सिसकते चश्मे (लघु उपन्यास)
By सुनयना कुमार
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सिसकते चश्मे (लघु उपन्यास)
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दो शब्द
घर से दूर
शादी
घर के अंदर
शिक्षक से बात
पन्ने
टूटे हुए शीशे
पढ़ने की कोशिश
ये गरीब माँ बाप के संघर्ष की ऐसी कहानी है जिसमें वो अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर सॉफ्टवेयर इंजीनियर तो बना देते हैं, पर गाँव से दूर शहर की दुनिया में अपनी पत्नी के साथ जीवन बिताने में वो बेटा इतना व्यस्त हो जाता है के उसको अपने माँ बाप का ख्याल रखना धीरे धीरे भूलने ही लगता है!
आखिर, समय के बीतने के साथ एक दिन वो आता है जब आंसुओ और सिसकते चश्मे के सिवा और कुछ भी नहीं रह जाता है उस अभागे बेटे के पास!
शुभकामना
सुनयना कुमार
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सिसकते चश्मे (लघु उपन्यास) - सुनयना कुमार
दो शब्द
ये गरीब माँ बाप के संघर्ष की ऐसी कहानी है जिसमें वो अपने बेटे को पढ़ा लिखा कर सॉफ्टवेयर इंजीनियर तो बना देते हैं, पर गाँव से दूर शहर की दुनिया में अपनी पत्नी के साथ जीवन बिताने में वो बेटा इतना व्यस्त हो जाता है के उसको अपने माँ बाप का ख्याल रखना धीरे धीरे भूलने ही लगता है!
आखिर, समय के बीतने के साथ एक दिन वो आता है जब आंसुओ और सिसकते चश्मे के सिवा और कुछ भी नहीं रह जाता है उस अभागे बेटे के पास!
शुभकामना
सुनयना कुमार
Chapter 2
घर से दूर
आज भी मुझे वो समय याद आता है जब माँ को किसी और चीज़ से ज्यादा पिताजी से अलग होने का डर सताया करता था।
मुझे वो दिन भी किसी फिल्म की तरह से मेरी आँखों के सामने से गुजरते हुए प्रतीत होते हैं जिन दिनों में माँ की तबियत बहुत ही खराब थी।
मुझे आज भी याद है करीब 4 महीने पहले, अपने आखिरी दिनों में, माँ ने एक बार कहा था, हम इस दुनिया को खाली हाथ छोड़ देते हैं और कभी-कभी हम अंत तक पीड़ित होते हैं, लेकिन जब आप जानते हैं कि आपको प्यार किया जाता है तो दर्द से निपटना बहुत आसान हो जाता है।
तुम जहाँ भी जाओ मानसी, मैं बहुत पीछे नहीं रहूँगा,
वह था पिताजी का जवाब।
माँ और बाबूजी एक दूसरे का इतना ख्याल रखते थे के मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था के मेरे जीवन में कोई ऐसा भी समय आएगा जब वो दोनों ही मेरी जिंदगी में नहीं होंगे।
आज जब मैं उन शब्दों को याद करता हूं, तो मुझे एहसास होता है कि वे