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Ramayana Of Valmiki
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Ebook984 pages9 hours

Ramayana Of Valmiki

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वाल्मीकि रामायण परम भगवान रामचंद्र की दिव्य लीलाओ की अद्भुत कथा है। महारानी सीता एवं भगवान राम बड़े दुर्भाग्य, प्रलोभन, एवं अवरोधों का सामना समता, धैर्य, पराक्रम, एवं दृढ़ता के साथ करते है यह प्रस्तुतिकरण कालातीत आध्यात्मिक ज्ञान एवं समझ को सही ढंग से प्रकट क

Languageहिन्दी
Release dateMay 15, 2024
ISBN9788197313189
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    Ramayana Of Valmiki - Purnaprajna Das

    वाल्मीकि रामायण

    पूर्णप्रज्ञ दास

    विषय सूची

    बालकाण्ड

    भगवान् राम का जन्म, युवा अवस्था एवं विवाह

    अयोध्याकाण्ड

    भगवान् राम का वन को प्रस्थान (वनवास)

    अरण्यकाण्ड

    सीता हरण

    किष्किन्धाकाण्ड

    सीता की खोज

    सुन्दरकाण्ड

    सीता को खोज निकालना

    युद्धकाण्ड

    सीता के लिए युद्ध

    उत्तरकाण्ड

    भगवान् राम का राज्याभिषेक, सीता का परित्याग

    भगवान् राम एवं सीता का प्रस्थान

    बालकाण्ड

    बहुत समय पहले वाल्मीकि नामक एक महान् मुनि रहा करते थे। उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की लीलाओं की चर्चा करने में अपूर्व आनन्द आता था।

    एक दिन जब वाल्मीकि अपने शिष्यों के एक समूह के समक्ष कृष्णभावनामृत की व्याख्या कर रहे थे, तब उनकी कुटिया में श्री नारद मुनि पधारे, जो भगवान् की लीलाओं का गुणगान करते हुए आध्यात्मिक एवं भौतिक जगत् में अनवरत भ्रमण करते रहते हैं। श्री नारद को देखकर वाल्मीकि एवं उनके शिष्यों ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात्, प्रथा के अनुसार, श्री नारद को बैठने के लिए उच्चासन प्रदान किया एवं पादप्रक्षालन किया तथा नम्रतापूर्वक उनके कुशलक्षेम के विषय में जिज्ञासा की। उसके पश्चात्, वाल्मीकि ने श्री नारद से प्रश्न किया, हे तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ, कृपया हमें बतायें कि वर्तमान समय में इस धरती पर ऐसे कौन हैं जो सभी ऐश्वर्यों के सागर हैं? कौन हैं जो सर्वाधिक सुसंस्कृत, विद्वान, शक्तिशाली, उच्च विचारों वाले, सत्यवादी एवं कृतज्ञ हैं? कौन हैं, जिनका चरित्र निर्दोष है और जो जीवधारियों के यथार्थ कल्याण में संलग्न हैं? कौन अतुलनीय रूप से मेधावी हैं, सर्वाधिक सुंदर हैं, जिसके समक्ष क्रोध एवं द्वेष प्रभावहीन हैं, तथापि जो क्रुद्ध होने पर बड़े से बड़े देवताओं को भी भयभीत कर देते हैं? तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा करने वाले पराक्रमी कौन हैं? किसे भाग्य की देवी ने सभी आशीर्वाद दिए हैं? हे मुनिवर, कृपया मेरे प्रश्नों का समाधान पूर्ण रूप से करें।

    त्रिलोकज्ञ मुनिवर नारद ने उत्तर दिया, "हे ऋषि, राम नाम के एक प्रख्यात राजा हैं, जो इक्ष्वाकु राजवंश में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित हुए हैं। वे सभी श्रेष्ठ गुणों वाले एवं सर्वाधिक ऐश्वर्यशाली हैं। राम अपनी इंद्रियों पर पूर्णरूप से नियंत्रण रखने वाले एवं असंख्य शक्तियों के स्वामी हैं।

    "भगवान् राम की शक्तिशाली भुजाएं घुटनों से नीचे तक लम्बी हैं और उनकी गर्दन पर तीन मंगल रेखाएँ हैं जो अति शुभ हैं। उनके कंधे विस्तृत एवं छाती चौड़ी है, सुंदर माथा, सुशोभित ललाट, शक्तिशाली जबड़े और मजबूती से जड़ी हुई हँसुली हैं। उनके नेत्र विशाल हैं। उनका कद भव्य मध्यम-ऊँचाई वाला है, और उनके समस्त अंग सुगठित एवं सुडौल हैं। वे गहन हरित नीलवर्णी हैं, जिसकी अनुपम आभा है। उनकी बुद्धि अथाह है, उनका आचार-व्यवहार गम्भीर है तथा उनकी वाणी एवं वक्तृत्व-कला सर्वश्रेष्ठ है।

    "भगवान् राम का चरित्र विशेष रूप से पवित्र है और वह वास्तविक धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने वाले हैं। वे आत्मसाक्षात्कार में पूर्ण हैं एवं वर्णाश्रम-धर्म के अनुपालक हैं। वस्तुतः वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आश्रय हैं। साथ ही साथ वे समस्त शत्रुओं के संहारक एवं पूर्ण शरणागतों के एकमात्र आश्रय हैं। भगवान् राम वेदों के परम ज्ञाता तथा शस्त्र-विद्या में निपुण हैं। उनका निर्णय अविचल, उनकी बुद्धि अपूर्व एवं स्मरणशक्ति अच्युत है। वस्तुतः उनकी विद्वत्ता असीम है। वे मेधावी, कृपालु एवं पराक्रमी हैं। सभी जीवों को उनसे स्नेह है। वे शत्रुओं तथा मित्रों के बीच भेदभाव नहीं करते हैं तथा सागर के समान गम्भीर हैं।

    धैर्य में वे हिमालय पर्वत के समान हैं। शक्ति में वे भगवान् विष्णु के समान हैं। सौंदर्य में वे चन्द्रमा के समान हैं। सहनशीलता में वे पृथ्वी के समान हैं तथा क्रोध में उस अग्नि के समान हैं जो विश्व-संहार के समय प्रज्ज्वलित होती है। ऐश्वर्य में वे कुवेर के तथा भक्ति में सदाचार के देवता, धर्म-देव के समान हैं।

    तत्पश्चात् नारद ने वाल्मीकि के समक्ष भगवान् राम की लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन किया। उन्होंने सूचित किया कि अब यही भगवान् राम अपने आश्रितों पर न्यायपरायणता तथा आदर्श रूप से शासन करते हैं।

    उन्होंने व्याख्या की कि भगवान् श्री राम के राज्य में कोई भी व्यक्ति रोग अथवा मानसिक क्लेश से पीड़ित नहीं होगा। भगवान् राम के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति सुखी एवं सम्पन्न होगा। उन्हें भूख, अभाव एवं चोरी का कभी भय नहीं होगा। सभी नगरों एवं ग्रामों में प्रचुर मात्रा में अन्न, फल, सब्जी एवं दूध से निर्मित वस्तुएँ उपलब्ध होंगी। वस्तुतः प्रजा उसी धर्मनिष्ठा एवं प्रसन्नता का अनुभव करेगी जो कि सत्ययुग में पाई जाती थी। बाढ़, भूकम्प, अकाल आदि प्राकृतिक प्रकोप नहीं होंगे। स्त्रियाँ सदा पवित्र रहेंगी एवं उन्हें वैधव्य से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा। भगवान् रामचन्द्र अपने परम धाम, आध्यात्मिक जगत् में वैकुण्ठ को लौटने से पूर्व पृथ्वी पर 11,000 वर्षों तक शासन करेंगे।

    वाल्मीकि के प्रश्नों का, जो कि तीनों लोकों के कल्याण हेतु थे, समाधान करने के पश्चात्, श्री नारद भगवान् के गुणों का प्रचार करते हुए पुनः अपनी यात्रा पर चल पड़े। तब वाल्मीकि मुनि अपने शिष्य भरद्वाज के साथ तमस नदी के तट की ओर चल दिए। नदी के तट पर बैठकर वाल्मीकि श्री नारद द्वारा वर्णित बातों पर विचार करने लगे।

    वन में बैठे हुए वाल्मीकि ने सारस पक्षियों के एक जोड़े को देखा, जो मैथुन-क्रिया में संलग्न था। काम-क्रिया में लिप्त दोनों पक्षी मधुर स्वर में गा रहे थे। उसी समय निषाद वंश का एक पापी शिकारी अपने छिपने के स्थान से निकलकर प्रकट हुआ। उसने एक ऐसा बाण चलाया जिसने नरपक्षी के शरीर को बेध दिया। पक्षी पीड़ा से चीखते हुए धरती पर गिर पड़ा। अपने पति को रक्तरंजित, पीड़ा से शरीर को ऐंठते हुए तथा धराशायी देखकर मादा पक्षी अकस्मात् चरम इन्द्रिय-सुख से वेदना की गहरी खाई में गिर गई। इससे उत्पन्न नैराश्य तथा भय के कारण वह करुण क्रन्दन करने लगी।

