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21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू)
21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू)
21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू)
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21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू)

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About this ebook

भारत एक विशाल देश है, जिसमें अनेकों सभ्यताओं, परंपराओं का समावेश है। विभिन्न राज्यों के पर्व-त्योहार, रहन-सहन का ढंग, शैक्षिक अवस्था, वर्तमान और भविष्य का चिंतन, भोजन की विधियां, सांस्कृतिक विकास, मुहावरे, पोशाक और उत्सव इत्यादि की जानकारी कथा-कहानी के माध्यम से भी मिलती है। भारत के सभी प्रदेशों के निवासी साहित्य के माध्यम से एक-दूसरे को जानें, समझें और प्रभावित हो सके, ऐसा साहित्य उपलब्ध करवाना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा 'भारत कथा माला' का अद्भुत प्रकाशन।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 15, 2022
ISBN9789391951511
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    21 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan - Neelam Saraf

    खालिद हुसैन

    परिचयः

    खालिद हुसैन का जन्म 1 अप्रैल, 1945 को उधमपुर, जम्मू कश्मीर में हुआ। इन्होंने 40 वर्षों से अधिक समय तक विभिन्न प्रशासपिनक पदों पर काम किये हैं। ये उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी, पहाड़ी, गुजरी, डोंगरी, कश्मीरी और पंजाबी भाषा के ज्ञाता हैं।

    इनकी 150 से अधिक लघु-कथाएँ देश और विदेश के प्रमुख समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं।

    घृतकुमारी

    कल रात जो तेज़ हवायें चलीं, जो तूफान आया, बिजली गिरी- क्या आप जानते हैं कि इसमें किस-किस का घर उजड़ गया? नहीं जानते..... भला! आपको क्योंकर पता हो। यहाँ कौन किसी की खबर रखता है। यहाँ तो सभी अपने-अपने शीशमहलों में मस्त रहते हैं। खैर.....आइये! मैं आपको बताऊँ कि कल रात की आँधी में जुलाहों की बस्ती का कौन-कौन सा घर उजड़ा। कहाँ-कहाँ बिजली गिरी। किस-किस की झोंपड़ी तबाह हुई। किन-किन मकानों की दीवारें गिरी। मलबे के नीचे दब कर कौन-कौन मरा? साईं मंगला! हाँ! वही जो गंडा-तावीज़ देने का धंधा करता था और अल्लाह हू की फूंकें मारता था.....उसका तकिया जल गया.....और वह चंडू के कश लेता-लेता हमेशा के लिए अल्लाह हू हो गया.....आशा नाईन की झुग्गी, शहीदे ठठेरे की झोंपड़ी, मिलखी राम की दुकान, गुलाम पाण्डी का कोटा.....सब ढेर हो गए और बिजली, जामी तरखान के मकान पर भी गिरी. .....जिसके एक कमरे में गुल्लाँ सोई पड़ी थी। गुल्लाँ.....जामी तरखान की छोटी बहू, नसीरे की बीवी, जाजी की भावज.....जाजी की भावज पर बिजली गिरने से जामी का मकान जला नहीं, गिरा भी नहीं.....केवल कमरा कांप गया, जिसमें पड़ी एक चारपाई पर गुल्लाँ मस्त नींद सोई हुई थी, क्योंकि बिजली सीधी गुल्लाँ पर ही गिरी थी.....गुल्लाँ पर गिरने वाली बिजली से चारपाई की चूलें हिल गईं। आंगन में जामुन का पेड़ चीखा। परन्तु आँधी और तूफान के कारण धुंध बिखरी हुई थी। उसकी शां-शां करती चीखें, किसी ने नहीं सुनीं। बिजली अपना काम कर गई। गुल्ला की सारी काया झुलस गई।

