Hindutva Ki chetana ke Swar (हिंदुत्व की चेतना के स्वर)
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Hindutva Ki chetana ke Swar (हिंदुत्व की चेतना के स्वर) - Dr. Rakesh Kumar Arya
जीवन
अध्याय 1
वेद : हमारी चेतना के मूल स्रोत
वेद, सृष्टि का पहला ग्रंथ है। इसे आदि संविधान के नाम से भी जाना जा सकता है। वास्तव में संसार चक्र को चलाना और इसकी अनजानी अनेकों उलझनों को या गुत्थियों को सुलझाने के सारे उपाय सृष्टि प्रारंभ में ईश्वर ने वेद के माध्यम से मनुष्य को प्रदान किये। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन सनातन मूल्यों के ध्वजवाहक हैं। यही वेद ग्रंथ हैं जिनके माध्यम से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है। भारतीय चेतना को हर क्षेत्र में जागृत रखने और उसके माध्यम से विश्व के लोगों का मार्गदर्शन करने का सफलतम कार्य वेदों ने ही किया है।
‘वेद’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से हुई है। इस प्रकार वेद का शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ है। इसी धातु से ‘विदित’ (जाना हुआ), ‘विद्या’ (ज्ञान), ‘विद्वान’ (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि भारतीय चेतना मूल रूप में ज्ञान से जुड़ी है। चेतना का ज्ञान से जुड़ जाना व्यक्ति के सार्वत्रिक कल्याण का सूचक होता है। इसका अभिप्राय होता है कि अब उसके पास एक ऐसा ज्ञान - विज्ञान है जो उसे प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ाने का कार्य करेगा। वेदों ने भारत का इसी प्रकार मार्गदर्शन किया। यहां पर हम जब वेद और भारत की बात कर रहे हैं तो समझना चाहिए कि संपूर्ण भूमंडल के निवासियों का मार्गदर्शन वेदों ने किया। संपूर्ण संसार के लोगों में आज तक भी जहां-जहां पर परिवार जैसी संस्था काम करती हुई दिखाई देती है या सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में एक सुव्यवस्था काम करती हुई दिखाई देती है, वह सारी की सारी वेदों की देन है। क्योंकि वेदों ने प्राचीन काल में संपूर्ण भूमंडल पर एक ऐसी सुव्यवस्थित सभ्यता का विकास करने में सहयोग किया था जिसने वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया। इस प्रकार वेद न केवल भारत के अपितु संपूर्ण संसार के लोगों की चेतना के मूल स्रोत है। हरिऔध जी ने ठीक ही कहा है :-
सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के।
विविधा-ज्ञान आधार, रसायन हैं अचला के।
सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर।
हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर।
परम खिलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद हैं।
भव-सागर के सेतु ए जगत उजागर वेद हैं।1।
जब सारा संसार अचेतन पड़ा हुआ था।
निज पाँवों पर जीव नहीं जब खड़ा हुआ था।
रहा जिन दिनों अंधकार भूतल पर छाया।
जब न ज्ञान रवि-बिम्ब निकलने भी था पाया।
तभी प्रगट हो जिन्होंने बतलाये सब भेद हैं।
वे ही सारे लोक के दिव्य विलोचन वेद हैं।2।
मूल रूप में तो वेद एक ही है, परंतु सुविधा की दृष्टि से इन्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में चार वेदों के रूप में जाना जाता है। ऋग्वेद चारों वेदों में सबसे प्राचीन वेद है, जिसके मंत्रों की संख्या लगभग साढ़े दस हजार है। इसका मूल विषय ज्ञान है। यजुर्वेद में कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं। जबकि सामवेद का प्रमुख विषय उपासना है। यह वेद संगीतमय है, जिसके कुल मंत्रों की संख्या 18 75 है। अथर्ववेद इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 पद्यात्मक मन्त्र हैं।