    जब वाल्मीकि ने यह दुःखद दृश्य देखा तब उनके हृदय में दया का भाव उमड़ पड़ा। निषाद के इस हिंसक कृत्य को अत्यन्त पापपूर्ण जानकर वाल्मीकि ने क्रोध में आकर शिकारी को शाप देते हए कहा. अरे पक्षियों के हत्यारे, अपनी मादा की यौन-तुष्टि में संलग्न निर्दोष जीव की निर्मम हत्या करने के दण्डस्वरूप तुम्हें अनन्त काल तक मानसिक शांति प्राप्त नहीं होगी।

    जैसे ही वाल्मीकि ने यह शाप दिया, उन्हें अपने अनियंत्रित क्रोध के वशीभूत हो जाने पर लज्जा का अनुभव हुआ। ज्ञानी होने के कारण उन्हें यह ज्ञात था कि वस्तुतः सभी जीव असहाय रूप से भौतिक प्रकृति के प्रभाव में हैं। उन्हें शिकारी पर इस प्रकार क्रोधित होने का पश्चाताप हुआ। उसी समय वाल्मीकि यह सोचकर चकित हुए कि उनके मुख से उच्चारित शाप आश्चर्यजनक रूप कम से एक काव्योक्ति था। वास्तव में, उनका शाप रामायण की एक अत्यन्त भावुक अभिव्यक्ति का संकेत था जिस पर वे श्री नारद से भेंट के पश्चात् मनन कर रहे थे।

    अतः वाल्मीकि ने अपने शिष्य भरद्वाज से कहा, मेरी वेदना से चार पंक्तियों की एक कविता उभरी है जिनमें से प्रत्येक पंक्ति में आठ अक्षर हैं। शोक से यह आश्चर्यजनक श्लोक उभर कर आया है क्योंकि करुणा के बिना यथार्थ काव्य अभिव्यक्ति की कोई सम्भावना नहीं है।

    तत्पश्चात् वाल्मीकि तमस नदी में स्नान करके भरद्वाज के संग अपने आश्रम लौट आए। शिकारी को दिए गए अपने शाप के विषय में उनका चिंतन जारी था, अकस्मात् उन्होंने देखा कि भगवान् ब्रह्मा अपने निवास से, जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वोच्च लोक है, अवरोहित हो रहे हैं। आनन्द एवं आश्चर्य से व्याकुल, अवाक् वाल्मीकि ब्रह्माण्ड में सर्वप्रथम जन्म लेने वाले व्यक्ति का अभिनन्दन करने के लिए उठ खड़े हुए।

    जब भगवान् ब्रह्मा वाल्मीकि के समक्ष उपस्थित हुए, तब उन्होंने श्री ब्रह्मा को सादर प्रणाम किया तथा अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर से उनकी पूजा की। इसके पश्चात भगवान् ब्रह्मा ने, जो समस्त जीवों के पूर्वज हैं, और जो सभी के हृदय को समझने वाले हैं, कहा, "हे भाग्यवान मुनि, कृपया यह विचार कर शोक न करें कि आपने शिकारी को शाप देकर अनुचित कार्य किया है। वास्तव में, जो शब्द आपने क्रोध में आकर उच्चारित किए, वे मेरे थे। एक महान् कार्य को सम्पन्न करने हेतु, प्रेरणा प्रदान करने के उद्देश्य से, वे शब्द आपके मुख से उच्चारित करवाए गए थे। वस्तुतः अब समय आ गया है कि आप भगवान् रामचन्द्र के जीवन की कथा-महान् अलौकिक, दिव्य लीलाएँ जो विश्व के परम कल्याण हेतु हैं-की रचना करें।

    मेरे प्रिय वाल्मीकि, चिन्तित न हो, क्योंकि मेरे आशीर्वाद की शक्ति से, जो कुछ भी तुम्हें ज्ञात नहीं है, वह तुम्हारे हृदय में स्पष्ट रूप से विदित हो जाएगा। इस प्रकार मेरी कृपा से, तुम्हारे द्वारा रचित रामायण की कथा त्रुटिरहित होगी।

    वाल्मीकि को यह आशीर्वाद देकर, भगवान् ब्रह्मा अपने दिव्य हंस वाहन पर, सभी दर्शकों को आश्चर्यचकित करते हुए, अपने धाम की ओर चल दिए। भगवान् ब्रह्मा के निर्देशानुसार वाल्मीकि भगवान् रामचन्द्र की लीलाओं का ज्ञान प्राप्त करने हेतु ध्यानमग्न हो गए।

    ध्यानमग्न वाल्मीकि ने भगवान् राम के अवतार की घटनाओं को अपने हृदय में स्पष्टतः देखा। तत्पश्चात् वाल्मीकि ने 24,000 श्लोकों में रामायण की रचना की।

    इस महाकाव्य को पूर्ण करने के पश्चात्, वे सोचने लगे कि इस काव्य की शिक्षा किसे दी जाए जो इसे कण्ठस्थ कर विश्वभर में इसका प्रचार करे। जब वाल्मीकि इस प्रकार चिन्तामग्न थे, तब उनके शिष्य, लव और कुश, जो ऋषियों के वेश में थे, उनके सम्मुख प्रस्तुत हुए और उन्होंने दिनचर्या के अनुसार उनके चरण स्पर्श किए। वनवास के पश्चात् सीता ने इन जुड़वाँ भाइयों को जन्म दिया था और तब से वे दोनों वाल्मीकि की देख-रेख में रहने लगे।

    सीता का विवशतापूर्वक त्याग किया गया जब अयोध्या की प्रजा ने दस शीश वाले राक्षस, रावण, के द्वारा स्पर्श किए जाने पर उनकी पवित्रता पर संदेह किया। इस प्रकार से भगवान् रामचन्द्र को उनका त्याग करने हेतु विवश किया गया। उनके दोनों पुत्र, लव एवं कुश तीव्र स्मरणशक्ति एवं संगीत-कला के धनी थे। इसके अतिरिक्त वे वेदों में निपुण थे। देखने में वे बिल्कुल अपने पिता के समान, एवं संगीत में स्वर्ग के गंधर्वो के समान दक्ष थे। इस प्रकार वाल्मीकि ने पाया कि वे दोनों रामायण की शिक्षा प्राप्त करने हेतु योग्य थे।

    तत्पश्चात्, वाल्मीकि लव एवं कुश को ध्यानपूर्वक सम्पूर्ण रामायण का अध्ययन करवाने लगे। उन जुड़वाँ भाइयों ने सम्पूर्ण रामायण कण्ठस्थ

    कर ली। वाल्मीकि की शिक्षाओं का पालन करते हुए उन्होंने भगवान् रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं को महान् मुनियों, विद्वान् ब्राह्मणों एवं शुद्ध हृदयवाले अन्य धार्मिक व्यक्तियों को सुनाया। ब्राह्मणों ने लव-कुश की प्रशंसा की और उन्हें बहुमूल्य उपहारों से पुरस्कृत किया।

    उस दिन से लव और कुश विश्वभर में भ्रमण करने लगे और महाकाव्य रामायण की कथा सुनाने लगे। इस प्रकार से भ्रमण करते हुए वे अंत में अयोध्या पहुँचे। वहाँ भगवान् रामचन्द्र ने उन दोनों बालकों को नगर में ऋषियों के वेशभूषा में घूमते हुए देखा। अपनी दिव्य लीलाओं का, उनके द्वारा सुंदर ढंग से वर्णन किए जाने की प्रशंसा सुनकर भगवान् राम ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने महल में रामायण की कथा सुनाने के लिए आमन्त्रित किया। यद्यपि वे उनके पुत्र थे, तथापि उन्होंने उन दोनों को नहीं पहचाना।

    इन जुड़वाँ मुनियों का आदरपूर्वक स्वागत करने के पश्चात् भगवान् राम ने उन्हें अपनी राज-सभा में आमन्त्रित किया। भगवान् राम ने देखा कि यद्यपि ये बालक तपस्वी ब्राह्मणों के वेश में थे, तथापि इनका रूप क्षत्रियों के जैसा था। राम ने अपने भ्राताओं भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न से कहा, हे रघुवंशियों में श्रेष्ठ, इस सुंदर कथा का श्रवण करो। यद्यपि ये दोनों गायक तपस्वियों की भाँति दिखते हैं, तथापि इनके लक्षण महान् शासकों के हैं। इस कथा को सुनो, क्योंकि यह साहित्यिक सौंदर्य से भरपूर है एवं सभी के चित्त को आकर्षित करने वाली है।

    जैसे ही लव-कुश ने उस महाकाव्य का गान आरम्भ किया, राम और उनके भाई सब कुछ भूलकर उसे सुनने में मग्न हो गये। भगवान् की कीर्ति का श्रवण एवं कीर्तन करने मात्र से भौतिक जगत् के बंधनों से मुक्त हुआ जा सकता है।

    ...