    गुल्लाँ एक अनाथ लड़की थी। उसके माँ-बाप, बहन-भाई सब जातीय दंगों में मर-खप चुके थे। किसी दूर के मामू के घर पली गुल्लाँ.....नमक, मिर्च, अचार के साथ-साथ बासी-सूखी रोटियाँ खाने और झिड़कियों-फटकारों और गालिऐं की लस्सी पीने के बावजूद भी जंगली फूल की तरह खूब खिली.....जब उसका यौवन मैले कपड़ों में अठखेलियाँ करने लगा और वह धरती पर तारे लुटाने लगी तो उसके मामू ने जामी तरखान के छोटे लड़के नसीरे के साथ नमकीन चाय और अरबी खजूरों पर गुल्लाँ का रिश्ता जोड़ दिया.....गुल्लाँ दुल्हन बन कर जुलाहों की बस्ती में आ गई। वह नए घर और नए वातावरण में आकर खुश थी। क्योंकि यहाँ उसे प्यार मिला था, परन्तु कभी-कभी उस प्यार की गर्मी को नसीरा शराबी बनकर ठंडा कर देता। जुलाहों की बस्ती में देसी शराब की सरकारी दुकान के अतिरिक्त अड़ोस-पड़ोस में अवैध शराब की कई भट्ठियाँ होने के कारण वैसे तो सारा गाँव शराब का शौकीन था, परन्तु नसीरा जितना खुलकर रंदा फेरता, उतनी ही खुलकर शराब पीता।

    गुल्लाँ के रोकने और टोकने पर उससे झगड़ा करने लगता और शराब के नशे और गुस्से में गालिरों से भरी टोकरियाँ खाली कर देता। इस प्रकार घर के मीठे वातावरण में फीकापन आ जाता। फिर सुहाग का लाल जोड़ा फटने के साथ-साथ गुल्लाँ भी ईंट का जवाब पत्थर से देने लगी। ऐसे ही गाली-गलौच के काग लड़ते रहते। कभी-कभार दोनों में हाथापाई तक की नौबत आ जाती। थप्पड़, मुक्के और लातें खाकर गुल्लाँ रोने लगती और नसीरे को जी भर के बद्दुआएँ देती। नसीरे की माँ उसे पकड़ती। कभी उसे बुरा-भला कहती और कभी अपनी कोख को कोसती। पड़ोसी मुंडेरों पर चढ़कर तमाशा देखते। आखिर गुल्लाँ का जेठ जाजी, नसीरे की अक्ल ठिकाने लगाता और घर की अशान्ति को शान्त कर देता.....फिर न जाने गुल्लाँ की कौन-सी बद्दुआ नसीरे पर असर कर गई कि वह सर्राफों के घर अलमारियाँ बनाने के लिए आरे पर लकड़ी क्या चराने गया कि चलती मशीन का पटा टूटा और उसके भी टुकड़े कर गया। नसीरे की लाश को देखकर गुल्लाँ ने जो विलाप किया, उससे सारी बस्ती का दिल दहल गया। वह छाती पीटने लगी, उसने सिर के बाल नोच डाले। वह अपने तीन साल के गुलज़ारे और एक साल के युसफे को बार-बार गले लगाती और उनकी यतीमी का मर्सिया पढ़ती जाती। लाश को नहलाने, कफन पहनाने और जनाज़ा ले जाने तक वह कई बार बेहोश हुई। औरतें उसे दिलासा देती जाती, और खुद भी रोती जातीं। नसीरा अभी अठाईस साल का नहीं हुआ था कि हज़रत इज़राईल ने उसकी रूह कब्ज़ कर ली। नसीरे की बे-वक्त मौत की वजह से उसके जनाज़े में सारे बस्ती वाले शामिल हुए। कलमा-ए-शहादत पढ़ने की आवाजों के साथ जनाज़ा निकला और मग्फिरत की दुआ के साथ नसीरे को कब्र में दफना कर लोग घरों को वापिस आ गए। नसीरे की मौत के कुछ ही दिनों बाद उसकी बेचारी माँ भी अल्लाह को प्यारी हो गई और इस तरह घर की हुकूमत पूरी तरह जाजी के हाथ में आ गई।

