की कक्षा में आना शुरू किया क्योंकि उसके पिता हाल ही में हापुड़ में स्थानांतरित होकर आए थे। चूंकि रोमेश की तरह उसने भी अंग्रेजी माध्यम का चयन किया था, इसलिए दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए थे और उन्होंने समकालीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों पर चर्चा की। लेकिन इस नए छात्र टिन्नी गौरव को क्रिकेट, पिंग पोंग और टेनिस खेलने में भी रुचि थी। दुर्भाग्यवश, जैसे ही कक्षाएं बंद हुई, रोमेश को अपने गांव वापस लौटना पड़ा। लेकिन टिन्नी, एस.डी.एम. का बेटा होने के कारण अधिकारी आवास में रहा और वह अपनी एक कप कॉफी और एक आलू सैंडविच खाने के बाद कॉलेज के खेल के मैदान तक पहुँचने का खर्च उठा सकता था। हालाँकि, इस युवा लड़के ने खेल में अपनी रुचि जागृत की क्योंकि सामाजिक विज्ञान के प्रश्नपत्र में खेलों पर प्रश्न पूछे गए थे। अकसर विशेषज्ञ संभावित उम्मीदवारों से खेलों पर सवाल पूछते थे और विशेष खेलों की प्रगति पर उनकी राय ली जाती थी। लेकिन इस मामले में रोमेश ने खुद से समझौता कर लिया था।
टिन्नी अकसर सिगरेट पीता था लेकिन रोमेश ने यह शौक नहीं पाला। अपनी क्लास की लड़कियों के साथ उसकी दोस्ती बढ़ गई तो दूसरी ओर रोमेश इसका आनंद उठाने में असफल रहा। टिन्नी ने पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लिया, हालांकि उसके पिता ने उसे निरंतर एक लोक सेवक बनने के लिए प्रेरित किया। लेकिन इस योग्य पिता के पास अपने बेटे के लिए समय ही नहीं था, इसलिए बेटा थोड़ा अपने मन की करने लगा और अपने करियर के प्रति लापरवाह हो गया। जब उसने खेल के मैदान में क्रिकेट मैच जीता तो उसे बहुत खुशी हुई और तब भी उसने ज्यादातर विभिन्न प्रसिद्ध खिलाड़ियों, अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बारे में ही बात की। इसके विपरीत, रोमेश उन राष्ट्रीय, सामाजिक, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर चर्चा करना चाहता था जिनका सामना दुनिया के विभिन्न हिस्सों के नागरिक करते हैं। सी सी एस, यूनिवसिटी मेरठ में टिन्नी ने जैसे-तैसे 80 प्रतिशत अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास की और रोमेश प्रथम श्रेणी में भी पहले स्थान पर रहा। एक टॉपर के रूप में, रोमेश को मेरठ में आयोजित विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया, लेकिन टिन्नी को ऐसा कोई बुलावा नहीं मिला था। इसलिए ईर्ष्यावश इस बड़ी सफलता पर भी टिन्नी ने उसे बधाई तक नहीं दी। लेकिन विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त पुरस्कार और स्वर्ण पदक ने उसके पिता रमन श्रोत्रिय का मान बढ़ाया और उन्होंने उसे भावी सफलता के लिए कड़ी मेहनत करने के लिए कहा।
लगभग अस्सी प्रतिशत अंक प्राप्त करने के बाद, रोमेश ने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया क्योंकि वहां वह एम. ए. अंग्रेजी में दाखिला लेना चाहता था लेकिन योग्यता यानी मेरिट के आधार पर प्रवेश पाने में असफल रहा। अब उसके पास हापुड़ के एसएसवी कॉलेज से पढ़ाई जारी रखने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था, जहां उन्हें पूर्वार्ध वर्ष (प्रीवियस ईयर) में चार पेपर के लिए चौबीस पुस्तकों का अध्ययन करना था। पूर्वार्ध वर्ष में चार पेपरों में शामिल होना आसान था जबकि उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में दो सेमेस्टर के लिए अड़तीस किताबों से तैयारी करनी थी। वहां उसे एक साल में नौ पेपर हर हाल में पास करने ही थे। लेकिन अब फिर से उसके पास चौबीस किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन उसके शिक्षक ने उसे सलाह दी कि वह ये सभी जरूरी किताबें कॉलेज के पुस्तकालय से ‘पुस्तक सहायता योजना’ (बुक ऐड स्कीम) के माध्यम से जारी करवाएं। रोमेश ने छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया और छात्रवृत्ति के रूप में उसे पांच हजार रुपये मिले। दुर्भाग्य से या फिर सौभाग्य से, उसने इन पैसो से एक स्मार्टफोन भी खरीद लिया ताकि वह सामान्य ज्ञान के सवालों के जवाब खोजने के लिए गूगल का उपयोग कर सके।
