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Ebook910 pages8 hours

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हम क्रान्तिकारी हैं और उस समय तक क्रान्तिकारी रहेंगे जब तक इस दुनिया में यह हालत रहेगी कि कुछ लोग सिर्फ हुक़्म देते हैं और कुछ लोग सिर्फ़ काम करते हैं। हम उस समाज के ख़िलाफ हैं जिनके हितों की रक्षा करने की आप जज लोगों को आज्ञा दी गयी है। हम उसके कट्टर दुश्मन हैं और आपके भी और जब तक इस लड़ाई में हमारी जीत न हो जाय, हमारी और आपकी कोई सुलह मुमकिन नहीं है। और हम मजदूरों की जीत यकीनी है!* आपके मालिक उतने ताकतवर नहीं हैं जितना कि वे अपने आपको समझते हैं। यही सम्पत्ति जिसे बटोरने और जिसकी रक्षा करने के लिए वे अपने एक इशारे पर लाखों लोगों की जान कुर्बान कर देते हैं, वही शक्ति जिसकी बदौलत वे हमारे ऊपर शासन करते हैं, उनके बीच आपसी झगड़ों का कारण बन जाती है और उन्हें शारीरिक तथा नैतिक रूप से नष्ट कर देती हैं। सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए उन्हें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है। असल बात तो यह है कि आप सब लोग, जो हमारे मालिक बनते हैं हमसे ज़्यादा गुलाम हैं। हमारा तो सिर्फ़ शरीर गुलाम है, लेकिन आपकी आत्मायें गुलाम हैं । आपके कंधे पर आपकी आदतों और पूर्व–धारणाओं का जो जुआ रखा है उसे आप उतारकर फेंक नहीं सकते। लेकिन हमारी आत्मा पर कोई बंधन नहीं है। आप हमें जो जहर पिलाते रहते हैं वह उन जहरमार दवाओं से कहीं कमजोर होता है जो आप हमारे दिमागों में अपनी मर्जी के ख़िलाफ उँड़ेलते रहते हैं। हमारी चेतना दिन–ब–दिन बढ़ती जा रही है और सबसे अच्छे लोग, वे सभी लोग जिनकी आत्मायें शुद्ध हैं हमारी और खिंचकर आ रहे हैंय इनमें आपके वर्ग के लोग भी हैं। आप ही देखिये-आपके पास कोई ऐसा आदमी नहीं है जो आपके वर्ग के सिद्धान्तों की रक्षा कर सके; आपके वे सब तर्क खोखले हो चुके हैं जो आपको इतिहास के न्याय के घातक प्रहार से बचा सकें, आपमें नये विचारों को जन्म देने की क्षमता नहीं रह गयी है, आपकी आत्मायें निर्जन हो चुकी हैं। हमारे विचार बढ़ रहे हैं, अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं, वे जन–साधारण में प्रेरणा फूँक रहे हैं और उन्हें स्वतंत्रता के संग्राम के लिए संगठित कर रहे हैं। यह जानकर कि मजदूर वर्ग की भूमिका कितनी महान है, सारी दुनिया के मजदूर एक महान शक्ति के रूप में संगठित हो रहे हैं-नया जीवन लाने की जो प्रक्रिया चल रही है उसके मुकाबले में आपके पास क्रूरता और बेहयाई के अलावा और कुछ नहीं है। परन्तु आपकी बेहयाई भोंडी है और आपकी क्रूरता से हमारा क्रोध और बढ़ता है। जो हाथ आज हमारा गला घोंटने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं वही कल साथियों की तरह हमारे हाथ थाम लेने को आगे बढ़ेंगे। आपकी शक्ति धन बढ़ाते रहने की मशीनी शक्ति है, उसने आपको ऐेसे दलों में बाँट दिया है जो एक–दूसरे को खा जाना चाहते हैं। हमारी शक्ति सारी मेहनतक़श जनता की एकता की निरन्तर बढ़ती हुई चेतना की जीवन–शक्ति में है। आप लोग जो कुछ करते हैं वह पापियों का काम है, क्योंकि वह लोगों को गुलाम बना देता है। आप लोगों के मिथ्या प्रचार और लोभ ने पिशाचों और राक्षसों की अलग एक दुनिया बना दी है जिसका काम लोगों को डराना–धमकाना है। हमारा काम जनता को इन पिशाचों से मुक्त कराना है। आप लोगों ने मनुष्य को जीवन से अलग करके नष्ट कर दिया है; समाजवाद आपके हाथों टुकड़े–टुकड़े की गयी दुनिया को जोड़कर एक महान रूप देता है और यह होकर रहेगा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390504800
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    Maa - Maxim Gorky

    Gorky

    खण्ड एक

    1

    श्रमिकों की बस्ती की धुएं से भरी और गन्दी हवा में प्रत्येक दिन फैक्ट्री के भोंपू का कांपता हुआ कर्कश स्वर गूंज उठता और उसके बुलावे पर छोटे-छोटे मिट्टी के बने घरों से आज्ञाकारी, सहमे हुए लोग फैक्ट्री की ओर भाग पड़ते। वे उदास चेहरे लिए तिलचिट्टों की भान्ति भाग पड़ते। वे नींद पूरी करके अपने थके हुए अंगों को आराम भी नहीं दे पाते थे। ठिठुरते झुटपुटे में वे कच्ची सड़क पर फैक्ट्री को ऊंची-सी पत्थर की इमारत का ओर चल पड़ते, जो बड़े निर्मम और निश्चिन्त भाव से उनकी प्रतीक्षा करती रहती थी और जिसकी तेल से चिकनी दर्जनों चौकोर आंखें सड़क पर रोशनी करती थीं। उनके पांवों के नीचे की कीचड़ में छप-छप की ऐसी आवाज होती रहती थी, मानो उनके साथ सहानुभूति दिखाकर उनका उपहास कर रही हो। वे अलसायी हुई आवाज में चिल्लाते। हवा में उनकी गन्दी गालियां गूंज उठतीं और मशीनों की गड़गड़ाहट एवं भाप की फक-फक की आवाजें हवा में तैरती हुई आकर इन स्वरों में मिल जातीं। ऊंची-ऊंची काली चिमनियां, जो बहुत कठोर और निराशा पूर्ण प्रतीत होती थीं, बस्ती के ऊपर मोटे-मोटे मुगदरों की भान्ति अपना मस्तक ऊंचा किये खड़ी रहती थीं।

    शाम को जब अस्त होते हुए सूरज का लाल प्रकाश घरों की खिड़कियों में प्रतिबिम्बत होता, तो फैक्टी भी इन लोगों को अपने पाषाण उदर से उगल देती, मानो वे स्पष्ट की गयी धातु का बचा हुआ कचरा हो और वे अपने मार्ग पर चल पड़ते। उनके गन्दे, कालिख पुते चेहरों पर भूखे दांत चमक रहे होते थे और उनके शरीर से मशीन के तेल की बदबू आ रही होती थी। इस समय उनके स्वर में उत्साह होता था, उल्लास होता था; क्योंकि काम का एक और दिन समाप्त हो चुका था और घर पर रात का खाना और आराम उनकी बाट जोह रहा होता था।

    पूरा दिन तो फैक्ट्री निगल गयी थी। उसकी मशीनों ने श्रमिकों की शक्ति को पूरी तरह से चूस लिया था। दिन का अन्त हो गया था, उसका एक चिह्न भी शेष नहीं रहा था और मनुष्य अपनी कब्र के एक कदम और निकट पहुंच गया था। किन्तु इस समय वह विश्राम की और धुएं से घुटे हुए शराब खाने की सुखद कल्पना कर रहा था और उसे इसी बात का सन्तोष था।

