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निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)
निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)
निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)
Ebook53 pages23 minutes

निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)

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निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)
कॉपीराइट
तालिका
दो शब्द
उस सुबह की देरी
मिस्टर घमंडी
काम का बोझ
उसकी डाँट फटकार
असमंजस
उपेक्षित
पाया फिर खोया

प्यार की कहानियाँ तो आपने बहुत सी पढ़ी होंगी, और उनमें से कुछ आज भी आपके दिमाग में ताज़ा होंगी! लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जो लकीर से हटकर होती है और पाठक के दिमाग में कुछ ज्यादा गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं।

हमारी ये कहानी भी कुछ इस तरह की ही है जो व्यावसायिक बहसों, नोक झोंक, से होती हुई हमारे नायक और नायिका को एक ही कंपनी में काम करते समय एक ऐसे मोड़ पर ले आती है जहां से सबकुछ एकदम पलट जाता है, और कहानी एक ऐसे अंत की तरफ बढ़ने लगती है जिसकी शायद कहानी पढ़ने के दौरान पाठक कल्पना भी नहीं कर सकता है...

शुभकामना

शलभ सिंह

Languageहिन्दी
PublisherRaja Sharma
Release dateOct 1, 2022
ISBN9781005465155
निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम)

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    निराशा से फ़ूलों तक (दुखद प्रेम) - शलभ सिंह

    दो शब्द

    प्यार की कहानियाँ तो आपने बहुत सी पढ़ी होंगी, और उनमें से कुछ आज भी आपके दिमाग में ताज़ा होंगी! लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जो लकीर से हटकर होती है और पाठक के दिमाग में कुछ ज्यादा गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं।

    हमारी ये कहानी भी कुछ इस तरह की ही है जो व्यावसायिक बहसों, नोक झोंक, से होती हुई हमारे नायक और नायिका को एक ही कंपनी में काम करते समय एक ऐसे मोड़ पर ले आती है जहां से सबकुछ एकदम पलट जाता है, और कहानी एक ऐसे अंत की तरफ बढ़ने लगती है जिसकी शायद कहानी पढ़ने के दौरान पाठक कल्पना भी नहीं कर सकता है...

    शुभकामना

    शलभ सिंह

    Chapter 2

    उस सुबह की देरी

    मुझे फरवरी के महीने की वो ठंडी सुबह याद है; मैं खचाखच भरी लिफ्ट में किसी तरह अपने लिए जगह बनाने में सफल हो ही गयी थी। तभी साथ में खड़ी एक महिला ने उसके हाथ में पकडे गर्म कॉफ़ी के प्लास्टिक के कप को छलका दिया और कॉफ़ी मेरे ऊपर गिर गयी। महिला अंतहीन क्षमाप्रार्थी थी।

    उसके चेहरे पर असीमित खेद के भावों को पढ़कर मैंने बस इतना ही कहा,ठीक है सब ठीक है, कोई बात नहीं।

    लेकिन अंदर ही अंदर मेरा वो शब्द गूँज गया जो मैं अक्सर तब प्रयोग करती हूँ जब कोई काम खराब हो जाता था; और वो शब्द था,सत्यानाश!

    मैं जल्दी से 51वीं मंजिल पर लिफ्ट से बाहर निकल गयी और तुरंत एक रेस्टरूम की तलाश में इधर उधर देखने लगी।

    एक बार जब मैं साफ हो गयी और रेस्टरूम से बाहर आ रही थी, मैंने देखा कि एक करीब तीस पैंतीस बरस का आदमी पुरुषों के रेस्टरूम का दरवाजा खोलने के लिए संघर्ष कर रहा था। वह व्हीलचेयर पर था।

    मैं तुरंत ही उसकी मदद के लिए कूद पड़ी और उसके लिए दरवाजे को धक्का देकर खोल दिया। उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैं उस दृष्टि को कभी नहीं भूल सकती हूँ।

    "क्या मैंने मदद मांगी

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