वेदों को अपौरुषेय माना जाता है, क्योंकि इन्हें सृष्टि के प्रारंभ में ईश्वर ने ही अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा जैसे महान तपस्वी ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट किया। ईश्वरप्रदत्त यह ज्ञान श्रुति परम्परा के माध्यम से हमारे ऋषियों के द्वारा आगे बढ़ना आरंभ हुआ। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने वेद ज्ञान को अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से प्राप्त किया। श्रुति का अर्थ है ‘सुना हुआ ज्ञान’।
श्रुति के पश्चात हमारे ऋषियों ने वेद ज्ञान को अपनी स्मृति में सुरक्षित रखा। उसके आधार पर उन्होंने जिन ग्रंथों की रचना की, उन्हें हम स्मृति के रूप में ही जानते हैं। इस प्रकार वेद की भांति स्मृतियां भी आर्ष ग्रंथों की श्रेणी के ग्रंथ हैं। वेदों के छह अंग हैं जिन्हें हम शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छंद और ज्योतिष के नाम से जानते हैं। हमारे 6 दर्शन हैं। जिनमें पूर्व मीमांसा, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, योग दर्शन, सांख्यदर्शन और वेदान्त के नाम उल्लेखनीय हैं। जबकि ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर ये 11 उपनिषद हैं। इनको पढ़कर कोई भी विद्यार्थी जीवन और जगत की सारी गूढ़ समस्याओं का समाधान पा लेता था और उसे अपने जीवन को बहुत सहज व सरलता के साथ जीने का हुनर आ जाता था।
हमारे यहां पर ऐसे अनेकों ऋषि महर्षि हुए, जिन्होंने जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया। उनके तप, त्याग, तेज और प्रताप के कारण आर्य संस्कृति विश्व की महानतम संस्कृति के रूप में स्थापित हुई। अनेकों पीढ़ियों तक ऋषि महर्षियों के त्याग, तप व साधना के कारण भारत आगे बढ़ता रहा। इनके जाने के उपरांत भी इनके तेज व तप ने भारत का हजारों लाखों वर्ष तक मार्गदर्शन किया। जिस कारण वेद, वैदिक ज्ञान और वैदिक संस्कृति भारतीय चेतना के मूल स्त्रोत बने।
वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के ऐसे ही ऋषि थे जिन्होंने अपने तेज और त्याग से भारतीय संस्कृति के निर्माण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यूरोप के विद्वानों ने वेदों में आए कुछ शब्दों को पकड़कर भारतीय इतिहास को वेदों में ढूंढ़ने का वैज्ञानिक और तार्किक प्रयास किया है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया है कि वे अपने यहां का इतिहास अपने पौरुषेय ग्रंथों में ढूंढ कर सफल हो जाते हैं। वे इस बात को समझ नहीं पाए कि भारत का वैदिक ज्ञान अपौरूषेय है।
वेदों का महत्त्व
हमारे वेदवेत्ता विद्वानों ने जब उपनिषद या दर्शन शास्त्रों की या स्मृतियों जैसे आर्षग्रंथों की रचना की तो उनमें उनका वैदिक ज्ञान और उसका दर्शन स्पष्ट झलकता है। इतना ही नहीं रामायण और महाभारत जैसे इतिहास ग्रंथों में भी विद्वान लेखकों का वैदिक दृष्टिकोण और उनके वैदिक चिंतन की उदात्त भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है। जिनके अध्ययन अध्यापन से कोई भी यह सहज ही अनुमान लगा सकता है कि भारत के इतिहास को भी वैदिक ज्ञान ने कितनी गहराई तक प्रभावित किया है?
पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहां जाता है। इतिहास (महाभारत), पुराण आदि ग्रन्थ भी वैदिक ज्ञान की छाया से अछूते नहीं रह पाए। कई स्थलों पर वैदिक ज्ञान पुराणों में भी इतना स्पष्ट परिलक्षित होता है कि पाठक उन्हें वेद का ही एक अंग मानने को बाध्य सा हो जाता है। यद्यपि पुराणों में अधिकांश बातें अवैज्ञानिक, अतार्किक और सृष्टि नियमों के विपरीत घुसेड़ने का कुछ लोगों ने वेद विरुद्ध आचरण किया परंतु इसके उपरांत भी वेदों में इतिहास ढूंढ़ने में हमें बहुत अधिक सहायता मिलती है।
वेदों के प्रकांड पंडित महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है। जिन लोगों ने वेदों में मूर्ति पूजा का विधान बताया उनके इस कुतर्क को भी महर्षि दयानंद ने अमान्य सिद्ध कर दिया। जब उन्होंने वेदों के विषय में ऐसे लोगों को खुली चुनौती दी कि कहीं पर भी वह वेद में मूर्ति पूजा का विधान नहीं बता सकते।
कणाद ने कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का आदि स्रोत कहकर महिमामंडित किया है। संसार में राजनीतिक व्यवस्था को सबसे पहले स्थापित करने वाले और संसार को सबसे पहला लिखित संविधान देने वाले महर्षि मनु ने वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - कहकर सम्मान प्रदान किया है। वैदिक शिक्षा के अध्ययन से हमें अपने प्राचीन इतिहास का तो नहीं, परंतु अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान की पराकाष्ठा को देखकर उनकी संस्कृति और सभ्यता का बोध अवश्य होता है। हमें पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में वेद और वैदिक शिक्षाओं को ग्रहण कर कितने बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित किए और किस प्रकार संसार का मार्गदर्शन किया?
विश्व को एक आदर्श राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था देने में वेदों की महत्ता को स्वीकार करते हुए ही संसार के विभिन्न विद्वानों ने इस बात को सहर्ष स्वीकार किया है कि वेद ही संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इतना ही नहीं कितने ही विद्वानों ने इस बात को भी स्वीकार किया है कि वेदों की शिक्षाओं के सामने संसार के अन्य देशों के ग्रंथों की शिक्षाएं कुछ भी मायने नहीं रखते।
वेदों की भाषा संस्कृत ही आज के विश्व की सभी भाषाओं की जननी है। संस्कृत के अनेक शब्द संसार की सभी भाषाओं में यंत्र-तंत्र बिखरे पड़े हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत ही किसी ना किसी भाषा या बोली के रूप में सारे विश्व का आज भी मार्गदर्शन कर रही है। यूनेस्को ने 7 नवम्बर, 2003 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया।
वेद सृष्टि के ऐसे सबसे पहले ग्रंथ हैं जिन्होंने मानव की स्वतंत्रता के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी के जीवन की सुरक्षा को भी अपनी शिक्षाओं का मौलिक उद्देश्य घोषित किया है। वेद ने कहीं पर भी ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी जिनसे किसी भी प्राणी के जीवन को संकट उत्पन्न होता हो। वेदों ने मनुष्य द्वारा जब किसी अन्य जीवधारी के प्राण हरने को ही अनैतिक और अनुचित माना है तो उसे किसी व्यक्ति के द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण कराने को न्यायसंगत ठहराने की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। यही कारण है कि वेद ने व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण या किसी समूह द्वारा या किसी संप्रदाय द्वारा किसी व्यक्ति या समूह या संप्रदाय के शोषण की कोई शिक्षा नहीं दी। इस प्रकार वेद की शिक्षाएं वास्तव में पंथनिरपेक्ष मानव का निर्माण करती है।