    छुट्टी के दिन लोग दस बजे तक सोते थे। फिर सौम्य, गम्भीर विवाहित लोग अपने सबसे अच्छे वस्त्र पहनकर गिरजाघर जाते थे और नौजवानों को धर्म के प्रति उनकी उदासीनता के लिए डांटते-फटकारते थे। जब वे गिरजाघर से लौटकर वापस घर आते, तो रूस की राष्ट्रीय पेस्ट्री पीरोग खाते और फिर शाम तक सोते। बरसों की संचित थकान के कारण उनकी भूख मर जाती थी, इसलिए वे शराब पीकर अपनी भूख को चमकाते और तेज वोदका के घूंटों से अपने पेट की अग्नि को भड़काते।

    शाम को वे सड़कों पर घूमते-फिरते। जिनके पास रबड़ के जूते होते, वे धरती सूखी होने पर भी उन्हें पहनते और जिनके पास छतरियां होती, वे आसमान स्पष्ट होने पर भी उन्हें लेकर चलते।

    मित्रों से मिलते, तो फैक्ट्री की, मशीनों की और अपने फोरमैन की बातें करते; वे ऐसी वस्तु के विषय में न तो कभी सोचते थे और न बात ही करते थे, जिसका उनके काम से कोई सम्बन्ध न हो। उनके जीवन के नीरस ढर्रे में बिरले ही कभी इक्का-दुक्का भटकते हुए विचारों की मद्धिम चिंगारी चमकती। जब ये व्यक्ति घर वापस लौटते, तो अपनी पत्नियों से झगड़ते और बहुधा उन्हें पीटते। नवयुवक लोग शराबखानों में या अपने मित्रों के घर जाते, जहां वे अकार्डियन बजाते, गन्दे गीत गाते, नाचते, गालियां बकते और शराब पीकर मदहोश हो जाते। कठोर मेहनत से चूर होने के कारण नशा भी उनको जल्दी ही चढ़ जाता और एक अज्ञात झुंझलाहट उनके सीने में मचलती और बाहर निकलने के लिए बेचैन रहती। इसीलिए अवसर मिलते ही वे दरिन्दों की भान्ति एक-दूसरे पर टूट पड़ते और अपने मन की भड़ास निकालते। परिणामस्वरूप, खूब मारपीट और खून-खराबा होता। प्रायः किसी को चोट भी लग जाती और कभी-कभी तो इन लड़ाइयों में किसी की हत्या तक हो जाती।

    उनके आपस के सम्बन्धों में शत्रुता की एक छिपी हुई भावना छायी रहती। यह भावना उतनी ही पुरानी थी, जितनी उनके अंग-अंग की थकान। वे आत्मा की इस बीमारी के साथ ही जन्म लेते थे, जो उन्हें अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिली थी। ऐसी उद्देश्यहीन, क्रूर और घिनौनी हरकतें उनके जीवन का हिस्सा बन जाती थीं और यह परछाई की तरह कब तक उनके साथ लगी रहती थीं।।

    छुट्टी के दिन नौजवान लोग काफी रात गये घर लौटते; उनके कपड़े फटे होते, मिट्टी और कीचड़ में सने होते, आंखें चोट से सूजी होती और नाक से खून बह रहा होता। कभी वे बड़ी कुत्सा के साथ इस बात को डींग मारते कि उन्होंने अपने किसी मित्र को कितनी बुरी तरह पीटा था और कभी उनका मुख लटका होता और वे अपने अपमान पर गुस्सा होते या आंसू बहाते। वे शराब के नशे में चर होते, उनकी स्थिति दयनीय, दुःखद और घृणास्पद होती। बहुधा माता-पिता अपने नौजवान पुत्रों को किसी बाड़ के पास या शराब खाने में नशे में चूर पड़े पाते। बड़े-बूढ़े उन्हें बुरी तरह कोसते, वोदका के कारण उनके शिथिल और नरम हो गये शरीरों पर घूंसे लगाते, फिर उन्हें घर में किंचित प्रेम के साथ बिस्तर पर सुला देते, ताकि जब मुंह-अंधेरे ही काली नदी की भान्ति भोंपू का कर्कश स्वर हवा में फिर गूंजे, तो वे उन्हें काम पर जाने के लिए जगा दें।

    वे अपने बच्चों को कोसते और बड़ी निर्ममता से पीटते थे, किन्तु नौजवानों की मारपीट और उनकी दारू पीने की आदत को स्वाभाविक माना जाता था। इन लोगों के पिता जब स्वयं जवान थे, तब वे भी इसी प्रकार लड़ते-झगड़ते और शराब पीते थे और उनके माता-पिता भी इसी तरह उनकी पिटायी करते थे। जीवन सदैव से इसी तरह चलता आया था। जीवन का प्रवाह गन्दे पानी की धारा के समान बरसों से इसी धीमी गति के साथ नियमित रूप से जारी था, दैनिक जीवन पुरानी आदतों, पुराने संस्कारों एवं प्राचीन विचारों के सूत्र में बंधा हुआ था और इस प्राचीन ढर्रे को कोई बदलना भी नहीं चाहता था।

    कभी-कभी फैक्ट्री की बस्ती में कुछ नये व्यक्ति भी आकर बस जाते थे। प्रारम्भ में तो उनकी ओर ध्यान जाता; क्योंकि वे नये होते थे, किन्तु फिर धीरे-धीरे उनमें मात्र इस कारण हलकी-सी और दिखावटी रुचि बनी रहती; क्योंकि वे उन्हें उन जगहों के विषय में बताते रहते थे, जहां वे पहले काम कर चुके थे। किन्तु शीघ्र ही उनका नयापन समाप्त हो जाता और लोग उनके आदी हो जाते और उनकी ओर विशेष ध्यान देना छोड़ देते। ये नये आये हुए लोग जो कुछ बताते, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती थी कि श्रमिकों का जीवन प्रत्येक स्थान पर एक-जैसा ही है और यदि सत्य भी यही है, तो फिर इस बारे में बात करने का भी क्या लाभ?

    परन्तु कुछ नये आने वाले व्यक्ति कभी-कभी ऐसी बातें बताते, जो बस्ती वालों के लिए विचित्र होती थीं। उनसे बहस तो कोई नहीं करता था, किन्तु वे उनकी इन विचित्र बातों को शंका के साथ सुनते। वे जो कुछ कहते, उससे कुछ लोगों को झुंझलाहट होती, कुछ को एक अस्पष्ट-सा डर अनुभव होता और कुछ के दिलों में आशा की एक हलकी-सी किरण जगमगा उठती। इसी कारण वे और अधिक शराब पीने लगते, ताकि जीवन की गुत्थी को अधिक उलझा देने वाली आशंकाओं को दूर भगा सकें।

    किसी नवागन्तुक में कोई असाधारण बात दिखाई देने पर बस्ती वाले उससे असन्तुष्ट रहने लगते और जो कोई भी उनके-जैसा न होता, उससे वे सावधान रहते। उन्हें तो, मानो यह भय लगा रहता कि वह उनके जीवन की नीरस नियमितता को भंग कर देगा। वे यह बात जानते थे कि जीवन का बोझ उन पर सदैव एक-जैसा ही रहना है और चूंकि उन्हें छुटकारा पाने की कोई आशा नहीं थी, इसलिए वे यह मानते थे कि उनके जीवन में जो भी बदलाव आयेगा, वह उनकी परेशानियों को और बढ़ा देगा।

    नये विचार प्रकट करने वालों से श्रमिक चुपचाप कन्नी काटते रहते। इसलिए वे नवागन्तुक वहां से कहीं और चले जाते। यदि कुछ यहीं रह भी जाते, तो वे या तो धीरे-धीरे अपने साथियों-जैसे हो जाते थे अथवा कटे-कटे रहते थे।

    प्रत्येक श्रमिक लगभग पचास वर्ष तक इस प्रकार का जीवन बिताने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता।

