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कथा रंजिनी
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कथा रंजिनी

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About this ebook

यह पुस्तक आज के जीवन के भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दों पर आधारित लघु हिंदी कहानियों का संग्रह है। प्रत्येक कहानी का लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों और धारणाओं से जुड़ाव होता है। कहानियों में बचपन, किशोरावस्था, मध्य और बुढ़ापे की सच्ची भावनाओं को दर्शाया गया है। प्रयुक्त भाषा सामान्य बोली और क्षेत्रीय बोली है।

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateMar 12, 2021
ISBN9789354381669
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    कथा रंजिनी - डॉ. अनुज

    कथा रंजिनी

    BY

    डॉ.अनुज


    pencil-logo

    ISBN 9789354381669

    © डॉ.अनुज 2020

    Published in India 2020 by Pencil

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: This is a work of fiction. Names, characters, places, events and incidents are the products of the author's imagination. The opinions expressed in this book do not seek to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    ड्र्रा्.अनुज पेशे से एक वरिष्ठ हैंड सर्जन व माईक्रो सर्जन हैैं, व पिछले तीस साल से इस पेशे में संलग्न हैैं।

    इनकी दो पुस्तकें…… ‘भाव रंजिनी’ व ‘भाव सृजन’ , जिनमें हिंदी कविताओं का संकलन है, प्रकाशित हो चुकी हैं।

    दो अंग्रेजी उपन्यास…. ‘दैट एरोटिक साईलेंस’ {सर्वश्रेष्ठ विक्रेता}  व… ‘आन्या’ प्रकाशित हो चुकी हैं।

    अमेज़न का लिंक…. https://www.amazon.in/DrAnuj/e/B01NCU1SVW

    डा. अ‍नुज कुमार . एम.एस {हैंड सर्जन व माईक्रोसर्जन}, 53, पुरानी विजय नगर कालोनी, आगरा.282004 

    Phone: 9837000670.

    Contents

    कालका मेल

    मलाई की बरफ

    काफल का पेड़

    चौबे जी का पैन

    सिरहाने की गुफ्तगू

    उसके हिस्से की धूप

    भान गढ का मसीहा

    एहसास के पाश

    लाल कोठी

    थोड़ा रुक जाती

    सूखा फूल

    विश्वास के परिंदे

    एक सफर ऐसा भी.

    बोलती तस्वीर

    कालका मेल

    शाम लगभग छ: बजे का वक़्त था। कलकत्ता का हावड़ा रेल स्टेशन खचाखच भरा हुआ था। चारों तरफ आदम सिर ही सिर नज़र आ रहे थे। ऐसा लगता था जैसे सारे कलकत्ता वासी, शहर छोड़कर कहीं भाग जाना चाहतें हैं। दिसम्बर की गुलाबी सर्दी थी और अंधेरा भी हो चला था। धोती कुर्ता, चमड़े की चप्पल और मंकी टोपी में, बंगाली अपना होलडाल उठाये, अपने मायोपिक ऐनक से झांकते, इधर उधर भागे जा रहे थे। 

    हावड़ा स्टेशन की यह खास बात है कि यहाँ कार और गाड़ियां, प्लेट फार्म पर बिलकुल ट्रेन के बगल में आकर खड़ी हो जाती है। अंग्रेज़ों ने ये काम अपनी सहूलियत को देखकर किया था, ताकि उनको और उनकी गोरी मेंमों को गंदे और बदबूदार माहौल में ज़्यादा देर न टिकना पड़े। बस बग्गी से उतरे और सीधे ट्रेन में घुसे।

    शिमला, अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी था। इस वजह से, कलकत्ता से गोरे, गरमी और उमस से निजात पाने के लिये, शिमला भाग जाया करते थे। 

    कालका मेल, देश की सबसे पुरानी उन चुनिंदा गाड़ियों में से थी जिसमें आज़ादी से पहले, अंग्रेज़ सबसे अधिक शिरकत करते थे। ये गाड़ी कलकत्ता से कालका का सफ़र लगभग छत्तीस घंटे में तय करती थी। कालका से शिमला, सड़क वाहन से जाना होता था।

    कालका मेल, सब सहूलियतों से लैस थी। सबसे गौरवशाली भाग था उसका प्रथम श्रेणी का डिब्बा। चार बर्थ वाला कूपे में, गोरी तशरीफों को सहलाने के लिये निहायत ही मुलायम, मखमली गद्देदार सीट, बिना जंगलें की खिड़कियों पर कीमती पर्दे व ठंडी हवा फेंकते चार इम्पोर्टेड़ पंखे, मुहाइया कराये गये थे। 