    गुल्लाँ कुछ देर के लिए जम-सी गई। घर की चीजें, मकान के कमरे, कमरे की दीवारें, आँगन में लगा जामुन का पेड़-सब के सब उसे अपनी तरह उदास लगते। कई बार उसकी आँखों के सामने नसीरे का चेहरा घूमने लगता जो उसके साथ बातें करता, उसे गालियाँ देता। उसे नसीरे का शराबीपन, गालियाँ, चूंसे, थप्पड़-सारे रूप अच्छे लगने लगते। वह चाहती कि नसीरा उसके शरीर को नोचे लेकिन आँख झपकते ही गुल्लाँ अपनी असली हालत में आ जाती। जिंदगी की इस भीड़ में वह बाहर से तो सही सलामत दिखाई देती थी लेकिन अंदर से वह सारी की सारी टूटी हुई थी। वह दो बच्चों को क्या खिलाए, उनको कहाँ ले जाए, विधवा जवानी के दिन कैसे गुज़ारे। यह सोच-सोच कर उसके चेहरे की लकीरों में बल पड़ गए। वह चिंता की झाड़ियों में उलझ गई, उसकी आत्मा चिंतित हो गई। ऐसी ही दशा में उसे तसल्लियाँ देने लगा।

    गुल्लाँ! तू चिंता न कर। नसीरे के बच्चे मेरे बच्चे हैं। इस घर पर तुम्हारा उतना ही हक है जितना कि मेरा। मैं कमाऊँगा, पहले तुम सब खाओगे फिर हम खाएँगे। जाजी के इस सहानुभूति के राग में कई सुर मिले हुए थे मगर गुल्लाँ जाती भी कहाँ। वह घर छोड़ कर दर-ब-दर होना नहीं चाहती थी। इसलिए वह संयम रख कर बैठ गई लेकिन जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि उसकी हैसियत आटे में छान-बूरे से ज्यादा नहीं। जाजी की जोरू हमीदां अधरंग की मारी काफी समय से पलंग पर पड़ी थी, मगर उसकी जुबान को तो अधरंग नहीं हुआ था। वह पलंग पर बैठी-बैठी भी आग उगलती रहती। सच पूछे तो उसकी ज़बान तालू के साथ लगती ही नहीं थी। जाजी की बेटी नीफां भी कभी-कभी चाची पर जामुन की गुठलियाँ फेंकती रहती। वैसे मिट्टी के बर्तन आपस में खनकते रहते, टूटते रहते मगर जब जामुन के पेड़ के नीचे छाँव न रही और जामुन खाने में बिलकुल मज़ा नहीं रहा तो गुल्ला ने अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिए। वह सीने-पिरोने का काम जानती थी। इसके अतिरिक्त कुछ बड़े घरों में कपड़े और बर्तन साफ करके वह गुलज़ारे और यूसफे को पालने के साथ-साथ अपना पेट भी भरने लगी।

    हमीदाँ के अधरंग ने जाजी की सारी शराफत भंग कर दी थी। वह कभी-कभी ज़रूरत के मुताबिक खुली चरागाहों में जाकर घास चर लिए। करता था, लेकिन जब से नसीरा नेक हूरों के हाथों शराब-ए-तहूर पीने जन्नत में चला गया था, तब से जाजी का चंचल मन गुल्लाँ संग चंग बजाना चाहता था। उसके चरखे पर अपना सूत कातना चाहता था। उसके साथ चादर बरदारी जैसा कोई रिश्ता कायम रखना चाहता था। वह धार्मिक मठाधीशों के ऐतराज़ उठाने पर गुल्लाँ के साथ निकाह करने को भी तैयार था। जाजी कई बार आँखों में खुमारी का रंग भर कर और सूखे होंठों पर चिकनी जीभ फेर कर गुल्लाँ को अपनी बात समझाने की कोशिश करता, गुल्लाँ उसकी आँखों और होंठों की मौन भाषा पढ़ कर चुप रहती-लेकिन एक दिन जब जाजी ने शराब के नशे में गुल्लाँ का हाथ पकड़ लिए और उससे अपने दिल की बात साफ-साफ कह दी। तो गुल्ला ने घर में कोहराम मचा दिया। वह मुहल्ले वालों को सुना रही थी।