    मिखाइल व्लासोव भी इसी तरह का जीवन बसर करता था, वह अक्खड़ स्वभाव का ताला बनाने वाला मिस्त्री था। उसके मुख पर हरदम उदासी छायी रहती थी और उसकी घनी भावों के नीचे से उसकी छोटी-छोटी आंखें सन्देह और कुटिल मुसकान से चमकती रहती थीं। वह फैक्ट्री का सबसे अच्छा मिस्त्री था और बस्ती का सबसे तगड़ा व्यक्ति था। चूंकि उसकी अपने मालिकों के साथ सदैव ठनी रहती थी, इसलिए वह अधिक नहीं कमा पाता था। प्रत्येक छुट्टी के दिन वह किसी-न-किसी को पीट देता। इसीलिए कोई व्यक्ति उसे पसन्द नहीं करता था और सभी उससे डरते थे। कई बार कुछ लोगों ने उसकी पिटायी करने की भी चेष्टा की, किन्तु वे सफल नहीं हुए। जैसे ही वह लोगों को अपने पर झपटने के लिए आते देखता, वह कोई पत्थर अथवा तख्ता या लोहे की छड़ उठा लेता और टांगें फैलाकर खड़ा हो जाता और चुपचाप अपने दुश्मनों की प्रतीक्षा करता। बालों से ढकी हुई भुजायें और आंखों से लेकर गर्दन तक फैली घनी काली दाढ़ी वाला चेहरा लोगों के हृदय में दहशत उत्पन्न कर देता था। लोगों को उसकी आंखों से सबसे अधिक डर लगता था-छोटी-छोटी और पैनी, बर्मों की भान्ति लोगों को चीरती हुई आंखें। उससे आंख मिलाने वाले को ऐसा प्रतीत होता, जैसे वह किसी ऐसी दानवी शक्ति के सामने खड़ा है, जो उस पर बिना किसी भय अथवा दया के वार करने को तत्पर है।

    ‘खबरदार, जो आगे बढ़े गन्दी नाली के कीड़े’ वह गरज कर बोलता और उसके बड़े-बड़े पीले दांत उसकी दाढ़ी में चमक उठते। लोग डरकर पीछे हट जाते और जाते-जाते कायरों की तरह उस पर गालियों की बौछार करते जाते।

    ‘गन्दी नाली के कीड़ों।’ वह पीछे से बस इतना ही बोलता और तिरस्कार से उसकी आंखों में खंजर-सी तेजी आ जाती। फिर वह अपना सीना तानकर उनका पीछा करता और ऊंची आवाज से दहाड़ता-

    ‘आओ सामने, अब कौन मरना चाहता है?’

    कोई भी मरना नहीं चाहता था।

    वह प्रायः बहुत कम बोलता था और ‘गन्दी नाली के कीड़े’ उसका तकिया-कलाम था। वह पुलिस वालों, अफसरों और फैक्ट्री में अपने मालिकों को भी यही संज्ञा देता। और अपनी पत्नी को भी सदैव नीच और नराधम ही कहता।

    ‘अरी नीच कुतिया, तुझे दिखाई नहीं देता कि मेरे कपड़े फट गये हैं?’

    एकबार, जब उसका पुत्र पावेल चौदह बरस का था, व्लासोव ने उसे उसके बाल पकड़कर खींचने की चेष्टा की थी, किन्तु पावेल एक भारी-सा हथौड़ा उठाकर कटुता से चिल्लाया, मुझे हाथ न लगाना।

    क्या कहा? पिता ने पूछा और लम्बे और छरहरे बदन वाले बेटे की ओर इस तरह बढ़ा, जैसे छाया भोजपत्र के पेड़ की ओर बढ़ती है।

    बहुत हो चुका, पावेल बोला। अब मैं और बर्दाश्त नहीं करूंगा। इतना कहकर उसने हथौड़ा तान लिया।

    पिता ने एक बार उसे घूर कर देखा और बालों से ढके अपने हाथ अपनी पीठ के पीछे छिपा लिए।

    अच्छी बात है, उसने तनिक हंसकर कहा और फिर एक गहरी आह भरकर बोला, ओ गन्दी नाली के कीड़े।

    इसके कुछ ही समय पश्चात् उसने अपनी पत्नी से कहा, अब तुम मुझसे कभी पैसे नहीं मांगना, पावेल तुम्हारा पेट पालेगा।

    और तुम अपनी पूरी कमायी शराब में उड़ाया करोगे? उसने पूछने का साहस किया।

    तुझे इससे क्या मतलब है, कुतिया! मैं कोई रखैल रख लूंगा।

    रखैल तो उसने नहीं रखी, किन्तु लगभग तीन साल तक-अपने मरने के दिन तक-उसने बेटे की ओर ध्यान नहीं दिया और न ही कभी उससे बात की।

    व्लासोव के पास एक कुत्ता था। वह भी उसी की भान्ति बड़े डील-डौल का और झबरीला था। वह प्रत्येक सुबह उसके साथ फैक्ट्री तक जाता और शाम को फाटक पर उसकी प्रतीक्षा करता। व्लासोव छुट्टी का दिन एक शराबखाने से दूसरे शराबखाने में पीते-पिलाते ही काट देता। वह किसी से बात नहीं करता था और लोगों के चेहरों को ऐसे घूर कर देखता था, मानो किसी को तलाश रहा हो और उसका कुत्ता अपनी झबरी दम हिलाता हुआ सारा दिन अपने मालिक के पीछे-पीछे लगा रहता। जब व्लासोव नशे में चूर घर लौटता और खाना खाने बैठता, तो कुत्ते को भी अपने प्याले से ही खिलाता। वह उसे न तो कभी गाली देता था और न ही कभी पीटता था, किन्तु वह उसे कभी पुचकारता भी नहीं था। खाना खाने के बाद यदि उसकी पत्नी को मेज स्पष्ट करने में कुछ देर हो जाती, तो वह तश्तरियां फर्श पर पटकने लगता और अपने सम्मुख शराब की बोतल रखकर, दीवार के साथ पीठ टिका कर बैठ जाता और फटी आवाज में आंखें मूंदकर और मुंह फाड़कर कोई उदासी-भरा गीत गुनगुनाने लगता। करुण बेसुरी आवाजें उसकी दाढ़ी में उलझकर रह जातीं और उसमें फंसे हुए रोटी के टुकड़े नीचे गिर पड़ते। गाते समय वह अपनी दाढ़ी और मूंछों पर हाथ फेरता रहता। उसके गीत के बोल समझ में न आते और गीत की धुन भी जाड़ों में भेड़ियों के चिल्लाने की याद दिलाती। जब तक शराब की बोतल चलती, वह यूं ही गाता रहता और फिर वहीं बेंच पर लेट जाता अथवा मेज़ पर सिर टिकार भोंपू बजने तक सोता रहता। कुत्ता भी उसी के बगल में पड़ा रहता।

    जब उसकी मौत आयी, तो बहुत कष्टदायक मौत आयी। वह पांच दिन तक बिस्तर पर पड़ा तड़पता रहा, उसका चेहरा काला पड़ गया था, उसकी आंखें बन्द रहती थीं और वह अपने दांत पीसता रहता था। कभी-कभी तो वह अपनी पत्नी से कहता, मुझे थोड़ा सा संखिया दे दे। विष दे दे!