    यूं तो आज़ादी को तीन वर्ष बीत चुके थे परंतु कुछ बचे खुचे अंग्रेज़ अभी भी कलकत्ता के फोर्ट विलियम में डेरा जमाये, हिंदुस्तानी मेहमान नवाज़ी का भरपूर मज़ा ले रहे थे। नेहरू जी की खुशनुमा राजनीति का ये गोरे न जाने कितने दिन और लुत्फ उठाने वाले थे।

    सात बजा चाहते थे और कालका मेल का छूटने का समय हो रहा था। तभी एक काले रंग की आलीशान रौयल्स रौयस कार, प्लेट फार्म नम्बर आठ पर आकर रुकी। सफेद परिवेश में ड्राइवर कूद कर बाहर आया और कार का पिछला दरवाज़ा खोल दिया। करीब सत्तर की उम्र का एक अधेड़ अंग्रेज़, गज़ब की फुर्ती में कार से उतरा। बेशकीमती पश्मीने का सूट पहने, विलायती फेल्ट हैट लगाये और हाथ में एक नायाब, गरम ओवर कोट लिये, गोरा फर्स्ट क्लास की तरफ चल दिया। पीछे पीछे ड्राइवर, साहब का सूट केस लिये चलने लगा। 

    गुड़ ईवनिंग सर। परिचारक अब्दुल बोला, और बड़े अदब से गोरे साहब का सामान, कूपे नम्बर एक में ले गया। अब्दुल ने साहब का ओवर कोट संभाल कर हल्के से झाड़ा, और एक कोने में खूंटी पर टांग दिया। इस कार्यकलाप से उसे एक रुपये की बख्शीश मिल गयी। वह साहब को बिठाकर कूपे का दरवाज़ा भेड़ कर चला गया।

    कूपे में गोरा अकेला था। उसे इस बात की बहुत तसल्ली थी कि कोई हिंदुस्तानी साथ में नहीं है। आज़ादी से पहले तो अंग्रेज़, जबरन अकेले यात्रा करते थे और हिंदुस्तानियों को फ़र्स्ट क्लास को छूने की भी इजाजत नहीं देते थे। उन्हें त्रितीय क्षेणी में यात्रा करनी पड़ती थी……लेकिन अब माहौल बदल चुका था। अंग्रेज़ों की बपौती यूं तो समाप्त हो चुकी थी, लेकिन पुश्तैनी दादागिरी की सुगबुगाहट अभी बाकी थी।

    गोरे साहब ने इत्मीनान से अपना सिगार सुलगाया और खिड़की का पर्दा हटाकर, धुएं के छल्ले बनाने शुरू कर दिये। इंजन ने तीन सीटी मारी और हावड़ा से रेंगना शुरू कर दिया। ट्रेन अभी स्टेशन से बाहर ही निकली होगी कि कूपे नम्बर एक का दरवाज़ा अचानक से खुला और एक शुद्ध हिंदुस्तानी भाई, भड़भड़ाता हुआ भीतर घुसा। 

    जतिन दास, चालीस साल का गबरू, गठीला, छोटे कद का, राष्ट्रीय समाज सेवा संस्था का कट्टर अनुयायी था। उसने स्वयं को आज़ादी के आंदोलन में गांधी जी के साथ झोंक दिया था। दो मर्तबा तो जेल की हवा भी खा आया था। एक अंग्रेज़ अफसर की तो उसने चौरंघी पर, तबीयत से सुतवाई भी की थी, जिस कारणवश उसे तीन महीने की हवालात हुई थी। मूल रूप से वह पटना का निवासी था परंतु आज़ादी के बाद वह कलकत्ता के बड़ा बाज़ार में रहने लगा था।  आर.एस.एस के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिये वह दिल्ली जा रहा था।  

    जतिन, खादी की धोती व कुर्ता पहने हुए था और कंधे पर गमछा नुमा शौल डाल रखा था। सबसे अद्वितीय चीज़ थी चमड़े की नई चप्पल जो जतिन पहने हुए इठला रहा था। चलते समय चप्पल, चमर चमर सी कर्कश आवाज़ कर अपने नयापन का एहसास करा रही थी। 