    जेठ बाप की जगह होता है, मैं इसकी बेटी की तरह हूँ। इसने ये बात कहने की हिम्मत कैसे की? ऐसी बात करते इसे शर्म नहीं आई। इतनी ही आग लगी है तो नीफां से क्यों नहीं कर लेता शादी। छोटे भाई की विधवा पर बुरी नज़र रखता है। खुदा करे ये किसी गाड़ी के नीचे कट मरे. ....हरामी.....बदमाश.....साला।

    गुल्लाँ को हंगामा करते देख जाजी घर से बाहर चला गया, पर जुलाहों की बस्ती में यह बात फैल गई कि जाजी गुल्लाँ के साथ निकाह करना चाहता है। मुहल्ले की कुछ दुनिया देखी बुजुर्ग औरतों ने गुल्लाँ को समझाया कि वह जाजी की बात मान जाए ताकि घर की इज़्ज़ज घर में ही रहे। लेकिन गुल्लाँ अपने शरीर को फिर सुलगते हुए तन्दूर में फेंकने के लिए तैयार नहीं थी। वह सिर्फ युसफे और गुलज़ारे के लिए जी रही थी, नहीं तो उसकी आशाओं और कामनाओं का बसता शहर कब का खण्डहर बन चुका था। उसके दिल में आस के धुंघरू बजने कब के बंद हो चुके थे। दुनिया की हर चीज़ उसके लिए अर्थहीन हो गई थी। जाजी को यह विश्वास होने पर कि उसकी इच्छाओं के बादल जितनी मरज़ी बारिश बरसाएँ, गुल्लाँ के ठंडे जिस्म में फूल नहीं उग सकते। वह बाज़ की भांति अपने नाखून तेज़ करने लगा ताकि अवसर मिलते ही वह जामुन के पेड़ पर बैठी हुई कबूतरी का शिकार कर सके और कल सियाह रात को तेज़ आँधी में जो बिजली गिरी, वह इंसानी बिजली-जाजी के रूप में सीधी गुल्लाँ पर गिरी थी जिससे गुल्लाँ का सारा शरीर झुलस गया–गुल्लाँ, जो मियाँ मिठू की तरह अपने आपको इस घर के पिंजरे में सुरक्षित समझती थी, उसे पिंजरे में ही बिल्ली ने दबोच लिए। कई दिनों तक गुल्लाँ चूल्हे की लकड़ी की तरह सुलगती रही, जलती रही-फिर उसने जाजी से बदला लेने का फैसला कर लिए। उसके कुतरे पँख फिर उग आए। वह पिंजरे के सीखचों से बाहर निकल आई और अपने अंदर उगा हुआ धतूरा-जाजी को खिलाने के लिए तैयार हो गई। जाजी की बेटी नीफां शरअ मुहम्मदी के मुताबिक जवान हो चुकी थी। उसके बदन पर वो सारे हथियार सज चुके थे जिनसे कोई भी व्यक्ति घायल हो सकता था। तभी तो जाजी ने शहीदे ठठेरे के लड़के जीरे दरजी के साथ उसकी शादी कर दी–गुल्लाँ और नीफां में बस इतना ही अन्तर था। जितना एक फूल और कली में होता है और जीरा पच्चीस साल का जवान गभरू एक उबलता दरिया-कली से संभाला नहीं गया, नीफां का कोई भी हथियार जीरे को घायल नहीं कर सका।