    डॉक्टर ने गरम पुलटिस बांधने को कहा था, किन्तु साथ ही यह भी सलाह दी कि मिखाइल का आपरेशन करना आवश्यक है और उसे उसी दिन अस्पताल ले जाया जाये।

    मिखाइल ने उखड़ी-उखड़ी सांस लेते हुए कहा, भाड़ में जाओ तुम! मैं तुम्हारी सहायता के बगैर ही मर जाऊंगा, गन्दी नाली के कीड़े।

    जब डॉक्टर चला गया और उसकी पत्नी ने आंखों में आंसू भरकर आपरेशन करवा लेने की प्रार्थना की, तो उसने उसकी ओर घूंसा तानकर कहा, ऐसा दुस्साहस मत करना, मैं ठीक हो गया, तो तुम्हारी ही अधिक शामत आयेगी।

    सुबह जब फैक्ट्री का भोंपू बजा था, तभी उसकी मौत हुई। जब वह ताबूत में लेटा हुआ था, तो उसका मुख खुला था और भवें गुस्से से तनी हुई थीं। उसकी बीवी, बेटे, कुत्ते, दनीला व्येसोवश्चिकोव (पुराना शराबी और चोर, जिसे फैक्ट्री से निकाल दिया गया था) और बस्ती के कुछ भिखमंगों ने उसे दफन किया। उसकी पत्नी थोड़ा रोयी, सो भी चुपके-चुपके। पावेल बिलकुल नहीं रोया। जनाजा ले जाते समय रास्ते में मिलने वाले बस्ती के लोगों ने रुककर सीने पर सलीब का चिह्न बनाया और बोले, पेलागेया तो इसकी मृत्यु से बहुत ही प्रसन्न होगी।

    दूसरों ने उसे सुधारते हुए कहा, उसकी मृत्यु नहीं हुई, वह एक दरिन्दे की भान्ति सड़ गया।

    ताबूत को दफन करके सब लोग तो चले गये, परन्तु कुत्ता वहीं ताजी खुदी हुई मिट्टी पर खामोश बैठा कब्र को सूंघता रहा।

    2

    अपने पिता की मृत्यु के दो सप्ताह बाद, एक रविवार को पावेल नशे में चूर घर वापस आया। वह लड़खड़ाता हुआ घर में घुसा और घिसटता हुआ मेज़ के सिरे वाली कुर्सी पर जा बैठा और पिता की तरह जोर से मेज़ पर मुक्का मारा और चिल्लाकर मां से कहा, खाना।

    मां बेटे के निकट आकर बैठ गयी, उसने उसके गले में बांहें डाल दी और उसका सिर अपने सीने से लगा लिया। किन्तु उसने मां को दूर हटाते हुए चिल्लाकर कहा, मां! जल्दी करो।

    नादान बच्चे, उसकी मां ने उदास होकर बड़े प्रेम से उसे अपने साथ सटाते हुए कहा।

    और मैं तम्बाकू के कश भी लगाऊंगा! मुझे पिता का पाइप ला दो। कठिनाई से अपनी जबान हिलाते हुए पावेल ने बुदबुदाकर कहा।

    उस दिन उसने पहली बार शराब पी थी। वोदका से उसका शरीर शिथिल हो गया था, किन्तु उसकी चेतना कम नहीं हुई थी। उसके मस्तिष्क में यह प्रश्न रह-रहकर उठता था-मैं नशे में हूं? क्या मैं नशे में हूं?

    मां के प्रेम से उसे झेंप अनुभव हो रही थी और उसकी आंखों का दर्द उसका हृदय छू रहा था। उसे रोना आ रहा था और अपने आंसुओं पर नियन्त्रण करने के लिए वह वास्तव में जितना नशे में था, उससे कहीं अधिक जताने का प्रयत्न करने लगा।

    मां उसके पसीने से तर और उलझे हुए बालों को सहलाते हुए धीरे से बोली, पावेल! तुम्हें ऐसा तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।

    पावेल को मतली होने लगी। के होने के पश्चात् मां ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और उसके माथे पर गीला तौलिया रख दिया। इससे पावेल का कुछ नशा उतरा, किन्तु उसके नीचे और आस-पास सभी कुछ, मानो घूम रहा था, उसकी पलकें इतनी भारी हो गयी थीं कि उन्हें खोलना भी कठिन हो रहा था। उसके मुंह का स्वाद बहुत कसैला-सा हो रहा था। उसने दबी दृष्टि से मां के बड़े-बड़े चेहरे को देखकर सोचा-मेरा विचार है कि मैं अभी बहुत छोटा हूं। अन्य लोग भी शराब पीते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता, किन्तु मेरी तो बुरी स्थिति हो गयी है।

    कहीं बहुत दूर से उसे अपनी मां का कोमल स्वर आता सुनाई दिया, यदि तुमने शराब पीना शुरू कर दिया, तो तुम मेरा पेट कैसे पालोगे?

    सभी लोग तो पीते हैं, उसने आंखें बन्द करते हुए उत्तर दिया।

    मां ने गहरी आह भरी। ठीक ही तो कहता था। वह समझती थी कि शराबखाना ही एक ऐसा स्थान है, जहां लोगों को कुछ प्रसन्नता नसीब होती थी। फिर भी उसने यही कहा, किन्तु तुम मत पिया करो, तुम्हारे पिता ने हम दोनों के लिए काफी पी ली है। मैं उसके हाथों ही काफी मुसीबत झेल चुकी हूं। क्या तुम भी अपनी मां पर दया नहीं करोगे?

    ये प्यार-भरे और दु:ख में डूबे उदास शब्द सुनकर पावेल को आभास हुआ कि पिता के जीवनकाल में उसने अपनी मां के अस्तित्व की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया था-हमेशा चुप-चुप अपनी पिटाई के भय से सहमी हुई। बाप की दृष्टि से बचने के लिए वह स्वयं भी जहां तक सम्भव होता, घर से बाहर ही रहता था और इसलिए अपनी मां से भी दूर हो गया था। अब नशा कुछ कम होने पर वह ध्यान से अपनी मां को देखने लगा।

    लम्बा कद, कुछ झुकी हुई कमर, कठोर परिश्रम और पति की मार के कारण बिलकुल चूर शरीर। वह एक ओर कुछ झुकती हुई ऐसे संभल-संभल कर चलती थी, मानो सदैव डरती रहती हो कि कहीं किसी वस्तु से टकरा न जाये। बस्ती की अधिकांश औरतों की भान्ति भय और व्यथा से भरी हुई उसकी काली आंखें, लटकी त्वचा और झुर्रियों वाले चौड़े से लम्बोतरे मुख को कुछ-कुछ आभा प्रदान करती थीं। उसकी दाहिनी भौंह पर चोट का एक गहरा निशान था, जिसके कारण वह भौंह कुछ ऊपर की ओर खिंच गयी थी और ऐसा प्रतीत होता था कि उसका दाहिना कान उसके बायें कान से कुछ ऊंचा है। इसी कारण उसके चेहरे का भाव ऐसा रहता था, मानो वह सदैव किसी चिन्ता के कारण सतर्क रहती हो। उसके घने काले बालों में सफेद केशों की धारियां चमकती थीं। वह ममता, उदासी और भीरुता की साकार मूर्ति थी।

    उसके गालों पर धीरे-धीरे आंसू ढलक रहे थे।

    रोओ नहीं, बेटे ने अनुरोध किया। मुझे प्यास लग रही है।

    मैं तुम्हारे लिए बर्फ का ठण्डा पानी लाती हूं।

    किन्तु मां के लौटने तक वह सो गया था। वह क्षण-भर अपने बेटे को निहारती रही। सुराही उसके हाथ में कांप रही थी और बर्फ के टुकड़े उसमें यहां-वहां टकरा रहे थे। सुराही मेज़ पर रखकर मर खामोश देव-प्रतिमाओं के सामने घुटने टेककर बैठ गयी। बाहर से शराबियों की आवाजें खिड़की के शीशों से टकरा रही थीं। सर्दियों की रात्रि की नमी और अंधेरे में अकार्डियन चिल्ला रहा था, कोई फटी हुई आवाज में गा रहा था, कोई लगातार गन्दी गालियां बकता हुआ निकल गया और स्त्रियों की उकताहट-भरी झुंझलायी हुई आवाजें आ रही थीं।

    छोटे-से व्लासोव-परिवार में जीवन पहले की अपेक्षा अधिक शान्ति और चैन से, अन्य घरों की अपेक्षा कुछ अलग ढंग से व्यतीत हो रहा था। उनका घर बस्ती के सिरे पर कम ऊंचे, किन्तु बहुत ढालू पुश्ते पर बना था। पुश्ता दलदल तक चला गया था। घर के एक-तिहायी हिस्से में रसोई थी-इसी में आड़ लगाकर एक कमरा अलग कर दिया गया था, जिसमें मां सोती थी। शेष दो-तिहायी हिस्सा दो खिड़कियों वाला चौकोर कमरा था। इस कमरे के एक कोने में पावेल का पलंग था और दूसरे कोने में एक मेज़ और दो बेंच थीं। घर के शेष सामान में कुछ कुर्सियां थीं, एक नीली अलमारी थी, जिस पर छोटा-सा आईना लगा हुआ था, एक सन्दूक था, जिसमें वस्त्र थे, दीवार पर घड़ी टंगी थी और कोने में ताक पर दो देव-प्रतिमाएं स्थापित थीं!