अपने पिता की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण, उसने ‘सीखते-सीखते कमाएं’ की नीति अपनाई और कुछ छात्रों को ट्यूशन पढ़ाना बेहतर समझा। यह महज संयोग की बात थी कि उसकी चचेरी बहन शिवांगी श्रोत्रिय ने भी उसी वर्ष बी.ए. के भाग-1 में प्रवेश किया था। चूंकि वह अंग्रेजी में लिखना और बोलना चाहती थी, इसलिए इस विदेशी भाषा में कमजोर होने के बावजूद, उसने सामान्य अंग्रेजी के साथ अंग्रेजी साहित्य को चुना। उसने सैंतालीस प्रतिशत अंकों के साथ इंटरमीडिएट में द्वितीय श्रेणी प्राप्त की थी लेकिन फिर भी वह अपने बारे में बहुत ऊंची सोच रखती थी। अंग्रेजी साहित्य की कुछ कक्षाओं में बैठने के बाद, शिवांगी को अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन उसका अहंकार विषय बदलने के आड़े आ खड़ा हुआ। अंतत: उसने अपने पिता से अनुरोध किया कि वे रोमेश से अंग्रेजी में उसकी मदद करने के लिए कहें। रोमेश ने अपने चाचा के आदेश का पालन किया और शिवांगी ने रोमेश की मदद लेने के लिए अन्य तीन लड़कियों से भी संपर्क किया। शिवांगी को छोड़कर उनमें से प्रत्येक लड़की को उसे एक हजार रुपये प्रति माह फीस के तौर पर देने थे। अब वह अन्य जरूरी पुस्तकें खरीदने हेतु एमेजॉन आपूर्ति सेवा को ऑर्डर दे सकता था। अब वह अपनी इस सबसे बेहतर स्थिति से बहुत खुश था और तब उसके सामने उसका लक्ष्य स्पष्ट दिखाई देने लगा था।
लेकिन शिवांगी को तो पढ़ाई में कोई दिलचस्पी थी ही नहीं और वह बीए केवल एक आवश्यक योग्यता हासिल करने के लिए कर रही थी जिससे शहर के बाहर एक शिक्षित युवक से शादी कर सके। क्योंकि सिंभावली कॉलेज में खेल, गायन या नृत्य की कोई सुविधा नहीं थी इसलिए वह यहां तंग आ चुकी थी। साल भर से यहां कोई संगोष्ठी और वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित नहीं की गई थी। चूंकि शिक्षकों को कम वेतन दिया जाता था, इसलिए वे पूरी तरह से योग्य नहीं थे। कॉलेज के पुस्तकालय की हालत खराब थी। हालांकि अधिकांश छात्रों की किताबें खरीदने में कोई रुचि नहीं रही थी और वे स्मार्टफोन पर विभिन्न एपिसोड का आनंद लेते और अकसर लड़कियों को छेड़ा करते थे।
एमए पूर्वार्द्ध के छात्र के रूप में रोमेश को फ्रांसिस बेकन के निबंधों से बौद्धिक आनंद मिला और उसने सही ढंग से पैसा खर्च करने की कला सीख ली। उसी समय, उसने ‘ऑन रेजिमेंट ऑफ हेल्थ स्टडीज’ नामक निबंध से सीखा कि अपने स्वास्थ्य की देखभाल कैसे की जाए। निबंध उसके लिए अत्यधिक उपयोगी साबित हुआ क्योंकि इससे उसने सीखा कि कैसे तथ्यों सहित बातचीत के लिए तैयार रहना है तथा क्या सीखना है और क्या छोड़ना है। ऑन फ्रेंडशिप निबंध ने उसे झूठे दोस्तों के प्रति सचेत किया। लेकिन चार्ल्स लैंब द्वारा लिखित निबंध ‘ड्रीम चिल्ड्रन’ ने उसे भावुक और दुखी कर दिया क्योंकि इससे उसे अपने स्वयं के खराब परिवेश के प्रति जागरूक होने के लिए मजबूर होना पड़ा। फिर भी एडिसन और स्टील के निबंधों ने उसे सचेत किया और गरीबी के डर तथा गरीबी की शर्म के बीच के अंतर को समझाया। इन निबंधों ने उसके भीतर के उस आत्मविश्वास को जगाया जो अभी पूरी तरह से खोया नहीं था। हालांकि वह जमींदार नहीं था पर फिर भी कुछ हद तक सर रोजर के चरित्र का अनुसरण कर सकता था।
बटैंड रसेल के ‘आइडियाज दैट हैव हार्ड मैनकाइंड’ (विचार जो मानव जाति को नुकसान पहुंचाते हैं) और ‘आइडियाज दैट हैव हेल्प्ड मैनकाइंड’ (विचार जो मानव जाति की मदद करते हैं) शीर्षकयुक्त दो निबंधों का अध्ययन करने के बाद, उसने भारत में बढ़ते क्षेत्रवाद, बड़े पैमाने पर फैले आर्थिक भ्रष्टाचार, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, क्षेत्रीय भाषाओं में व्याप्त अंधविश्वास, संकीर्ण राष्ट्रीय पूर्वाग्रहों तथा उत्तर व दक्षिण के बीच अलगाव की भावना की निंदा की। फिर भी, उसने भारतीय संस्कृति की अवधारणा की प्रशंसा की क्योंकि इसने उनतीस राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विभिन्न जातियों को