    शादी के बाद जीरा ससुराल आने-जाने लगा और गुल्लाँ-नीफां की पतंग काटने के लिए अपनी डोर पर मांझा चढ़ाने लगी और एक दिन उसके कुर्ते से झांकती हुई नॉयलान की अंगिया ने नीफां की पतंग को ऐसी ठिंगी मारी कि पतंग कटकर सीधी गुल्लाँ के कदमों पर आ गिरी। लौंग के लश्कारे से जीरे के सारे शरीर में शरारे नाचने लगे। उसकी आँखों में प्यास के जुगनू झिलमिला उठे। बस फिर वह झिलमिलाते जुगनू गुल्ला ने बुझने नहीं दिए इस प्रकार उबलता दरिया सारे का सारा गुल्लाँ ने हज्म कर लिए। नीफां बेचारी को एक बूंद पानी भी पीने को नहीं मिला-कहते हैं कि औरत के लिए दिन लोहे का छल्ला होता है और रात सोने का झूमर लेकिन नीफां के घोंसले पर कब्जा जमाने के बाद गुल्ला के लिए दिन भी सोने की झांझर था और रात भी-जीरा उसके लिए सावन की मीठी फुहार बन गया और वह रिमझिम फुहार में नहाने लगी-वो दोनों गुल्लू के वाड़े और शीतला मन्दिर में जाकर बेर खाते, तवी और नहर के ठंडे पानी में नहाते, बाहू, मुरालिणं, सरूईंसर और नागबनी की हवाओं में लहराते और कभी-कभार दिल पर जमी गुनाह की गर्द का एहसास जागने पर वह पीर बाबा की दरगाह पर जाकर चिराग जलाते और झाडू देते ताकि गर्द साफ हो जाए।

    नीफां की अम्मां हमीदां जीरे को गुल्लाँ के फूलों के साथ खेलते देखकर बड़ा तड़पी। वह अधरंग की मारी नीफां को गुल्लाँ की चारपाई के नीचे रुलते देखकर खुद पलंग से ऐसी गिरी कि उसकी ज़बान हमेशा के लिए तालू से जा लगी-जाजी ने जीरे को गुल्लाँ की चादर से बाहर निकालने के लिए बहुत ज़ोर लगाया। उसने जीरे को प्यार से समझाया, गुस्से से डांटा, मारा-पीटा लेकिन जीरा एक हठी बालक-फूल हाथ से छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। थक हार कर जाजी ने जीरे से कह दिया कि वह नीफां को तलाक दे दे-जीरा तैयार हो गया लेकिन गुल्ला ने जीरे को तलाक देने नहीं दिया।

    जाजी के लिए सारी कायनात बेजान हो गई। वह नीफां की आँखों में चुप की ज़रदी देखकर जागरण की सूली चढ़ता रहा। मगर वह नीफां को दर्द सहने और भूखा-प्यासा मरते कब तक देखता रहता-उसने नीफां की मरुभूमि में हरियाली लाने का निश्चय कर लिए। उसने प्रण किया कि वो कली मसलने वालों को बरबाद कर देगा। उसने अपने अंदर रुके हुए लावे का ढकना उठाया और आँखों में अंगारे लेकर गुल्ला के सामने जा खड़ा हो गया, परन्तु गुल्ला के सामने जलती आग का कोई बस नहीं चला। उसकी तीखी मुस्कान जाजी के सारे जिस्म को ठंडा कर गई। आँखों के अंगारे बुझ गए और दिल का दर्द आँसुओं में ढल गया। उसका रो-रोआं नीफां के सुख की भीख माँगने लगा-

    "मेरे जुर्म की सज़ा नीफां को न दो। उस पर रहम करो, वो तुम्हारी भी तो बेटी है और बेटी का घर माँ उजाड़ती नहीं। मुझे मुआफ कर दो।

    बख्श दो, जीरे को आज़ाद कर दो।"

    जाजी को धतूरा खाते देखकर गुल्लाँ बहुत खुश हुई। वह खिलखिला कर हँसने लगी। उसकी हँसी से जामी तरखान का मकान, मकान के अंदर लगा जामुन का पेड़, पेड़ पर बैठे पंछी काँप उठे। जुलाहों की बस्ती में बिजली एक बार फिर कौंधी परन्तु अब की बार मकान नहीं गिरे। किसी झोंपड़ी पर गाज नहीं गिरी परन्तु गरजती बिजली की चमक में जाजी के अस्तित्व से धुआँ उठते सबने देखा।

    ओम गोस्वामी

    इसी रचनाकार की कुछ चर्चित हिन्दी पुस्तकें:-

    कहानी संग्रह

    निर्वासित (1974 ई.)

