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धीरज की कलम से...: Fiction, #1
धीरज की कलम से...: Fiction, #1
धीरज की कलम से...: Fiction, #1
Ebook151 pages57 minutes

धीरज की कलम से...: Fiction, #1

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About this ebook

इस पुस्तिका की लेखिका धीरज जी का जन्म 8 अक्टूबर 1948 को हुआ था, इन्होंने अपनी प्रथम शिक्षा झरिया के. सी स्कूल तथा धनबाद महिला विद्यालय में प्राप्त की। बचपन से ही कहानियां पढ़ने का बहुत शौक था और वही शौक कब लिखने में बदल गया पता ही नहीं चला। जब समय मिलता लिखने बैठ जाती थी। उन्होंने इस पुस्तक में अपने अनुभव तथा संवेदना को व्यक्त किया है। उम्मीद है आप सबको यह कविता, कथा-कहानियां अपनी सी लगेंगी। धन्यवाद , दिल से आभार।

 

मैं लेखिका नहीं हूँ। फिर भी मैंने अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की कोशिश की है। मैं अभी ७० वर्ष की हूँ। बचपन से ही मुझे पढ़ने-लिखने का शौक रहा है। और इसलिए मैं अपनी इच्छा पूरी करने जा रही हूँ। इस छोटी सी पुस्तिका के माध्यम से मैं अपने जीवन के कुछ पल कुछ संवेदनाऐं, कुछ भावनाऐ जो अच्छी भी है और बुरी भी है, उनको आप लोगों के सम्मुख रख रही हूँ। छोटी कहानियाँ भी हैं, कविताएँ भी है, और कुछ विचार भी ।

कभी किसी से कुछ सुनकर, कभी पढ़कर, कभी टी.वी के कार्यक्रम देखकर और सबसे अधिक तो जीवन के अनुभवों से प्रेरणा मिली। मुझे मेरी बेटीयों ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरे तीनों दामाद और तीनों बेटीयों का मैं सदा आभारी रहूँगी। क्योंकि उनके कहने से ही मैंने ये साहँस किया है। आशा करती हूँ यह पुस्तिका आप को जरूर पसंद आयगी।

Languageहिन्दी
Release dateOct 7, 2023
ISBN9789394807846
धीरज की कलम से...: Fiction, #1

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    धीरज की कलम से... - Deeraj Joshi

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    ISBN: 978-93-94807-84-6

    ewY;% ₹499.00 #i;s

    izFke laLdj.k&2023

    © & ® 'DPJ'

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    AUTHORS TREE PUBLISHING

    KBT MIG - 8, Housing Board Colony, Near Colonel Academy School, Bilaspur, Chhattisgarh 495001, India.

    Mobile: +91 91098 86656

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    ––––––––

    यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि लेखक या प्रकाशक की लिखित पूर्वानुमति के बिना इसका व्यावसायिक अथवा अन्य किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे पुनः प्रकाशित कर बेचा या किराए पर नहीं दिया जा सकता तथा जिल्दबंद या खुले किसी भी अन्य रूप में पाठकों के मध्य इसका परिचालन नहीं किया जा सकता। ये सभी शर्तें पुस्तक के खरीदार पर भी लागू होंगी। इस संदर्भ में सभी प्रकाशनाधिकार सुरक्षित हैं।

    इस पुस्तक का आंशिक रूप में पुनः प्रकाशन या पुनः प्रकाशनार्थ अपने रिकॉर्ड में सुरक्षित रखने, इसे पुनः प्रस्तुत करने की पद्धति अपनाने, इसका अनूदित रूप तैयार करने अथवा इलैक्ट्रॉनिक, मैंकेनिकल, फोटोकॉपी और रिकॉर्डिंग आदि किसी भी पद्धति से इसका उपयोग करने हेतु समस्त प्रकाशनाधिकार रखनेवाले अधिकारी तथा पुस्तक के लेखक या प्रकाशक की पूर्वानुमति लेना अनिवार्य है।