इन्हीं गुणों से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है और इन्हीं गुणों ने भारत की मौलिक चेतना का निर्माण किया है। यही कारण है कि भारत ने कभी भी किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों के अतिक्रमण का समर्थन नहीं किया
इसी प्रकार अनेकों संप्रदायों को भी साथ लेकर चलने का अनोखा और सफल प्रयास भारत की संस्कृति ने किया है। हमने सृष्टि प्रारंभ में वेद की शिक्षाओं के माध्यम से इन संस्कारों को अपने मानवीय और वैश्विक संस्कारों में सम्मिलित किया। इन्हीं मानवीय वैश्विक संस्कारों के आधार पर अपनी भारतीय संस्कृति का निर्माण किया। जिससे भारतीय संस्कृति किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित ना होकर वैश्विक संस्कृति बनी। इसी वैश्विक संस्कृति ने स्वाभाविक रूप से विश्वगुरु का सम्मान प्राप्त किया और सारे संसार के लोगों को अपनी अमृत वर्षा से सराबोर कर उनके जीवन को धन्य किया।
वेदों का अरब में भी था भारी सम्मान
प्राचीन अरबी काव्य-संग्रह ‘शायर-उल्-ओकुल’ में एक महत्त्वपूर्ण कविता है। इस कविता का रचयिता ‘लबी-बिन-ए-अख्तर-बिन-ए-तुर्फा’ है। यह मुहम्मद साहब से लगभग 2300 वर्ष पूर्व (18वीं शती ई.पू.) हुआ था। इतने लम्बे समय पूर्व भी लबी ने वेदों की अनूठी काव्यमय प्रशंसा की है तथा प्रत्येक वेद का अलग-अलग नामोच्चार किया है-
‘अया मुबारेकल अरज युशैये नोहा मीनार हिंद-ए।
वा अरादकल्लाह मज्योनेफेल जिकरतुन।।1।।
वहलतजल्लीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्रसूल बिनल हिंदतुन।।2।।
यकूलूनल्लहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेवेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मानम योनज्वेलतुन।।3।।
वहोवा आलमुस्साम वल यजुरम्निल्लाहे तनजीलन।
फए नोमा या अरवीयो मुत्तवेअन मेवसीरीयोनजातुन।।4।।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।।5।।’
अर्थात्, हे हिंद (भारत) की पुण्यभूमि! तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझे चुना।।1।। वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश जो चार प्रकाश-स्तम्भों (चार वेद) सदृश सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है। यह भारतवर्ष में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुए।।2।। और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान हैं, इनके अनुसार आचरण करो।।3।। वे ज्ञान के भण्डार ‘साम’ और ‘यजु’ हैं, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए हे मेरे भाइयो! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं।।4।। और इनमें से ‘ऋक्’ और ‘अथर्व हैं, जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते हैं, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अंधकार को प्राप्त नहीं होता।।5।।
वेदों के बारे में इस अरबी कवि के इस प्रकार गुणगान करने से पता चलता है कि कभी हमारे चारों वेद संपूर्ण भूमंडल में सम्मानित स्थान प्राप्त किए हुए थे। इन पंक्तियों से यह भी पता चलता है कि वेदों के ज्ञान की प्रमाणिकता के सामने संपूर्ण भूमंडल के निवासी नतमस्तक हुआ करते थे और भारत की पवित्र भूमि को शीश झुकाने में गौरव अनुभव करते थे।
वेदों की राजनीतिक शिक्षाएं