    बारह कहानियां (1982 ई.)

    सर्द आग (1983 ई.)

    सनोवर विला में एक अजनबी (2010 ई.)

    मरी हुई मछली और अन्य कहानियां (2015 ई.)

    लाल चौक का बादशाह (2016 ई.)

    निबंध

    दायित्व

    शोध

    बावा जितमल और बुआ कौड़ी......

    जय सुकराला

    कल्याण मूर्ति बावा मेईमल्ल

    महाकाली बाहवे वाली

    जाहरवीर राजा मंडलीक

    सिद्ध गौरिया

    बिरपानाथ : कथा और इतिहास

    कालीवीर : कथा तथा उपदेश

    द्विभाषी लेखक के रूप में प्रसिद्ध ओम गोस्वामी दशकों पूर्व डोगरी के साथ-साथ हिंदी में भी कहानियाँ लिखने लगे थे। इनकी कहानियाँ भारत की सुपरिचित हिंदी पत्रिकाओं में वर्षों प्रकाशित होती रहीं। अंग्रेजी के अतिरिक्त प्रमुख भारतीय भाषाओं में दर्जनों कहानियाँ अनूदित हो चुकी हैं। इनकी कहानियों पर ‘टेली सीरियल’ भी प्रसारित हो चुके हैं। बेशतर कहानियों में मुख्यता साधारण-जन की व्यथा तथा सीमांतवादी लोगों की दशा, परिस्थितियाँ और समस्याएँ चित्रित हुई हैं। साहित्य, संस्कृति, लोक-वार्ता अध्यात्म तथा कोशकारिता से संबद्ध इनकी 125 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

    हिंदी कहानी संग्रहः निर्वासित 1974 ई., बारह कहानियाँ 1982 ई., सर्द आग 1983 ई., सनोवर विला में एक अजनबी 2010 ई., मरी हुई मछली और अन्य कहानियाँ 2013 ई., लाल चौक का बादशाह 2017 ई.।

    हिंदी नाटकः सफेद चील, परिंदे एक पेड़ के, युगांत गाथा, जीवन और स्वार्थ, रोशनी की कैद।

    हिंदी उपन्यासः उपेक्षिता, काले कजरारे दिन, दर्द की मीनार, बिम्ब-प्रतिबिम्ब।

    पुरस्कारः साहित्य अकेडमी, नई दिल्ली, से मुख्य पुरस्कार के अतिरिक्त ‘अनुवाद पुरस्कार’ तथा ‘बाल-साहित्य’ पुरस्कार मिल चुके हैं।

    जम्मू कश्मीर की अकादमी द्वारा भी पुरस्कृत।

    अंधेरे में डूबी एक पुलिया

    शाम ढलते ही गांव में सूखी टहनियों से चूल्हे सुलगने लगते। भक-भक करके जलते पत्तों के धुएं से वातावरण में विचित्र-सी गंध फैल जाती। आकाश के कोनों में छितरायी वसंती आभा को देखकर घुन्ना असहज होने लगता। अब वह बालक नहीं था, घर-बार वाला जिम्मेवार व्यक्ति था। परन्तु, हर शाम उसे अपना-आप उदासी के शिकंजे में कसा जाता मालूम पड़ने लगता।

    बचपन की अलबेली स्मृतियां राह भटके पंछियों की तरह घर लौटने लगतीं। बछड़ों और गायों के रंभाने के सुर, धूल से भरा आसमान और जलते पत्तों की तीखी गंध। वह कच्ची छत पर चढ़ जाता और भगवे रंग में रंगे आकाश की ओर गर्दन उठाकर हांक लगाता-आ लक्ख निरंजन! कोई न जानता था उसने अलख जगाना कहाँ से सीखा। बिरादरी की बुढ़ियाँ हँसी-हँसी में कह देतीं- भानी। तेरी गोद में गरु गोरखनाथ का कोई चेला चला आया है।

