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कहानियाँ सबके लिए (भाग 8)
कहानियाँ सबके लिए (भाग 8)
कहानियाँ सबके लिए (भाग 8)
Ebook265 pages2 hours

कहानियाँ सबके लिए (भाग 8)

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About this ebook

ये काम हो गया
कैसी ज़िंदगी
वो आंखें
मत रोना
नयी यातना
उसकी सुंदरता
क़त्ल
चक्कर
ऐसा धैर्य
मत कहो
लोग ऐसे भी
मेहमान
औरत की कहानी
आप तुम तू
बैठ जाइये
गलती है!
अपना आसमान
प्यार आत्माओं का
अज़नबी नहीं
रहा नहीं जाता
खुश है
एड्रेस
वो सुन्दर लगा
अलग (सच्ची कहानी)
ऐमी
अनंत प्रेम
अन्धेरा चाँद
आंसू
कहानी अनकही
अंतिम चिट्ठी
अपना स्वार्थ
घोंसला
बोझ अरमानो का

ये कहानी वाला समूह के विभिन्न लेखकों के द्वारा लिखी गयी अनेकों विषयों पर बहुत ही रोचक कहानियाँ है। इस श्रंखला में आपको करीब तीस पुस्तकें मिलेंगी। ये सभी कहानियाँ आप अपने मोबाइल, कंप्यूटर, आई पैड या लैपटॉप पर सिर्फ कुछ पैसे चुकाकर ही पढ़ सकते हैं।

इस संग्रह को आप डाउनलोड करके सेव भी कर सकते हैं बाद में पढ़ने के लिए। हमें आपके सहयोग की जरूरत है इसलिए इन कहानियों को अपने मित्रों के साथ भी सांझा कीजिये!

धन्यवाद

कहानी वाला

Languageहिन्दी
PublisherRaja Sharma
Release dateJan 10, 2023
ISBN9798215606780
कहानियाँ सबके लिए (भाग 8)

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    कहानियाँ सबके लिए (भाग 8) - कहानी वाला

    ये काम हो गया

    वो उस परिवार की फ्रेम की हुई सुन्दर तस्वीर को कुछ देर तक देखती रही। फिर उसने उस फोटो फ्रेम को कपडे से साफ़ करके धूल झाड़ दी। उसने फोटो को वापिस मेज पर रख दिया। उसके चेहरे पर एक खतरनाक मुस्कान थी।

    उस दिन उसका काम पूरा हो गया था और अब घर पूरी तरह शांत था। घर में किसी भी और इंसान का नामो निशान नहीं था। उसने हर एक कमरे को और फर्श को अच्छे से धो धो कर साफ़ कर दिया और जब सफाई का काम पूरा हो गया तो उसने सफाई के सभी यंत्र इत्यादि अपने बड़े से बैग में रख लिए।

    उसने घर के एक एक कोने में जा जाकर हर चीज को ध्यान से देखा और दरवाजे के सभी हैंडल और जिस जिस चीज को उसने छुआ था सबको कपडे से साफ़ कर दिया। जब अपनी सफाई के काम से वो पूरी तरह संतुष्ट हो गयी वो मुस्कुराने लगी। घर चमचम कर रहा था।

    वो लिविंग रूम में गयी और एक आराम कुर्सी में आराम से बैठ गयी। तभी वो उठी और सामने की किताबो की अलमारी से एक किताब उठाकर ले आयी और उस आराम कुर्सी में बैठकर आराम से पढ़ने लगी। अचानक ही उसके फ़ोन की घंटी बजने लगी। दो बार बजने के बाद उसने अपने जेब से मोबाइल फ़ोन निकाल लिया।

    दूसरी तरफ से एक गंभीर आवाज आयी,जॉब पूरा हो गया। सब ठीक ठाक हो गया है।

    वो बोली,हाँ सब ठीक हो गया है। घर पूरी तरह से साफ़ करके चमका दिया है।

    दूसरी तरफ से आवाज फिर आयी,ठीक है अब तुम घर चली जाओ। अब कुछ दिन आराम करो! जल्दी ही तुमको अगला जॉब बता दिया जाएगा। अपने सफाई के यंत्र तैयार रखना!