    एक नौजवान व्यक्ति से जो कुछ आशा की जा सकती थी, वह सब कुछ पावेल ने किया उसने अपने लिए अकार्डियन, कलफदार कमीज, भड़कीली टायी, रबर के जूते तथा एक छड़ी खरीद ली। इस प्रकार वह अपनी आयु के अन्य लड़कों की भान्ति हो गया। वह प्रायः शाम को अपने मित्रों की महफिलों में जाता था। उसने क्वैड्रिल और पोल्का नाच सीख लिए थे और प्रत्येक रविवार को वह शराब पिये हुए घर वापस आता। किन्तु वोदका पीकर उसकी तबीयत सदैव खराब हो जाती थी। सोमवार को जब वह उठता, तो उसके सिर में दर्द रहता, हृदय में जलन होती, चेहरा पीला और मुरझाया हुआ होता।

    कल रात खूब आनन्द आया होगा? मां ने एक बार उससे पूछा।

    काफी बुरा हाल है, उसने मुंह लटकाकर झुंझलाहट के साथ कहा। इससे अच्छा तो अब मैं मछलियां पकड़ने जाया करूंगा या फिर एक बन्दूक खरीद लूंगा और शिकार खेलने जाया करूंगा।

    वह अपना काम बड़ी मेहनत से करता था, कभी कामचोरी नहीं करता था और न ही कभी उस पर जुर्माना हुआ था। वह काफी कम बोलता था और उसकी मां की आंखों की तरह-बड़ी-बड़ी और नीली आंखों में एक असन्तोष भरा था। उसने न तो बन्दूक खरीदी और न ही वह मछलियों के शिकार को ही गया, किन्तु इतना शीघ्र ही स्पष्ट हो गया था कि वह उस मार्ग से अलग जा रहा था, जिस पर दूसरे लोग चलते थे। उसने महाफिलों में जाना कम कर दिया था। रविवार को वह गायब अवश्य हो जाता था, परन्तु सदैव बिना शराब पिये ही घर लौट आता। मां कि पैनी दृष्टि को यह भांपते देर न लगी कि उसके बेटे का सांवला चेहरा और भी दुर्बल होता जा रहा है, उसकी आंखों में गम्भीरता आ गयी है और वह अपने होंठ कसकर बन्द किये रहता है। वह मन-ही-मन किसी बात पर कुढ़ता होगा या सम्भवतः कोई बीमारी उसके शरीर को खाये जा रही है। पहले उसके मित्र प्रायः उससे मिलने आते थे, किन्तु अब उन्होंने आना छोड़ दिया था; क्योंकि वह कभी घर पर होता ही नहीं था। मां को इस बात की प्रसन्नता थी कि उसका बेटा कारखाने के अन्य नौजवानों की तरह नहीं था, परन्तु जीवन के उस अंधेरे रास्ते से हटकर, जिस पर सब लोग चलते थे, अपना अलग मार्ग निकालने के लिए उसके बेटे को कितना कठिन प्रयास करना पड़ रहा था, इस बात से उसे अपने हृदय में एक अस्पष्ट-सा भय भी अनुभव होता।

    तुम्हारा मन तो अच्छा है, पावेल? वह कभी-कभी उससे पूछती।

    बिलकुल, वह उत्तर देता।

    तुम कितने कमजोर हो गये हो। वह आह भरकर कहती।

    वह किताबें घर लाने लगा। वह उन्हें चोरी-चोरी पढ़ता और पढ़ने के पश्चात् सदैव छिपा देता। कभी-कभी वह पुस्तक का कोई टुकड़ा नकल करता और उस कागज को छिपा देता।

    मां-बेटा काफी कम ही एक साथ बैठते और बातचीत तो सम्भवतः कभी होती ही नहीं थी। सुबह वह खामोशी से चाय पीकर काम पर चला जाता और दोपहर को खाने के लिए लौटता। खाने की मेज़ पर मामूली-सी दो-चार बातें होती और खाना खाकर वह फिर शाम तक के लिए गायब हो जाता। शाम को हाथ-मुंह धोकर वह खाना खाता और फिर किताब लेकर बैठ जाता। रविवार के दिन वह सवेरे ही घर से निकल जाता और रात को देर से लौटता। मां जानती थी कि वह शहर जाता है और कभी-कभी नाटक भी देखता है, किन्तु शहर से कभी कोई उससे मिलने नहीं आता था। मां को ऐसा प्रतीत होता था कि वह दिन-ब-दिन बोलने लगा है, किन्तु साथ ही उसने यह भी अनुभव किया कि वह ऐसे नये शब्दों का प्रयोग करने लगा था, जिन्हें वह समझ नहीं पाती थी और पहले के भद्दे और लट्ठदार शब्द उसकी जबान से उतर गये थे। पावेल के आचरण में कोई छोटी-छोटी ऐसी नयी बातें थीं, जिनकी ओर उसका ध्यान आकर्षित हुआ-उसने भड़कीले वस्त्र पहनना छोड़ दिया था और अपने शरीर और कपड़ों की सफायी की ओर अधिक ध्यान देने लगा था। उसकी चाल-ढाल में पहले की अपेक्षा एक उन्मुक्तता आ गयी थी, उसका व्यवहार अधिक सादा हो गया था और उसका अक्खड़पन भी कम हो गया था। इन परिवर्तनों के कारण, जिनका कोई प्रत्यक्ष कारण उसकी समझ में नहीं आता था, मां चिन्तित रहती। पावेल का व्यवहार उसके प्रति भी बदल गया था कभी-कभी वह फर्श बुहारता, रविवार को हमेशा अपना बिस्तर ठीक करता और काम में प्रत्येक प्रकार से अपनी मां का हाथ बंटाने का प्रयत्न करता। बस्ती में कोई और नौजवान यह सब नहीं करता था।

    एक दिन उसने एक तस्वीर लाकर दीवार पर टांग दी। तस्वीर में तीन व्यक्ति सड़क पर तन्मय होकर वार्तालाप करते चले जा रहे थे।

    ईसामसीह पुनर्जीवित होकर एम्मास जा रहे हैं, पावेल ने मां को समझाते हुए बताया।

    तस्वीर देखकर मां खुश हुई, परन्तु सोचने लगी-यदि ईसामसीह से इसे इतना ही लगाव है, तो वह कभी गिरजाघर क्यों नहीं जाता?

    पावेल आमतौर पर अपनी मां को राजसी बहुवचन ‘तुम’ और ‘मां’ कहकर ही सम्बोधित किया करता था, किन्तु कभी-कभी अचानक ही वह अधिक लाड़ के साथ उसे सम्बोधित करता, अम्मा! तू मेरे बारे में चिन्ता न करना, आज रात मैं तनिक देर से लौटूंगा।

    मां को यह बात अच्छी लगती। उसके इन शब्दों में उसे दृढ़ता और गम्भीरता का आभास होता, किन्तु उसकी आशंकाएं बढ़ती गयीं। यद्यपि इन आशंकाओं का अब भी कोई स्पष्ट कारण नहीं था, फिर भी किसी साधारण वस्तु के पूर्वाभास से उसके हृदय पर बोझ बन गया था। कभी-कभी उसे अपने पुत्र पर भी खीझ आती और वह सोचती-वह अन्य नवयुवकों-जैसा क्यों नहीं है? यह बिलकुल साधु-सन्त बन गया है। इतना गम्भीर रहता है। इस आयु में यह ठीक नहीं है।

    कभी वह सोचती-सम्भवतः यह किसी लड़की के प्रेम के चक्कर में पड़ गया है?

