वो एक रात
By सुनयना कुमार
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उस शाम को
उस औरत की मदद
उसके स्टेशन पर
उसके घर की तरफ
उसके घर पहुंचकर
उसके साथ बातें और फिर
उस मिलन के बाद
समाप्त
दो शब्द
कॉलेज में पढ़ने वाले नौजवान की एक ऐसी सच्ची कहानी है जो एक दिन ट्रेन में दो बच्चों की माँ एक ऐसी औरत से मिलता है जो उसके जीवन में एक ऐसा स्थान बना लेती है जिसके कारण वो युवक विचलित हो जाता है और कभी खुद को अपराधी और कभी खुद को कायर समझने लगता है!
वो अचानक हुआ एक रात का मिलन वो सब कुछ कर देता है जिसकी उस नौजवान ने कभी कल्पना तक नहीं की थी!
शुभकामना
सुनयना कुमार
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वो एक रात - सुनयना कुमार
उस शाम को
हर सुबह और शाम उस ट्रेन से यात्रा करना मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा हो गया था। उस दिन भी शाम को जब मैं वहाँ पहुंचा तो हमेशा की तरह ही प्लेटफार्म यात्रियों की भीड़ से भरा पड़ा था। हर तरफ चिंता में दिख रहे यात्री ही यात्री थे।
हर दिन मैं पौने चार बजे ही उस डायमंड हार्बर-स्यालदाह लोकल ट्रेन से ही यात्रा करता था। उस दिन भी जब मैं ट्रेन वाले प्लेटफार्म पर पहुंचा तो ट्रेन पहले से ही बहुत भरी हुई थी।
क्योंकि वो बहुत पुरानी रेलवे लाइन थी और वही एक ट्रेन थी उस रूट के यात्रियों को लाने ले जाने के लिए इसलिए जगह जगह पर उस रूट पर रुकावटें आती थी और वो ट्रेन कभी भी अपने ठीक समय पर नहीं चलती थी।
आये दिन ही किसी ना किसी कारण से ट्रेन रास्ते में अचानक ही बहुत जगहों पर रुक जाती थी।
हर दिन की तरह ही उस दिन भी मेरे भाग्य ने साथ दिया और मैंने किसी तरह से धक्का मुक्की करके अपने लिए एक सीट खोज ही ली।
लेकिन सीट क्या थी बस किसी तरह बैठने के लिए कुछ इंच की ही जगह थी क्योंकि उस एक बर्थ पर तीन लोगों को बैठना होता था पर उसपर छे लोग बैठे हुए थे।
अगर मेरे बगल में बैठा हुआ व्यक्ति ज़रा सा भी धक्का देता तो मैं उस कम्पार्टमेंट के फर्श पर आ जाता। मैं किसी तरह दम साधकर बैठा रहा और ट्रेन के चलने का इंतजार करने लगा।
मैंने खुद को ठीक से बैठने के बाद नजरें उठाकर सामने देखा। मेरे सामने की बर्थ पर एक बहुत ही खूबसूरत जवान औरत बैठी थी। उसकी गोदी में करीब तीन बरस की एक उतनी ही सुन्दर बच्ची थी।
उसके साथ ही उससे चिपटकर उसका बेटा भी बैठा था जो करीब पांच या छे बरस का लग रहा था। साफ़ था के वो औरत अपने दोनों बच्चों के साथ उस ट्रेन में अकेली ही थी और उसके साथ कोई मर्द या