    कूपे में अजीब सा माहौल पैदा हो गया। दोनों प्राणी यकायक, ठिठक से गये और एक दूसरे को तीखी वहशियाना निगाह से देखने लगे। जतिन के शरीर से पसीने की भयंकर दुर्गंध आ रही थी। बंद कूपे में अंग्रेज़ ने अपनी नाराजगी, नाक पर रूमाल रखकर ज़ाहिर कर दी। 

    जतिन भी रुकने वाला कहाँ था। उसने लपक कर अपनी तरफ की खिड़की खोल दी और अपना सिर बाहर निकाल लिया, जैसे वह अंग्रेज़ की विलायती बदबू सहन नहीं कर पा रहा हो। गहरी सांस खींचकर उसने सिर अंदर किया और अंग्रेज़ को भी अपना एतराज़ जता दिया।

    नमस्कार जनाब, क्या आप दिल्ली जा रहे हैं? औपचारिकता निभाते हुए, जतिन ने अंग्रेज़ से कहा।

    नो! हम शिमला जा रहा हूँ। नाक भौंह सिकोड़कर गोरा टूटी फूटी हिंदी में, अनमने मन से बोला, और अपनी बर्थ पर फैल कर बैठा सिगार फूंकने लगा। 

    जतिन को सिग्रेट के धुएं से सख्त अलर्जी थी, परंतु वह अंग्रेज़ से उलझना नहीं चाहता था…….साले सारे अंग्रेज़ तो भाग गये लेकिन अपनी कुछ नामाकूल औलादें यहाँ हमारी छाती पर मूंग दलने के लिये छोड़ गये हैं। इनका भी तिया पांचा करना ही पड़ेगा। जतिन मन ही मन बुदबुदाता रहा।

    करीब एक घंटे पश्चात, ट्रेन, बर्धमान स्टेशन पर अचानक से रुक गयी। डिम डिम डिम, चिल्लाता हुआ एक लड़का नीचे भागा जा रहा था। जतिन को उबले अंडे बेहद पसंद थे। वह बोगी के दरवाज़े पर गया और चार अंडे खरीदकर, कूपे में आ गया।  चलते समय उसकी चमड़े की चप्पल से जो चूं चूं की आवाज़ आती थी, वह अंग्रेज़ को बहुत नागवार गुज़र रही थी। सड़ी निगाह से वह चप्पलों को देखता रहा और मन ही मन सुलगता रहा। 

    जतिन ने सीट पर आलती पालती मारकर एक तौलिया बिछाया और अपने खाकी झोले में से एक  पीतल का डिब्बा निकाला, और तसल्ली से अंडे छीलना शुरू कर दिया। तदुपरांत, डिब्बा खोलकर आलू के परांठे और आम का अचार निकाला, और कच्ची कटी प्याज़ और अंडे के साथ स्वाद ले ले कर खाना शुरू कर दिया। खाना खाते समय चपचप करने की उसकी पुरानी गंदी आदत थी।

    क्या आप शौक फरमायेंगे? जतिन ने गोरे से पूछा। गोरा चुप रहा और नाक सिकोड़ कर बैठा रहा।….. भाड़ में जा! …. जतिन खाने का मज़ा लेने लगा।

    ट्रेन में भूतपूर्व अंग्रेज़ी हुकूमत और वर्तमान हिंदुत्व का मूक, छद्म युद्ध आरम्भ हो गया। 

    अंग्रेज़ के लिये असहनीय स्थिति हो गयी थी। अंडा प्याज़ और ऊपर से अचार की दुर्गंध से उसका बुरा हाल होने लगा। उसकी भृकुटियां चढ गयीं परंतु वह हताश था। अपनी लम्बी नाक को  रुमाल में दुबकाये, जतिन की चप चप बंद होने का इंतज़ार करता रहा। जतिन भी अंगुलियां चाट कर, लज़ीज़ खाने का भरपूर आनंद लेता रहा और गोरे की बदहवासी का मज़ा लूटता रहा। आधा घंटे की पेट पूजा के बाद, जतिन उठा और चप्पल की कर्कश आवाज़ करता हुआ हाथ धोने बाहर चला गया। 

    अंग्रेज़ मन ही मन कुढ़ता रहा। उसका बस चलता तो वह जतिन को कूपे में ही सूली पर चढा देता। सफर अभी बहुत लम्बा था और बहुत कुछ झेलना बाकी था। उसने अब्दुल को बुलाकर अपना बिस्तर लगवाया और करवट लेकर सोने का बहाना बनाने लगा।