वेदों का भारत की राजनीति पर प्राचीन काल से ही बहुत गहरा प्रभाव रहा है। प्रजा राजा के प्रति श्रद्धालु इसलिए रहती थी कि वह राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानती थी और राजा इसलिए जनता में लोकप्रिय बने रहने का प्रयास करता था कि वह ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप को ध्यान में रखकर उसके अनुसार आचरण करना अपना राजधर्म घोषित करता था। यजुर्वेद में राजा के लिए विधिवत नियम बताए गए हैं। ये नियम कहते हैं कि राजा प्रजा के पालन के लिए सिंह आदि हिंसक पशुओं तथा चोर, डाकू इत्यादि दुष्टों का वध करके या उन्हें दंडित करके प्रजा की सुरक्षा करें। जो राजा प्रजा की सब प्रकार से रक्षा नहीं कर सकता, उसे राजा के पद के लिए अयोग्य कहा गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजा अपने पद पर तभी तक बने रहने योग्य है जब तक वह प्रजा की सर्व प्रकार से रक्षा करने में समर्थ है। यदि वह अपने इस राजधर्म के निर्वाह में कहीं चूक करता है या प्रमाद का प्रदर्शन करता है तो उसे पदच्युत करने का अधिकार भी जनता के पास रहता था। वास्तव में यही सच्चा लोकतंत्र होता है।
अथर्ववेद के अनुसार जब अग्नि के समान तेजस्वी राजा लुटेरों, डाकुओं तथा चोरों को अपने अधीन करता है, दुष्टों को दंड देता है तथा उत्पातियों को कारागार में डाल कर दंडित करता है, तभी राज्य में शांति फैलती है और प्रजा भयमुक्त तथा आनंद युक्त होती है। यदि राजा चोर, डाकू व आतंकवादियों के सामने निरीह हो जाए या अपने आप को असहाय और असुरक्षित अनुभव करे तो ऐसे राजा को राज्य करने का अधिकार नहीं होता। राजा वही हो सकता है जो इन असामाजिक तत्वों का दलन और दमन करने में समर्थ हो और प्रत्येक प्रकार से शक्ति संपन्न हो।
यजुर्वेद में ही कहा गया है कि राजा को चाहिए कि वह सदा अपनी सेना को सुशिक्षित और हृष्ट-पुष्ट रखे और जब शत्रुओं से युद्ध करना हो तब राज्य को उपद्रवों से रहित करके युक्ति और बल से शत्रुओं का संहार करे। इस प्रकार राजा सबका रक्षक हो। वास्तव में राजा से ऐसी अपेक्षा करने का अभिप्राय यह है कि उसे भारत में ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। जैसे ईश्वर अपने आप में सर्व सामर्थ्ययुक्त है, वैसे ही राजा को भी सर्वसामर्थ्ययुक्त होना चाहिए। राजा को अपने राज्य में ऐसा परिवेश सृजित करना चाहिए कि उसकी प्रजा सर्वतोन्मुखी उन्नति कर सके और प्रत्येक प्रकार से सुखचैन अनुभव करे।
राजा के आश्रय में प्रजा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करती है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करना व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है। आत्मिक, शारीरिक और मानसिक उन्नति इसी को कहा जाता है। हमारे देश के वर्तमान संविधान में देश के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक देने की बात करता है। वास्तव में यह विचार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चिंतन से बहुत छोटा है।
वेदों में अपराधी को दंड देने के नियम भी बताए गए हैं और हमारे पौराणिक राजाओं ने धर्मार्थ उनका पालन किया है। महाभारत में इसका एक उदाहरण है। शंख और लिखित दो भाई थे। एक बार शंख अपने भाई लिखित से मिलने उसके निवास पर गया, परंतु लिखित उस समय वहां नहीं था। शंख भाई की प्रतीक्षा करता रहा। कुछ समय उपरांत उसे भूख लगी। उसने अपने भाई के बाग से फल तोड़कर खाना प्रारंभ किया।
उसी समय लिखित वहां आ गया। छोटे भाई को बिना अनुमति फल तोड़ कर खाते देख कर उसने कहा कि बिना आज्ञा कोई वस्तु लेना चोरी है। इस पर शंख ने कहा कि यदि मैंने चोरी की है तो फिर आप मुझे इस चोरी का दंड भी दो भ्राता श्री। तब लिखित ने कहा कि किसी भी अपराध का दंड देना राजा का कार्य है। इसलिए आपको राजा के पास जाकर ही अपने किए हुए कार्य का दंड प्राप्त करना चाहिए। तब शंख राजा के पास जाकर अपने लिए दंड प्राप्त करता है।
दंड प्राप्त करने और दंड प्रदान करने की यह प्रक्रिया सबसे अनोखी है। इसमें व्यक्ति मनसा पाप को भी अपने लिए वर्जित समझता है। जब मनुष्य स्वयं अपने आप को दंड देने की स्थिति में आ जाता है तब ही धर्म का शासन स्थापित हो पाता है। वेद इसी प्रकार के धर्म के शासन को स्थापित करने