    कोशल नामक एक विशाल भू-खण्ड का विस्तार सरयू नदी के तट तक था। वह भूमि हरी-भरी, सम्पन्न एवं अन्न से परिपूर्ण थी। अयोध्या की प्रसिद्ध नगरी का, मनुष्य जाति के राजा वैवस्वत मनु की इच्छा से, इस विस्तृत क्षेत्र में निर्माण किया गया था। यह भव्य नगर छियानवे मील लंबा एवं चौबीस मील चौड़ा था। इस नगरी का विस्तार क्रमानुसार किया हुआ था, और इसके सुंदर, सीधे मार्ग मतवाले हाथियों की सूंड से छिड़के गए सुगंधित जल से सुवासित होते थे। प्रतिदिन स्वर्ग से अप्सराएँ अपने सुंदर विमानों में बैठकर वहाँ भ्रमण करतीं एवं पुष्पों की वर्षा करतीं।

    अयोध्या के मेहराबनुमा द्वारपथ संगमरमर से निर्मित थे तथा द्वारों पर स्वर्ण एवं रजत की नक्काशी की गई थी तथा बहुमूल्य जवाहरात जड़े थे। शत्रुओं को दूर भगाने में सक्षम तोप और प्रक्षेपास्त्र नगर की दीवारों की सुरक्षा करते थे। बाजार तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठान व्यवस्थित ढंग से निर्मित थे, मार्ग के किनारे पर सात मंजिला भवन सुनियोजित ढंग से निर्मित थे। बहुमंजिला महलों से सुशोभित, अतिसुंदर उद्यानों से आवृत्त तथा वाद्यों के स्फुरण से गूंजती हुई अयोध्या नगरी स्वर्ग के राजा इन्द्र की नगरी अमरावती से भी प्रतिस्पर्धा करती। नगरभर में भाट (कवि) और गायक भगवान् के यश का गुणगान करते तथा नर्तक भगवान् की सर्व-कल्याणकारी लीलाओं पर आधारित नाटकों का मंचन करते।

    अयोध्या में फलों वाले वृक्षों एवं असीमित पुष्पों से परिपूर्ण अनेक सुंदर उद्यान थे। नीले, लाल एवं सुनहरे वर्गों के कमलों से भरे सरोवर थे, और वायु में ऊँचाई तक जल की फुहार छोड़ते हुए फव्वारे थे। मन्द वायु फव्वारों से सुगंधित फुहार लेते हुए अपने स्पर्श से प्रजा को शीतलता प्रदान करती तथा उष्ण ग्रीष्मऋतु को भी बसन्त के समान बना देती। सारस एवं मयूर की ध्वनि सर्वत्र सुनी जा सकती थी। अयोध्या के जलस्रोतों एवं छोटी नदियों में प्रवाहित जल गन्ने के रस के समान मधुर था और उसका उपयोग न केवल पेयजल के रूप में अपितु अनेक आम्रकुंजों को सींचने के लिए भी होता था। सुंदर संरचना वाले अनेक भवन और महल बहुमूल्य पत्थरों से निर्मित थे एवं पताकाओं तथा तोरणों से सुसज्जित थे। उनका सौंदर्य वैकुण्ठ के महलों से प्रतिस्पर्धा करता था।

    सहस्रों योद्धा इस भव्य नगरी की सुरक्षा करते थे। वे इतने निपुण धनुर्धर तथा रथ-योद्धा थे कि सहस्रों व्यक्तियों से एक साथ युद्ध कर सकते थे।

    अयोध्या के मार्गों में सदैव प्रजा का आवागमन रहता। विश्व के सभी भागों से राजा और राजकुमार अपना-अपना वार्षिक कर भुगतान करने आते और अयोध्या के राजा के प्रति आदर प्रकट करते। व्यापारीगण निकट एवं दूरस्थ स्थानों से आकर क्रय-विक्रय हेतु एकत्रित होते। ब्राह्मण पुरोहित प्रायः भगवान् विष्णु का गुणगान करते हुए एवं वैदिक श्लोकों का उच्चारण करते हुए यज्ञ-अग्नि में घी की आहूति देते हुए देखे जाते। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने वाले, सत्य को समर्पित ये ब्राह्मण समस्त गुणों से युक्त थे।

    महाराज दशरथ सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक और एक महान् राजर्षि थे। वे एक महर्षि के समान प्रख्यात थे। वे असीमित शत्रुओं के साथ अकेले युद्ध करने में सक्षम उग्र योद्धा थे। उनके तथा प्रजा के धार्मिक होने के कारण अयोध्या एक प्रामाणिक वैदिक सभ्यता का सजीव चित्र प्रस्तुत करती थी। प्रत्येक कल्पनीय धन-वैभव वहाँ पूर्णता से उपलब्ध था और पापमय जीवन से उत्पन्न होने वाले भौतिक दुःख व्यवहारिक तौर पर नगण्य थे। अयोध्या में चारों वर्ण यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र तथा आश्रम राज्य की शांति एवं सम्पन्नता बनाए रखने के लिए संयुक्त प्रयास करते। न कोई चोरी करता और न ही कोई कृपण था। उद्दण्डता, नास्तिकता, कठोर व्यवहार तथा कटु वाणी की अनुपस्थिति से यह नगरी उत्कृष्ट थी।

    इतने वैभवशाली एवं सम्मानित होने के पश्चात् भी राजा दशरथ अप्रसन्न थे। अनेक प्रयासों के पश्चात् भी उन्हें उनकी वंश परम्परा को कायम रख सकने वाला कोई पुत्र प्राप्त न हुआ। अन्ततः बहुत विचार करने के पश्चात् राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया। (श्रील प्रभुपाद व्याख्या करते हैं : वैदिक यज्ञ कोई साधारण कार्य नहीं है। इस प्रकार के यज्ञ में देवता भाग लेते हैं और ऐसे यज्ञों में जिन प्राणियों की बलि दी जाती है वे नया शरीर प्राप्त करते हैं। इस कलियुग में कोई ऐसा शक्तिशाली ब्राह्मण नहीं है जो देवताओं को आमन्त्रित कर सके या प्राणियों को पुनर्जीवन प्रदान कर सके। पूर्वकाल में, ब्राह्मण वैदिक मंत्रों के उच्चारण में निपुण थे, वे मंत्रों की शक्ति प्रदर्शित कर सकते थे, किन्तु इस युग में, चूँकि वैसे ब्राह्मण नहीं है, अतः ऐसे यज्ञ निषिद्ध हैं।) ऐसा विचार करके उन्होंने अपने मुख्यमंत्री सुमन्त्र को अपने कुल के पुरोहितों को बुलवाने की आज्ञा दी।

    जब वसिष्ठ एवं वामदेव मुनि सहित ब्राह्मण वहाँ पहुँचे तब महाराज दशरथ ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, हे द्विजश्रेष्ठ, अनेक वर्षों से मेरी पुत्र प्राप्ति की मनोकामना है, परन्तु मेरे सभी प्रयास निष्फल रहे हैं। चूँकि मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं है अतः मैं प्रसन्नता का आडंबर नहीं कर सकता। वस्तुतः मेरा जीवन व्यर्थ एवं दुःखद प्रतीत होता है। बहुत सोच-विचार कर, तथा आपकी अनुमति से मैंने अश्वमेध-यज्ञ करवाने का निर्णय लिया है। चूंकि आप सभी शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता हैं, मुझे विश्वास है कि आप सब मुझे उचित मार्गदर्शन दे सकेंगे।

    महाराज दशरथ के अश्वमेध यज्ञ करवाने के इस प्रस्ताव को सभी पुरोहितों ने एकमत से स्वीकार किया और तब राजा ने अपने मंत्रियों को शीघ्र ही आवश्यक प्रबन्ध करने की आज्ञा दी।

    तब सुमन्त्र महाराज दशरथ को वह कथा सुनाने के लिए एक ओर से ले गए जो उन्होंने सनतकुमार द्वारा सुनी थी और जिसको उन्होंने मुनियों की सभा में सुनाया था।

    सुमन्त्र ने कहा, प्रिय महाराज आपको यह कथा रोचक लगेगी क्योंकि इसमें ऐसी भविष्यवाणी की गई है कि आप भविष्य में चार यशस्वी पुत्रों के पिता होंगे।