    किन्तु लड़की के चक्कर में तो पैसे की आवश्यकता होती है और वह लगभग अपना सारा वेतन लाकर उसे दे देता था।

    इसी प्रकार समय बीतता गया और दो वर्ष निकल गये-अस्पष्ट विचारों और बढ़ती हुई आशंकाओं से पूर्ण, विचित्र शान्त जीवन के दो वर्ष।

    एक रात्रि खाना खाने के बाद पावेल ने खिड़की पर पर्दा डाला, दीवार पर टीन का लैम्प टांगा और कोने में बैठकर पढ़ने लगा। मां बर्तन धोकर रसोई से बाहर निकली और धीरे-धीरे उसके पास गयी। पावेल ने सिर उठाकर प्रश्नसूचक दृष्टि से मां की ओर देखा।

    कुछ नहीं, पाशा! मैं तो ऐसे ही आ गयी थी। वह झटपट बोली और शीघ्रता से फिर रसोई में चली गयी। घबराहट के कारण उसकी भवें फड़क रही थीं। थोड़ी देर तक अपने विचारों से संघर्ष करने के पश्चात् वह हाथ धोकर फिर पावेल के पास गयी।

    मैं तुमसे पूछना चाहती थी कि तुम सदैव यह क्या पढ़ते रहते हो। उसने धीरे-से पूछा।

    पावेल ने पुस्तक बन्द कर दी। अम्मा! बैठ जाओ।

    मां जल्दी से सीधी तनकर बैठ गयी, वह कोई बहुत ही विशेष बात सुनने को तैयार थी।

    पावेल मां की ओर देखे बिना बहुत धीमे और न जाने क्यों कठोर स्वर में बोला, मैं निषिद्ध पुस्तकें पढ़ता हूं। ये निषिद्ध इसलिए हैं; क्योंकि इनमें श्रमिकों के बारे में सच्ची बातें लिखी हैं। ये चोरी से छापी जाती हैं और यदि मेरे पास पकड़ी गयीं, तो मुझे जेल में बन्द कर दिया जायेगा। जेल में मात्र इसलिए; क्योंकि मैं पूरी सच्चाई मालूम करना चाहता हूं, समझी?

    सहसा मां को घुटन अनुभव होने लगी। उसने अपने बेटे को बहुत ध्यान से देखा और वह उसे पराया-सा लगा। उसकी आवाज भी पहले-जैसी नहीं थी। अब वह अधिक गहरी, अधिक गम्भीर थी, उसमें अधिक गूंज थी। वह अपनी बारीक मूंछों के नरम बालों को ऐंठने लगा और नेत्र झुकाकर विचित्र ढंग से कोने की ओर ताकने लगा। मां उसके बारे में चिन्तित हो उठी, और उसे उस पर दया भी आ रही थी।

    पाशा! तुम ऐसा किसलिए कर रहे हो? मां ने पूछा।

    उसने सिर उठाकर मां की ओर देखा। क्योंकि मैं सच्चाई जानना चाहता हूं, उसने बड़े शान्त भाव से उत्तर दिया।

    उसका स्वर कोमल, किन्तु दृढ़ था और उसकी आंखों में एक चमक उत्पन्न हो गयी थी। मां ने समझ लिया कि उसके पुत्र ने जन्म-भर के लिए स्वयं को किसी गुप्त और भयानक काम के लिए अर्पित कर दिया है। वह परिस्थितियों को अनिवार्य मानकर स्वीकार कर लेने और किसी मुसीबत के बिना सब कुछ सह लेने की आदी हो चुकी थी। इसलिए वह धीरे-धीरे सिसकने लगी, पीड़ा और व्यथा के भार से उसका हृदय इतनी बुरी तरह दबा हुआ था कि वह कुछ भी न कह सकी।

    रो मत, मां। पावेल ने कोमल और स्नेह-भरे स्वर में कहा। मां को ऐसा लगा, मानो वह उससे विदा ले रहा हो। जरा सोच, हम लोगों का क्या जीवन है? तुम चालीस बरस की हुईं, कुछ भी सुख देखा है तुमने अपने जीवन में? पिता सदैव तुम्हें मारते थे। अब मैं इस बात को समझने लगा हूं कि वह अपने सारे दुख-दर्दों, अपने जीवन के सभी कटु अनुभवों का बदला तुमसे लेते थे। कोई वस्तु लगातार उनके सीने पर बोझ की भान्ति रखी रहती थी, परन्तु वह नहीं जानते थे कि वह वस्तु क्या थी। तीस बरस तक उन्होंने यहां खून-पसीना एक किया। जब उन्होंने यहां काम करना प्रारम्भ किया था, तब इस फैक्ट्री की मात्र दो इमारतें थीं और इस समय सात हैं।

    मां बड़ी उत्सुकता के साथ, किन्तु धड़कते हृदय से उसकी बातें सुन रही थी। उसके पुत्र की आंखों में बड़ी प्यारी चमक थी। मेज से अपना सीना सटाकर वह आगे झुका और मां के आंसुओं से भीगे हुए चेहरे के निकट होकर उसने सच्चाई के बारे में पहला भाषण दिया, जिसका उसे स्वयं अभी ज्ञान हुआ था। अपनी जवानी के पूरे उत्साह के साथ, उस विद्यार्थी के पूरे उत्साह के साथ, जो अपने ज्ञान पर गर्व करता है, उसमें पूरी आस्था रखता है, वह इन वस्तुओं की चर्चा कर रहा था, जो उसके मस्तिष्क में स्पष्ट थीं। वह अपनी मां को समझाने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं को परखने के लिए बोल रहा था। बीच में शब्दों के अभाव के कारण वह रुका और तब उस व्यथित चेहरे की ओर उसका ध्यान गया, जिस पर आंसुओं से धुंधलायी हुई दयालु आंखें धीमे-धीमे चमक रही थीं। वे डर और विस्मय के साथ उसे घूर रही थीं। उसे अपनी मां पर रहम आया। वह फिर से बोलने लगा, किन्तु अब अपनी मां और उसके जीवन के बारे में बोल रहा था।

    तुम्हें कौन-सा सुख मिला है? उसने पूछा। कौन-सी मधुर यादें हैं, तुम्हारे जीवन में?

    मां ने सुना और बड़ी वेदना से अपना सिर हिला दिया। उसे एक विचित्र-सी नयी अनुभूति हो रही थी, जिसमें हर्ष भी था और व्यथा भी, जो उसके टीसते हृदय को सहला रही थी। अपने जीवन के विषय में ऐसी बातें उसने पहली बार सुनी थीं और इन शब्दों ने एक बार फिर वही अस्पष्ट विचार जाग्रत कर दिये थे, जिन्हें वह बहुत समय पहले भूल चुकी थी। इन बातों ने उसकी जीवन के प्रति असन्तोष की मरती हुई भावना में पुनः जान डाल दी थी-उसकी युवावस्था के भूले हुए विचारों और भावनाओं को फिर सजीव कर दिया था। अपनी युवावस्था में उसने अपनी सखियों के साथ जीवन के बारे में बातें की थीं, उसने प्रत्येक वस्तु के बारे में विचार के साथ बातें की थीं, परन्तु उसकी सब सहेलियां-और वह स्वयं भी-सिर्फ दुखों का रोना रोकर ही रह जाती थीं। कभी किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया था कि उनके जीवन की परेशानियों का कारण क्या है। परन्तु अब उसका बेटा उसके सामने बैठा था और उसकी आंखें, उसका चेहरा और उसके शब्द जो भी व्यक्त कर रहे थे, वह सभी कुछ मां के हृदय को छू रहा था। उसका हृदय अपने इस बेटे के प्रति गर्व से भर उठा, जो अपनी मां के जीवन को इतनी भली-भान्ति समझता था, जो उसके दुख-दर्द का जिक्र कर रहा था, उस पर तरस खा रहा था।

    कौन पुत्र अपनी मां पर तरस खाता है?