    जी मैं समझ गयी! वो फ़ोन बंद करके फिर से अपने जेब में डालते हुए उठ खड़ी हुई।

    उसने किताब वापिस किताबों की अलमारी में रख दी। उसने एक बार फिर से कमरे में चारों तरफ देखा और फिर अपने बैग को कंधे से लटकाकर घर से बाहर चली गयी। वो अगला जॉब करने से पहले कुछ दिन आराम करने वाली थी।

    बस यही है कहानी। लेकिन आप ये कहेंगे के ये भी कोई कहानी हुई! जी हाँ समझने वाले के लिए इशारा ही काफी होता है! वो एक पेशेवर हत्यारिन थी जिसको नए नए जॉब के आदेश उसके बॉस की तरफ से मिलते थे!

    Chapter 2

    कैसी ज़िंदगी

    वो सड़क के किनारे खड़ी आने जाने वाली गाड़ियों के ड्राइवरों को आँखों से इशारे करती हैं। वो गाड़ियां हर शाम को ही अक्सर उस विशेष इलाके से गुजरते हुए धीमी हो जाती हैं।

    सड़क के दोनों तरफ भारी मेकअप किये हुई चटकीले कपड़ों में सजी बहुत सी लडकियां और औरतें हर शाम को ही आने जाने वाली गाड़ियों का इंतजार करती हैं।

    ये दृश्य है मध्य प्रदेश में मंदसौर से नीमच की तरफ जाने वाले हाईवे का है। हर शाम को ही पास के एक छोटे से गाँव से बहुत सी लडकियां सड़क के किनारे आकर खड़ी हो जाती हैं और ग्राहकों को आकर्षित करके अपना मूल्य लगवाती है।

    ऐसी ही लड़कियों में एक सोलह बरस की लड़की माधुरी भी है। माधुरी को इतनी छोटी सी उम्र में ही इस दलदल में धकेल दिया गया है।

    उसके अपने परिवार के लोगों ने ही उसको इस काम को करने के लिए बाध्य किया था। उसको परिवार के दबाव में इस काम में आना पड़ा था।

    बचपन से ही वो लड़की माधुरी अपने आस पास की बहुत सी बड़ी लड़कियों और औरतो को हर शाम को ही सजधज कर अलग अलग मर्दों के साथ देखती चली आयी थी लेकिन उसको ये उम्मीद तो कभी भी नहीं थी के उसको भी एक दिन ऐसा ही करना होगा और वो भी हाईवे के किनारे मर्दों को आकर्षित करने के लिए खड़ी होगी!

    शुरू शुरू में तो माधुरी ने बहुत विरोध किया था क्योंकि वो तो पढ़ाई करना चाहती थी और कुछ अच्छा करना चाहती थी लेकिन उसके ही परिवार के लोग और समाज के लोग उसको बार बार कहते थे के लड़कियों को इस तरह मर्दों के साथ जाना उनके समाज की परंपरा थी और वो उस परंपरा को जारी रखना चाहते थे।

    माधुरी को ये भी कहा गया के उसकी नानी और उसकी माँ ने भी जवानी में वो काम किया था और बच्चों को उन कमाए हुए पैसों से पाला था।

    परिवार के लोगों ने उसको कहा था के अगर उसने अपने शरीर को ग्राहकों को नहीं बेचा तो वो लोग कुछ ही दिनों में भूखे मरने लगेंगे।

    माधुरी के छोटे छोटे भाई बहन थे और वो उनके चेहरों को देखकर अपनी इच्छा को मारकर उस दलदल में कूद गयी थी और खुद को बेचना शुरू कर दिया।

    माधुरी मध्य प्रदेश के बाछड़ा समुदाय की एक लड़की है। इस समाज में लड़कियों को देह व्यापार में लगाने की परंपरा है और आज भी जवान लड़कियों को परंपरा का वास्ता देकर ही देह व्यापार में शामिल कर दिया जाता है।

    गाँव के बुजुर्ग कहते है के उनकी ये परंपरा सदियों से चली आ रही है और वो उसको तोड़ नहीं सकते हैं।

    बाछड़ा संप्रदाय के लोग पहले बंजारे ही थे और वो किसी एक गाँव या एक जगह पर नहीं रुकते थे। वो हर रात को सड़क के किनारे अलग अलग जगहों पर डेरा डाल लेते थे।