    "यह इस प्रकार हुआ कि सनतकुमार ने पहले यही कथा पिछले युग के सतयुग में कही थी। अतः उनके द्वारा वर्णित कोई भी घटना अभी तक घटित नहीं हुई थी, किन्तु सुदूर भविष्य में इसका घटना निश्चित कहा गया है।

    "राजा रोमपाद के किसी अपराध के कारण, उनके राज्य में सभी जीवों को भयभीत कर देने वाला एक भयंकर अकाल पड़ा। जब स्थिति असहनीय हो गई तब महाराज रोमपाद ने विद्वान् ब्राह्मणों की एक सभा आयोजित की और उनसे अकाल का कारण पूछा; ‘मुझे ज्ञात है कि मेरे ही किसी अपराध के कारण मेरे राज्य में यह भयंकर अकाल पड़ा है। हे द्विजश्रेष्ठों, चूँकि आपका ज्ञान असीम है, कृपया मेरे द्वारा किए गए अपराध का कोई उचित प्रायश्चित बताएं।’

    ब्राह्मणों ने उत्तर दिया, "हे राजन्, यहाँ मृगी ऋषि नामक एक महान् ब्राह्मण मुनि हैं जो वन में निवास करते हैं। मृगीऋषि कश्यप के पुत्र हैं और उनके पुत्र का नाम ऋष्यशृंग है। (ऋष्यशृंग नाम यह सूचित करता है कि मुनि ने जब जन्म लिया तब उसके ललाट पर मृग सदृश सींग थे।) यदि आप इस ऋषि पुत्र को अपने राज्य में लाकर, उनसे अपनी पुत्री शांत का विवाह करा दें, तब अकाल तुरन्त समाप्त हो जाएगा।’

    "शांत वास्तव में महाराज दशरथ की पुत्री थी, किन्तु राजा के निः संतान मित्र रोमपाद को उनके आग्रह करने पर गोद दे दी गई थी। अकाल समाप्त करने का उपाय जानकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु जब उन्होंने पुरोहितों से ऋष्यशृंग को आमन्त्रित करने का आग्रह किया तब उन्होंने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। ब्राह्मणों ने बताया, ‘हे राजन्! हमें भय है कि यदि हम मृगीऋषि के पुत्र को प्रलोभन से, घर से भगा लाने का प्रयास करेंगे तो वे हमें श्राप दे देंगे। ऋष्यशृंग का पालनपोषण उनके पिता ने नितान्त एकांत में किया है। उन्होंने किसी दसरे मानव को कभी नहीं देखा है। चूँकि ऋष्यशृंग ने स्त्री जाति के किसी सदस्य को कभी नहीं देखा है, अत: वह उनके सान्निध्य से पूर्णरूपेण अनभिज्ञ है।

    ‘प्रिय महाराज, चूँकि हम आपका कल्याण चाहते हैं, अतः हमने ऋष्यशृंग को आपके राज्य में लाने का एक उपाय सोचा है। अति सुंदर वेश्याओं को उनके पास भेज कर स्त्रीयोचित रीति से उन्हें प्रलोभित किया जाए। हमें विश्वास है कि इस प्रकार से आपका उद्देश्य सरलता से पूर्ण हो जाएगा।’

    "महाराज ने उनकी योजना स्वीकार कर ली और फिर युवा एवं अत्यन्त सुंदर वेश्याओं को बुला भेजा। इस प्रकार से राजा द्वारा निर्देशित एवं समुचित पारितोषिक पाने का आश्वासन प्राप्त करके वेश्याएँ किसी भी कीमत पर युवा ऋषि को लेकर आने का निर्णय करके वन की ओर चल दीं।

    "तत्पश्चात् वेश्याओं ने मृगीऋषि के आश्रम के पास अपना शिविर स्थापित किया और उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं। एक दिन ऋष्यशृंग अपने घर से भ्रमण करने निकले और वेश्याओं के शिविर में आ पहुँचे।

    "उन्हें देखते ही, युवतियां आनन्दपूर्वक उनके पास गईं। जब उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा तब उसने उत्तर दिया, ‘मैं मृगीऋषि का पुत्र हूँ और अपने पिता के आश्रम में तपस्या करता हूँ। आप सब अत्यन्त सुंदर हैं। मेरी कामना है कि आप सभी मेरे घर आकर मेरी सेवा एवं सत्कार को स्वीकार करें।’

    वेश्याएं ऋष्यशृंग के साथ आश्रम गईं जहां उनको चरण धोने के लिए जल दिया गया, जलपान करवाया गया एवं अनेक प्रकार के फलमूल प्रदान कर उनका उचित स्वागत किया गया। वे युवतियाँ ऋष्यशृंग के पिता के शीघ्र ही लौट आने की शंका से भयभीत थी तथा अधिक समय तक वहाँ रुकना नहीं चाहती थीं। जाते समय उन्होंने कहा, हमारे प्रिय मित्र, अतिथियों के स्वागत करने की हमारी रीति आपसे भिन्न है। अब आप भी हमारे आदर एवं सम्मान को स्वीकार करें।

    ऐसा कहकर युवतियों ने ऋष्यशृंग का अत्यन्त स्नेह से आलिंगन किया और उन्हें मिष्ठान्न खिलाया। उस निर्दोष ऋषिपुत्र ने ऐसी स्वादिष्ट वस्तु का इससे पूर्व कभी आस्वादन नहीं किया था, क्योंकि उन्हें तो केवल फल-मूल खाने की ही आदत थी। उन्होंने उस मिष्ठान्न को एक प्रकार का फल ही समझा। इस घटना के पूर्व उन्होंने अपने पिता के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं देखा था अतः उन्होंने इन वेश्याओं को चमत्कारी सुन्दर पुरुष समझा। युवतियों के चले जाने के पश्चात्, ऋष्यशृंग के मन में व्याकुलता और अधीरता होने लगी। हृदय में सुप्त कामुक इच्छाओं के बीज अंकुरित होने लगे। ऋष्यशृंग सदा सुंदर स्त्रियों के विषय में ही सोचने लगे। उनकी रातों की नींद उड़ गई। उनका हृदय एवं मस्तिष्क उन स्त्रियों के मधुर स्वर तथा आलिंगन से व्यग्र हो उठा।

    "वे उनके अतिरिक्त अन्य कोई विचार कर पाने में अक्षम थे, अतः अगले दिन ऋष्यशृंग उन वेश्याओं के शिविर में गए। युवतियों ने प्रसन्नतापूर्वक ऋष्यशृंग का स्वागत किया तथा उन्होंने कहा, ‘यह हमारा मूल निवास नहीं है। कृपया हमारी इस भव्य चलायमान कुटिया (विमान) में बैठकर उस स्थान को चलें जहां हम आपका उचित प्रकार से मनोरंजन कर सकें। हमारे पास अनेक प्रकार के फल-मूल हैं और हम इतने आनन्द में समय व्यतीत करेंगे कि आपको ज्ञात ही नहीं होगा कि समय / कैसे व्यतीत हो रहा है।’

    "हृदय से पराजित, ऋष्यशृंग नि:संकोच वेश्याओं के संग चल दिए। इस प्रकार से वे स्त्रियाँ उन्हें अंगराज्य में राजा रोमपाद की राजधानी वापस ले आईं। वस्तुतः जब ऋष्यशृंग गंगा से होकर जा रहे थे, इन्द्र ने सभी जीवों को प्रसन्न करने वाली वर्षा प्रारंभ कर दी।’

    जैसे ही राजा रोमपाद को ऋष्यशृंग के आगमन की सूचना प्राप्त हुई वैसे ही उन्होंने महल से बाहर आकर उस युवा ऋषि को प्रणाम किया। भली-भाँति ऋष्यशृंग का स्वागत करने के पश्चात् राजा उन्हें महल के भीतर, कक्ष में ले गए जहाँ उन्होंने दान में ऋषि को अपनी पुत्री का हाथ दिया।

    जब राजा समझ गए कि ऋष्यशृंग पूर्णतः सन्तुष्ट हैं, तब महाराज रोमपाद ने उनसे एवं उनके पिता से अभयदान का वर माँगा ताकि वे दोनों उन्हें (ऋष्यशृंग को) छलपूर्वक घर से लाए जाने के कारण क्रोधित न हों।

    ऋष्यशृंग ने राजा को अभयदान दे दिया। तत्पश्चात् शांत के साथ उनका विवाह हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। विवाह समारोह समाप्त होने के पश्चात् नवपरिणीत दम्पती महाराज रोमपाद के महल में ही निवास करने लगे और इस तरह राजोचित सुख-वैभव के साथ आनन्दपूर्वक समय व्यतीत करने लगे।