    वह इस बात को जानती थी। उसका बेटा औरतों के जीवन के विषय में जो कुछ कह रहा था, वह एक चिर-परिचित कड़वा सत्य था और उसकी बातों ने उन मिश्रित भावनाओं को जन्म दिया, जिनकी असाधारण कोमलता ने मां के हृदय को द्रवित कर दिया।

    तम करना क्या चाहते हो? मां ने उसकी बात काटकर कहा।

    पहले स्वयं पढूंगा और फिर दूसरों को पढ़ाऊंगा। हम श्रमिकों को पढ़ना चाहिए। हमें इस बात का पता लगाना चाहिए और इसे भली-भान्ति समझ लेना चाहिए कि हमारे जीवन में इतनी परेशानियां क्यों हैं?

    मां को यह देखकर प्रसन्नता हुई कि उसके बेटे की सदैव गम्भीर और कठोर रहने वाली नीली आंखों में इस समय कोमलता और मृदुलता चमक रही थी। यद्यपि मां के गालों की झुर्रियों में अभी तक आंसुओं की बूंदें कांप रही थीं, किन्तु उसके होठों पर एक शान्त मुसकराहट दौड़ गयी। उसके हृदय में एक द्वन्द्व मचा हुआ था। एक ओर तो उसे अपने बेटे पर गर्व था कि वह जीवन की कटुताओं को इतनी अच्छी तरह समझता है और दूसरी ओर उसे इस बात की चेतना भी थी कि उसने मात्र अपने बलबूते पर ही एक ऐसे जीवन के विरुद्ध संघर्ष करने का बीड़ा उठाया है, जिसे शेष सभी लोग, जिनमें वह स्वयं भी सम्मिलित थी, अनिवार्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं। उसकी इच्छा हुई कि अपने बेटे से कहे कि किन्तु मेरे लाल, तू अकेला क्या कर लेगा? परन्तु वह ऐसा करने से झिझक गयी; क्योंकि मुग्ध होकर वह पत्र को जी भर कर देख लेना चाहती थी। उस बेट को, जो सहसा इतना समझदार, किन्तु कुछ-कुछ अजनबी रूप में उसके सम्मुख प्रकट हुआ था।

    पावेल ने अपनी मां के होठों पर मुसकराहट, उसके मुख पर चिन्तन का भाव, उसकी आंखों में प्रेम देखा और उसे ऐसा लगा कि वह मां को अपने सत्य का आभास कराने में सफल हो गया है। अपनी बोली की शक्ति में युवोचित गर्व ने उसका आत्मविश्वास बढ़ा दिया। वह बड़े उत्साह से बोल रहा था, कभी वह मुसकराता, कभी उसकी त्योरियां चढ़ जातीं और कभी उसका स्वर घृणा से भर उठता; उसके शब्दों में गूंजती कठोरता को सुनकर मां को भय लगने लगता और वह सिर झुलाते हुए धीरे-से पूछती, पाशा! क्या ऐसा ही है?

    और वह दृढ़तापूर्वक उत्तर देता, हां। और वह उन लोगों के बारे में बताता, जो जनता की भलाई के लिए उसमें सच्चाई के बीज बोते थे और इसी कारण से जीवन के शत्रु हिंसक पशुओं की तरह उनके पीछे पड़ जाते थे, उन्हें जेलों में ठूंस देते थे, निर्वासित कर देते थे।

    मैं ऐसे लोगों को जानता हूं। उसने बड़े उत्साह के साथ कहा। वे धरती के सच्चे सपूत हैं।

    ऐसे लोगों के विचार से ही वह कांप गयी और एक बार फिर उसकी इच्छा अपने बेटे से पूछने की हुई कि क्या सचमुच ऐसा ही है, किन्तु उसे साहस नहीं हुआ। दम साधकर वह उससे उन लोगों के किस्से सुनती रही, जिनकी बातें वह समझती तो नहीं थी, परन्तु जिन्होंने उसके बेटे को इतनी भयंकर बातें कहना और सोचना सिखा दिया था। अन्ततः उसने अपने पुत्र से कहा, सुबह होने को है, अब तुम थोड़ी देर सो लो।

    हां, अब सोना चाहिए। उसने कहा और फिर उसकी ओर झुककर बोला, मेरी बातें समझ तो आयीं न?

    हां, उसने आह भरकर उत्तर दिया। एक बार फिर आंसुओं की धारा बह चली और सहसा वह जोर से कह उठी, बरबाद हो जाओगे तुम।

    पावेल उठा, उसने कमरे का चक्कर लगाया और फिर कहने लगा, अच्छा, तो अब तुम जान गयी हो कि मैं क्या करता हूं और कहां जाता हूं। पावेल ने कहा, मैंने तुम्हें अब सब कुछ बता दिया है और अम्मा! मैं तुझसे विनती करता हूं कि यदि तू मुझे प्रेम करती है, तो मेरी राह में बाधा न बनना।

    ओह, मेरे बच्चे। मां ने रोते हुए कहा। सम्भवतः यदि तुम मुझे यह सब न बताते. तो अच्छा होता।

    पावेल ने अपनी मां का हाथ अपने हाथों में लेकर दबाया। उसने जितने प्रेम के साथ ‘अम्मा’ कहा था और जिस नये और विचित्र ढंग से उसने आज पहली बार उसका हाथ दबाया था, उससे मां का हृदय भर आया।

    मैं परेशानी नहीं बनूंगी, उसने भाव विह्वल होकर कहा। किन्तु संभल कर रहना, अपने को बचाये रखना। वह नहीं जानती थी कि उसे किस वस्तु से अपने को बचाना चाहिए, इसलिए उसने पीड़ित होते हुए इतना जोड़ दिया, तुम दिन-ब-दिन कमजोर होते जा रहे हो।

    वह अपने पुत्र के लम्बे-चौड़े बलिष्ठ शरीर पर एक प्यार-भरी दृष्टि दौड़ाते हुए जल्दी-जल्दी और धीमे स्वर में कहने लगी, तुम जो उचित समझो, करो, मैं तुम्हारी राह में बाधा नहीं बनूंगी। बस, तुमसे इतनी ही विनती करती हूं, इस बात का ध्यान रखना कि किससे बात कर रहे हो। तुम्हें लोगों के मामले में सतर्क रहना चाहिए। लोग एक-दूसरे से घृणा करते हैं। वे लालची हैं, एक-दूसरे से जलते हैं, जान-बुझकर दूसरों को हानि पहुंचाना चाहते हैं। जैसे ही तुम उन्हें उनकी सच्चाई बताओगे, वे तुम्हें भला-बुरा कहेंगे. वे जल-भुन जायेंगे और तुम्हें मिटा देंगे।

    पावेल द्वार पर खड़ा उसके वे व्यथा-भरे शब्द सुनता रहा और जब वह अपनी बात समाप्त कर चुकी, तो मुसकरा कर बोला, तुम सही कहती हो-लोग बुरे हैं। किन्तु जैसे ही मुझे यह मालूम हुआ कि इस दुनिया में सच्चाई नाम की भी एक वस्तु है, तो लोग भले मालूम होने लगे।

    वह फिर से मुस्कराया और कहता गया, मैं इसका कारण नहीं जानता, परन्तु मैं बचपन में सबसे डरता था। ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, सबसे घृणा करने लगा। कुछ से उनकी नीचता के लिए और कुछ से बस ऐसे ही! किन्तु अब प्रत्येक वस्तु बदली हई प्रतीत होती है। सम्भवतः मुझे लोगों पर दया आती है? समझ नहीं पाता, परन्तु अब मुझे इस बात का एहसास होता है कि अपनी पशुता के लिए सदैव लोग स्वयं दोषी नहीं होते थे, तो मेरा हृदय कोमल हो उठा।

    वह बोलते-बोलते थम गया, मानो अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुन रहा हो और फिर उसने बड़ी शान्त आवाज में विचारशीलता से कहा, ऐसा होता है सच्चाई का प्रभाव।