    पिछले जनम कहीं तप-भंग हुआ होगा। इसी वास्ते दुबारा जून भोगने चौरासी के चक्कर में फंस गया। कोई दूसरी कहती।।

    घुन्ना आज फिर असहज था, चिन्ता में डूबा हुआ। आँगन में परेशान हाल वह इधर-उधर चक्कर काट रहा था। एक दीवार से दूसरी दीवार तक जाता, फिर मुड़कर लौट आता। हथेलिणं रगड़ता, हाथ मरोड़ता, मुट्ठियाँ भींचता। न जाने क्या था जो उसके तमाम अस्तित्व को जकड़ता जा रहा था। जी में आता गला फाड़कर चीखे-आ लक्ख निरंजन! और हाथ में चिमटा लिए नंगे पाँव कहीं चला जाए, चलता जाए, बस।

    सहसा एक सौम्य तथा दढचित्त साँवली मरत इस आवारा सोच का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती। यह देवकी होती। उसके सामने पड़ते ही वैराग्य का क्षणिक आवेश काफूर हो जाता। घुन्ना ठिठका खड़ा रह जाता।

    परकोटे के परे बिस्सों ने देखा तो वे जान गए की लड़के के अन्तस् में कोई प्रबल झंझावात झूल रहा है। उसकी गुमसुम तडप को वे बरसों से देखते चले आ रहे थे। वह झटपट रसोई घर में आए और भानी से बोले अरी, भली लोक! तेरा घुन्ना आज कुछ ठीक नहीं लगता।

    फुलका चाँटते भानी के हाथ एकाएक थम गए। अज्ञात की आशंका से मन में घबराहट घनीभूत हो उठी। कुछ कहें भी तो; हुआ क्या है? उसकी आवाज़ में उतावलापन झलक उठा।

    वह परेशान-सा आँगन में घूम रहा है। लाड़ी (बहू) न जाने कहाँ गयी हुई है?

    हथेली से नीचे लटकती टूटने को हो आयी रोटी को संभालते हुए भानी बोली-भूख लगी होगी। मैं जानती हूँ, भूख लगने पर वह बावरा होने लगता है।

    मगर देखो तो स्वभाव का कितना कड़ियल है। क्या तेरे से माँगने में कुछ हरज हो जाता है। हम गैर थोड़े ही हैं। बाप के घर से लेकर खाने में शरम आती है, शरमज़ादे को।

    मैंने आपसे कहा था- इसे अलग न करें। बाप होकर भी आपने पता नहीं कौन-से जनम का बैर निभाया है इस बावले से।

    तू नहीं जानती। कहते-कहते बिस्सोराम रुके। जेब से बीड़ी निकाल कर होठों में धरी। चिमटे से अंगारा पकड़कर इसे सुलगाने लगे। फिर पक-पक करते धुएँ के गोले हवा में उगलकर बोले- इसलिए अलग किया था कि अपने हाथ-पाँव सीधे कर ले, मेरे जीते-जी। तेरे लाड़ ने उसे उमर भर के लिए हाड़-गोड़ से हरामी बना डाला। काम के नाम पर अलख निरंजन बोलने वाला महाआलसी बना दिया उसे। मैं चाहता था कंधों पर बोझ पड़े तो असमय का यह राग अलापना बंद करे। गबरू जवान हो चला था, पर तूने अपने हाथ से कौर तोड़कर इसके मुँह में डालना न छोड़ा। उसी से बिगड़ गया। रेल एक बार पटरी से हट जाए तो आसानी से अपनी जगह पर नहीं आती। उसका भला चाहकर मैंने कौन बुरा काम कर डाला।"

    भानी ने धुआँ छोड़ती लकड़ियों को कुरेदकर फेंक लगायी। आग की सुनहरी लपट उठते ही बोली- अलग करके आपको ठंड पड़ गयी न। अब तो जैसे वह बड़े-बड़े पहाड़ खोदने लगा है।