    सुमन्त्र ने अपनी कथा समाप्त करते हुए राजा दशरथ से कहा : हे राजन् ! सनतकुमार ने भविष्यवाणी की थी कि आप अपने मित्र रोमपाद से सहायता लेंगे एवं उनसे आग्रह करेंगे कि वे कोशल राज्य में आकर ऋष्यशृंग को अश्वमेध यज्ञ संपादित करने की आज्ञा दें। ऐसा भी बताया गया है कि अश्वमेध यज्ञ के संपादन के पश्चात् चार अतुलनीय पुत्रों की प्राप्ति द्वारा आपकी कामना पूर्ण होगी।

    सुमन्त्र से यह कथा सुनकर महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब वे भी अविलम्ब अपने परिजनों को लेकर अंग राज्य गए। वहाँ उनका महाराज रोमपाद द्वारा भव्य स्वागत किया गया और उसी समय अंगदेश के राजा ने ऋष्यशृंग को सूचित किया कि उनके असली श्वसुर दशरथ हैं। लगभग एक सप्ताह तक रोमपाद के अतिथि-सत्कार का आनन्द लेने के पश्चात् महाराज दशरथ ने अपने मित्र से कहा : मैं दीर्घकाल से विषाद-ग्रस्त हूँ क्योंकि अपने प्रख्यात वंश को कायम रखने हेतु मुझे अभी तक पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई है। अतः मैं आपसे याचना करता हूँ कि आप ऋष्यशृंग को अयोध्या भेजकर मेरी ओर से अश्वमेध यज्ञ संपादित करने की आज्ञा दें।

    महाराज रोमपाद ने प्रसन्नतापूर्वक यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और महाराज दशरथ ऋष्यशृंग एवं शांत के संग शीघ्र ही अपनी राजधानी लौट आए। तत्पश्चात् वसन्त ऋतु के आगमन पर, महाराज दशरथ ने ऋष्यश्रृंग से अश्वमेध-यज्ञ संपादन सम्बन्धी निर्देशों के लिए याचना की। इस प्रकार यज्ञ के लिए आवश्यक प्रबन्ध किए जाने लगे तथा सरयू नदी के उत्तरी तट पर स्थित एक स्थान का चयन किया गया।

    अश्वमेध यज्ञ करवाने वाले राजा को अपने अधीनस्थ राजाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए युद्ध की चेतावनी के रूप में अपने सिपाहियों के साथ एक घोड़े (अश्व) को विश्वभर में भ्रमण करने के लिए छोड़ना होता है। घोड़े के किसी राज्य में पहुँचने पर वहाँ के राजा को अश्वमेध यज्ञ करवाने वाले राजा के प्रतिनिधि को उपहार देकर अपनी अधीनता स्वीकार करनी पड़ती थी अथवा वह घोड़े को पकड़कर युद्ध कर सकता था। किसी भी राजा को यह छूट थी कि वह या तो मौन रहकर घोड़े को भेजने वाले शासक का प्रभुत्व स्वीकार कर ले अथवा युद्ध के दावे को स्वीकार करके उस विशेष शासक के प्रभुत्व को नकार दे। दावे को स्वीकार करने वाले राजा को अश्वमेध यज्ञ करवाने वाले राजा के व्यक्तियों से युद्ध करके, अपना प्रभुत्व स्थापित करने हेतु विजय प्राप्त करनी होती थी। पराजित दावेदार को दूसरे राजा या शासक को जगह देने के लिए अपने जीवन की आहूति देनी पड़ती थी। विश्व-भ्रमण करने के पश्चात्, जब कोई दावेदार शेष नहीं रहता और घोड़ा लौटकर आता, तभी अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ हो सकता था।

    यह जानकर कि राजा जनक ही भविष्य में उनके पुत्रों के श्वसुर होंगे, महाराज दशरथ ने प्रथम निमन्त्रण उन्हें ही भेजा। उसी प्रकार अन्य अधीनस्थ राजाओं को भी यज्ञ में आने के लिए निवेदन किया। एक वर्ष की अवधि के पश्चात्, जब यज्ञ का घोड़ा 400 राजकुमारों के संरक्षण में सारी पृथ्वी का भ्रमण करने के पश्चात् लौटा तब यज्ञ प्रारम्भ हुआ।

    प्राथमिक रीतियों को सम्पन्न करने के पश्चात् राजा दशरथ की ज्येष्ठ रानी कौशल्या ने एक खूटे से बंधे हुए यज्ञ के घोड़े की परिक्रमा की। तब तलवार के तीन प्रहारों से, शास्त्रोचित निर्देशानुसार, उन्होंने घोड़े का शीश काटकर अलग कर दिया।

    तत्पश्चात् ऋष्यशृंग ने मृत घोड़े की चर्बी को यज्ञ-अग्नि में अर्पित किया। सभी पापों से मुक्त होने के उद्देश्य से महाराज दशरथ को धुंए को ग्रहण करने का आदेश दिया गया। तब सहायक पुरोहितों ने घोड़े के अंगों को अग्नि में समर्पित कर तीन दिवसीय यज्ञ की समाप्ति की। तब महाराज दशरथ ने पृथ्वी की चारों दिशाओं को चार मुख्य पुरोहितों को दान में दे दिया। किन्तु ब्राह्मणों ने यह उपहार लौटाते हुए कहा, हे राजन्, हम वैदिक अध्ययन एवं आत्मसंयम के पालन हेतु समर्पित हैं और हमें राज्य का शासन करने में कोई रुचि नहीं है। अतएव आप कृपया हमें उपहार में गौवें तथा स्वर्णादि प्रदान करें।

    तत्पश्चात् ऋष्यशृंग ने महाराज दशरथ के पास जाकर कहा, हे महाराज, निश्चय ही आपके चार यशस्वी पुत्र होंगे। तथापि, इस उद्देश्य के लिए मैं आपको पुत्रेष्टि नामक एक अन्य यज्ञ संपादित करने का परामर्श देता हूँ।

    महाराज दशरथ ने इस प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार कर लिया तब यज्ञ आरम्भ किया गया। इसी बीच उच्चतर लोकों में मुख्य देवतागण ब्रह्मा के पास जाकर बोले, हे पितामह, आपके आशीर्वाद से रावण इतना अधिक शक्तिशाली हो गया है कि वह स्वेच्छा से किसी को भी सताने लगा है। हम भी उस दुष्ट राक्षस को पराजित नहीं कर सकते हैं। अत: हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप स्वयं उसके विनाश का कोई उपाय निकालिए।

    भगवान् ब्रह्मा ने स्थिति पर विचार करके उत्तर दिया, मुझ से वरदान माँगते समय रावण ने मनुष्य के हाथों होने वाली मृत्यु से रक्षा के लिए कुछ भी नहीं माँगा, क्योंकि रावण की दृष्टि में मनुष्य अत्यन्त तुच्छ हैं। जब ब्रह्मा रावण के वध के उपायों पर विचार कर रहे थे, अकस्मात् अपने वाहन गरुड़ पर विराजित भगवान् विष्णु प्रकट हुए। अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान्, भगवान् विष्णु अपने चतुर्भुज रूप में पीत वस्त्र धारण किए तथा चक्र, शंख, गदा एवं कमल पुष्प को धारण किए हुए थे।

    देवताओं ने अत्यन्त श्रद्धा से भगवान् की आराधना की एवं उनसे आग्रह किया, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, कृपया आप हमारी रक्षा हेतु, रावण के वध के उद्देश्य से, महाराज दशरथ के चार पुत्रों के रूप में विस्तार करके अवतरित हों।

    भगवान् विष्णु ने कहा, विश्वास रखो, अब भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं शीघ्र ही तुम्हारे शत्रु एवं राक्षसों के राजा को पराजित करके, इस पृथ्वी पर 11,000 वर्षों तक शासन करूँगा। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गए तथा देवतागण आश्चर्यचकित रह गए।

    इस बीच, महाराज दशरथ की यज्ञ-अग्नि से एक असाधारण व्यक्ति प्रकट हुआ जो गहरे वर्णवाला था एवं जिसके शारीरिक लक्षण शुभद्योतक थे। यह व्यक्तित्व असीम शक्तिशाली प्रतीत होता था। उसने दिव्य आभूषण धारण किए हुए थे एवं उसके हाथ में खीर से भरा एक विशाल स्वर्णपात्र था। उस दिव्य पुरुष ने महाराज दशरथ से कहा, मैं भगवान् विष्णु का दूत हूँ। हाथ जोड़े हुए राजा ने उत्तर दिया, हे विष्णुदूत, कृपया मुझे बतायें कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।

    भगवान् विष्णु के सेवक ने कहा, खीर का यह पात्र आपके द्वारा सम्पन्न किए गए दो यज्ञों का फल है। इसे अपनी तीनों पत्नियों में वितरित कर दीजिए। उनके द्वारा आपको चार पुत्र प्राप्त होंगे, जो सदैव आपकी प्रसिद्धि को चिरस्थायी रखेंगे।