    आपका बिस्तर भी लगा दूं क्या? अब्दुल ने जतिन से पूछा। 

    नहीं, मेरे हाथ टूटे नहीं हैं जो मैं अपने आप बिस्तर भी नहीं लगा सकता हूँ। जतिन ने अंग्रेज़ की तरफ तीखा कटाक्ष करते हुए कहा। 

    थोड़ी देर राम चरित मानस पढ़ने के पश्चात, जतिन ने बत्ती बंद कर दी और सोने से पहले हनुमान चालीसा का गाकर पाठ करने लगा। जतिन की बेसुर आवाज़ से अंग्रेज़ बुरी तरह से बौखला गया। बदले की आग उसके मस्तिष्क को सुलगा रही थी और वह मौके का इंतज़ार करता हुआ सोने की कोशिश करने लगा।

    जतिन शीघ्र ही गहरी नींद में सो गया। परंतु, अंग्रेज़ की आंखों से नींद नदारद थी। एक तो उसके मन में जतिन की नागवार हरकतों की झुंझलाहट थी, ऊपर से उसकी तीव्र एवं खौफनाक खर्राटों की कर्ण भेदी आवाज़ की वजह से गोरा करवटें बदलता रहा। 

    तभी अंग्रेज़ की निगाह नीचे रखी चमड़े की चप्पल पर पड़ी । कूपे की मध्यम रोशनी में, कानपुरी चप्पल इठलाती हुई चमक रही थीं। उसका टेसू शाम से ही चप्पलों की मधुर आवाज़ में अटका हुआ था। उनकी बनावट देख देख कर गोरा चिढता रहा और जतिन को सबक सिखाने का कुविचार उसके शैतानी दिमाग में तरकीबें सोचने लगा। 

    अंग्रेज़ ने धीरे से अपनी खिड़की खोली और यकायक चप्पलों को उठाकर, बेरहमी से बाहर फेंक दिया। मासूम चप्पलें, दिसम्बर की कड़कती ठंड में, तेज़ बर्फानी हवा के नश्तर झेलते हुए, नीचे पटरियों के वीरान आगोश में समा गयीं।

    अंग्रेज़ के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसने धोखे से झांसी का किला फिर से फतह कर लिया हो। जतिन के खर्राटे अब उसे परेशान नहीं कर रहे थे। उसका जर्जर सीना दो इंच चौड़ा हो गया था। उसने करवट ली और सो गया।

    सुबह तकरीबन नौ बजे मुग़ल सराय स्टेशन आ गया। यहाँ गाड़ी का पड़ाव आधा घंटे का था। जतिन की आंख एक झटके से खुल गयी। उसने एक लम्बी सी अंगड़ाई ली और खिड़की के बाहर झांका। ओह, क्या गहरी नींद आयी…समय का पता ही नहीं चला। उसने अंग्रेज़ की तरफ़ देखा। अंग्रेज़ बाबू अखबार में अपनी आंख गढाये बैठे हुए थे। 

    जतिन ने अपने पैर नीचे किए और चप्पल तलाशने लगा। चप्पल न मिलने पर वह उठा और बर्थ के नीचे से अपना बैग सरकाकर उसके पीछे हाथ डालकर देखा। परंतु कानपुरी चप्पल वहाँ होती तो मिलती। जतिन बौखला गया, उसे लघु शंका की तीव्र तलब लगी थी। 

    तभी किस्मत का मारा,अब्दुल भीतर आ गया। सर, क्या आपके लिये चाय लाऊं? बड़ी शालीनता के साथ उसने जतिन से पूछा।…… चाय मेरा सिर, ये बता मेरी चप्पल कौन चुरा कर ले गया यहाँ से?

    अब्दुल हक्का बक्का रह गया। ये उसके ऊपर, सरासर चोरी का इल्जाम था। सर,  अल्लाह कसम, मैं तो यहाँ बस अभी  आया हूँ, इन साहब के बुलाने पर….. अब्दुल ने अंग्रेज़ की तरफ इशारा किया। सर, मुझे इस ट्रेन में चार साल हो गये हैं, परंतु आज तक यहाँ किसी भी तरह की चोरी नहीं हुई है….. आपने चप्पल इधर उधर रख दी होगी"। यह बोलकर अब्दुल सामान उठाकर चप्पल देखने लगा। यहाँ तक कि अंग्रेज़ की परवाह किए बगैर अब्दुल ने उसका भी सूट केस खिसकाकर देखा।

    अब मैं क्या नंगे पैर मूतने जाऊंगा? जतिन बड़बड़ाया….. मेरे पास और कोई जूता भी नहीं है