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    DPJ

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    स्व. प्रवीन  जोशी (C.A.) को सादर प्रणाम करते हुए, उन्हें ये पुस्तक सप्रेम  समर्पित करती हुँ।

    C:\Users\admin\Downloads\2nd pic with daughters.jpg

    मेरी लाडली तीनो बेटीयों को आशिर्वाद

    के साथ धन्यवाद देती हूँ, जिनकी प्रेरणा से

    ये पुस्तक लिख सकी हूँ।

    अनुक्रमणिका

    || ओम गणेशाय नम । । ओम सरस्वती देवी

    प्रस्तावना

    मैं लेखिका नहीं हूँ। फिर भी मैंने अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की कोशिश की है। मैं अभी ७० वर्ष की हूँ। बचपन से ही मुझे पढ़ने-लिखने का शौक रहा है। और इसलिए मैं अपनी इच्छा पूरी करने जा रही हूँ। इस छोटी सी पुस्तिका के माध्यम से मैं अपने जीवन के कुछ पल कुछ संवेदनाऐं, कुछ भावनाऐ जो अच्छी भी है और बुरी भी है, उनको आप लोगों के सम्मुख रख रही हूँ। छोटी कहानियाँ भी हैं, कविताएँ भी है, और कुछ विचार भी ।

    कभी किसी से कुछ सुनकर, कभी पढ़कर, कभी टी.वी के कार्यक्रम देखकर और सबसे अधिक तो जीवन के अनुभवों से प्रेरणा मिली। मुझे मेरी बेटीयों ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरे तीनों दामाद और तीनों बेटीयों का मैं सदा आभारी रहूँगी। क्योंकि उनके कहने से ही मैंने ये साहँस किया है। आशा करती हूँ यह पुस्तिका आप को जरूर पसंद आयगी।

    C:\Users\admin\Downloads\3rd pic with papa.jpeg

    जीवन साथी प्रवीण जोशी के साथ।

    आधुनिक जीवन

    यह मेरा प्रथम प्रयास है,

    संवेदनाओं को व्यक्त करने का,

    जो आप में है मुझमें है,

    पशुओं और पक्षियों में है ।

    मैंने देखा वेदना से भरी,

    नारी के साथ गायों की आँखो को,

    देखा बलात्कारी पुरूषों की आँखो में,

    हिंसक पशुओं की आँखों का खुन्नस ।

    मैं अनुभव कर सकती हूँ,

    बच्चों की किलकारियों को,

    वन में हिरनों की दौड़ को,

    मैं सुन सकती हूँ,

    पतझड़ की आवाज को,

    और बुजुर्गों के निस्वास को,

    कोई किसी से कुछ नहीं कहता ।

    सब एक मोहरा चढ़ा के जी रहें,

    और वेदना, संवेदना की बातें कर रहे हैं।

    एक सच

    मैंने देखा पेड़ से

    एक पीले पत्ते को गीरते हुए,

    पत्ता गिरा जमीन पर,

    धुल के साथ इधर-उधर उड़ने लगा,

    तभी मैंने देखा कुछ बच्चे आए,

    पत्ते को पैरों से कुचला और चले गये ।

    अचानक मेरी नजर उसी पेड़ पर पड़ी,

    सोचा था वह पीड़ा से कराहता होगा ।

    लेकिन नहीं,

    वहाँ तो टहनी पर एक नया पत्ता आ चुका था,

    मैं भी मुस्कुरा पड़ी नियती के इस विषमचक्र को देख कर,

    और तब से मैं निस्पृह हो गयी ।

    अनबुझे प्यास

    बचपन से ही प्यासी थी,

    सामने भरा गिलास मिला

    डर से कहीं टुट न जाए,

    छू कर आगे निकल गई

    मन में अनबुझ प्यास लिए

    जीवन जीती चली गई

    दुनिया

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