    महाराज दशरथ ने प्रसन्नतापूर्वक उस पात्र को ग्रहण किया तथा विष्णुदूत की परिक्रमा की। जब भगवान् विष्णु के दूत अन्तर्धान हो गए तब महाराज दशरथ ने शीघ्र ही वह खीर अपनी पत्नियों में वितरित की क्योंकि वे पुत्रप्राप्ति के इच्छुक थे।

    महाराज दशरथ ने कौशल्या को खीर का आधा भाग, सुमित्रा को एक चौथाई, एवं कैकेयी को आठवाँ भाग दिया। तत्पश्चात् कुछ सोचकर उन्होंने शेष आठवाँ भाग सुमित्रा को दिया। तीनों पत्नियाँ अत्यन्त प्रसन्न हुईं क्योंकि उन्हें विश्वास था कि अब वे शीघ्र मातृत्व सुख प्राप्त करने वाली हैं। तीनों रानियों ने उत्सुकतापूर्वक अपने अपने हिस्से की खीर खाई और उसके पश्चात् उन्होंने अपने गर्भ में दिव्य वंश की उपस्थिति का अनुभव किया। अपनी पत्नियों के गर्भवती होने की सूचना प्राप्त कर महाराज दशरथ अत्यन्त सन्तुष्ट हुए।

    इसी बीच भगवान् ब्रह्मा ने देवताओं को आदेश दिया, भगवान् विष्णु के होने वाले अवतार की सहायता हेतु आप सभी स्वयं के अंश स्वरूपों को उत्पन्न करें। वानरस्वरूप में आपके द्वारा उत्पन्न संतान (अप्सराओं, मादा-वानरों, मादा यक्षों, नागों, विद्याधरों एवं अन्य दिव्य जीवों के संसर्ग से) इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करने में समर्थ एवं चमत्कारी शक्तियों से सम्पन्न होनी चाहिए। साथ ही, उन्हें कुशाग्र बुद्धि वाले, शस्त्रविद्या में निपुण, भगवान् विष्णु के समान पराक्रम वाले एवं आकाशीय काया वाले होना चाहिए।

    भगवान् ब्रह्मा की आज्ञा पाकर इन्द्र ने वालि, सूर्य ने सुग्रीव, बृहस्पति ने तार, कुवेर ने गंधमाद, विश्वकर्मा ने नल, वरुण ने सुषेण तथा वायु ने हनुमान को जन्म दिया। इन मुख्य वानरों के अतिरिक्त सहस्रों अन्य वानरों ने भगवान् विष्णु के कार्य में सहायता हेतु जन्म लिया। वे सभी पर्वतों के समान विशाल थे एवं रावण से युद्ध करने के लिए व्याकुल थे। जिन देवताओं ने उन्हें उत्पन्न किया, इन वानरों ने भी उनके समान गर्भाधान के तुरन्त बाद जन्म लिया। वे सभी इतने शक्तिशाली थे कि अपनी शक्ति से सागर में भी उथल-पुथल मचा सकते थे।

    इस प्रकार निर्मित जीवों की तीन श्रेणियां थी: भालू, वानर और वे वानर जिनकी गाय के समान लम्बी पूँछ थी। चूँकि इन भालुओं एवं वानरों की संख्या एक करोड़ से भी अधिक थी, अतः वे पूरी पृथ्वी पर फैल गए। वे वनों में घूमते एवं वहाँ उपलब्ध फल-मूल खाते थे।

    पुत्रेष्टि यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात् देवतागण (जो स्वयं भेंट स्वीकार करने के लिए उपस्थित थे) एवं पुरोहित, ऋष्यशृंग तथा शांत अपने-अपने निवासों को लौट गए। बारह मास के गर्भ के पश्चात् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में नवमी के दिन कौशल्या ने एक बालक को जन्म दिया। इस दिव्य शिशु के नेत्र एवं अधर लाल थे, भुजाएं लम्बी थीं तथा वह सभी / मंगल चिह्नों से अलंकृत था। कौशल्या का पुत्र भगवान् विष्णु की आधी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता था।

    शीघ्र ही दशरथ की कनिष्ठतम रानी कैकेयी ने भगवान् विष्णु की एक चौथायी शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले एक पुत्र को जन्म दिया। फिर कौशल्या के पुत्र के आने के दो दिवस पश्चात् सुमित्रा ने जुड़वाँ बालकों को जन्म दिया जिनमें से प्रत्येक में भगवान् विष्णु की शक्ति का छठा भाग समाहित था। ये चारों शिशु एक-दूसरे से मिलते-जुलते, अत्यन्त तेजस्वी एवं आकर्षक थे। वस्तुतः महाराज दशरथ के पुत्रों के जन्म पर देवताओं ने स्वर्ग से पुष्प-वृष्टि की, गंधर्वो ने गीत गाए एवं मधुर वाद्ययंत्र बजाए तथा अप्सराओं ने नृत्य किया। अयोध्या में एक महोत्सव हुआ, मार्गों पर विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा, इस उत्सव में वादक, नर्तक तथा नागरिकों के साथ अभिनेताओं ने भी भाग लिया।

    (श्रील प्रभुपाद बताते हैं : देवताओं द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से प्रार्थना किए जाने पर भगवान् स्वयं अपने विस्तार एवं विस्तार के अंश के साथ साक्षात् प्रकट हुए। उनके पवित्र नाम राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न थे। इस प्रकार ये प्रसिद्ध अवतार राजा दशरथ के चार पुत्रों के रूप में आए। भगवान् रामचन्द्र तथा उनके भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न, ये सभी विष्णु-तत्त्व हैं। भगवान् अपना विस्तार अनेक रूपों में करते हैं। यद्यपि ये एक ही हैं तथापि विष्णु-तत्त्व अनेक स्वरूपों तथा अवतारों में होता है। भगवान् अनेक रूपों में विद्यमान हैं जैसे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न और ये रूप उनकी सृष्टि के किसी भी अंश में विद्यमान रह सकते हैं। ये सभी स्वरूप साक्षात भगवान् के समान नित्य, सनातन व्यक्तित्व हैं और समान शक्तिवाले अनेक दीपों के समान हैं । भगवान् रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न विष्णु-तत्त्व हैं अतः समान रूप से शक्तिशाली हैं। वे देवताओं द्वारा की गई प्रार्थना के फलस्वरूप महाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में प्रकट हुए।)

    कौशल्या के बालक के जन्म के तेरह दिवस पश्चात्, महाराज दशरथ । के कुल-पुरोहित वसिष्ठ मुनि ने नामकरण संस्कार सम्पन्न किया। उस भाग्यवान् ऋषि ने कौशल्या के पुत्र का नाम राम, कैकेयी के पुत्र का नाम भरत तथा सुमित्रा के जुड़वाँ पुत्रों का नाम लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखा।

    तत्पश्चात् वसिष्ठ ने महाराज दशरथ के पुत्रों के लिए सभी परिशोधन संस्कारों को संपादित करने का उत्तरदायित्व लिया जिनका अन्त उपनयन संस्कार के उपरान्त हुआ। वसिष्ठ के मार्गदर्शन में चारों भाई वेदों के ज्ञाता, महान् पराक्रमी तथा समस्त दैविक गुणों को धारण करने वाले हो गए।

    जन्म से ही, राम अपने भाइयों की अपेक्षा प्रत्येक क्षेत्र में अधिक प्रवीण थे। स्वभाविक रूप से वे महाराज दशरथ को सर्वाधिक प्रिय थे। उसी प्रकार बाल्यावस्था से ही लक्ष्मण को राम से बहुत प्रेम था। उसी प्रकार, राम को भी लक्ष्मण के बिना भोजन या शयन की इच्छा नहीं होती थी। जब राम आखेट के लिए जाते थे तब लक्ष्मण उनके साथ अवश्य होते। शत्रुघ्न एवं भरत को भी एक-दूसरे के प्रति बहुत प्रेम था, इस प्रकार वे अपृथक्करणीय थे।

    जब राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की शिक्षा पूर्ण हो गई तब महाराज दशरथ ने अपने कुल-पुरोहित वसिष्ठ से उनके विवाह के विषय में जिज्ञासा की। जिस समय यह सब चर्चा चल रही थी, उसी समय अयोध्या में महान् और पराक्रमी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र पहुँचे। जैसे ही उन्होंने महल में प्रवेश किया महाराज दशरथ एवं वसिष्ठ उनका अभिवादन करने हेतु अपने-अपने स्थान से उठ खड़े हुए।

