लघुकथा मंजूषा 5
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“क्यों बे! बाप का माल समझकर मिला रहा है क्या?" गिट्टी में डामर मिलाने वाले लड़के के गाल पर थप्पड़ मारते हुए ठेकेदार चीखा।
"कम डामर से बैठक नहीं बन रही थी ठेकेदार जी। सड़क अच्छी बने यही सोचकर डामर की मात्रा ठीक रखी थी।" मिमियाते हुए लड़का बोला।
"मेरे काम में बेटा तू नया आया है। इतना डामर डालकर तूने तो मेरी ठेकेदारी बंद करवा देनी है।" फिर समझाते हुए बोला, "यह जो डामर है इसमें से बाबू, इंजीनियर, अधिकारी, मंत्री - सबके हिस्से निकलते हैं बेटा। खराब सड़क के दचके तो मेरे को भी लगते हैं। चल! इसमें गिट्टी का चूरा और डाल।" मन ही मन लागत का समीकरण बिठाते हुए ठेकेदार बोला।
वर्जिन साहित्यपीठ
सम्पादक के पद पर कार्यरत
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लघुकथा मंजूषा 5 - वर्जिन साहित्यपीठ
लघुकथा मंजूषा
5
वर्जिन साहित्यपीठ सम्पादन मंडल
ललित कुमार मिश्र एवं ममता शुक्ला
वर्जिन साहित्यपीठ
प्रकाशक
वर्जिन साहित्यपीठ
9971275250 / sonylalit@gmail.com
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण - जुलाई 2020
कॉपीराइट © 2020 वर्जिन साहित्यपीठ
ISBN
कॉपीराइट
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पेट का सवाल
सतीश राठी
"क्यों बे! बाप का माल समझकर मिला रहा है क्या?" गिट्टी में डामर मिलाने वाले लड़के के गाल पर थप्पड़ मारते हुए ठेकेदार चीखा।
कम डामर से बैठक नहीं बन रही थी ठेकेदार जी। सड़क अच्छी बने यही सोचकर डामर की मात्रा ठीक रखी थी।
मिमियाते हुए लड़का बोला।
मेरे काम में बेटा तू नया आया है। इतना डामर डालकर तूने तो मेरी ठेकेदारी बंद करवा देनी है।
फिर समझाते हुए बोला, यह जो डामर है इसमें से बाबू, इंजीनियर, अधिकारी, मंत्री - सबके हिस्से निकलते हैं बेटा। खराब सड़क के दचके तो मेरे को भी लगते हैं। चल! इसमें गिट्टी का चूरा और डाल।
मन ही मन लागत का समीकरण बिठाते हुए ठेकेदार बोला।
लड़का बुझे मन से ठेकेदार का कहा करने लगा। उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर ठेकेदार बोला, बेटा, सबके पेट लगे हैं। अच्छी सड़क बना दी और छह माह में गड्ढे नहीं हुए तो, इंजीनियर साहब अगला ठेका किसी दूसरे ठेकेदार को दे देंगे। इन गड्ढों से ही तो सबके पेट भरते हैं बेटा।