    बहुत पहले की एक कहानी सुनाते हुए इस समुदाय के बुजुर्ग कहते है के एक बार उनके समुदाय पर चोरी का आरोप लग गया।

    थानेदार ने उन लोगों से कहा के उनको जेल जाना पड़ेगा। तभी उसने बछड़ा समुदाय के लोगों के बीच एक बहुत सुन्दर लड़की देखी।

    उस थानेदार ने उनको कहा के अगर वो लोग एक रात के लिए वो लड़की थानेदार को दे देंगे तो वो उनको जेल में बंद नहीं करेगा।

    बस उस दिन के बाद उस समुदाय के मर्दों को मालूम चल गया के लड़कियां उनकी जान बचा सकती है। कहते हैं के वर्षों पहले हुई उस घटना के बाद उस समुदाय के मर्दों ने काम करना ही छोड़ दिया और लड़कियों और औरतों को देह व्यापार के काम में लगा दिया।

    आज मध्य प्रदेश के नीमच, मंदसौर, और रतलाम में इसी बाछड़ा समुदाय के करीब बहत्तर गाँव है। इन गावों में से अड़सठ गावों में खुले आम देह व्यापार होता है।

    एक अनुमान के अनुसार बाछड़ा समुदाय की आबादी करीब पैंतीस हज़ार है और इनमें से करीब सात हज़ार औरतें और लडकियां वैश्यावृत्ति करती हैं।

    करीब चौदह वर्ष की लड़की को ही इस काम में लगा दिया जाता है। एक एक लड़की के पास एक दिन और एक रात में करीब दस से बारह ग्राहक आते हैं। छोटी सी उम्र से ही ये लड़कियां एक दिन में दो हज़ार या अधिक रूपए कमाने लगती हैं।

    माधुरी इस काम को आगे नहीं करना चाहती थी। अपने वैश्यावृत्ति के जीवन के दौरान ही उसने एक बच्ची को जन्म दिया। बस उसके बाद से ही उसने संकल्प कर लिया के वो अपनी बेटी को किसी भी हाल में इस काम में नहीं आने देगी।

    माधुरी बताती हैं के रोग लगने का भय तो रहता ही था पर सबसे बड़ा भय गर्भवर्ती होने का होता था। उन्ही दिनों माधुरी एक सामाजिक संस्था 'जन साहस'' के संपर्क में आयी। उस संस्था ने माधुरी को अपने दफ्तर में काम दिया और वो इस तरह से दलदल से बाहर आ गयी।

    माधुरी कहती है के पुलिस भी चाहती है के ये परंपरा चलती रहे और लडकियां सड़क के किनारे देह व्यापार करती ही रहे। पुलिस को इन लड़कियों से हर हफ्ते पैसे मिलते हैं और जब चाहें शरीर भी मुफ्त में मिल जाते है।

    अब माधुरी अन्य लड़कियों को भी इस दलदल से निकालने का काम करती है और उनको शिक्षा से जोड़ने का हर संभव प्रयास करती है। माधुरी इस खराब और घृणित परंपरा का अंत करना चाहती है।

    आप अगर सभ्य समाज से हैं तो आपके मन में ये प्रश्न तो जरूर उठता होगा,ऐसी कैसी ज़िन्दगी?

    Chapter 3

    वो आंखें

    चेहरे पर इस की आँखें बहुत अजीब थीं। जैसे उस का सारा चेहरा अपना हो और आँखें किसी दूसरे की जो चेहरे पर पपोटों के पीछे महसूर कर दी गईं।

    इस की छोटी नोकदार ठोढ़ी, पिचके लबों और चौड़े चौड़े किलों के ऊपर दो बड़ी बड़ी गहिरी स्याह आँखें अजीब सी लगती थीं।

    पूरा चेहरा एक चालाक ज़हीन, शातिर, ख़ुद-ग़रज़ और कमीने आदमी का था ऐसा चेहरा जो पैंतीस बरस बाद अक्सर उन इन्सानों के यहां मिलता है जो नौजवान होते ही ग़लत धंदों में पड़ जाएं।

    इसी लिए मुझे उस की आँखों से बड़ी दिलचस्पी पैदा हो गई। मालूम नहीं कहाँ से चुराई थीं ज़ालिम ने ये आँखें!