    समुचित रीति से उनका सत्कार करने के पश्चात्, दशरथ उन्हें राजमहल में लाये तथा उन्होंने विश्वामित्र को सिंहासन पर बैठाया। महाराज दशरथ ने यह कहकर उनका अभिवादन किया, हे संतों में श्रेष्ठ, जन्म-मृत्यु के चक्र पर विजय प्राप्त करने के आपके समस्त प्रयास सफल हों। आपके यहाँ आगमन को मैं उसी प्रकार उपहारस्वरूप समझता हूँ जैसे किसी के हाथों में अमृत का रखे जाना, जैसे लम्बे सूखे के पश्चात् मूसलाधार वर्षा का होना, जैसे नि:संतान को संतानप्राप्ति होना, जैसे खोये हुए धन को प्राप्त कर लेना अथवा जैसे उत्सव के अवसर पर होने वाली प्रसन्नता की अनुभूति।

    तत्पश्चात् विश्वामित्र ने जब महाराज दशरथ से उनका कुशलक्षेम पूछा तब राजा ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, हे ऋषियों में श्रेष्ठ, आपका यहाँ आगमन मेरे प्रति आपकी विशेष कृपा है । वस्तुतः आपने मुझे महान् सम्मान प्रदान किया है। कृपया आप मुझे अपनी इच्छा से अवगत करायें जिससे कि मैं आपके आगमन का उद्देश्य पूर्ण कर सकूँ।

    महाराज दशरथ के आदर-सत्कार से प्रसन्न विश्वामित्र ने उत्तर दिया, "मैं एक महान् यज्ञ के संपादन में संलग्न था जो लगभग पूरा होने वाला था किन्तु मारीच एवं सुबाहु नामक दो राक्षसों ने यज्ञ-क्षेत्र में मांस और रक्त गिराकर यज्ञ के संपादन-कार्य में विघ्न उत्पन्न कर दिया। इन राक्षसों ने मेरे प्रयास को निष्फल करने की ठान ली है। अतः, वे मेरी वेदी को बारम्बार प्रदूषित करते हैं।

    हे राजन्, इन भयानक राक्षसों का वध करने के लिए मैं आपके पुत्र राम को अपने आश्रम ले जाने के लिए आया हूँ ताकि मैं अपना यज्ञ पूर्ण कर सकूँ। कृपया आप पितृस्नेहवश मेरे आग्रह को पूरा करने में किसी प्रकार का संकोच न करें, क्योंकि मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि राम इस कार्य को सरलता से कर सकते हैं। आपकी उदारता के लिए मैं निश्चित रूप से आपको वरदान दूंगा। अतः, आप मात्र दस दिनों के लिए राम को ले जाने की आज्ञा दें। आप निश्चिंत रहें, राम सुरक्षित रूप से वापस लौट आएंगे।

    विश्वामित्र के शब्दों ने महाराज दशरथ के हृदय को भेद दिया। राजा का समूचा शरीर कांपने लगा। इसके पश्चात् जब ऋषि चुप हो गए, राजा सिंहासन पर ही मूर्छित हो गए। कुछ क्षणों के पश्चात् महाराज दशरथ को चेतना आई, जब उन्होंने पुनः राम के वियोग का विचार किया तब फिर अचेत होकर धरती पर गिर गए।

    एक घंटे के पश्चात् जब उन्हें चेतना आई तब उन्होंने विश्वामित्र को देखकर याचना की, हे मुनियों में श्रेष्ठ एवं सबके हितैषी, मेरे प्रिय पुत्र राम की आयु मात्र सोलह वर्ष है। उसने अभी तक अपनी सैन्य-शिक्षा पूर्ण नहीं की है और कभी भी युद्धभूमि में प्रवेश नहीं किया है। कृपया मेरे अनुभवहीन पुत्र को इस कार्य के लिए न माँगें। इसके स्थान पर राक्षसों का वध करने के लिए मुझे अपनी अक्षौहिणी सेना सहित आपके साथ आने की आज्ञा दें। तथापि, यदि आप राम का जाना आवश्यक है तो मुझे एवं मेरी सेना को उसकी ओर से युद्ध करने की आज्ञा दें। मेरे आदरणीय विश्वामित्र, मैं वृद्ध हूँ। मैं राम के बिना जीवित रहने में अक्षम हूँ। कृपा करके मुझे बतायें कि वे दो राक्षस कौन हैं तथा उनके पराक्रम की सीमा क्या है?

    विश्वामित्र ने उत्तर दिया, राक्षसों के राजा का नाम रावण है और अब वह पूरे विश्व को सता रहा है। जब वह किसी यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने स्वयं नहीं जाता तब मारीच और सुबाहु को विघ्न उत्पन्न करने हेतु नियुक्त करता है।

    रावण का नाम सुनते ही महाराज दशरथ अत्यन्त निराश हो गए। उन्होंने कहा, रावण के साथ युद्ध करने योग्य कोई नहीं है। मेरे अथवा मेरे पुत्र के लिए ये दोनों राक्षस भी अति भयंकर हैं। मैं ऐसी आज्ञा नहीं दे सकता। वस्तुतः मैं अपने पुत्र को आपके संग जाने की आज्ञा देने के विचार को भी सहन नहीं कर सकता।

    दुःख से विक्षिप्त महाराज दशरथ विश्वामित्र के आग्रह को नकारते हुए असंगत वाणी बोलने लगे। अतः ऋषि विश्वामित्र अति अपमानित हुए एवं क्रोध में आकर बोले, अरे मूर्ख राजा, तुम्हारी यह धृष्टता तुम्हारे वंश के विनाश का कारण बन जाएगी। तुमने मेरी बात मानने की प्रतिज्ञा की है, और अब अपने वचन से मुँह मोड़ रहे हो। एक ब्राह्मण के प्रति ऐसा व्यवहार रघुवंश में इससे पहले कभी नहीं देखा गया है। अतः इस घृणित स्थान से मैं तुरन्त प्रस्थान करूँगा।

    विश्वामित्र के इस प्रकार अकस्मात् क्रोधित होने से धरती हिल उठी, यहाँ तक कि स्वर्ग में देवतागण भी भयभीत हो गए। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए वसिष्ठ शीघ्र महाराज दशरथ के पास जाकर बोले, "हे राजन् ! धर्म-परायणता को त्यागकर अपने पूर्वसंचित पुण्यों का नाश न करें। आपने दृढ़ प्रतिज्ञा की है अतः आपको विश्वामित्र के राम को ले जाने के आग्रह को स्वीकार कर लेना चाहिए।

    मुझे नहीं लगता कि आपको किसी कारण से भयभीत होना चाहिए। पहले जब विश्वामित्र राजा थे, उन्होंने भगवान् शिव से वे दिव्य शस्त्र प्राप्त किए थे, जो दक्ष की पुत्रियों जया एवं सुप्रभा द्वारा उत्पन्न किए गए थे। विश्वामित्र निश्चय ही ये शस्त्र एवं राक्षसों के संहार की शक्ति राम को प्रदान करेंगे। वस्तुतः मारीच एवं सुबाहु का तो विश्वामित्र स्वयं सरलता से वध कर सकते थे, किन्तु वह राम की सहायता इसलिए चाहते हैं ताकि आपके पुत्र के गौरव में वृद्धि हो।

    अपने गुरु के शब्द सुनकर, महाराज दशरथ का भय कम हुआ, उन्होंने अपने मन को संतुलित होने का समय दिया। इस प्रकार शांत हो जाने पर महाराज दशरथ, विश्वामित्र के प्रस्ताव से सहमत हो गए।

    महाराज दशरथ ने श्री राम को राजसभा में बुलवाया। दोनों भाई सदैव एक साथ रहते थे अतः श्री लक्ष्मण भी अपने पिता के समक्ष उपस्थित हो गए। महाराज दशरथ ने अपने दोनों पुत्रों के सिर को स्नेहवश स्पर्श किया, तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने प्रस्थान किया। हाथ में अपने-अपने धनुष लिए श्री राम एवं श्री लक्ष्मण विश्वामित्र के पीछे चल पड़े। जब दोनों भाइयों ने महल से प्रस्थान किया तब उनके ऊपर आकाश से पुष्पवृष्टि हुई।

    सरयू नदी के तट पर बारह मील की दूरी तय करने के पश्चात् विश्वामित्र रुककर बोले, मेरे प्रिय राम, शुद्धिकरण के लिए जल से आचमन करो। मैं तुम्हें बल तथा अतिबल नामक दो मंत्र सिखाऊँगा। इन मंत्रों को सीखने के पश्चात् तुम वृद्धावस्था एवं थकान के प्रभाव से मुक्त हो जाओगे, तथा अतुलनीय बुद्धि और शक्ति प्राप्त करोगे। यद्यपि मुझे ज्ञात है कि ये गुण तुम्हारे में पहले से ही विद्यमान हैं, तथापि तुम्हारे लाभ हेतु मैं ये मंत्र तुम्हें सिखाना चाहता हूँ।