    अंग्रेज़, चुपचाप सब तमाशा देख रहा था। उसकी कुटिल आत्मा को नितांत सुख की अनुभूति हो रही थी, और वह अपनी चपलता और मक्कारी का भरपूर लुत्फ ले रहा था। जतिन के चेहरे की शिकन, अंग्रेज़ की फतह का फरमान था। रात भर की कुढ़न और जलन का उसने एक झटके में बदला ले लिया था।

    अखबार के पीछे से अंग्रेज़ ने जतिन की बद हवासी का मज़ा लेने के लिये ज़रा सा झांका ही था कि जतिन उसके चेहरे की कुटिल मुस्कान को ताड़ गया। ज़रूर दाल में कुछ काला है….. ये पठ्ठा मेरी मजबूरी पर मुस्करा रहा है….. कुछ इसकी ही कारस्तानी लगती है

    अब्दुल बहुत ही सीधा और सुलझा हुआ इंसान था। वह भाग कर गया और हाथ में एक पैकेट ले आया। आप जब तक मेरी जूतियां पहन लीजिये। शायद थोड़ी बड़ी होंगी आपके…. सर, ये एक दम नई हैं, अभी कलकत्ता से ली थीं…. आपका काम चल जायेगा। 

    जतिन का दिल पसीज गया। उसने अब्दुल के कंधे पर प्यार से हाथ रखा। तुम बहुत नेक दिल इंसान हो। जूतियां पहनकर जतिन बाहर गया और थोड़ी देर में वापस आ गया। 

    अंग्रेज़ बड़े चाव से ड़बल रोटी और आम लेट का मज़ा ले रहा था। अब्दुल, हाथ में कौफी की केतली लेकर, घरेलू खानसामा की तरह, गोरे की खिदमत में जुटा था।

    अब्दुल, साहब से पूछ ले शायद वह तेरे हाथ से कौर तोड़कर खाना पसंद करें। जतिन के इस बेहूदा कटाक्ष पर अंग्रेज़ को गुस्सा आया पर वह चुप चाप खाता रहा।   

    जतिन को भी भूख लग आयी थी। पेट से अधिक भूख उसे गोरे की टांग खींचने की लग रही थी। उसने अपना रात का बचा खुचा परांठा और अचार निकाला, और बीच की छोटी मेज़ पर, अंग्रेज़ की प्लेट को बड़ी बेदर्दी से सरकाते हुए अपना पीतल का डिब्बा टिका दिया। अंग्रेज़ से यह बदतमीजी बर्दाश्त नहीं हुई।

    टुमको डिक्ता नई कि हम इड़र खाटा हूँ?..... राट से टुम हमको ट्रबल करटा रहा…. हम टुमारा कम्पलेन करेगा…. टुमारा ये ड़र्टी डिब्बा भी हम, टुमारा चप्पल की टरह से, बाहर फेंक डेगा।….. अंग्रेज़ एक सांस में अपनी पोल खोल बैठा।

    जतिन को तो पहले से ही शक था कि चप्पल का राज़ अंग्रेज़ के हलक में छिपा है। उसने अंग्रेज़ का हाथ कस कर पकड़ा, बता मेरी चप्पल कहाँ है?……. गोरा भी आग बबूला हो गया….. टुमारा चप्पल बाहर की हवा खाने का वास्ते खिड़की के बाहर गया है

    जतिन का बस चलता तो वह अंग्रेज़ को वहीं नेस्तनाबूद कर देता। परंतु अब्दुल, महात्मा गांधी बनकर बीच में कूद गया। अपने अहिंसावादी हाथों से उसने बीच बचाव कर दिया। सर, आपको अल्लाह का वास्ता, आप शांत हो जायें।….उसने जतिन के आगे हाथ जोड़ दिये। 

    हिंदुस्तान और इंग्लिस्तान की सुलह करवाने को, पाकिस्तान हाथ जोड़े खड़ा था…. ये भी देखने लायक नज़ारा था।

    जतिन खून का घूंट पीकर शांत हो गया और अपना नाश्ता करने लगा। 

    थोड़ी देर में, ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया। 

    बाहर बला की ठंड थी परंतु भीतर, दो मुल्कों की एकल सेना, मस्तिष्क में लावा स्वरूप, धधकती ऊष्मा संजोए,  गुत्थम गुत्था को आतुर थीं। अब्दुल बहुत सजग था और वह समझ गया कि दोनों को सम्हालना अब नामुमकिन है। इसलिये वह कूपे का दरवाज़ा

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