    हे ईश्वर! खतरनाक परिवर्तन हो गया है, तुझमें। मां ने कनखियों से उसे देखते हुए आह भरकर कहा।

    जब वह सो गया, तो मां अपने बिस्तर से उठकर दबे पैर उसके पास गयी। पावेल सीधा लेटा हुआ था और सफेद तकिये की पृष्ठभूमि पर उसके सांवले रंग की गम्भीरता और कठोर रूप-रेखा स्पष्ट उभरी हुई थी। नंगे पैर और रात की पोशाक पहने हुए मां अपने सीने पर दोनों हाथ रखे उसके निकट खड़ी थी-मूक होंठ हिल रहे थे और उसके गालों पर आंसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें झलक रही थीं।

    3

    फिर पहले की भान्ति ही उनका जीवन बीतने लगा, दोनों चुप-चुप रहते, एक-दूसरे से दूर, फिर भी काफी निकट।

    एक त्यौहार के दिन पावेल घर से बाहर जाते समय मां से बोला, शनिवार को कुछ व्यक्ति शहर से मेरे पास आयेंगे।

    शहर से? मां ने उसके शब्द दोहराये और सहसा वह रोने लगी।

    क्या बात है, मां? पावेल ने कुछ झल्लाकर कर पूछा।

    मां अपने दामन से आंसू पोंछते हुए आह भरकर बोली, मालूम नहीं, ऐसे ही।

    भय लगता है?

    हां, मां ने स्वीकार कर लिया।

    वह मां की ओर झुक गया और बिलकुल अपने बाप की तरह झुंझलाकर बोला, यही भय तो हमारी तबाही का कारण है। इसीलिए हम पर शासन करने वाले भी हमारे इसी डर का लाभ उठाकर हमें और अधिक डराते रहते हैं।

    बिगड़ो नहीं, मां ने पीड़ित होकर रोते हुए कहा। मैं कैसे न डरूं? मेरा सारा जीवन ही डर में बीता है। डर मेरी आत्मा में समा गया है।

    मां! मुझे अफसोस है, किन्तु मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है। पावेल ने धीरे-से स्नेहपूर्वक कहा। और इतना बोलकर वह चला गया।

    तीन दिन तक मां भयभीत रही। जब भी उसे याद आता कि कुछ अपरिचित और भयानक लोग उसके घर आने वाले हैं, उसका हृदय जोर-से धड़कने लगता। इन्हीं लोगों ने तो उसके बेटे को वह रास्ता दिखाया था, जिस पर वह चल रहा था।

    शनिवार की शाम को पावेल ने फैक्ट्री से वापस आकर मुंह-हाथ धोये, वस्त्र बदले। यदि कोई आये, तो कहना कि मैं अभी आता हूं, उसने मां से दृष्टि न मिलाते हुए कहा। और कृपा करके डर को अपने हृदय से निकाल दो।

    वह बेंच पर बैठ गयी, जैसे किसी ने उसकी शक्ति छीन ली हो। पावेल ने उदास भाव से उसे देखा।

    तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं कि कहीं घूमने चली जाओ। पावेल ने सुझाव दिया।

    पावेल की इस बात से मां को कष्ट हुआ। उसने सिर हिलाते हुए कहा, नहीं! वह किसलिए?

    नवम्बर का आखिर था। दिन में सर्दी से अकड़ जाने वाली पृथ्वी पर अब सूखी बर्फ की पतली चादर बिछ गयी थी, और मां को पुत्र के पैरों तले बर्फ के चरमराने की आवाज सुनाई दे रही थी। रात का अंधेरा चोरों की तरह खिड़की के शीशों से चिपका हुआ था, मानो किसी की घात में हो। मां दोनों हाथों से बेंच पकड़े हुए वहीं बैठी रही, उसकी आंखें द्वार पर जमी हुईं थीं। उसे लगा कि अंधेरे में सभी ओर से विचित्र-से कपड़े पहने हुए भयानक लोग चोरों की भान्ति घर की ओर आ रहे हैं, झुके-झुके और यहां-वहां देखते हुए। अब कोई घर के चारों ओर चक्कर लगा रहा है और अपनी उंगलियों से दीवार को ढूंढ़ता हुआ चल रहा है।

    उसने किसी को गाने की धुन पर सीटी बजाते हुए सुना। उदास और सुरीली आवाज अन्धकार और निस्तब्धता में लहराती हुई आ रही थी, मानो कुछ खोज रही हो, आवाज निरन्तर निकट आती जा रही थी। सहसा खिड़की के बिलकुल निकट आकर आवाज रुक गयी, मानो वह दीवार की लकड़ी में समाकर रह गयी हो।

    बरामदे से किसी के पांवों के घिसटने की आवाज आयी। मां चौंक पड़ी और आशंका से उसकी त्योरियां ऊपर चढ़ गयीं। वह उठी।

    द्वार खुला। बड़ी-सी फर की टोपी में पहले एक सिर दिखाई दिया, फिर एक लम्बा-सा शरीर झुककर दरवाजे से अन्दर आया और तनकर खड़ा हो गया। आगन्तुक ने अपना दाहिना हाथ उठाकर प्रणाम किया, और फिर एक गहरी आह भरकर भारी गूंजती हुई आवाज में बोला, गुड ईवनिंग।

    मां ने कुछ कहे बिना झुककर उसके अभिवादन का उत्तर दिया।

    क्या पावेल घर पर है?

    आगन्तुक ने धीरे-धीरे अपनी फर की जैकेट उतारी, एक पांव उठाकर अपनी टोपी से जूतों पर जमी हुई बर्फ झाड़ी, फिर दूसरा पांव उठाकर यही क्रिया दोहरायी और अपनी टोपी को एक कोने में फेंककर लम्बी-लम्बी टांगों पर झूलता हुआ टहलता हुआ-सा कमरे के दूसरे कोने में चला गया। उसने एक कुर्सी को गौर से देखा, मानो यह विश्वास कर लेना चाहता हो कि वह कुर्सी उसे संभाल सकेगी या नहीं और फिर कुर्सी पर बैठकर मुख पर हाथ रखकर जम्हायी लेने लगा। उसका सिर काफी सुडौल था और उसके बाल छोटे-छोटे कटे हुए थे। उसकी दाढ़ी बिलकुल सफाचट थी और मूंछों के दोनों सिरे नीचे की ओर लटके हुए थे। उसने अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आंखों से कमरे की प्रत्येक वस्तु को बड़े गौर से देखा।

    यह घर तुम्हारा अपना है अथवा किराये का है? उसने टांग रखकर कुर्सी पर झूलते हुए पूछा।

    किराये का है, मां, जो उसके सामने बैठी थी, ने उत्तर दिया।

    यह कोई विशेष अच्छी जगह तो नहीं है। उसने अपना मत प्रकट करते हुए कहा।

    पावेल अभी आ जायेगा, थोड़ी देर प्रतीक्षा करो।

    वह तो कर ही रहा हूं। उस बड़े डील-डौल वाले आदमी ने शान्त भाव से उत्तर दिया।

    उसके शान्त भाव, उसके नरम स्वर और उसके सीधे-सादे साधारण चेहरे से मां को ढाढस बंधा। उसका देखने का तरीका बड़ा निस्संकोच और मित्रतापूर्ण था और उसकी निर्मल आंखों की गहराइयों में उल्लास की ज्योति नाचती थी। उसका बेडौल शरीर कुछ झुका हुआ और टांगें बहुत ही लम्बी थीं, फिर भी उसकी आकृति में कुछ ऐसा आकर्षण था, जो बरबस मोह लेता था। वह एक नीली शर्ट पहने था और चौड़ी मोरी की उसकी काली पतलून बूटों में खुंसी हुई थी। मां उससे जानना चाहती थी कि वह कौन था, कहां से आया था और क्या वह उसके बेटे को बहुत समय से जानता था,

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