    मंत्र ग्रहण करने के पश्चात् भगवान् राम सहस्रों सूर्यों के तेज के समान देदीप्यमान् हो उठे। उन तीनों ने सरयू एवं गंगा नदी के तट पर प्रसन्नतापूर्वक रात्रि व्यतीत की। वहाँ स्थित ऋषियों के आश्रम को देखकर राम ने उसके विषय में जिज्ञासा की। तब विश्वामित्र ने उत्तर दिया, यही वह स्थान है जहाँ भगवान् शिव ने कामदेव को उस समय भस्म कर दिया जब उन्होंने शिव की समाधि भंग करने का प्रयास किया था।

    अगले दिन प्रातःकाल, विश्वामित्र एवं दोनों भाइयों ने गंगा नदी पार की। नदी पार करते हुए राम ने किसी जल-प्रपात का उच्च स्वर सुना, परन्तु वहाँ उस स्वर के सुनाई देने का कोई कारण नहीं दिखाई दिया। विश्वामित्र से इसका कारण पूछने पर उन्होंने बताया, एक बार ब्रह्मा ने अपने मन से यहाँ एक जल-प्रपात का निर्माण किया था। जल का यह स्रोत मानसरोवर के नाम से जाना गया। सरयू नदी इसी सरोवर से निकलती है और जो स्वर तुम्हें सुनाई दे रहा है वह मानसरोवर से उतरकर गंगा में मिलने वाले जल का स्वर है। हे राम, तुम्हें इस पवित्र स्थान की वन्दना करनी चाहिए और इसे प्रणाम करना चाहिये।

    गंगा के दक्षिणी तट पर पहुँचकर राम ने एक घना, निर्जन वन देखा और पूछा, यह निर्जन वन देखने वाले के हृदय में भय उत्पन्न करता है। कृपया मुझे इसका कारण बतायें।

    विश्वामित्र ने बताया, "जब इन्द्र ने वृत्रासुर नामक दुष्ट राक्षस की हत्या की तब उस पापमय प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वे अपना तेज खो बैठे। इन्द्र को उनकी सामान्य अवस्था में लाने हेतु देवताओं ने वेद-मंत्रों की शक्ति से युक्त गंगाजल से उन्हें स्नान करवाया। स्नान करवाने के पश्चात् उस अशुद्ध जल को देवताओं ने इस स्थान पर गिरा दिया।

    "चूँकि इस धरती ने उनकी पापमय प्रतिक्रियाओं को स्वीकार किया था, अतः इन्द्र ने यह वरदान दिया कि भविष्य में यह एक वैभवशाली देश होगा। इस प्रकार यहाँ मलद और करुष नामक दो राज्यों की स्थापना हुई। तत्पश्चात्, ताटक नाम की एक दुष्ट राक्षसिनी यहाँ आई और प्रजा को सताने लगी। यह राक्षसिनी सुंद की पत्नी है और मारीच इसी का पुत्र है, जिसका वध करने के लिए मैं तुम्हें यहाँ लेकर आया हूँ

    यहाँ के निवासियों को ताटक ने इतना उत्पीड़ित किया कि शनैः शनैः यह स्थान निर्जन हो गया। मेरे प्रिय राम, तुम आज इस राक्षसिनी का वध करके इस देश को उत्पीड़न से मुक्ति दिलवाओ। जब तक यह राक्षसिनी जीवित रहेगी कोई भी इस वन में जाने का साहस नहीं कर सकता है।

    भगवान् राम ने पूछा, हे ऋषि, यदि उचित हो तो कृपया हमें समझाएँ कि यह राक्षसिनी इतनी शक्तिशाली कैसे बनी।

    विश्वामित्र ने बताया, एक बार सुकेतु नामक एक शक्तिशाली यक्ष ने अपनी कठोर तपस्या के फलस्वरूप भगवान् ब्रह्मा को प्रसन्न किया। निः संतान होने के कारण सुकेतु ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट की, किन्तु इसके स्थान पर ब्रह्मा ने उसे एक शक्तिशाली पुत्री का वरदान दिया। इस सुन्दर कन्या का नाम ताटक पड़ा, और युवा होने पर जंभ के पुत्र सुंद के साथ उसका विवाह हुआ। तत्पश्चात्, अगस्त्य ऋषि ने सुंद को मृत्यु का शाप दे दिया। प्रतिकार करने के प्रयास में ताटक एवं उसका पुत्र मारीच, ऋषि की हत्या करने के विचार से उनके पास पहुँचे। किन्तु अगस्त्य ने उन्हें (माता एवं पुत्र को) नरभक्षी राक्षस बन जाने का शाप दे दिया। इस प्रकार सुंदर ताटक एक भयंकर राक्षसिनी बन गई। चूँकि अगस्त्य ऋषि इस क्षेत्र में ध्यान किया करते थे, अतएव ताटक यहाँ विघ्न उत्पन्न करती रहती है।

    विश्वामित्र ने आगे बताया, मेरे प्रिय राम, ऐसा जानो कि ताटक पूर्णतः दुष्ट है। अतः स्त्री-हत्या के संकोच को छोड़ दो। याद करो कि इन्द्र ने विरोचना की पुत्री का कैसे वध किया था, जब उसने पृथ्वी को नष्ट करने की इच्छा की थी। उसी प्रकार भगवान् विष्णु ने तब भृगुमुनि की पत्नी का वध कर दिया जब उसने इन्द्र की हत्या करनी चाही। अतः अपनी व्यग्रता को त्याग, मेरी आज्ञा का पालन करने हेतु स्वयं को तैयार करो।

    यह आज्ञा पाकर, श्री राम ने अपना धनुष ताना। उसकी भयंकर ध्वनि से चारों दिशायें प्रतिध्वनित हो उठीं, जिसे सुनकर सभी जीव भयभीत हो गए। जब भगवान् राम के धनुष की ध्वनि ताटक ने सुनी, तब उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ, साथ ही साथ वह अत्यन्त क्रोधित हो गई। वह उन्मत्त होकर इस भयंकर ध्वनि के उद्गमस्थल की ओर तीव्र गति से बढ़ने लगी।

    जब श्री राम ने उसे आते देखा, तब उन्होंने कहा, हे लक्ष्मण, जरा इस वीभत्स और महाकाय राक्षसिनी को देखो! यह इतनी भयंकर है कि पवित्र हृदय वाले इसे देखते ही अचेत हो जाएँ। तथापि, चूँकि यह स्त्री है, मैं इसका वध नहीं करूंगा। मैं इसके हाथ, पैर, नाक और कान काटकर छोड़ दूंगा जिससे यह अहानिकर हो जाएगी। इस प्रकार से अंग-भंग हो जाने पर, यह और अपराध करने के योग्य नहीं रह पाएगी।

    आगे बढ़ते हुए, ताटक ने धूल की आँधी उड़ाई जिससे कुछ क्षण के लिए श्री राम और श्री लक्ष्मण देख पाने में असमर्थ से हो गए। तब अपनी मायावी शक्ति से, ताटक ने पत्थरों की वर्षा आरम्भ कर दी। अपनी पूर्वस्थिति में आकर श्री राम ने सारे पत्थरों को नष्ट करके शीघ्र ही ताटक की भुजायें काट दीं। उसी समय लक्ष्मण ने उसके कान तथा राम के आदेश पर उसकी नाक का अग्रभाग भी काट दिया। किन्तु अपनी मायावी शक्ति का उपयोग कर वह अदृश्य हो गई। अदृश्य अवस्था में ही दिन उसने पुनः पत्थरों की वर्षा आरम्भ की। विश्वामित्र ने अधीरतापूर्वक याचना की, हे राम, सन्धिप्रकाश की बेला आने ही वाली है और इस काल में राक्षसों का पराक्रम अत्याधिक हो जाता है। अतः अपनी यह दयालु प्रवृत्ति त्यागकर ताटक का वध कर दो।

    जैसे ही श्री राम ने बाणों की बौछार आरम्भ की, ताटक प्रकट हुई और उनकी ओर बढ़ने लगी। अविचलित श्री राम ने विशेषरूप से शक्तिशाली एक स्वर्णबाण अपने तरकश से निकाला एवं उस राक्षसिनी पर वार किया। तथापि ताटक इन्द्र के वज्र की गति से आगे बढ़ी, किन्तु श्री राम के एक ही उग्र बाण ने ताटक की छाती भेद दी जिसके फलस्वरूप वह भयंकर ध्वनि के साथ भूमि पर गिर कर मर गई।

    स्वर्ग से देवतागण स्तुति और पुष्पवृष्टि करने लगे। गंधर्व और अप्सराएँ गीत गाने लगे तथा आनन्द विभोर होकर नृत्य करने लगे और ऋषियों ने भगवान् राम के पराक्रम की सराहना की।

    इन्द्रसहित सभी देवता विश्वामित्र के पास एकांत में जाकर बोले, हे ऋषि, चूँकि श्री राम को हमारी ओर से एक महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करना है अतः आप उन्हें अपने दिव्य अस्त्रों का ज्ञान प्रदान करें।

    यह कहकर देवता

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