    मैं इस की दुकान पर अपनी क़मीज सिलवाने गया था। कोलूओन में इस की कपड़ों की बहुत बड़ी दुकान थी। बाहर तख़्ता लगा था: यहां जोड़ा चौबीस घंटे में तैयार किया जाता है।

    तख़्ते ने मुझे दुकान के अंदर जाने पर माइल किया। एक तो ये थी, दूसरी वजह उस का नाम था जो तख़्ते पर बड़े बड़े हुरूफ़ में लिखा था: परोप्राइटर बी. डी. इसरानी।

    वो बी. डी. इसरानी था और मैं जी. डीइसरानी! नामों की मुमासिलत ने भी मुझे इस दुकान के अंदर जाने पर मजबूर कर दिया।

    वो उम्दा कपड़े पहने, मुँह में लंबा सिगार दाबे, हाथों में हीरे की दो अँगूठीयां पहने बढ़िया तंबाकू का ख़ुशगुवार धुआँ छोड़ते अपनी कुशादा दुकान में इधर उधर घूम रहा था। पहले तो उसने मेरा कोई ख़्याल नहीं किया।

    लेकिन आर्डर लेते वक़्त जब उसने मेरा नाम मालूम किया, तो ख़ुशी से चौंक पड़ा हम दोनों सिंधी थे और एक ही ज़ात वाले और ये हांगकांग था, वतन से इस क़दर दूर! चंद मिनटों में हम एक दूसरे से घुल मिल गए जैसे बरसों के दोस्त हो।

    उसने मुझे रात के खाने पे अपने घर आने की दावत दी जो मैंने फ़ौरन क़बूल कर ली। फिर मैंने अपनी एक तकलीफ़ भी इस से बयान की।

    मैं कैंथ होटल में ठहरा था। बॉम्बे ऑब्ज़र्वर के नुमाइंदे की हैसियत से हांगकांग आया था। ये सस्ता किस्म का होटल था।

    एक रोज़ रात को दो बजे के क़रीब मैं लौटा, तो मालूम हुआ, होटल के आठ दस कमरों में एक साथ चोरी हो गई है। बदक़िस्मती से उनमें मेरा कमरा भी शामिल था। मेरे दोनों सूटकेस चोरी हो गए और टाइपराइटर भी।

    पुलिस तहक़ीक़ात कर रही थी, करेगी और करती रहेगी। मगर मुझे दो दिन बाद बंबई लौटना था। ऑब्ज़र्वर के ऐडीटर ने फ़ौरन वापिस आने के लिए तार दिया था। हांगकांग में मेरा काम ख़त्म हो चुका था। अब मुझे बंबई पहुंच कर वहां से फ़ौरन नैरुबी जाना था।

    मुझे कुछ रक़म चाहिए। मैंने बी. डी. इसरानी से कहा मगर मैं अब उस के इव्ज़ सिर्फ अपना चैक पेश कर सकता हूँ। वो भी हिन्दोस्तान के बैंक का।

    कितनी रक़म चाहिए? उसने पूछा।

    पाँच सौ रुपये।

    ज़रूर। बी. डी. इसरानी ने इतमीनान का सांस लिया। मेरे साथ चलो। मैं अभी बैंक से अपनी गारंटी पर आपका चैक कैश किराए देता हूँ। या ख़ुद रक़म दे दूँगा। यहां हम सिंधीयों का अपना एक बैंक है।

    दी सिंधी मरकनटाइल बैंक पाँच मंज़िला इमारत में वाक़्य था। बी. डी. इसरानी ने मुझे बताया कि बैंक की इमारत का मालिक वही है। ग्यारह हज़ार रुपये किराया हर महीने आता है।

    वो बैंक का डायरेक्टर भी है। पाँच सौ दिलवा कर उसने मुझसे कहा शाम के ठीक छे बजे मेरी दुकान पर आ जाना। घर जाने से पहले थोड़ा सा घूम फिर लेंगे।

    मैं शाम के ठीक छे बजे उस की दुकान पर पहुंच गया। वो पहले ही से मेरी राह देख रहा था। दुकान के मुलाज़िमों को हिदायत देकर

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