    बिस्सो का स्वर कड़वाहट से भर गया। उसे कौन-सा मैंने घर से निकालकर चौराहे पर फेंक दिया है। उसकी शादी कराई। घर, रसोई, जमीन जो उसका बनता था दिया। आंगन में दीवार लगवाई है तो किसी दु:ख के मारे नहीं। यह भी उसी के भले के वास्ते किया है ताकि समझ ले कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है। पग-पग पर स्वार्थ और ठोकरें हैं। वह बड़ा होकर भी छोटा होने का भरम कब तक पाले रखेगा। जीने के लिए काम करना पड़ता है। नहीं तो इस जमाने में कोई किसी को पानी के वास्ते नहीं पूछता.....।"

    भानी एकटक बिस्सो का चेहरा निहारती रही। मरद कितनी कठिन और कड़वी बातें कितनी सहजता से कह सकते हैं। फिर बोली- बेचारी देवकी है। उसने इसे हथेलिरों पर उठा रखा है। नहीं तो, न जाने इस बेचारे का क्या बने। उसने आटे का पेड़ा परात में रखा और उठकर बाहर चली आयी।

    घुन्ना अपने आंगन में ड्योढी के पास खड़ा था।

    लाडी। भानी ने नज़र से उसे इधर-उधर तलाशते हुए कहा।

    भीतर से कोई आहट या आवाज़ बाहर न आयी। वह दुबारा हाँक लगाने लगी थी, तभी घुन्ने ने इधर देखा।

    क्या बात है बच्चू। देवकी कहाँ है?

    अम्मा, मैं अम्बरसर चला जाऊँगा-स्वर्ण मन्दिर। वहाँ संगतों की जूतियाँ पोंछ डाला करूँगा। कहते हैं वहाँ बड़ा लंगर लगता है। दो टेम की रोटी मिल जाती है। रोषभरी बात में बचने की ज़िद पहचान कर धीमे से मुस्कुरा दी भानी। एकाएक ममता उमड़ पड़ी।

    बच्चू, अगर तूने इतनी दूर सिरफ लंगर छकने जाना है तो मेरे घर में अनाज की कमी नहीं हुई अभी। पगले, किसान का खेत किसी मन्दिर से कम नहीं होता। उसके घर सदाबर्त लगा रहता है, कई लोग उससे भोजन पाते हैं। पंडित जी क्या बतलाते रहे उस रोज कि गुरु नानक जी आपे किसान थे। मेहनत के पसीने को चरणामत मानते थे.....।

    मैं साधुओं की टोली के संग चला जाऊँगा। खीझ कर उसने माँ के उपदेश को काट डाला। स्वर रूठे बच्चे-सा हो रहा था देखकर भानी हँस दी।

    आँखों के सामने बे-मौसम बिजली-सी चमक गयी।

    .....दहलीज़ पर कनफटा जोगी चिमटा बजा रहा था। किसी ने बहका कर भेजा होगा। बिस्सों के दरवाजे पर अलख-निरंजन की पुकार गूंज रही थी। घुन्ना दौड़ा-दौड़ा आँगन में चला आया था। वह जोगी के स्वर में स्वर मिलाने लगा था- अलख-निरंजन।

    भिख्या दे भगत। बिस्सो को सामने आता देखकर जोगी बोल पड़ा।

    बिस्सो दो गर्म-गर्म रोटियों पर आम का अचार रखकर ले आया।

    न-न भगत, पेट भरने की बात नहीं है। हमारा सवाल बड़ा है।

    इसी समय भानी बाहर निकल आयी थीं। क्यों बाबा, कौन-सा बड़ा सवाल है। हम गरीबों में रुखी-सूखी जैसी बन पड़ी, तुम्हारे सामने रख दी.....।

    "माई गुरु गोरख का एक बाल-जोगी तेरे घर जनमा है। उसके कानों में मुन्दरे डलवा कर जोगपंथ की सेवा में

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