एकजुट किया था। उसने भारत सरकार के संघीय ढांचे की सराहना की जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया गया था। देश में चुनाव निष्पक्ष रूप से हुए और गोलियों ने नहीं अपितु मतपत्रों ने नेताओं के भाग्य का फैसला किया। भारतीय संविधान एक बृहद दस्तावेज था जिसमें भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया था और यदि लोगों के अधिकारों का हनन होता है तो वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं। उसने आश्चर्यजनक रूप से विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच प्रशासनिक शक्तियों का स्पष्ट तौर पर विभाजन पाया।
बेशक, सरकार के ये तीन अंग लोगों के प्रति जिम्मेदार थे और भारतीय संविधान में वर्णित जटिल परिस्थितियों में एक-दूसरे से संबंधित से लगते थे। उसी में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों पर एक पूरा अध्याय है और प्रशासन पर ध्यान देते समय प्रत्येक भारतीय राज्य को उन्हें ध्यान में रखने की सलाह दी जाती है। राजनीति विज्ञान के एक छात्र के रूप में, वह विशेष रूप से आम चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों की योग्यता का आंकलन कर सकता था। गांधी की कुटीर उद्योग और पंचायत राज की अवधारणाएं उन्हें स्वीकार्य थीं, हालांकि उसने एक बेहतर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भारी उद्योगों और कुटीर उद्योगों के होने का समर्थन किया। कॉलेज और विश्वविद्यालय के सेमिनारों में उसने लोकतांत्रिक समाजवाद में अपनी आस्था व्यक्त की।
जे कृष्णमूर्ति द्वारा लिखित पुस्तक ‘टॉक विद स्टूडेंट्स’ से रोमेश ने विभिन्न नैतिक प्रश्नों के उत्तर सीखे; जैसे - अपने अंतर्मन के संदेह को कैसे संतुष्ट करें? मानव जीवन में भय की क्या भूमिका है? आम जनता भविष्य से क्यों डरती है? किसी भी योजना में पहल कैसे करें? साम्यवाद और समाजवाद, अच्छे और बुरे, तर्कसंगत और तर्कहीन जैसी दो अवध गरणाओं की तुलना कैसे करें? ईर्ष्या किसी के जीवन में किस प्रकार घातक सिद्ध होती है और इस बुराई से स्वयं को कैसे बचाएं? जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का क्या महत्त्व है? व्यक्तिगत और सामाजिक अनुशासन, राष्ट्रीय जीवन में समाज की मदद कैसे करता है? और इसके लिए उनके पास जापान के उदाहरण थे। उत्तेजना के क्षणों में अपने हृदय को कैसे शांत और नियंत्रित रखें? जीवन में वास्तविक आनंद क्या है? ज्ञान बुद्धि और विवेक से किस प्रकार भिन्न है? बेशक, उन्होंने भाषा को सीखने के माध्यम के रूप में स्वीकार किया और ज्ञान को जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक महान् साधन के रूप में माना। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और पुस्तकें असंख्य हैं और इसलिए, उसने अब केवल सिविल सेवा परीक्षा के उद्देश्य से पुस्तकों का तर्कसंगत चयन करने का निर्णय लिया।
जैसा कि सिगमंड फ्रायड ने अपनी महान पुस्तक ‘द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स’ में उल्लेख किया है, रोमेश ने अपनी सहमति व्यक्त की थी कि दुनिया भर में सपने देखना बहुत ही आम बात है और सभी उम्र के लोग सभ्य और अश्लील सपने देखते हैं। एक बच्चा अपने अधूरे गृहकार्य के लिए अपने शिक्षक से खुद को बेंत से पिटता देख रो सकता है। सपने में महिला अपने पति को दूसरी महिलाओं के साथ छेडखानी करते और फिर उसे पीटते हुए देख सकती है। एक उम्रदराज आदमी खुद को एक युवा फिल्म अभिनेत्री से प्यार करने का सपना देख सकता है। इसी तरह रोमेश ने शिवांगी की लट काटने (cutting the lock of shivangi) के लिए अपने चाचा से खुद को पिटते हुए देखा। एक और रात को, उसने खुद को ईडन गार्डन में शिवांगी की सहेली साधना रौतेला के साथ घूमते हुए पाया। लेकिन जैसे ही साधना ने ज्ञान के वर्जित पेड़ से एक सेब तोड़ा तो भगवान ने उन दोनों को स्वर्ग से भगा दिया।
वह रो रहा था - ओ गॉड, फोरगिव मी फोर दिस। इट वॉन्ट बी रीपीटेड।’
जैसे ही वह सपने में जोर से रोया- ‘ओ गॉड, फोरगिव मी,’ उसकी माँ उसके